Book Title: Hindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ-कोकोदय-अन्यमाका–हिन्दी वन्यथा सि हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन [भाग १] श्री नेमिचन्द्र शास्त्रवि 024183 Jain BHARATIYABINA PMTH 1544 भारतीय ज्ञान पीठ का शी स्वपस्स Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ-लोकोदय-ग्रन्थमाला-सम्पादक और नियामक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, एम० ए० प्रकाशक अयोध्याप्रसाद गोयलीय मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस प्रथम संस्करण १९५६ ई० मूल्य ढाई रुपये मुद्रक ओमप्रकाश कपूर ज्ञानमण्डल यन्त्रालय कबीरचौरा, बनारस, ४८०७–१२ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द जैन साहित्य विशाल है। इस साहित्यका विपुल माग अपभ्रश और हिन्दी भाषामें लिखा गया है। अपभ्रंश भाषा हिन्दीकी जननी है। हिन्दीका विकास और विस्तार अपभ्रंशसे ही हुआ है। शैली एवं आकृतिगठनमें हिन्दी अपभ्रंश भाषाकी ऋणी है। हिन्दीमे महाकाव्यों का प्रणयन संस्कृत साहित्यके महाकायोंके आधारपर नहीं हुआ है, बल्कि अपभ्रश भाषाके महाकाव्योंके आधारपर हुआ है। रामचरितमानस और पद्मावत जैसे प्रसिद्ध काव्यग्रन्योकी शैली अपभ्र शकी है। देशीमापामें मी जैन कवियोंने अनेक काव्यग्रन्थोका निर्माण किया है। इस भाषामे भी अनेक महाकाव्य, खण्डकाव्य और गीतिकाव्य लिखे गये है। अतः प्रत्येक निष्पक्ष जिज्ञासुके हृदयमें इतने विशाल साहित्यके जाननेकी इच्छा बराबर हुआ करती है। साहित्यरत्नके विद्यार्थियोंको अध्यापन कराते समय मुझे अनेक आलोचनात्मक प्रोंको देखनेका अवसर मिला। श्री डॉ० रामकुमार वर्मा, आचार्य शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे प्रसिद्ध इतिहासकार और आलोचकोंने जैन साहित्यके विवेचन के समय केवल अपभ्रश भाषामें निबद्ध साहित्यपर ही विचार किया है तथा यह विचार भी उपलब्ध अपभ्रंश साहित्यको देखते हुए अपर्यास ही है। हिन्दी जैन साहित्यके अमूल्य रत्नोंके अवलोकनका समय या अवसर हिन्दीके हमारे मान्य आलोचकोंको मिला ही नहीं, इसके कई कारण हैं- सबसे प्रबक एक कारण तो यह है कि हिन्दी जैन साहित्य अभी सर्वसाधारणके लिए उपलब्ध नहीं है। अधिकाश उच्चकोटिके अन्य अभी भी अप्रकाशित है। जो प्रकाशित भी है, वे भी समीको उपलब्ध नहीं तथा उनकी छपाई-सफाई आदि बहुत प्राचीन एवं निम्नस्तरकी है, जिससे एक सुरुचि सम्पन्न पाठकको ऐसी पुस्तकें छूनेका भी साहस नहीं होता। अतः अधिकाश आलोचक जैन साहित्यके सम्बन्धमे यही लिखकर छोड़ देते हैं कि इस साहित्यका भाषाकी दृष्टि से महत्व है, विचारोकी दृष्टि से नहीं । