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________________ दूसरे को उपवास करना स्वोपमता नहीं है, है यह कि हम अगर नीरोग होते और भूखे होते तो हम क्या चाहते वही दूसरे को देना चाहिये। प्रभु जगत से गुणी अल्पगुणी दुर्गाशी दिधनेक तरह के प्राणी हैं उन सब को अगर पते सम्म समझा जाय तो सब को बराबर ममता पड़ेगा। पर यह तो धन्धेर ही हुया गर उनकी बराबर न समझा जाय तो स्वोपमता स रहेगी ? । उत्तर - स्वोपमता के लिये सच को एक न समझने की जरूरत नहीं है किन्तु योग्यताकुमार ममकने की जरूरत है। जैसे हम चाहते योग्यता की अवहेलना न हो उसी मगर यह भी समझना चाहिये कि दूसरों की याको वहुलना न हो । यही स्वोपमता है। जगरसेवक और स्वार्थी को एक समान सममना स्वोपमता नहीं है। पर अपने समान सभी कोप न्याय देना स्वोपमता है। 1 प्रतिपक्ष न्याय देना एक प्रकार से क्य है क्योंकि अगर हम अपनी उन्नति करते १. का भी दूसरों के साथ अन्याय करते हैं। बड़े ना ना श्रीमान बनाना एक प्रकार स के साथ अन्याय है क्योंकि इससे परहता है। हा दूसरे से बढ afant है वहा स्थोपमता कैस सती है? रह उत्तर--समभाव या स्वोपमता से मनु का विकास नहीं रुकता और न उचित विमान के ऊपर चोक होता हो रहे हो अपनी पेरिया सामूहिक विपति से छुटकारा पाना बुद्धिमान परोष हमारी विपत्ति दूर करने fast वोन होता उसमे अपने की महोगे। सेवा पर ता है उससे को आनन्द ही मिलता है। इस महत्ता का मूल स्त्रोपभता है। जैसे हम चाहते हैं कि विपत्ति में हमें कोई सहारा दे, अधेरे मे रास्ता बताये, उसी तरह दुनिया भी चाहती है तब हम दुनिया के लिये अपनी शक्ति का उपयोग करते हैं तो उसको चाह पूरी करते हैं। इसमें दुनिया पर बोझ क्या ? नहीं. और अधिकार यश र सम्पत्ति डा, जहा मनुष्य दुनिया को कुछ देता तो आदि पाजाता है तब यह अवश्य दुनिया को वो हो जाता है। इसमें स्वोपमता का नाश भी होता है । है जैसे हम नहीं चाहते कि हमें कुछ सेवा दिये बिना कोई हमसे आदर य विनय पूजा आदि के रूप में ले जाय उसी प्रकार दूसरे भी चाहते हैं। ऐसी हालत में हम अगर जनता से छल बल से धन यश आदर पूजा अधिकार की लूट कर लेते हैं तो यह जनता अन्याय है, स्वोपमता का अभाव है। talyaat या भाव न तो कोई अन्धेरशाही है न अविवेक है, न इसमें विकास की पर रोक है, इसमें तो सिर्फ अपने न्यायोचित ही दूसरों के लिये रखने की बात है। विश्व अधिकारों के लिये जैसी भावना रहती है वैसी कल्याण के विचार का भी खयाल रखना आव श्यक है। संयम या चारित्र का वर्णन व्यक्तिसमभाव का विशेष भाष्य मना चाहिये। योगी में संगम का मूल यह व्यक्तिसमभाव होता ही है। ५ अवस्था - समभाव ( जिज्जो सम्मभावो ) great पो निशानी योगी जीवन की अन्तिम श्रेणी यह अवस्थासमभाव है। यद्यपि सुख दुःख का सम्बन्ध वाह्य परिस्थितियों से है फिर भी अवस्था समभावी बाहर परिस्थिनियों पर प्रभाव मनपर नहीं पड़ने देता। वह बाहर के दुख मे भी शान्त रहता है और बाहर से भी शान्त रहना है, t
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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