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प्रमा
निर्गल या मरण होजाता है. बाल सफेड होजाते हैं वस्तु के सम्पर्क या कल्पना से जो मानसिक दुख इसलिये उन्हें शारीरिक दुख क्यो न कहा जाय' होता है वह अनिष्ठयोग दुःख है। जैसे शत्रु का
उत्तर-इप्दा माप्ति और इष्टवियोग का दर्शन आदि । यद्यपि शारीरिक अनिष्टयोग भी पहिला प्रभाव मनपर पड़ता है, फिर दःखी मन होता है परन्तु वह प्रतिविषय, आघात आदि में
शामिल है । यहा तो ऐसे अनिष्ट योग से मतलब का प्रभाव तनपर पडना है इसलिये इसे मान
है जो प्रत्यक्ष रूप मे शरीर को चोट नहीं पहुँसिक सुत्र कहा जाता है। अगर इनका मनपर
चाता सिर्फ मनपर चोट पहुंचाता है। पीछे भले
ही मन की विकृति के कारण तनपर विकृति पडता. उमलिये ये मानसिक दुध ही है। होजाय । अरिय जन को देखकर हमारे शरीरपर
नाराप्ति और इष्टवियोग एक कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, पखर किरणों की तरह के विषय हैं और अविषय को शारीरिक तरह वह पाखा को चुभता भी नहीं है, न अन्य दुम्न है, इसलिये उन्हें भी शारीरिक दुख व्यो इन्द्रियों का रतिविषय होता है फिर भी जो हमे न कहा जाय?
दुःख होता है उसका कारण मन की कल्पना है. उत्तर---अविषय का जो परिमापिक अर्थ इसलिये वह मानसिक दुख कहलाया। इसस यहा किया गया है उसका मतलब है शरीर और क्रोध शोक भय वृणा ईष्यो चिन्ता आदि भनीइन्द्रियों के विपयों का न मिलना। मानसिक वृत्तिया पाहाता है, खद आर पश्चाताप मा अविषय इप्टाचानि और इटवियोग, जिसे सम्म. एक तरह के शोक है. उपेक्षा मी राय. हल्की लित रूप में प्रयोग (श नोगो) कहना घृणा का रूप लेती है। ये सब मनोवृत्तियाँ दुखाचाहिये, शो से कहा गया है। इस मानसिक त्मक हैं । इसलिये अनिष्टयोग दुःख हैं। अविषय से वह शारीरिक अविषय भिन्न है जो -जाधव (रिको) अपयश निन्दा तिर अविपय शद्ध से कहा गया है। विषय का स्कार उपेक्षा अपमान आदि से या छोटा कहलाने सीधा रमाव शरीरपर पड़ता है, उससे शरीर से जो दुख होता है उसे लाघव कहते है। अपनी नीण होने लगता है. अशक भी होजाता है, अन्त महत्वाकांक्षा पूर्ण न होनेपर भी यह दुःख होता में पाणी मर भी जाता है । इप्याराप्ति और इप- है। इससे अहंकार चिन्ता शोक भय दीनता वियोग इस तरह शरीरपर कोई भाव नहीं पूणा इयां आदि मनोवृत्तियों पैदा होता है। भालते। भोजन न मिलने से पानी न मिलने से अपयश आदि से शरीर को चोट नहीं पहुँचती, शरीर की जो हालत होना अनिवार्य है उस तरह अभिमान या श्रात्मगैरव को चोट पहुँचती है । सन्तान के मरने से या न होने से अनिवार्य नही इसलिये यह मानसिक दुख है। अनिष्टयोग तो
मन को अगर पश में कर लिया जाय तो किसी घटना से सम्बन्ध रखता है और उसमे शरीरपर प्रत्यक्ष कप में भी कुछ प्रभाव नहीं किसी से तुलना नहीं होती। लाघव दुख अतिष्ट्र पडेगा। पर मन को वश मे कर लेनेपर भी भूख योग न होनेपर भी सिर्फ इम कल्पना से कि में प्यास से शरीरपर प्रसर होगा ही। मन को वश छोटा हूँ या छोटा समभागया हूँ, होने लगता है। मन फोर्ड विना प्रापिय जिन्दा नहीं रह जीवन की प्राय सारी श्रावश्यकता पूर्ण होनेपर मरना गागरिक बेदना से होती है, भली भी अनुचित्त महत्त्वकाना से, या दुसरो के दुर्थयामा पहन करें। इसनिय विषय को वहार में यह दुग्ब होजाता है। शातिर और नानि इनियोग को
ज्यमता (हिजो) व्यग्रता का अर्थ मानामर माया गया।
वडाना। चिन्ताओं के प्रोम से मनुष्य हँड. :-विवाग ( युगौ अनिष्ट बडाना व्याकुल होता है वही व्यग्रता है। जैन