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________________ हष्टिकांड १२१], ईश्वर कल्पित भी हो तो भी यदि उसका दुरुप. की उपासना ही न हो सकेगी । मूर्ति को भुलाई योग न किया जाय तो देवमम नहीं है । जैसे देने पर देवत्व ही देवत्व रह जायगा, पर मूर्ति पाप करना और ईश्वर की पूजा करके पाप के को जगह देवत्व को आप भ्रम कहते हैं। फल से छुटकारा मानना यह ईश्वर का दुरुपयोग उत्तर--मूर्ति द्वारा देव की उपासना करते है । पर उसे पूर्ण न्यायी मान कर पाप से बचते समय मूर्ति को भुला देना ही ठीक उपासना है। रहना ईश्वर का सदुपयोग है। इससे मनुष्य का मूर्ति को याद रखना उपासना की कमी है। देव कल्याण है । इसलिये अगर ईश्वर कल्पिन भी की उपासना में देव ही याद रखना चाहिये हो तो भी उसकी मान्यता सिर्फ अतथ्य होगी, उसका आधार नहीं। जितने अंश में अवलम्बन असत्य नहीं। दूसरी बात यह है कि गुणमय ईश्वर (मूर्ति वगैरह ) याद आता है उतने अंश में वह देवोपासना नहीं है। जिस प्रकार अक्षरों कल्पित भी नहीं है । सत्य अहिंसा आदि गुणा की आडी टेदी प्राकृतियों को देखते हुए और का पिंड ईश्वर विश्वव्यापी है, घट घट वासी है। उनका उपयोग करते हुए भी उन्हें भुलाकर अर्थ, अनुभव में आता है, बुाद्ध-सिद्ध भी है उसे पर विचार करना पड़ता है उसी प्रकार मूर्ति के मानना तथ्य भी है और सत्य भी है इसलिये सामने मूर्ति के रूप को भुलाकर देव का रूप ईश्वर की मान्यना देव-मूढता नहीं है। याद करना पड़ता है। इस मे अदेव को देव नहीं प्रश्न-मूर्ति को देव मानना तो देवभम माना गया है जिससे देवभ्रम कहा जा सके। अवश्य है । क्याकि मूर्ति तो पत्थर श्रादि का २-देव के वास्तविक और मुख्य गुणों को पिंड है। वह देव कैसे हो सकता है। मुलाकर कल्पित निरुपयोगी गुणों को मुख्यता, उत्तर--मति को देव मानना नेवरस है देना, उनका रूप बदल कर उसका वास्तविक पर मूर्ति मे देव की स्थापना करना देवरम उपयोग न होने देना आदि रूपभ्रम है। जैसे नहीं है। अपनी भावना को ध्यास करने के लिये अमुक महात्मा के शरीर मे दूध सरीखा खून था, कोई न कोई प्रतीक रखना उचित है। जैसे ब्रह्मा विष्णु महेश उसका धात्रीकर्म करने आये, कागज़ और स्याही को (पुस्तकों को) ज्ञान थे, वह बैठे बैठे अघर चला जाता था, वह समझ समझना भ्रम है पर उसमें ज्ञान की स्थापना को हुक्म देकर शान्त करता था, वह 'गलीपर करके उसके द्वारा ज्ञानोपार्जन करना भ्रम नहीं पहाड़ उठाता था, उसके चार मुंह दिखते थे, हैं। हॉ, जब हम कला आनि का विचार न एक प्रकार के सब रूप-भ्रम है। दूसरे प्रकार करके अन्ध-श्रद्धावश किसी निविशेष में अति- रूपभ्रम वे हैं जिनमे सम्भव किन्तु मानत शय मानते हैं, उसे देव को पढ़ने की पुस्तक न बातो को महत्व दिया जाता है। जैसे महात्मा समझ कर देव ही समझने लगते है तब यह की लोकोपकारता आदि को गौण करके इन देवभ्रम हो जाता है । कोई मूर्ति सुन्दर और असाधारण सौन्दर्य आदि को महत्व देना कलापूर्ण है तो उस दृष्टि से उसको महत्व समझो. हो सकता है कि वे सुन्दर हो पर वे मह : अगर उसका कोई अच्छा इतिहास है तो ति- होने के कारण सुन्टर थे यह बात नहीं है। .. हासिक दृष्टि से उसे महत्व हो, पर उसमें दिव्यता के प्रवेश में सी बातो को इतना महत्त्व न देन की कल्पना मत करो. उसे देव मत समझो. चाहिय कि उनक महात्मापन के चिन्ह मन्त्र जोग देवमूत्ति समझो। तीसरे प्रकार का रूपभ्रम वह है जिस में महा प्रक्ष–मति द्वारा देव की उगसना करते त्माया की उनके जीवन सं बिनसन्त sre समय अगर हम मूर्ति का न भुला सके तो देव चित्रित किया जाता है जैसे किसी परित्र
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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