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________________ राष्टिकांड % - - - - - - - - -- - - - - को कहां से मिलगये ? सचमुच स्वत्वमोह से कालमोह (ललोमुहो) मनुष्य इतना विचारशून्य होजाता है कि उसमें किसी बात को अमुक काल का होने के साधारण समझदारी के दर्शन भी दुर्लभ होजाते कारण ही सत्य या ठीक सममाना कालमोह है। हैं। यह धानकतासे श्रेयोपहरण करने लगता है। सत्य को उसकी उपयोगिता अर्थात् कल्याण बहत से लोगो का स्वल्लमोह इतना प्रबल कारकता की दृष्टि से ही परखना चाहिये । प्राची. रहता है कि वे तब तक किसी युगसत्य को अप. नता या नवीनता की दृष्टि से नही। दोनो तरह नाने को तैयार नहीं होते अव तक उसपर उनके का-प्राचीनता का और नवीनता का मोह सत्य देश जाति धर्म आदि के नाम की छाप न लग दशेत में बाधक है। जाय। वे यह भूल जाते हैं कि जो सत्य मनुष्य- माचीनता मोह (लूवो मुहो) मात्र के लिये है उसपर किसी खास जाति धर्म प्राचीनता मोही उचित-अनुचित का विचार था देश की छाप लगाने से वह सब के काम का नहीं करता। वह प्राचीनता के नाम से किसी न रहेगा । यद्यपि उसे नाम तो देना ही पड़ता है बात को ठीक समझ लिया करता है। इसलिये पर उसपर अमुक देश जाति धर्म का नाम देना सत्य जब युग के अनुसार किसी नये रूप में उस युगसत्य को संकुचित कर लेना है। इसलिये आता है तब प्राचीनता मोही उसका अपमान : उसे ऐसा नया नाम देना चाहिये जो किसी को करता है । और पुराना रूप अब विकृत। दूसरे का न मालूम हो। होकर असत्य बनजाता है तब मी उससे चिपटा । इस स्वत्वमोह का ही परिणाम है कि रहता है । इस प्रकार वह सत्य का भोजन नहीं मनुष्य अपनी मृत वस्तुत्रो, मृत रूढ़ियों, मृत- . कर पाता और असत्य रूप मल (जोकि किसी सम्प्रदायों के नामपर लाखो की सम्पत्ति खर्च समय भोजन था) का त्याग नहीं कर पाता। इसप्रकार प्राचीनता मोह उसके जीवन को बर्याद . करता है, पर जीवित धर्म पर नपेक्षा करता है। इससे उसका जीवन और धन व्यर्थ जाता है और करता है। इस विषय में एक वैधजी की कथा है। जगत मी कल्याण से वञ्चित रहता है। प्राचीनतासोही वैध (लूकोमुहिर थिचर) इसप्रकार स्वत्वमोह के कारण मनुष्य एक बार एक वैद्यजी के मित्र श्राये । वेदजी अपनी उपेक्षकता से घर आये हुए या सामने प्राचीनतामोही थे और उनके मित्र थे सुधारक ।। आये हुए सत्य के दर्शन से वञ्चित रहता है, मित्रजी का कहना था कि युग के अनुसार सुधार, सत्य का विरोध करके अपने पैरोपर आप करना जरूरी है। भले ही कोई बात किसी युग कुल्हाड़ी मारता है, भूट की वकालत करके जीवन में अच्छी रही हो परन्तु आज अगर उसका उप. की बीमारियों से चिपटा रहता है, सत्यसेवका योग नहीं है तो उसका त्याग ही कर देना चाहिये। की सेवा पर उपेक्षा करके एक तरह की कृतघ्नता अपने समय पर वह अपना काम कर चुकी ५ का परिचय देकर प्रगति के विषय में अज्ञानी नि:सार होनेपर उसका रखना व्यर्थ है। धनता है. कभी सत्यसेवकों या उपकारियों के उप- वैद्य जीका काना था--जो अच्छा है । कार पर जबर्दस्ती अपनेपन की छाप मारकर अच्छा ही है । वह बुरा क्या होगा? बुरा है एक तरह की उौती करता है, सन्त में यहा तक तो हमारे पुरखे. जो हमसे होश्यार थे, क्योह" होता है कि सत्य की महत्ता का पूरी तरह पता दे जाते ? लगडाने पर भी वह सत्य को अस्वीकार कर मित्रजी ने बद्धत समझाया कि सोय. जीवन असफल बनाता है। इन सब बातो से पुरखों के जमाने में अच्छी थी वह अपना कार कहना पड़ता है कि स्वत्वमोह सत्येश्वर के दर्शन कर चुक्नेपर परिस्थिति बदलने पर नि.सी में बडी भारी बाधा है। वेचार हो सकती है।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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