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________________ हाटकाड [१८१] - - - . अवस्थासमभाव तीन तरह का होना है भावना, अद्वैत भावना आदि नाना तरह की सात्विक, राजस, तामस। योगी का ससमाव' भावनाएँ है। सात्विक होता है। नाट्यमावना (नटभावो)- एक सुपात्र ___ सात्विक ( पुमोपेर)-जिस समभाव मे नाटक में कभी राजा बनता है कभी भिखारी दुःखकारणो पर मोह नही होता, जीवन को बनता है कभी जीतता है कभी हारता है पर नाटक एक खेल समझकर सुखद ख को शान्तता से क खिलाडी का ध्यान इस बात पर नहीं रहता। .. सहा जाता है, जिस का मूल मन्त्र रहता है वह जीतने हारने की चिन्ता नहीं करता वह तो सिर्फ यही देखता है कि मैं अच्छी तरह खेलता दुःख और सुख मन को माया। हूँ या नहीं ? इसी प्रकार जीवन भी एक नाटक मनन ही संसार बसाया । है इसमें किसी से वैर और मोह क्यो करना मन को जीता दुनिया बीती हुआ भवोदधिपार चाहिये। यह तो खेल है। दो मित्र भी विरोधी नहीं है दूर मोक्ष का द्वारा बनकर खेल खेलते हैं तो क्या उनमे बैर होजाता गज्ञस (घुवोपेर)- राजस श्वस्थासमभाव है। पति पत्नी भी आपस में शतरंज चौपड़ मे एक जोश या उत्तेजना रहती है। वह मारने आदि के खेल खेलते हैं और एक दूसरे को जीतना की आशा में मरने से भी नहीं डरता, गिरी हुई चाहते हैं तो क्या गैर हो जाता है। अपने प्रतिपरिस्थिति में वह शान्तता से सब सहता है पर द्वन्दियों को खिलाड़ी की तरह प्रेम की नजर से हाय निवर नहीं होता। जरा उंची श्रेणी के देखो। सच्चे खिलाड़ी जिस प्रकार नियम का योद्धाओ में यह भाव पाया जाता है। भंग नही करते भले ही जीत हो या हार, इसी तामस (घुमोपेर )- यह जड़ तुल्य या पशु- ही जीत हो या हार । नास्त्यभाषना ऐसी ही प्रकार जीवन में भी नीति का भंग मत करो भले तुल्य प्राणियों में पाया जाता है। इसमें न तो मला संयम है न वीरता, एक तरह की जड़ता है। प्रश्न-खेल में प्रतिस्पर्धा होने पर भी जो इसमें अपनी विवशता का विचार कर अन्याय या अत्याचार सहन कर लिया जाता है। अन्याय मन मे मित्रता रहती है उसका कारण यह है कि और अत्याचारी का भी अभिनन्दन किया जाता खेल के बाहर जीवन मित्रतामय रहता है उसका है। इसका सन्न रहता है । ध्यान हमें बना रहता है, खेल के पहिले और पीछे कोउ नृप होय हमे का हानी। हमे व्यवहार भी जैसा करना पड़ता है, पर जीवन का खेल तो ऐसा है जो जीवनभर रहता है उसके चेरि छोड़ होक्न नहिं रानी ॥ आगे पीछे का सम्बन्ध तो हमें ज्ञात ही नहीं पराधीन देश के गुलामी मनोवृत्ति वाले मनुष्यो रहता जिसके स्मरण से हम जीवन का खेल में यही तामस समभाव पाया जाता है। जानवरों मित्रता के साथ खेल सकें। पतिपत्नी दिनरात । में या जानवर के समान मनोवृत्ति रखनेवाले प्रेम से रहते हैं इसलिये घड़ी दो घड़ी को मनुष्यों में भी यही समभाव होता है। खिलाड़ी बनकर प्रतिस्पर्धी बन गये तो दिनमर ___ सात्रिक समभाव संयम पर, राजस सम- के सम्बन्ध के कारण घडी दो धड़ी की प्रतिस्पर्धी भाव साहस पर, तामस समभाव जडतापर निर्भर विनोद का रूप ही धारण करेगी परन्तु जीवन है। योगी सात्विक समभावी होता है। का खेन तो जीवन भर खलास नहीं होता तब इस सात्विक समभाव को स्थिर रखने के खेल के बाहर का समय हम कैसे पा सकते हैं लिये नाट्यमावना, क्षणिकत्व भावना, लघुत्व जब समभाव आदि रहे। 'जीवनभर खेलना है भावना, महत्व भावना, अनृणत्व भावना, कर्मण्य तो खिलाडी की तरह लड़ना झगडना भी है यहाँ
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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