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१९. J
सत्यामृत
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इसी श्रेणी में हैं। विचार और विद्वता एक है परन्तु वह श्रद्धेय और वन्दनीय नहीं हो साधन हैं। जो लोग सिर्फ साधन को पकडकर रह जाते हैं और साध्य को भूल जाते हैं उनका जीवन बिलकुल अधूरा है। अनावश्यक काय क्लेश सहना और लोकहित से विरक्त रहना जीवन को निरुपयोगी बना लेना है।
५ आनन्दी-कर्मठ (नन्द कब्जेर )- बहुत से मनुष्य चतुर स्वार्थी होते हैं। वे कर्मशील होंगे मौज मजा मी खूप उडायेंगे लेकिन लोकहित की तरफ और सात्विक आनन्द की तरफ ध्यान न देंगे। ऐसे लोग लाखो करोड़ों की जायदाद एकत्रित करते हैं, अर्थोपार्जन के क्षेत्र में अपना सिंहासन ऊंचे से ऊंचा बना लेते हैं, परन्तु उस सिंहासन के नीचे कितने अस्थिपंजर दब रहे हैंकराह रहे हैं इसकी पर्वाह नहीं करते। लौफिक व्यक्तित्व की दृष्टि से ये कितने भी ऊंचे हो परन्तु जीवन की उच्चता की दृष्टि से ये काफी नीचे स्तर में है।
विचारहीन होने के कारण इनकी कर्मठता केवल स्वार्थ की तरफ झुकी रहती है। सात्विक स्वार्थ को वे पहिचान ही नहीं पाते ! दूसरों के स्वा की इन्हें पर्वाह नहीं रहती बल्कि उनकी सुविधाओं, दुर्गजतार्थी तथा भोलेपन से अधिक से अधिक अनुचित लाभ उठाने की घाव में ये लोग रहते इसलिये समर्थ होकर भी ये दुनिया के लिये भारभूत होते हैं। इस श्रेणी में अनेक साम्राज्य-संस्थापक, अनेक धनकुबेर आदि भी आ जाते हैं। इन लोगों की सफलता हजारों मनुष्यों की असफलता पर खड़ी होती है, इनका स्वार्थ हजारों मनुष्यों के निर्दोष स्वार्थो का भोग लगाता है, इनका अधिकार हजारों के जन्मसिद्ध अधिकारों को कुचल डालता है। इस श्रेणी का व्यक्ति जितना बडा होगा उतना ही भयंकर और अनिष्टकर होगा। दुनिया ऐसे जीवनों को सफल जीवन कहा करती है परन्तु मनुष्यता की दृष्टि से वास्तव में वे असफल जीवन हैं। इतिहास में इनका नाम एक जगह घेर सकता
६ नन्दी विचारक (नन्द कर ) - इस श्रेणी में प्राय ऐसे लोगों का समावेश होता है जो विद्वान हैं, साधारणतः जिनका जीवन साचारपूर्ण है, पास में कुछ पैसा है इसलिये श्राराम से खाते हैं, अथवा कुछ प्रतिष्ठा है, कुछ
भक्त
है उनकी सहायता से आराम करते हैं, परन्तु ऐसे कुछ काम नहीं करते जिससे समाज सके। मानव समाज में ऐसे प्राणी बहुत ऊँची are ferral नी जीविका ही चल श्रेणी के समझे जाते हैं परन्तु वास्तव में इतनी ॐची श्रेणी के होते नहीं हैं। प्रत्येक मनुष्य को जब तक उसमें कर्म करने की शक्ति है कर्म करने के लिये तैयार रहना चाहिये। कर्म कैसा हो इसका कोई विशेष रूप तो नहीं बताया जा सकता परन्तु यह कहा जा सकता हैं कि उससे समान
को कुछ लाभ पहुँचता हो । जब मनुष्य जीवित रहने के साधन लेता है तब उसे कुछ देना भी चाहिये ।
कोई यह कहे कि रुपया पैदा करके मैंने अपने पास रख लिया है उससे मैं अपना निर्वाद करता हूँ मैं समाज से कुछ नहीं लेना चाहता e fवृत्त होकर आराम से दिन क्यों न गुजारु ?
मनुष्य को संग्रह करने लायक सम्पत्ति लेने का परन्तु यहा वह भूलता है। किसी भी कोई अधिकार नहीं है। अगर परिस्थितिवश उसकी सेवा का बाजार में मूल्य अधिक है तो उसके बदले में वह अधिक सेवा दूसरों से लेले, परन्तु जीवनोपयोगी साधनों का अथवा उसके प्रतिनिधिरूप सिकों आदि का संग्रह करने का Baal अधिकार नहीं हैं। अधिक रुपया लेवा है तो उसे किसी न किसी रूप में खर्च कर देना चाहिये। हा, योग्यं स्थान में खर्च करने के लिये कुछ समय तक समहीत रहे तो बात दूसरी है अथवा उस समय के लिये संग्रह करे जब बदला लिये बिना समाज की सेवा करना हो तो भी वह