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________________ हाएका - IN लिये सुख नहीं है, किन्तु सुख के लिये स्वतन्त्रता स्वतन्त्रता के नामपर लोग राष्ट्र के टुकड़े है। समाज के संगठन में व्यक्तियों की स्वतन्त्रता टुकड़े करने को उतारू होजावे हैं। भले ही उससे को थोड़ा-बहुत धका लगता है पा सहयोग के दोनों दुकडों के शासन-खर्च का बोझ असह्य सुख के लिये उतनी स्वतन्त्रता का बलिदान सभी होजाय, दोनो कमजोर होजायें, निर्वलता और लेग करते हैं। विवाह के द्वारा भी स्त्री और गरीबी से विकास रुकजाय इससे मनुष्य दुख की पुरुष को स्वतन्त्रता पर कुछ न कुछ अंकुश लगता ओर ही जाता है। इसी स्वतन्त्रता के नामपर वह है फिर भी परस्पर के सहयोग से मिलनेवाले मानवराष्ट्र बनाने में हिचकिचाता है। इससे सुम्ब के लिये लोग उतनी अस्वतन्त्रता को स्वीकार राष्ट्र-राष्ट्र के बीच में आर्थिक और राजनैतिक करते हैं। जो स्वतन्त्रता सामाजिक सख में बाधा द्वन्द होते हैं युद्ध और महायुद्ध होते हैं इससे पहुँचाती है उस स्वतन्त्रता की उच्छखलता कह- जगत नरक बनता है। इसलिये स्वतन्त्रता को कर निन्दा की जाने लगती है। इन सब बातों से विश्वसुम्ब के कुश में रखना चाहिये उसे अन्तिम मालूम होता है कि स्वतन्त्रता उपध्येय है सुख श्रेय नही, उपध्येय बनाना चाहिये। अर्थात् विश्वसुख ध्येय है 1 हो ! कभी कभी ऐसा शान्ति उपध्येय (शमो फूनीमो) " होता है कि गुलामी का दुश्व अत्यधिक होने से लोग जीवन तक देदेते हैं। इसका कारण प्राणियो प्रश्न-शान्ति को जीवनका ध्येय माने तो ? का विकसित हृदय है। जो लोग खाने-पीने आदि उत्तर-जो शान्ति, सुख के लिये उपयोगी के सुखा की अपेक्षा, मानसिक सपको अधिक है वही शान्ति उपयोगी कही जासकती है। पर्ण महत्त्व देते है, और गुलामी में मानसिक कष्ट शान्ति जीवन का ध्येय नहीं है। प्रलय में पूर्ण अधिक मालूम होता है वे भविष्य की निराशा शान्ति है पर इसीलिये प्रलय की इच्छा नहीं जनक परिस्थिनि मे जीना पसन्द नहीं करते। होती। एक आदमी को ऐसे द्वीप में छोडदिया पर इसमे भी सुख-दुख का मापतौल ही मुख्य नाय जहा उस जाय जहा उसे खाने-पीने की सब सुविधा हो, और अशान्ति पैदा करने के लिये दूसरा कोई प्राणी न हो, तो आदमी ऐसे स्थान को पसन्द __ स्वतन्त्रता अगर सबके सुख के लिये उप- न करेगा। हाँ । जब मनुष्य ऐसे कोलाहल था योगी हो तभी उसका पादर किया जासकता है, संघर्ष में पडजाता है जो उसे दुःखी कर देते हैं। सबके सख की उपेक्षा करके स्वतन्त्रता पर अधिक जोर दिया जाय तो जगत नरक की ओर बढ़ने तब वह उनसे बचना चाहता है। इससे वह मर्या, लगे । व्यक्ति यह सोचने लगे कि कुटुम्ब बनाने में दित या अमुक प्रकार की शान्ति चाहता है। पर अब मनुष्य को खेल, कूद, क्रीडा, विनोद आदि में पराधीनता है इसलिये कुटुम्ब न वनाना चाहिये, आनन्द आता है तब वह इन्हें पसन्द करता है, कुटुम्ब यह सोचें कि गाव का अंग बनने में परा- और उछल-कूट की इस अशान्ति को आवश्यक धीनता है इसलिये गाव न बनाना चाहिये, गांव समझता है। इससे मालूम होता है कि पर यह सोचें कि देश का अंग बनने में परावीनता शान्ति नहीं है, ध्येय सुख है । जब जहा जिसे है इसलिये देश न बनें, तो दुनिया में हैवानियत जितनी शान्ति सुख के अनुकूल मालूम होती है और शैतानियत का ना नाव होने लगे। स्वत- तब वहा वह उतनी शान्ति को स्वीकार करता है, न्त्रता एक तरह की जुदाई पैदा करती है और सुख विरोधी शान्ति को अस्वीकार करता है। जुलाई से सहयोग टूटता है और सहयोग के मोक्ष उपध्येय (जिन्नो फूनीमो) अभाव में सब तरह के विकास रुकते हैं । इस- प्रश्न-मोक्ष तो अनन्त शान्ति है और लिये स्वतन्त्रता को सबके सुख से अधिक उसकेलिये मनुष्य अपने सर्वस्त्र का, जीवन महत्त्व न देना चाहिये। सब सुखों का त्यागकर जीवनभर कठिन, स्या
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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