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन पर वास्तविकता इससे बहुत दूर है; क्योंकि जैन साहित्यका भापाकी दृष्टिसे उतना महत्त्व नही, जितना विचारोंकी दृटिसे है। इस साहित्यम मानवताको अनुप्राणित करनेवाली भावनाओंकी प्रचुरता है। ससारके किसी भी साहित्यके समक्ष इस साहित्यको तुलनाके लिए प्रस्तुत किया जा सकता है। नवरसमयी हृदयको आन्दोलित करनेवाली पिच्छिल रसधारा इस साहित्यमें विद्यमान है। शब्द और अर्थकी नवीनता, शब्दों के सुन्दर विन्यास, मावोंका समुचित निर्वाह, कल्पनाकी ऊँची उड़ान, मानवके अन्तरंग और बहिरगका सजीव विश्लेपण इस साहित्यमें सर्वत्र मिलेगा। अतः हृदयमें एक भावना उत्पन्न हुई कि कतिपय हिन्दी जैन अन्योंका अध्ययन कर एक अनुशीलन प्रस्तुत किया जाय । यद्यपि हिन्दी भाषाम निवद्ध जैन साहित्य विशाल है, उसका सागोपाग अनुशीलन प्रस्तुत करना, तनिक कठिन है, तो भी इस प्रयासमे लब्धप्रतिष्ठ कवियों एवं लेखकोंकी प्रमुख रचनाओंका परिशीलन उपस्थित करनेका आयास किया गया है। अपभ्रंश भापाका साहित्य इतना विशाल है कि इस साहित्यपर एक वृहत्काय अनुशीलनात्मक ग्रन्थ लिखना आवश्यक है, अतएव प्रस्तुत परिशीलनमें इस भापाकी दो-एक रचनाएँ ही ली गई हैं। मैंने अपनी रुचिके अनुसार महाकवि स्वयम्भूदेव, पुष्पदन्त, बनारसीदास, मैया भगवतीदास, भूधरदास, धानतराय, दौलतराम, वृन्दावन प्रभृति प्राचीन हिन्दी जैन कवियों एव अनूपशर्मा, धन्यकुमार सुधेश, बालचन्द्र एम. ए. आदि नवीन कवियोंकी उन्हीं रचनाओका परिशीलन प्रस्तुत किया है, जो मुझे रुचिकर हुई है। यह परिशीलन दो भागोमें प्रकाशित हो रहा है। प्रथम भागमे प्राचीन कवियोंकी काव्य रचनाओका परिशीलन है तथा इस परिशीलन में भी सभी प्राचीन कवियोंकी रचनाएँ नहीं भी आ सकी है। रचनाओं का निर्वाचन मैने किमी क्रमसे नहीं किया है और न रचनाओंके मानदण्डको ही प्रधानता दी है। जो ग्रन्थ मेरे अध्ययनका विषय रहा है तथा किसी भी कारणसे जो मुझे प्रिय है, उसीका परिशीलन उपस्थित किया Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द गया है। अत: बहुत संभव है कि श्रेष्ठ रचनाएँ छूट भी गयी हो और निम्न कोटिकी रचनाओंको स्थान मिल गया हो। मेरी इच्छा इस परिशीलनमें कवि और उनकी रचनाओं के सम्बन्धमें ऐतिहासिक विवेचन प्रस्तुत करने की थी, किन्तु जिन दिनों इस परिशीलनको तैयार कर रहा था, उन दिनो श्री बाबू कामताप्रसादजीका 'हिन्दी जैन साहित्यका सक्षित इतिहास प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तककी ऐतिहासिक भूलोपर जैन आलोचकोंकी रोष-चिनगारियाँ उद्बुद्ध हो रही थीं, अतएव ऐतिहासिक क्षेत्रमे कदम बढ़ानेका साहस नहीं हुमा । भूल होना स्वाभाविक बात है, मैतः प्रत्येक मनुष्य अपूर्ण है। आलोचकों का कर्तव्य है कि सहिष्णुतापूर्वक आलोचना करते हुए भूलोकी ओर संकेत करें। उन मालोचनाओंको देखकर मुझे ऐसा लगा कि कतिपय लब्धप्रतिष्ठ प्राचीन लेखक नवीन लेखकोको इस क्षेत्रमें आया हुआ देखकर असहिष्णु हो उठते हैं और सहानुभूति एव सहृदयतापूर्वक आलोचना न कर तीव्र रोष और क्षोम