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________________ ( का नाम मोक्ष है। इस प्रकार का मोक्ष मरने के बाद भी मिले तो यह अच्छी बात है । परन्तु परलोक सम्बन्धी मोक्ष को दार्शनिक सिद्धान्त से लटकाकर रखने की जरूरत नहीं है । परलोक हो या न हो, अनन्त मोक्ष हो या न हो, हमें तो इसी जीवन मे मोक्ष का सुख पाना है पाना चाहिये और पा सकते हैं, इसीलिये मोक्ष जीवार्थ है और काम के साथ उसका समन्वय भी किया जा सकता है जितना सुख काम सेवा से उठाया जा सकता है उतना काम सेवा से उठावें वांकी असीम सुख मोक्ष सेवा से उठावें इस प्रकार अपने जीवन को पूर्ण सुखी बनावें । यही सकल जीवार्थों का समन्वय है। मोक्ष सहल सौन्दर्य धाम है। उसका ही शृङ्गार काम है । सममत दूर मोक्ष का द्वार || पूर्ण सुखी होने के दो मार्ग हैं- ( १ ) सुख के साधनों को प्राप्त करना और दुःख के साधनों को दूर करना (२) किसी भी तरह के दुःख का भाव अपने हृदय पर न होने देना । पहिले उपाय का नाम काम है दूसरे उपाय का नाम मोक्ष है। गृहस्य बनकर भी मनुष्य इस मोक्ष को पा सकता हैं और मोक्ष को पाकर भी इस जीवन में रह सकता है। ऐसे ही लोगों को जीवन्मुक्त या विदेह कहते हैं। विपत्तियाँ और प्रलोभन जिन्हें न तो कुछ कर पाते हैं न दुःखी कर पाते हैं न कर्तव्यच्युत कर पाते हैं वे ही मुक्त हैं। धर्म और काम के साय मुक्तता भी जिनके जीवन में होती है उन्हीं का जीवन पूर्ण और सफल है। काड इन चारों जीवाशों की दृष्टि से जीवन के अगर भेद किये जाँय नो चारह भेद होंगे [ T १ जीवार्थशून्य, २ कामसेवी ३ अर्धसेवी ४ अर्थ कामसेवी, ५ धर्मसेवी, ६ धर्मकाम सेवी, धर्मार्थसेवी, = धर्मार्थकामसेवी, ६ धर्ममोन ७ [१९७] १ - जीवार्थशून्य (नेवीट)- जिसके जीवन में धर्म अर्थ काम मोक्ष कोई भी जीवार्ध नहीं है वह जीवार्थशून्य है। वह मनुष्याकार पशु है सहज द्विगुण होता है पाकर उचित सभ्य शृङ्गार | बल्कि बैल श्रादि कर्मठ पशुओ से गया बीता भी . सेवी, १० धर्म काममोक्षसेवी, ११ धर्मार्थमोक्षसेवी, १२ पूर्णजीवार्थी । इन बारह मेत्रों में पहिले चार जघन्य श्रेणी के हैं घृणित या दयनीय हैं, बीच के चार मध्यम श्रेणी के हैं, सन्तोषप्रद हैं, अन्तिम चार उत्तम श्रेणी के हैं प्रशंसनीय है । धर्म के बिना मोक्ष की सेवा सम्भव नहीं है इसलिये केवल मोत्तसेवी, अर्थमोक्षसेवी, काममोक्षसेवी, श्रर्थकाममोक्षसेवी, ये चार भेद नहीं हो सकते। इन चारों भेदो में मोक्ष तो है पर धर्म नहीं है। धर्म के बिना मोक्षसेवा नहीं बन सकती । बारह भेदों का स्पष्टीकरण इस तरह है । है, यहा तक कि अनेक श्रानन्दी पशुपक्षियों से भी गया बीता है f बहुत से मनुष्य, जिसमें अनेक पढ़े-लिखे लोग भी शामिल हैं, हर तरह पतित होते हैं । वे झूठ बोलने में विश्वासघात करने में शरमिन्दा नहीं होते। कृतज्ञता उनके जीवन में नहीं होती । अपनी दयनीयता प्रगट कर दूसरो से उपकार करा लेते हैं और फिर समझते हैं कि हमने चतुराई से कैसा काम वनालिया, उपकारियों की निन्दा भी करने लगते हैं, या उन्हें पूँजीपति श्रादि कहकर उन्हें ठगने का अपना अधिकार घोषित करने लगते हैं, ऐसा कोई काम नहीं कर सकते जिससे ईमानदारी के साथ जीविका कर सकें, आमद से स्व यढ़ाकर रखते हैं. ऋण लेकर दे नहीं सकते, ऐसे मनुष्य धर्मशून्य और अर्थशून्य हैं। स्वभाव की खराबी अत्यधिक क्रोध, अत्यधिक घमण्ड के कारण स्वयं भी दुखी होते हैं और दूसरों को भी दुःखी करते हैं। मूर्खता के कारण जीवन की कला नहीं जानते, जिससे थोड़े से थोडे साधनों में भी अधिक से अधिक आनन्द
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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