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________________ - हा, जिस में सिर्फ अभिमान का प्रदर्शन में इसका इतना अधिक महत्व है कि कुछ विद्वानों हो अथवा जो अपने जीवन के अनुरूप न हो ने इसे अलग जीवार्थ मान लिया है। यशोलिप्सा • ऐसे शृङ्गार से बचना चाहिये। मतलब यह कि महात्मा कहलानेवालों में भी आजाती है। पर सौन्दयोपासना बुरी चीज नहीं है पर वह संयम इसमें भी संयम की आवश्यकता है। अन्यथा और विवेक के साथ होना चाहिये। यश के लिये मनुष्य इतनी आत्मवंचना और पर सोधात सोल्टयोपासना के विषय में कही वचना कर जाता है कि उसकी मनुष्यता सक नष्ट गई है वही वात संगीत श्रादि अन्य इन्द्रियो के हो जाती है। अपने यश के लिये दूसरो की निन्दा विषय में भी कही जा सकती है। नारीकण्ठ से करना झूठ और मायाचार से अपनी सेवाश्रो गीत सुनकर भी पुरुष के मन में व्यभिचार की। को बड़ा बताना आदि असंथम के अनेक रूप वासना न जगना चाहिये । कोयल की श्रावाज में यशोलिप्सा के साथ प्राजाते हैं इसलिये अगर जो आनन्द आता है ऐसा ही आनन्दानुभव संयम न हो तो यश की गुलामी भी काम की होना चाहिये। गुलामी है। काम के अन्य रूपों के समान इसका काम के विषय में जीवन दोनों तरफ से भी दुरुपयोग होता है। इस दुरुपयोगों को बचाअसन्तोषप्रद बन गया है Si r कर विशुद्ध यश का सेवन करना उचित है। काम के साथ व्यसन और असंयम इस तरह इससे मनुष्य लोकसेवी और आत्मोद्धारक मिल गये हैं कि उससे अपना और दूसरों का धनता है। नाश हो रहा है और कहीं कहीं काम स इतनी , यद्यपि जीवन के लिये काम आवश्यक घृणा प्रगट की जाती है कि हमारा जीवन नीरस है फिर भी उसमें पूर्णता और स्थिरता नहीं और निरानन्द पन गया है यहा तक कि महात्मा है। प्रकृति की रचना ही ऐसी है कि इच्छानुसार और साध होने के लिये यह आवश्यक समझा साधन सब को मिल नहीं सकते इससे सुख की जाने लगा है कि उसके चिहरे पर हँसी न हो अपेक्षा दुःख अधिक ही सालूम होता है। इसउसमें विनोद न हो, मनहूसियत सी उसके मुंह लिये प्राचीन समय से ही मोक्ष की कल्पना चली पर छाई रहे और बहुत से अनावश्यक कष्ट वह पा रही है। पहिले तो स्वर्ग की कल्पना की गई परन्तु कामसुख के लिये कैसी भी अच्छी कल्पना उठा रहा हो। इस प्रकार निर्दोष काम पाप में । दाप काम पाप म क्यों न की जाय उसमें पूर्णता पा ही नहीं शामिल हो गये। यह ठीक है कि दूसरों के सुख सकती। इससे दार्शनिकों ने मोक्ष की कल्पना के लिये कष्ट उठाना पड़ता है भविष्य के महान की। यद्यपि उसमें भी मनभेद रहा और वह सुख के लिये कष्ट उठाना पड़ता है पर जिस दुःख आकर्षक भी नहीं बन सकी, फिर भी इतना तो का सुख क साथ कार्यकारणसम्बन्ध न हो अथवा हुआ कि लोगों के सामने सुख का एक ऐसा रूप अनावश्यक का से ही सुखप्राप्ति की कल्पना रक्खा गया जो नित्य हो और जिसके साथ करली जाय यह जीवन की शक्तियों की बर्बादी दु.ख न हो। यद्यपि परलोक में भोत की जो है। रचित यह है कि अावश्यकतावश मनुष्य कल्पना की गई है उससे सिर्फ दु.खाभाव ही अधिक से अधिक त्याग करने को तैयार रहे और मालूम होता है सुख नहीं मालूम होता, इसलिये दसंग में अधिकार का लोप न करके स्वयं न्याय वैशेषिक आदि दर्शनकारों ने मोक्ष में दुग्न प्रानन्दी वन जगत को आनन्दी बनावे। यही और सुख का अमाव मानलिया है फिर भी काम है। यह काम साधारण गृहस्थ से लेकर इतना तो मालूम होता है कि वह स्थायीरूप में अगदच महात्मा में तकर सकता है, रहता है दुख के नाश के लिये है। इसलिये यह अच्छी और रहना चाहिये। तरह समझा आ सकता है कि मोक्ष किसी स्थान मार्गमा काम या कम्प है यश । रीवन का नाम नहीं है किन्तु दुसरहित स्थायी शान्ति
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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