दिखलाते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि आज जैन साहित्यपर आलोचना-प्रत्यालोचनात्मक अन्योंका प्रायः अभाव है। नवीन लेखकोको कहींसे भी प्रोत्साहन नहीं मिलता, बल्कि निराशा ही मिलती है। कतिपय ग्रन्थमालाओंसे उन्हीं विद्वानोंके अन्य प्रकाशित होते है, जो उनसे सम्बद्ध हैं या उन सम्बद्ध विद्वानोके मित्र है। कहने के लिए समाओंमें हमारे मान्य आचार्य बहुत कुछ कह जाते हैं, पर वे अपने हृदयको टटोलें कि सत्य क्या है ? यदि ख्यातनामा विद्वान् प्रोत्साहन दे और नवीन लेखकों का मार्ग प्रदर्शन करे तो जैन साहित्यपर वेजोड़ कृतियों शीघ्र ही प्रकाशमे आ सकती हैं। अस्तु, परिशीलन शब्द परि उपसर्ग पूर्वक शील धातुसे भाव अर्थमे ल्युट् प्रत्यय करनेपर बनता है, जिसका अर्थ होता है सभी दृष्टियोसे आलोडनविलोडन कर अध्ययन प्रस्तुत करना। उपर्युक्त अर्थकी दृष्टिसे तो इस कृतिका नाम सार्थक नहीं है, यतः समस्त दृष्टिकोणोंसे रचनाओंका शीलन नहीं किया गया है, पर इस शब्दका व्यावहारिक और प्रचलित अर्थ यह भी लिया जाता है कि शास्त्रीय दृष्टिसे रचनाओका विश्लेषण करना । मेरी दृष्टि प्रधानतः यह रही है कि परिशीलित रचनाओंका कथानक भी अवश्य दिया जाय । क्योकि जैन साहित्यकी अधिकाश कथाएँ इस प्रकारकी हैं, जिनका आधार लेकर श्रेष्ठतम नवीन काव्य लिखे जा सकते है। अतएव आलोचनाके साथ कथावस्तु देनेकी चेष्टा की गयी है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन इस परिशीलनके तैयार करनेमें वयोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध श्री ५० नाथूरामनी प्रेमीसे मुझे पर्याप्त सहयोग मिला है। आपने एकवार इसे आद्योपान्त देखा तथा अपने बहुमूल्य सुझाव उपस्थित किये, इसके लिए मैं आपका अत्यन्त आभारी हूँ। नींवकी इंटकी तरह समस्त भार वहन करनेवाले श्री पं० अयोध्याप्रसादजी गोयलीयका आभार प्रकट करनेके लिए मेरे पास शब्द नहीं। आप एकवार आरा पधारे थे, मैने उस ममय इस कृतिके कुछ अंश पढ़कर आपको सुनाये | आपने मेरी पीठ टोकी, फलतः आपके द्वारा प्राप्त उत्साहसे यह रचना कुछ ही समयमें तैयार हो गयी। इस कृतिको परिष्कृत रूप देनेका श्रेय लोकोदय अन्यमालाके सुयोग्य सम्पादक श्री वावू लक्ष्मीचन्द्रजी जैन एम०ए० को है, आपने इसे संक्षिप्त रूप देकर एक कुद्यल मालीका कार्य किया है। अन्यथा इस कृतिके पॉच-पॉच सौ पृष्ठके दो माग होते । प्रेस कापी तैयार करने में श्रीजैन वालाविश्राम आराकी साहित्य विभागकी छात्राओं, वहाँक शिक्षक श्री पं० माधवराम शास्त्री और अपने भतीजे आयुप्मान् श्रीराम तिवारीसे भी पर्याप्त सहयोग मिला है । परामर्श प्राप्त करनेम पूज्य भाई प्रो० खुशालचन्द्रजी गोरावाला एम० ए०, साहित्याचार्य, मित्रवर बनारसीप्रसाद भोजपुरी', प्रो. रामेश्वरनाथ तिवारीसे भी समय-समयपर सहयोग प्राप्त होता रहा है। भारतीय ज्ञानपीठ काशीके अधिकारी एवं प्रूफसंशोधनमें सहायक श्री चतुर्वेदीनीका