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________________ हाटेका कारों की हम तारीफ करे पर उन्हे पुगने क्रान्ति.. इसत्रकार धर्मसमभाव के बहुत से लाभ है कारी का दुश्मन न समझे । भले हो उनने पुरानी और यह एक वैज्ञानिक विवेचना होने से तथ्य क्रान्ति को मिटाया हो । वास्तव में उनने पुरानी भी है और सत्य भी है। क्रान्ति के मुर्दा को जलाया था, उसके प्राण को प्रश्न-धर्मसमभाव के विवेचन से ऐसा नहीं। यह उपकार या विरोध वा दुश्मनी नहीं। मालूम होता है कि भूतकाल में धर्मतीर्थ या सम्म हमारे माता पिता की लाश को जलाने के दाय के नाम पर कोई खराबी आई ही नहीं। लिये जो आदमी पाता है, और मोहवश यदि किसी ने भी धर्मगुरू बनकर चार चेले इकट कर हम लाश से लिपटते हैं तो हमें लाश से हटाने लिये कि धर्मसमभाव के नाम पर उसको भी की कोशिश करता है वह हमारे माता पिता स आपका प्रमाणपत्र मिल गया। पर क्या पुराने दुश्मन नहीं है। इसीप्रकार पुरानी क्रान्ति की जमाने में जितने सम्प्रदाय आये वे सब ठीक थे ? अन्तक्रिया करनेवाले भी उस क्रान्ति के दुश्मन पर क्या उतने ही ठीक थे जितने कि उस जमाने नहीं होते और न लाश जलाने से वे अपने पूर्वजो में होसकते थे १ क्या भिन्न-भिन्न तीर्थ के तीर्थकर पर विजय करने वाले कहे जासकते है। उनकी ज्ञान संयम आदि गुणों में समान थे, क्या उनमें अगर विजय है तो लाश से चिपटने वाले मोहियों किसी तरह के स्वार्थों का मिश्रण नही हश्रा था ? पर है उस शरीर में रह चुकने वाले आत्मा पर यदि यह सब अन्तर रहा है तो देशकाल का थेट नही। वताकर भी समभाव कैसे व्यावहारिक वनसकना . इस कारण से धर्म-समभावी कृतज्ञ रहता है, सब को समान कैसे समझा जासकता है। है और समभाव विरोधी कृतघ्न होजाता है। उत्तर-विश्वप्रेम, सर्वभूतसमता, आदि ७ धर्ममर्मज्ञता (धर्मो शारिंगो) समभाव शब्दो के प्रयोग में जिस प्रकार गुणी दुर्गुण के विना धर्म का सार समझ में नहीं आता। आदि का संकर नहीं किया जाता उनका विवेक क्योंकि किसी एक ही सम्प्रदाय में मोह होजाने रक्खा जाता है उसी प्रकार धर्मसमभाव में भी से मनुष्य में वह विचारकता और विशालता - गुण दगुण और उनकी तरतमता का ध्यान पैदा नहीं होपाती है जिससे वह धर्म का ममे रक्खा जाता है। विश्वप्रेम का अर्थ यह है कि समझ सके। पद पद पर अन्धश्रद्धा विचारकत्ता विश्वप्रेमी ने साधारण रूप मे सब के साथ प्रेम मे बाधा डालती है। समभावी मे वह अन्धनद्धा करने का निश्चय किया है और अब वह किसी नहीं रहती इसलिये उसकी विचारकता खूब पन- मोह या स्वार्थ के कारण उनके साथ अन्याय न पती है। करेगा, और स्वभावत. उनके साथ प्रेम करेगा। धर्मसमभावी भी इसी तरह सत्र धर्मों के साथ सामाजिकता वृद्धि ('समाजपेरो विडो) समभाव के बिना धर्म संस्थाएँ सामाजिक दृष्टि . स्वभावत: प्रेम करता है, उनके साथ किसी तरह का अन्याय नही करता, स्वार्थ या मोह के कारण से एक कैदम्बाना बन जाती हैं। धर्मतीर्थ के भेद उनकी निन्दा नहीं करता। विश्वप्रेमी सब को से सामाजिक जीवन के टुकड़े टुकड़े होजाते हैं पहिले प्रेमपान बनाता है फिर अगर उसमें पाप एक दसरे के उत्सव त्यौहार जयन्तियों आदि में हो तो वह उपेक्षा करता या दूर हटता है उसी शिष्टाचार के नाते भी आना जाना बन्द होजाता प्रकार धर्म समभावी सब धर्मों से पहिले प्रेम है। सामाजिकता का यह अभाव एक राष्ट्रीयता करता है फिर यदि किसी में कोई खराबी दिखाई में भी वाधक होता है, अार्थिक और राजनैतिक दे तो वह उपेक्षा करता है दूर हटता है। समक्षेत्र में भी असहयोग आदि पैदा करता है । सम , भावी ग्रह मानकर चलता है कि साधारणतः भाव से थे बुगइयाँ दूर होजाती है। सभी धर्मनीर्थ जगत के कल्याण के लिये आये हैं,
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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