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________________ दृष्टिका ड मन बुद्धि या गुणों से सम्बन्ध रखनेवाली हैं शरीर से नहीं। लैंगिक दृष्टि से कोई मनुष्य पूर्ण इसका यह मतलब नहीं है कि उसकी दाढ़ी मे एक तरफ बाल हैं और दूसरे तरफ नहीं, एक तरफ मूंछ है दूसरी तरफ नही, एक तरफ स्त्रियो सरीख तृन है दूसरी तरफ पुरुपी सरी । किसी पूर्ण पुरुष का ऐसा चित्र गमा चित्र ही कहा जा सकेगा। उभयलिंगी चित्रण करना हो तो वह गुणसूचक होना चाहिये। लैंगिक दृष्टिसे मानव जीवन के तीन मेव हैं १ नपुंसक, २ एकलिंगी, ३ उभयलिंगी I १ नपुंसक (नोनंग ) - जिस मनुष्य में न तो स्त्रियोचित गुण हैं न पुरुषोचित, वह नपुंसक । समाज की रक्षा में, उन्नति में, सुख शान्ति नारी का भी स्थान है और नर का भी । जो न तो नारी के गुणों से जगत की सेवा करता है नर के गुणों से, वह नपुंसक है। नर नारी 1 नर और नारी की शरीररचना मे प्रकृति ने अन्तर पैदा कर दिया है उसका प्रभाव उनके गुडा तथा कार्यों पर भी हुआ है। उससे दोनों मे कुछ गुए भी पैदा हुए हुए और दोनो मे कुछ टोप भी । ज्या ज्या विकास होता गया त्यों त्यो दोनों में उन गुण छोपों का भी विकास होता गया। इस प्रकार नर और नारी में आज बहुत अन्दर दिखलाई देने लगा है जब कि मौलिक 'अन्दर इतना नहीं है। बुद्धिमत्ता विद्वत्ता आदि मैं नर और नारी समान हैं। किन्तु शताब्दियों तक विद्वत्ता आदि के क्षेत्र मे काम न करने से, आने जाने की पूरी सुविधा न मिलने से और अनुभव की कमी के कारण, नारी विद्वत्ता आदि से कम मालूम होती है, पर इस विषय में सं कोई अन्तर नहीं है । मूल शरीर रचना के कारण नर और नारी में जो मौलिक गुण दोष हैं वे बहुत नहीं है । वात्सल्य है निर्जलता दोप । सवलता नर का गुरु है लापर्वाही दोष इस एक एक ही गुण " [२३३] टोप से बहुत से गुण दोष पैदा हुए है। नारी की विशेष गवना के अनुसार का सन्तान से इतना निकट सम्बन्ध होता है कि वह अलग प्राणी होने पर भी उसे अपने मे संलग्न समझती है। अपनी पर्वाह न करके भी सन्तान की पर्वाह करती है । सन्तान के साथ है संयम सेवा, कोमलता, प्र ेम आदि इस वृत्ति यह आत्मौपम्य भाव नारी की महान् विशेषता विकसित रूप हैं। अगर रेम या श्रहिंसा को साकार रूप देना हो तो उसे नारी का आकार देना ही सर्वोत्तम होगा। 1 नारी का वात्सल्य या प्रेम मूल मे सन्तान के पति ही था । एक तरफ तो वह नाना रूपो मे प्रकट हुआ दूसरी तरफ उसका क्षेत्र विस्तीर्ण हुआ । इस दुहरे विकास ने मानव समाज में सुख समृद्धि की वर्षा की हैं। जिसने अश में यह विकास है उतने ही अंश मे यहाँ स्वर्ग है I नारी में जब सन्तान के लिये वात्सल्य आया तब उसके साथ सेवा का श्राना अनिवार्य था। इस प्रकार सेवा के रूप में नारी जीवन की एक माकी और दिखाई देने लगी। सेवा भी नारी का स्वाभाविक गुण हो गया। जहाँ वात्सल्य है वहाँ कोमलता स्वाभाविक है। नारी में दुग्धपानादि कराने से तन की कोमलता तो थी ही, साथ ही प्रेम और सेवा के कारण उसमें मनकी कोमलता भी आ गई। बच्चे का रोना सुनकर उसका मन भी रोने लगा उसकी बेचैनी से उसका मन भी वेचैन होने लगा। इस कोमलता ने दूसरे के दुःखों को दूर करने और सहानुभूति के द्वारा हिस्सा बढाने मे काफी मदद की। वात्सल्य और सेवाने नारीमें सहिष्णुता पैदा की। नारी के सामने मनुष्य निर्माण का एक महान कार्य था और वह उसमे उन्मय श्री इसलिये उसमे सहिष्णुता का आना स्वाभाविक था। जिसके सामने कुछ विवायक कार्य होता है
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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