भी हृदयसे आभारी हूँ। समस्त अन्योंकी प्राप्ति जैनसिद्धान्तमवन आराके ग्रन्थागारसे हुए, अतः उस पावन-सस्थाके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना मैं अपना परम कर्तव्य समझता हूँ । अन्तम समस्त सहायक महानुभावोंके प्रति अपना आभार प्रकट करता है। जैनसिद्धान्त भवन, आरा २फरवरी ५६ -नेमिचन्द्र शास्त्री Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची प्रथमाध्याय पार्श्वपुराण हिन्दी जैन साहित्यका प्रादुर्भाव १९ | हिन्दी जैन खण्डकाव्य दार्शनिक आधार नागकुमार चरित २२ २७ हिन्दी जैन प्रवन्ध-काव्य २८ Cat भापाके जैन प्रबन्ध पुरातनकाव्य साहित्य काव्य देशी भाषा के प्रबन्ध-काव्योंका जायसी, तुलसी तथा हिन्दी के अन्य कवियोपर प्रभाव अपभ्रंशके बादकी पुरानी हिन्दीके जैन प्रबन्ध २९ रामायण तिसहिमहापुरिस गुणालकारु सुदर्शन-चरित ३१ काव्य हिन्दी जैन साहित्य के पर चत प्रबन्ध-काव्य हिन्दी जैन महाकाव्य पउमचरिउ - पद्मचरित्र [जैन ३९ ४१ ४२ ૪૨ ४८ ४९ शोध-चरित जम्बूस्वामीरासा अन्य रासा ग्रन्थ नेमिचन्द्रिका चरित्र और कथाकाव्य गजसिंह गुणमाल-चरित श्रीपाल - चरित चन्द्रप्रभ चरित द्वितीयाध्याय हिन्दी - जैन- गीतिकाव्य और ५० ५३ ५४ ५४ ५५ ५५ ५९ ६२ ६४ ६६ ६७ उसकी इतर गीतिकाव्यसे तुलना ७३ जैन पदोमे संगीतात्मकता ७४ जैन पद में आत्मनिष्ठा और वैयक्तिकता ७७ ७९ समन्वित अभिव्यक्ति कवि बनारसीदास के पद ८० भैया भगवतीदासके पटः परिचय और समीक्षा ८२ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ समीक्षा ८७ १८२ 913 १८१ १९० हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन आनन्दघनके पट : परिचय चेतन कम-चरित्र और समीक्षा ८४ शत-अष्टोत्तरी १५ यशोविजयके पद : परिचय मधुविन्दुक चौपाई १७३ और समीक्षा ८६ पञ्चमाध्याय भूधरदासके पढ : परिचय प्रकीर्णक काव्य और समीक्षा सक्तिमुक्तावनी धानतरायके पट : परिचय ज्ञानवावनी और समीक्षा अनित्यपञ्चीसिका दौलतरायके पद : परिचय उपदेश-शतक और समीक्षा ११ दानवावनी कवि मागचन्दके पद : व्यौहारपञ्चीसी परिचय और समीक्षा ९८ पूरणपंचासिका कवि बुधननके पट : परि भूधर-शतक चय और समीक्षा १०० बुधनन सतसई कवि वृन्दावनके पट: नेमिन्याह परिचय और समीक्षा १०२ बारहमासा नेमिराजुल २०२ पदाका तुलनात्मक विवेचन १०३ उहवाला २०५ तृतीयाध्याय छठवाँ अध्याय 'ऐतिहासिक गीतिकाव्य १२८ | आत्मकथा कान्य चतुर्थाध्याय सातवाँ अध्याय आध्यात्मिक रूपक काव्य १३८ रीति-साहित्य नाटक समयसार १४० रससिद्धान्त तेरह काठिया १४७ अलंकार भवसिन्धुचनुर्दशी छन्दशास्त्र अच्यात्म हिंडोलना कोप १०१ १९४ २०१ ० २४ २३४ २३८ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्याय हिन्दी-जैन-साहित्यका प्रादुर्भाव प्राचीन परम्परामे साहित्यको सनातन सत्यकी उपलब्धिका साधन माना है। इसीलिए कविषय मनीषियोंने "आत्म तथा अनात्म भावनामोकी भन्य अभिव्यक्तिको