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________________ - - - - रहे थे, उस आदिम युग के अविकसित तीर्थों मुख्य नहीं होती, सिर्फ यही देखा जाता है कि को भणोपम तीर्थ कहते हैं। इनमें न्यूनाधिक शीघ्र प्रतिष्ठा कैसे मिलेगी। इनमें लोकरंजन रूप में नीचे लिखी त्रुटियों पाई जाती हैं। की या कुछ लोगों की स्वार्थपरता को सुरक्षित क-अज्ञानमय की प्रमुखता रहती है। रखने की मुख्यता रहती है । ऐसे सम्प्रदाय धर्मप्रकृति के भयंकर रूपों की तथा भयंकर प्राणियों तीर्च नहीं कहे जासकते । धर्मसमभावी उन्हें की पूजा की जाती है। आदर देना उचित नहीं समझना। अधिक से . ख-प्राकृतिक शक्तियों को आलंकारिक रूप अधिक उपेक्षा करता है। जब कभी लोकहित की में नहीं वास्तविक रूप में ( लक्षणा रूप में नहीं, दृष्टि से विरोध करने की आवश्यकता होती है अभिधी रूप में ) देव मानलिया जाता है। नव विरोध भी करता है। इन्हें अहंकारज .. ग-कर्तव्य करने की अपेक्षा, बलिदान निर. (मठोज ) सम्प्रदाय कहते हैं। र्थक कष्टसहन और दीनता दिखाने आदि से देव- १-कुछ से भी सम्प्रदाय होते हैं जिनका ताओं को खुश करने की वृत्ति तीन रहती है। भी प्रारम्भ लोक-कल्याण की भावना से नहीं, और इसे धर्म मानलिया जाता है। किन्तु अहंकार कृतघ्नता आदि से होना है। घ-मन्त्र-तन्त्र जादू-टोना आदि धर्म के अमुक संस्था में मुझे अमुक पद नहीं मिला, या मुख्य रूप रहते है। अवैज्ञानिक चमत्कारों पर मुझे अमुक सहूलियत नहीं दीगई या मेरे साथ काफी विश्वास किया जाता है। ठीक व्यवहार नहीं किया गया, इसलिवे उस संस्था ड-मानवता की भावना नहीं रहती । नीति की सामग्री लेकर अलग सम्प्रदाय घनालेना, नाम मात्र के मतभेद की छाप लगालेना, इसप्र. के कुछ तत्व अगर माने भी जाते हैं तो वे सिर्फ अपने गिरोह के मीतर ही। दूसरे गिरोह के कार अहंकार चोरी और कृतघ्नता से जो सम्भलोगो के प्रति अत्याचार करना बुग नहीं समझा दाय पैदा होते हैं वे निन्दनीय हैं। धर्मसमभावो जाता। ऐसे सम्प्रदायों को धम-तीर्थ नहीं मानता । ये सब चिन्ह धर्मतीर्थ के अतिप्रारम्भिक म महावीर के शिष्य जमालि ने ऐसा ही सम्प्रदाय रूप है बल्कि यो कहना चाहिये कि वास्तविक इसलिये इन्हें चौरज, चुरोज) सम्प्रदाय कहना भक खड़ा किया था इनम चोरी की मुख्यता रहता है धर्मतीर्थ के उत्पन्न होने के पहिले के रूप है। चाहिये। गर्भावस्था में शिशु की तो हालत होती है धर्मसंस्था की गर्भावस्था का रूप भी ऐसा ही होता .. १-कुछ सम्प्रदाय धर्म के नाम को दूकान. है। इसलिय ऐसे अतिप्राचीन धर्मतीर्थों को "दारी ही होते हैं इनमें जीविका की मुख्यता भावोपम तीथे (गयेतूर भन्तो) कहना चाहिये। इनमें दुनिया को लुभाना ठगना अन्धविश्वास " रहती है। प्रतिष्ठा आदि का लोभ भी रहता है। ___धर्मसमभावी न इनको निन्दा करता है न बढ़ाना, इसके लिये पड्यन्त्र करना आदि खराइन्हें स्वीकार करता है । मानव विकास की वियों रहती हैं । इनका मगरमदार ठगी धोखेबाजी स्वाभाविक अवस्था समझकर उन्हें सन्तव्य पर रहता है। इन्हें ठगी संप्रदाय (चीटोज) मानता है। कहलाना चाहिये । धर्म समभावी इनका विरोध हा 1 मरणोपम तीर्थ की बातों को कोई करता है निन्दा करता है। आज चलाना चाहे वो वह विरोध करेगा। संप्रदाय के इन मेट्रो से और उनके विषय में ८-कुछ सम्प्रदाय अहकार से खड़े कर धर्म समभावी के व्यवहार से पत्ता लगता है कि लिये जाते हैं। लोक कल्याण की भावना उनमे धर्म समभाव का वास्तविक रूप क्या है।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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