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________________ एक बार एक राजा ने अपने बड़े बगीचे के दो हिस्से करके दो मालियों को सौंप दिये। एक माली ने खूब श्रम करके बगीचे को अच्छा भरा पूरा बनाया, दूसरे ने वर्गीचे को तो उजाड़ दिया पर हर दिन तीन-तीन बार महल में जाकर राजा के सामने झुक-झुककर सलाम श्रवश्य की और कहता रहा 'हुजुर की गादी सलामत रहे ।' एक दिन राजा ने जब बगीचा देखा तो सलाम को पर्वाह न करनेवाले माली का बगीचा देखकर बहुत खुश हुआ पर सलाम करनेवाले माली का बगीचा देखकर बहुत नाखुश हुआ और कहा - 'कमवख्त, हर दिन तूने तीन-तीन बार कहा कि हुजुर की गादी सलामत रहे पर मेरा बगीचा बेसला मत कर दिया, अब हुजूर की गाडी क्या खाक सलामत रहेगी ? निकल यहा से इस प्रकार सलाम करनेवाले माली को उसने निकाल दिया । राजाने जितने विवेक का परिचय दिया, ईश्वर से उससे अधिक विवेक की आशा करना चाहिये । ईश्वर मानने का वास्तविक उपयोग यह है कि यह दुनिया ईश्वर का बगीचा है, उसे सलामत रखना ही ईश्वर की भक्ति है। और ईश्वर अन्धेरे में भी देखता है सदा देखता है, सर्वशक्तिमान है इसलिये उससे बचकर कोई निकल नहीं सकता, ऐसी हालत में कोई कितना भी ताकतवर हो, कितने भी छिपकर काम करे ईश्वर की नजर से बचेगा नहीं । इसप्रकार अन्याय आदि से बचे रहना और दुनिया का हित करना ही सच्ची ईश्वर भक्ति है। उसका नामस्मरण वगैरह कर्तव्य प्राप्त करने के लिये हैं । इसका विश्वको मुख्य ध्येय घनाना, और उसके साधन के रूप में उपध्येय मानकर ईश्वर भक्ति करना, ही ठीक मार्ग है। दुस्साभाव यश ध्येय (दुक्खनोलसो अशनीमो ) में बहुत से लोगों का यह कहना है कि "संसार सुख कम हो या ज्यादा, इसकी चिन्ता नहीं है, चिन्ता इस बात की कि दु.स न हो। पर P संसार में दुग्न और सुख मिश्रित है। चिना I दुःख के सुख नहीं मिलता ! भूख प्यास के कष्ट के बिना खाने पीने का आनन्द नहीं आता यो भी संसार में एक न एक दुःख प्राणी के पीछे लगा रहता है, उस दुख से अगर हम छूटना चाहें तो हमें सुख का भी त्याग कराना पड़ेगा। इसलिये हमारा ध्येय एक ऐसी अवस्था प्राप्त करना होना चाहिये जिसमें न सुख हो न दुःख । इसीलिये कुछ दार्शनिको ने मोक्षमे दु.ख और सुख दोनों का अभाव माना है । वही हमारा ध्येय रहे । · ग्रह मत ठीक नहीं है, क्योंकि यह एक तरह की जडता होगी। प्रणी को जो संवेदना होती है वह या तो दु.ग्वात्मक होती है या सुखात्मक, अथवा किसी में सुखदुख दोनो के अंश मिले रहते हैं अनुकूल संवेदना को सुख्ख कहते हैं, प्रतिकूल संवेदना को दुःख कहते हैं । ऐसी कोई संवेदना नही होसकती जिसमें नाममात्रका भी सुख या दुख न हो । संवेदना का अभाव होजाना एक तरह की बेहोशी है। अर्थात् चेतना का सुप्त हो जाना है। चेन होकर भी अन बनना जीवन का ध्येय नहीं है। सृष्टि और प्रलय में से सृष्टि का ही चुनाव करना चाहिये । हा । यह अवश्य है कि मनुष्य दुःख कम से कम करना चाहता है क्योंकि इससे उसका सुख बढ़ता है। इसलिये दुखाभाव को ऋश ध्येय कह सकते हैं। सिर्फ इतने से ही मनुष्य को सन्तोप नहीं हो सकता। हर एक क्षेत्रमे वह दुःखाभाव के साथ सुख चाहता है। वह यह चाहता है कि कोई अप्रिय आदमी उसके सम्पर्क में न श्राये, पर इस दुःखाभाव से वह सन्तुष्ट न होगा, चह यह भी चाहेगा कि प्रिय आदमी सम्पर्क में रहे. प्रिय 1दमी नहीं तो कोई प्रिय वस्तु यात्रिय विषय प्रपने सम्पर्क मे चाहेगा · प्रश्न -सुसार मे दुःख ही धिक है, बहुत अधिक है, और सुख बहुत कम है, सी अवस्था में कितनी भी कोशिश की जाय दुज तो सुख से अधिक ही रहेगा । अगर दुःखाभाव को ध्येय बनाया जाय तो सम्भव है दु.ल के साथ सुख भी
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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