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________________ हाटकाड [ १६३ ] से परम्परा-सम्बन्ध रखत हैं और बहुन सी जगह कराहती हुई मनुष्यता की छाती पर जिनने रत्न. नही रखते है, परन्तु राष्ट्र के नासपर बना हुआ अटिन सिंहासन जमाये, पर कुछ समय तक जातिभेद राजनीति के साथ साक्षात सम्नन्ध उन्मादी अत्याचारी जीवन व्यतीत करके अन्त रखता है। और इसके नामपर चान की बात में में धराशायी हो गये। तलवारे निकल पाती है, मनुष्य भाजी-जरकारी की तरह काटा जाने लगता है, और इसे कहते साम्राज्यवाद की यह भयकर ग्यास और राष्ट्रीयता का उन्मान प्राय: समस्त स्वतन्त्र राष्ट्रा है देशप्रेम, देशभकि, नशसेवा आदि। को प्रशान्त और पागल बनाय हुए है। राज्य राप्त था देश आखिर है क्या वस्तु ? पर्वत की जो शक्तियों मनुष्य की सुग्व-गान्ति के बढाने समुद्र आदि प्राकृतिक सीमा से गद्ध मनुष्यों के में काम पा सकनी हैं, उनका अविकाश मनुष्य निवासस्थान ही तो है। परन्तु क्या ये सीमा के सहार मे लगा हुआ है। राज्य की आमदानी मनुष्या के हृदय को कैट कर सकती हैं ? क्या ये मिट्टी के ढेर और पानी की राशि मनुष्यता के का बहुभाग सेना और लडाई की तैयारी में सर्च टुकड़े टुकड़े करने के लिये हैं। इन सीमाओ को होता है, मशीने मनुष्य सहार की सामग्री तैयार तो मनुष्य ने इतिहासातीत काल से पार कर करने में लगी हुई है, वैज्ञानिको की अविकाश लिया है। न पहाड़ा के अभ्रकश शिखर उसकी शक्तियाँ मनुष्य-सहार के आविष्कार में डटी गति को रोक सके हैं, न अगाध जलराशि । और हुई है, माना इस पागल मनु यज्ञादि ने मनुष्य श्राज तो मनुष्यजाति ने इनपर इतनी अधिक जाति को नष्ट कानी अपना ध्येय बनालिया हो विजय पाई है कि माना ये सीमाएं उसके लिये आत्महत्या या नरक की सृष्टि करना ही इसका है ही नहीं। फिर समझ में नहीं आता कि मनुष्य श बन गया हो। सीमाओ से घिरे हुए इन स्थाना के नामपर क्यो यदि यही शक्तियाँ प्रकृति पर विजय पाने अहंकार करता है ? क्यो लडना है ? क्यो मनु. में, उसका रहस्योद्घाटन करने में, उसके म्नन, प्यता का नाश करता है। से अमृतोपम दूध पीने म, मनुष्य की मनु यता राष्ट्रीयता का जब यह नशा मनुष्य के अर्थात मनु योचित गुणों के विकास करने में सिर पर भूत की तरह सयार होता है, और जब लगाई जाती नो मबल और निच सभी राष्ट्र मनुष्य हुकार हुकार का दूसरे गष्ट्र को चबा आज की अपेक्षा बहुत अधिक सुम्नी होत । जो डालना चाहता है, तब नझारखाने में तूना की भाज असभ्य, अर्घसम्म नथा निर्बल है, वे सरत आवाज की तरह मनुष्यता का यह सन्देश उसके और सभ्य बने होत और जो मत्रल है, सम्प कानो मे नहीं पहुँचना। परन्तु नशा उतरने के कहलाते हैं, वे घृणापान होने के बदले आदरपात्र वाह जब उसके अग अग ढीले होजाते है, तब बने होते । इस प्रकार उन्हे भी शान्ति मिनाहानी, वह अपनी मूर्यता का अनुभव करता है। परन्तु तथा दूसरों को भी शान्ति मिली भेती । शरानी इतने ही अनुभव से गाय नहीं छोडता। न एक दिन मनुपय को यह बात समयही दशा राष्ट्रीयता के नशेनाजो को है। च नशे मना पडगी। इस राष्ट्रीयता के उन्माद के कारण क कटु अनुभव को शीघ्र ही सुनकर फिर वही प्रत्येक राष्ट्र की प्रजा तबाह होरही है। जिन नशा करते है । इस प्रकार राष्ट्रीना नशे म प्रकार लुटेरे वही घडी लूट कर भी चैन से चिरकाल स मनुष्यजाति का ध्वल हाना ना गेटी नहीं मानते, और प्रापमा दुसरं से डरत है, की हालत साम्राज्यवादी बड़े बड़े सान्नाव्य खड़े हु जिनने मनुष्य- लुटेरे राष्ट्र की होती है। हमारा देश की प्रा. जाति के अस्थि-पडसे अपना सिहामन बनाग, पर लडाईकर का बोम इनाना मागे टोनाक
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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