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________________ सत्यामृत का वध ) है तो अनुचित, परन्तु जिसदेश में १-सयुक्तिक [इम्मिर ] जिसमे शट के रेगिस्तान होनेसे ऊंट की अपेक्षा गाय की उपयो अर्था बदलने मे ऐसी कोई युक्ति तर्क हो जिससे गिता कम है, और भरपूर वनस्पति न होने से शव का अर्थ बदलना उचित और अनिवार्य मासमक्षण किया जाता है वहा गोवध तन्तव्य हो, वह सयुक्तिक शट-समन्वय है । जैसे 'अमुक है, आज इसकी यहां कोई जरूरत नहीं तो यह व्यक्ति ने नई दुनिया बनाई इस वाक्य मे अर्थ-समन्वय या पारिस्थितिक-समन्वय कहला- दुनिया का अर्थ समाज-रचना करना आदि यगा । इसमे विश्वसनीयता अधिक है, विद्वानोको अनिवार्य है, क्योकि आदमी पृथ्वी ग्रह नक्षत्र भी इससे सन्तोप होता है। आदि नहीं बना सकता । इसलिये यह सयुक्तिक शन-समन्वय में तरह तरह से, लक्षणा शब्द-समन्वय कहलाया। लेप रुपक आदि से अर्थ बदला जाता है इस- र-अयुक्तिक (नोडम्मिर) जिसमें शद लिये वास्तविकता को चाहनेवाले लोग सन्तष्ट की अर्थ बदलना सयुक्तिक न हो, सिर्फ किसी नहीं होते, बल्कि मजाक उडाते है। कारण से वह अर्थ हमे पसन्द नहीं है इसलिये ___ हा । जहा अमिधा अर्थ सम्भव न हो वहा । किसी दूसरे ढंग से श्लेष उपमा रूपक आदि से ___ अर्थ बदला जारहा है । जैसे गोवध का अर्थ कता । जैसे-हमें नई दुनिया बनाना चाहिये, यो विचार करने से गोवध अशक्य, या असगत लेप के द्वाग इन्द्रियवध करना। इतिहास पर अमुक व्यचिने नई सृष्टि की। यहा दुनिया नदी माला होता. ऐसी हालत में उसका अर्थ बनाने का अर्थ सूर्य ग्रह नक्षत्र आदि बनाना , बदलना सयुक्तिक नहीं कहा जासकता। सम्भव नहीं है, इसलिये लक्षणा से यही अर्थ लेना पड़ेगा कि नई समाजव्यवस्था करना कुछ ऐसे अयुक्तिक शट-समन्वय होते हैं चाहिये। यह समन्वय ठीक है। यद्यपि इसमे जिन्हें सिर्फ अयुक्तिक न कहकर प्रत्ययुक्तिक शम का अर्थ बदला गया है अभिधेय अर्थ से (मेनोडन्मिर ) कहना चाहिये । इनमे अर्थ लक्ष्य अर्थ लिया गया है फिर भी इसे अनुचित बदलने के लिये लक्षणा का तो विचार किया नहीं कह सकते क्योंकि लक्ष्य अर्थ ही यहां ही नहीं जाता किंतु लेप के लिये कोष का भी वास्तविक अर्थ है। ध्यान नहीं रखा जाता, उपमा श्रादि से अर्थ बदला जाता है अथवा एकाक्षरी कोष का सहारा इसप्रकार समन्वय दो तरह का होगया। लेकर अर्थ वदला जाता है। जैसे-'पुराने समयमें १-पारिस्थितिक-समन्वय (लंजिजशतो) आर्य लोग अग्नि की उपासना करते थे। इति २-शत-समन्वय (ईक शत्तो ) इसमे हाम की इस सिद्ध बात को बदलकर यह अर्थ वर्ष बदलने के लिये कान्य के अलंकारों (लेप करना कि "वे अग्नि की उपासना नहीं करते उपमा रूपक श्रादि) का उपयोग किया जाता है, थे किंतु ध्यान लगाते थे। ध्यान का अर्थ अग्नि इसलिये इसे पालंकारिक-समन्वय ( भायहरं है। अग्नि जैसे कचरे को था मैल को जलाती है शत्तो) भी कहते हैं। परन्तु शत-समन्वय नाम उसी प्रकार ध्यान भी आत्मा के मैल को या पाप सरल और अधिक ठीक है क्योंकि इसमें शब्द का जलाता है इसी ध्यान को अग्नि कहा गया पी प्रधानना है। है। इसलिये अग्नि की उपासना अर्थात् ध्यान ऊपर इन दोनों समन्वया का विस्तात विवे की उपासना अर्थात् ध्यान करना चन किया गया है। .इसप्रकार की स्वींचतार करने से शाद शत ममन्वय भी दो तरह का होता है। निरर्थक होजाते है क्योकि इस तरह जिस चाहे १-मगुमिका र अफ्रिका धाक्य का जैसा चाहे अर्थ किया जासकेगा।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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