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________________ दृष्टिका [ १३६ E-धर्म प्रयास्तव कल्पना पर खड़े होते प्रश्न-पाप के लिये जो ओट का काम दे है, इसलिये अब न रहेगे। यह बात करीब करीव वह क्यों न नष्ट कर दिया जाय ? सी ही है कि काव्य अवास्तव कल्पना पर खड़े उत्तर-मकान अगर चोरी के लिये ओट होते है इसलिये कान्य न रहेगे। धर्म तो इतनी का काम दे तो मकान गिराया नहीं जाता वोर अवास्तव कल्पनायो को लेते नहीं है जितनी ही ढढा जाता है। अगर कभी गिराने की आवअवास्तव कल्पनाओ को काव्य लेते हैं, तब जब श्यकता ही पड़ जाय तो फिर बनाना पड़ता है। कान्य नहीं मिटते तव धर्म कैसे मिटाजायगे। आवश्यकतानुसार पुनर्निर्माण करना उचित है हाँ! इतना ही होसकता है कि पुगने जमाने में पर सर्वथा ध्वंस नहीं। सच पूछा जाय तो अभी जिसमकार काव्यों में अतिशयोक्तियो की गुजा- युगो सक धर्म का ध्वस हो नहीं सकता। ध्वस इश थी सी आज नही है उसी प्रकार पराने चंस चिन्नाकर हम सिर्फ हानिकर क्षोभ पैदा जमाने में धमा में जिसप्रकार अन्धविश्वास को करते हैं। हम धर्म के विषय में कितनी ही गुंजाइश थी वैसी आज नही है। श्राज के विक नास्तिकता का परिचय दें अगर हमारी नास्तिसित विज्ञान के प्रविरुद्ध रहकर ही धार्मिक कल्प कता सबल है तो उसी के नामपर विराट् आस्ति कता पैदा हो जायगी। यहा तक कि अनीश्वरनाए अपना काम करेगी। वाद भी प्रचार की दृष्टि से सफल होनेपर ईश्वरप्रश्न-धर्म, सम्प्रदाय तीर्थ आदि किसी वाट धनजाता है। महावीर और बुद्ध ने ईश्वरवाद भी श्रेणी के हो उनके नामपर जगत मे जो अत्या- के विषय में नास्तिकता का जो सफल प्रचार चार हुए है शायद ही किसी दूसरी चीज के नाम किया उसका फल यह हन्ना कि उनके सम्प्रदायो पर हुए हो इसलिये धर्म सं घणा पैदा होजाय में महावीर, बुद्ध, ईश्वर के आसन पर बिठला यह स्वाभाविक है। क्रान्ति के चक्र मे जब दुनिया दिये गये। जिन देशो में धर्म की नास्तिकता भर के पाप पिसेंगे तब इन धर्मतीथे नाम के सफल हुई है उन देशों में वे नास्तिकता के तीर्थपापो को भी पिसना चाहिये। ___ कर आज देवता की तरह पुज रहे है। उनकी ___ उत्तर-आज जो क्रान्ति कहलाती है कज्ञ कत्रों पर हजारों आदमी प्रतिदिन सिर झुकाते हैं वही धर्म सम्प्रदाय आदि कहला सकती है या और उनके गीत गाते हैं। मनुष्य के पास जब धर्म सम्प्रदाय के गुणदोषों से पूर्ण होसकती तक हृदय है तब तक उसके पास ऐसी आस्तिहै। श्राज जो धर्म कहलाते हैं वे भी एक जमाने कता अवश्य रहेगी। मन्दिर, मसजिद, चर्चा, की सफल क्रान्ति हैं। जैसे आज.की क्रान्ति पाप कन, शिला ध्वजा, चित्र, मूर्ति नमी, पहाड, वक्ष नहीं है इसी प्रकार एक समय की क्रान्ति, ये धर्म आदि प्रतीका में परिवर्तन भले ही होता रहे पर पाप नहीं कहे जासकते । रही दुरुपयोग की वात, इनमे से कोई न कोई किसी रूप मे रहकर सो दुरुपयोग किसका नहीं हुआ है। कलम से आस्तिकता को जगाये रहता है। श्रास्तिकता लिखने की बजाय कोई कीड़े मारा करे तो इसमें · इतनी प्रचण्ड है कि वह नास्तिकता को भी कलम बेचारी क्या करे ? अतिभोजन या विकृत अपना भोजन बना लेती है। जब तक हृदय है भोजन से कोई बीमार होजाय या मरजाय तो नव नक आस्तिकता है। हृदय को कोई नष्ट नहीं भोजन घृणाम्पट नहीं हो सकता सिर्फ उसकी कर सकता। सिर्फ अमुक समय के लिये सला 'अति' घणास्पट हो सकती है। सच पूछो तो सकता है। पर उसका जागरण हुए बिना नहीं धर्म के लिये लडाई नहीं होती धर्म के नामपर रहता। इसलिये उसकें नष्ट करने की चेष्टा व्यर्थ होती है। धर्म का नाम अपनी पाप-वासनाओ है। उसका दुरुपयोग न होने पावे सिर्फ इतनी के लिये आट बना लिया जाता है। ही चेष्टा करना चाहिये और उसके म्प को सुधा.
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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