साहित्य कहा है। यह साहित्य किसी देश, समाज या व्यक्तिका सामयिक समर्थक नहीं, बल्कि सार्वदेशिक और सार्वकालिक नियमोसे प्रभावित होता है। मानवमात्रकी इच्छाएँ, विचारधाराएँ और कामनाएँ साहित्यकी स्थायी सम्पत्ति हैं। इसमे हमारे वैयक्तिक हृदयकी मॉति सुख-दुःख, आशा-निराशा, भय-निर्भयता एव हास्य-रोदनका स्पष्ट सन्दन रहता है" आन्तरिक रूपसे विश्व के समस्त साहित्योमे भावो, विचारो और आदीका सनातन साम्य-सा है। क्योंकि आन्तरिक भावधारा और जीवन-मरणकी समस्या एक है। प्राकृतिक रहस्योंसे चकित होना तथा प्राकृतिक सौन्दर्यको देखकर पुलकित होना मानवमात्रके लिए समान है। अतएव साहित्यमे साधना और अनुभूतिके समन्वयसे समाज और ससारसे ऊपर सत्य और सौन्दर्यका चिरन्तन रूप पाया जाता है। इसीकारण साहित्यकार चाहे वह किसी भी जाति, समाज, देश और धर्मका हो अनुभूतिका भाण्डार समान रूपसे ही अर्जित करता है। वह सत्य और सौन्दर्यकी तहमें प्रविष्ट हो अपने मानससे भगवराशिरूपी मुक्ताओको चुन-चुनकर शब्दावलीकी लड़ीमे शिवकी साधना करता है। सौन्दर्य-पिपासा मानवकी चिरन्तन प्रवृत्ति है। जीवनकी नश्वरता और अपूर्णताकी अनुभूति सभी करते है, सभी इसका मर्म जाननेके लिए उत्सुक रहते हैं, इसी कारण साहित्य अनुभूतिकी प्राचीपर उदय लेता है। मानवके भीतर चेतनाका एक गूढ़ और प्रबल आवेग है, अनुभूति इसी आवेगकी, सच्ची, सजीव और साकार लहर है। इस अनुभूतिके लिए Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन व्यक्ति, धर्म, जाति, समाज और देशका तनिक भी बन्धन अपेक्षित नही । इसी कारण मनीपियोने आत्म-दर्शनको ही साहित्यका दर्शन माना है, अपनेमें जो आभ्यन्तरिक सत्य है, उसे देखना और दिखलाना साहित्यकारकी चरम साधना है । जैन - साहित्य स्रष्टाओने अखण्ड चैतन्य आनन्दरूप आत्माका ही अपने अन्तस्में साक्षात्कार किया और साहित्यमे उसीकी अनुभूतिको मूर्त रूप प्रदान कर सौन्दर्यके शाश्वत प्रकाशकी रेखाओ द्वारा वाणीका चित्र अकित किया । इन्होने अपनी अनुभूतिको आत्म-साधनाका विषय बनाकर चिरन्तन मंगल- प्रभातका दर्शन किया । इन्होंने आभ्यन्तरिक धरातलमे अंकुरित अशान्ति एवं असन्तोषका उपचार ऊपरी सतहपर लगे दोषोंके परिमार्जनसे न कर प्रस्फुटित अनुभूतिके झरनेमे मज्जन कर, किया । जैन साहित्यकारोने अधूरी और अपूर्ण मानवताके मध्यमे उस सक्रान्ति एवं उथल-पुथल के युगमें, जब कि भारतकी राजनीतिक, सास्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों प्रबल वेगके परम्परा साथ परिवर्तित होती जा रही थीं, खडे होकर पूर्ण मानवका आदर्श प्रस्तुत किया। जैनाचार्य आरम्भसे ही लोक भाषामे मानवताका पाठ पढाते आ रहे है । भगवान् महावीरका उपदेश भी उस कालकी सार्वजनीन अर्धमागधी भाषामें हुआ था । अतः सातवी-आठवीं शती में जैन-लेखकोने प्राकृत और संस्कृतका पल्ला छोड प्रताड़ित और बिखरी हुई मानवताको तत्कालीन लोक- प्रचलित