SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन्यामृत अगर कोई धर्मनीर्थ कल्याण विरोधी हो और हमारा तीर्थकर ही सर्वज्ञ है. दूसरे धर्म के तीर्थचल भी रहा हो तो उस अपवाद समझना कर मिथ्यात्ती इदमस्थ आदि है। इसप्रकार की चाहिय। जबकि समभाव विरोधी समझता है संकचितता का त्याग करने से मनुष्य समभावः कि मेरे बर्न को छोडकर चाफी धन मिथ्या हैं जाता है। फिर वह सब धर्मों की नि.पक्ष इनम अगर का सचान हा भातावह अपवादहा बालोचना, गुणदोषो की परीना करे इससे सम चार चेले जोडकर धर्मतीर्थ बड़े नहीं होते, भाव को धक्का नहीं लगता। या थोडी देर को बड़े भी हो तो शीघ्र लुन हो यहा यह वात भी ध्यान में रखना चहिये जात ह। अगर मानव कल्याण न करने वाला कि धर्मसमभाव में धर्म का अर्थ है लोक कल्याण धर्ग खड़ा होकर टिका हुआ है तो समभावी की सच्ची योजना । परम्परा से श्रानेवाली हरपने विवेक से उसकी नाच करेगा और उसे एक विचारधारा धर्म नहीं कहलाती। विवेकपूर्स अन्वीकार कर देगा, पर कहेगा कि ऐमा तीर्थ धर्मसमभावी कैसे धर्मतीर्थों के साथ कैसा व्यवशपवाद है। साधारणत. धर्म कल्याणकर है। हार करता है चा विचार रखता है इसकी कुछ तीकरी में ज्ञान संयम आदि की दृष्टि से सूचनाएं यहा दी जाती है। नम्तमता होती है पर इससे समभाव के व्यवहार धर्म या धर्मतीर्थ का मतलब उन व्यवस्थित में बाबा नहीं पड़ती। जैस माता पिता काका योजनाओं से है जो अपने युग की मुख्य मुख्य शाहिम तरतमता होती है पर वे सब गुरुजन याओ को इन करती हुई मानवजीवन को माने जात है और साधारणतः बन्दनीय होते हैं। विकास के पथ में आगे बढ़ाती है, और संसार उमी प्रकार मध तीर्थकर वन्दनीय है, भले ही को अधिक सुखमय बनाने का प्रयत्न करती है। उनम तरनमता रहे। मनलय वह कि समभावी अपने तीर्थ या - इसप्रकार के कितने धर्म होगये इसका पूरा हिसाब तीनकर का अन्य प्रशंसक और दूसरे के तीर्थ : तो नहीं बतलाया जासकता पर निम्नलिखित धर्म 1 इस श्रेणी में आते हैं। यानी सिरीका अन्धनिन्दक नहीं होता। निपजना ने निरीक्षण परीक्षण करता है। इसलिये हिन्दूधर्म, जरथोम्तीवर्म, जैनधी, बौद्धधर्म, चार चले जाडकर गुरु बनने वाले लोगों के सम्प्र. ईसाई धर्म, इसलामधर्म, कन्फ्यूसियस धर्म दायां की उम पवाह नहीं होती। वह विवेकहीन इत्यादि। होकर सब को सत्य नहीं मानता फिरता। नर्म- धर्मसमभावी इन धर्मो का श्रादर करता है मममात्र का जीवन पर सो सब से बडा और कृतज रहता है। पर इन्हे पूर्ण प्रमाण नहीं मानता महत्यपूस मार पड़ता है वह बही कि मनुष्य क्योंकि ये सैकडो बल्कि हजारों वर्ष से अधिक धर्ग को जान के विश्वविद्यालयों के ममान आचार पुगने होने के कारण आज के युग की समस्याओं विश्वविद्यालय समझने लगता है जैसे कोई को पूरी तरह या पर्याप्त रूप में हल नहीं करपाते। विगार्थी यह नहीं मोचना कि "मेरे विश्वविद्या- हां, इनसे प्रेरणा काफी ली जासकती है, सो वह लय में पड़ने में ही मनुष्य शिचित होसकता है लेता है। इन्हें भूत तीर्थ (लूलमन्तो ) कहना यारो ममार भर के विश्वविद्यालय शिक्षण के चाहिये। नामपर मनुष्य से उतने ही है' इमी प्रकार २-याज की गय. सभी समन्यायी का रोह धगंवाना वा न सोचे कि 'मेरे धर्म को समाधान करने वाले लो युगधर्म ह. समभावी मागन ग्राला ही धर्मामा नन्यस्त्री आस्तिक नको का परीक्षा करता है और बिलकुल मानगला मादि। और दूसरे धर्म को पिन नाष्ट से विचार करके तो उसे सर्वोत्तम माग मम्मी प्रादि नही अनमग्ने । मालूम होता है उसे स्वीकार करता है। मनमान
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy