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लिये उसे प्राणदंड देना पडता है। संक्रामक और जीवन भर सीता के विषय में विश्वासी रोगियो से वेष न होने पर भी अमुक अश में रहे । परा और अपरा मनोवृत्ति का यह सुन्दर बच रहा जाता है। इस प्रकार व्यक्ति-वेपन घटात है। हां, प्रेम परामनोन्ति में भी पहुँच होने पर भी दडादि व्यवस्था चल सकती है। कर मनुष्य को योगी बना सकता है । इस का
इन तीन चिन्हों से परा-मनोवृत्ति की पहि- कारण यह है कि द्रुप के समान प्रेम अधर्म नहीं चान हो सकती है। जिसकी यह परा-सनोवत्ति है।प विभाव है प्रेम भाव है क्योकि यह दुध न हो उसे योगी समझना चाहिये।
विश्वसुख-वर्धक है। हा, प्रेम जहा पर प्रधान या प्रश्न--योगी का द्वप जैसे भीतर से नहीं
स्वार्थ के साथ मिल कर मोह बन जाता है-विश्व
सुख-वर्धन रूप कर्तव्य में बाधक बन आता है रहता उसी प्रकार राग भी भीतर से नहीं रहता। ऐसी हालत में योगी किसी से प्रेम भी सच्चान
घहा पाप है। भक्तियोगी की भक्ति परा मनोवृत्ति करेगा। इस प्रकार उसका प्रेस एक प्रकार की
तक जाती है फिर भी उसकी परामनोवृत्ति दूषित वंचना हो जायगा। भक्ति आदि भी इसी प्रकार
नहीं होती क्योंकि उसकी भक्ति ज्ञान-भक्ति है, वंचना बन जायगी तब भक्तियोग असम्भव हो
स्वार्थमक्ति या अन्वति नहीं। ज्ञान-भक्ति स्वपर जायगा । भक्ति से होनेवाला क्षोभ योगी के
कल्याण की बाधक नहीं है बल्कि साधक है भीतरी मन तक कैसे जायगी और जब भक्ति
इससे वह दोष नही है जिससे परामनोवृत्ति
दूषित हो जाय। परामनोवृत्ति में है ही नहीं तब उससे योग क्या होगा?
प्रश्न-बहुत से लोगों ने तो वीतरागता
को ध्येय माना है प्रेम भक्ति आदि को गग माना ___ उत्तर-परामनोवृत्ति अगर प्रेम से न भी
है। हा, इन्हे शुभराग माना है फिर भी योगी भीगी हो तो भी वंचना न होगी। वचना के लिये तीन बाते जरूरी है। एक तो यह कि अपरा
जीवन के लिय तो यह शुभगग मी बाधक है। मनोवृत्ति भी न भींगी हो दूसरी यह कि जो
उत्तर-प्रेम और भक्ति भी शुद्ध न्याय विचार प्रगट किये जायें उनके पालन करने का आदि में बाधक हो जाते है इसलिये वे भी अशुद्ध विचार न हो। तीसरी बात यह कि दसरे के रूप में हेय है । पर शुद्ध प्रेम और शुद्ध भक्ति हिताहित की पर्वाह न करके अपना स्वार्थ सिद्ध न्याय या कर्तव्य में बाधक नहीं होते इसलिये काने की इच्छा हो । योगी का प्रेम सा नहीं ये उपादेय है । वीतरागता सिर्फ कयायों का होता । म राम कर्मयोगी थे उनकी पग मनोवात अभाव नहीं है, क्योकि अगर वह अभावम्प ही शात थी, अपरा मनोवृत्ति सुब्ध होती थी। हो तो वस्तु ही क्या रहे, इस प्रकार की अभावा. उनका सीता-प्रेम और रावण-प ऐसा ही था। मकवीतागता या प्रगगता तो मिट्टी पत्थर फिर भी उनका सीता-प्रेम वचना नहीं था क्योंकि आदि में भी होती है। मनुष्य की वीतरागना इम सीता के लिये जान जोखम में डालकर वे रावण प्रकार जडता रूप नहीं है वह चैतन्य रूप है, प्रेम से लड़े। यधपि वह प्रेम प्रजासेवा मे बागान रूप है, विश्व रेम रूप है इसलिये यह भाव रूप डाल सका, प्रजा के लिये उनने सीता का त्याग है। प्रेम वहीं निंदनीय है जहाँ अपने साथ द्वेष भी किया, फिर भी उनका सीता प्रेम फीशन की छाया लगाये रहे। कहा जाता है कि देवों के पड़ा, रिवाज के अनुसार आवश्यक होने पर भी छाया नहीं होनी. यह कल्पना इस रूप में मत्य उनने दूसरी शादी नहीं की, विश्वासघात नहीं रही जा सका है कि योगी अर्थात हियात्मामा किया। इस प्रकार पग मनोवृत्ति शान्त थी इस. का प्रेम छाया-दीन होता है अर्थान् न प्रम में लिये वे सीता का त्याग कर सके पर उनका प्रेम. काली बाजू नहीं होनी: अगर बोगी लोग प्रेम. पंचना नहीं था इसीलिये वे गवण से लड सके होनही तो अकर्मण्य हो गयें । म महावीर