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*' वैभत्रभक्त ( धूनोगक्त )-घन वैभव होने में किसी की भक्ति का वैभवभक्ति है। वैभत्र भक्ति का परिणाम यह है कि मनुष्य हर तरह बेईमानी से धनी बनने की कोशिश करता है। धन जीवन के लिये आवश्यक चीज है और इसी निये अधिक धनसंग्रह पाप हैं क्योंकि इससे दूसरे लोगों की जोवन के 'आवश्यक पदार्थ दुर्लभ हो जाते हैं | एक जगह संग्रह होने से उसका बटवारा ठीक तरह नहीं हो पाता। जो मनुष्य वनसंग्रह का पाप कर रहा है उसकी भक्ति करना तो पाप को उत्तेजना देता है | इसलिये वैभवभक्ति अधम भोगो को भक्ति हैं, देव है।
न - श्रीमानों से कुछ न कुछ जगत की मलाई होती ही है कुछ न कुछ भी होता है और der dara hat if it a विशेष गुण पर निर्भर है इसलिये वैभवशालियों की भक्ति में प्रमुश में गुणभक्ति सेवाभक्ति दयाही जाते हैं तब वैभवभक्ति या वनमक्कि क्यों कहा जाय ?
उत्तर- धनवान अगर जगत की भलाई या सवा करता है तो उसको परोपकारशीलता की भक्ति करके उपकारभक्ति की जा सकती है धनो पार्जन में अगर उसने बुद्धि आदि किसी गुण का तथा ईमानदारी का उपयोग किया है तो उन गुणा की भाभि की जा सकती है पर यह धन भक्ति नहीं है। जहा अन्य किसी गुण की उपेक्षा करके केवल धनवान होने से किसी की भक्ति या
उत्तर – यह घनभक्ति नहीं है। जैसे किसी वालक को प्रेम से पुचकारते हैं और पुचकार कर उससे कोई काम करा लेते हैं तो यह उसकी भक्ति नहीं है, इसी प्रकार कोई श्रीमान प्रशंसा और यश से ही कर्तव्य करता हो. उसे वास्तविक कर्तव्य का पता न हो तो श्रादर सत्कार करके उससे कुछ अच्छा काम करा लेना अनुचित नही हैं। पर यह धनभक्ति नहीं है, समझा बुझाकर या तुभाकर अच्छा काम करा लेने को एक कला है। विवेकी श्रीमान तो श्रादर सत्कार यश आदि की पर्वाह किये बिना उचित मार्ग में दान करेगा इस प्रकार अपनी परोपकारशीलता से जनता की सच्ची भक्ति पायेगा। वह कला का विषय न बनकर भक्ति का विषय बनेगा ।
for जाता है, यहा तक कि वह बेईमान होम से ही उसने धन कमाया हो फिर भी उसके चन की की जाती हो तो है। यह धनसंग्रह के पाप को उत्ते इसलिये अथम भक्ति है।
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से कोई श्रीमान किसी अच्छे काम में अपनी सम्पति लगादे तो उसका आदर आदि करना क्या बुरा है ? इससे दुनिया की कुछ न कुछ भलाई ही है।
प्रश्न-धन शक्ति अवश्य है क्योंकि उसमें कुराने की है। उस शक्ति कराने के लिये अगर किसी धनी की गई है। हमारे गोमेन मे नारीफ कर देन
५ अधिकार
( जोभक ) - मुक आदमी किसी पर पर पहुँचा है, वह न्यायाधीश है, राजमन्त्री है, किसी विभाग का सञ्चालक है, यदि पदों से उसकी भक्ति करना अधिकार भक्ति है, यह भी एक जघन्य या अधम भक्ति है ।
ऐसे भी बहुत से पट है जो किसी सेवा के वलपर मनुष्य को मिलते हैं उनके कारण किसी की भक्ति करता उस सेवा की ही भक्ति है। पर सेवा का विचार किये बिना पद के कारण किसी की भक्ति near sare भक्ति है। मुक आदमी को कल तक बात न पूछते थे श्राज वह राजमन्त्री या न्यायाधीश हो गया है तो उसे मानपत्र दो अध्यक्ष बनायो, यो करो त्यों को, यह सब श्रथम भक्ति है।
जय समाज में इस प्रकार के अधिकारभन बढ़ जाते है तब मनुष्य को सेवा की पर्वाह नहीं रहती अधिकार की रहती है। अविकार को पाने के लिये मनुष्य मय कुछ करने को उतारू हो जाना है वह अछे से अन् सेवकों को फा देकर देना चाहता है और