अपभ्रंश भाषामे सुरक्षित रखनेका प्रयास किया । नवीं शतीमें जन-साधारणकी भाषा बन जानेके कारण अपभ्रशका प्रचार हिमालयकी तराईसे गोदावरी और सिन्धसे ब्रह्मपुत्र तक था । यह जीवट और भाव-प्रवण में सक्षम भाषा थी, अतः जैनाचायोंने मानवके आदर्शोंके प्रचारके लिए तथा मूर्छित मानवताको सचेतन बनानेके लिए इस भाषा में प्रभूत साहित्य रचा । स्तोत्र-काव्य, कथा- काव्य, महाकाव्य Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्यका प्रादुर्भाव और खण्डकाव्य जैन-लेखको द्वारा विरचित इस भाषामे पाये जाते है। शृगार, वीर और नीतिकी स्फुट रचनाएँ भी इस भाषामे बड़ी मार्मिक और गम्भीर मिलती हैं । स्वयम्भू कविने (८-१०वी शती) हरिवंशपुराण' और 'पउमचरित' की रचना की, पश्चात् इनके पुत्र त्रिभुवनने पिताके अधूरे कार्यको पूरा किया। इसी शताब्दीमे धनपाल्ने 'भविसयत्तकहा' और महाकवि धवल्ने 'हरिवंशपुराण' की रचना की। ग्यारहवीं शतीमें पुष्पदन्त कविने 'महापुराण', श्रीचन्द मुनिने 'कथाकोष', सागरदत्तने 'नम्बूस्वामीचरित' और 'आराधनाकथाकोष' की रचना की। अभयदेव सूस्किा 'जयतिभुवन गाथास्तोत्र', देवचन्द्रका 'सुलसाख्यान' और 'शान्तिनाथचरित', वर्धमान सूरिका 'वर्द्धमानचरित', अब्दुल रहमानका 'सन्देश रासक' और पाहिड़ कविका 'पद्मिनी चरित' बारहवी शतीकी प्रमुख अपभ्रश रचनाएँ हैं | हेमचन्द्रकै पश्चात् तेरहवी शतीमे योगचन्द्रने 'योगसार' और 'परमात्मप्रकाश' तथा माइल्लघवलने 'नयचक्र लिखा। अपन शकी ये रचनाएँ पुरानी हिन्दीके बहुत निकट है। ___ अपभ्रश और पुरानी हिन्दीके जैन-कवियोंने लोक प्रचलित कहानियोंको लेकर उनमे स्वेच्छानुसार परिवर्तन करके सुन्दर काव्य लिखे। मध्यकालके आरम्भमे समाज और धर्म संकीर्ण हो रहे थे, अतः जैन-लेखकोने अपने पुरातन कथानकों और लोकप्रिय परिचित कथानकोमे जैनधर्मका पुट देकर अपने सिद्धान्तोके अनुकूल उपस्थित किया तथा पञ्चनमस्कार फल या किसी व्रतसे सम्बद्ध दृष्टान्त प्रस्तुत कर जनताके हृदय-पटलपर मानवोचित गुण अकित किये। बाहरी वेश-भूषा, पाखण्ड आदिका-जिनसे समाज विकृत होता जा रहा था बड़ी ही ओजस्वी वाणीमे जैन साहित्यकारोने निराकरण किया। मुनि रामसिंहने भेषकी व्यर्थता दिखलानेके लिए उसे सॉपकी केचुलीकी उपमा दी है। ऊपरी. आवरणको छोड देनेपर सॉप नवीन आवरण धारण करता है, पर विष उसका ज्यो कालो बना रहता है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन इसी तरह वेश बदल साधु हो जानेसे मनुष्य शुद्ध नही हो सकता, इसके लिए भोग-प्रवृत्तिका त्याग करना परम आवश्यक है। चौदहवी और पन्द्रहवी शताब्दीमे जैन-कवियोने बज और राजस्थानी भाषामे रासा ग्रन्थोकी रचना की । गौतम रासा, सप्तक्षेत्ररासा एवं संधपति समरा रासा आदिमे अहिंसातत्त्वके कथानको-बारा सुन्दर अभिव्यञ्जना की गयी है । सोलहवी शताब्दीमे ब्रह्म जिनदास कवि हुए, जिन्होंने मानवताकी प्रतिष्ठा करनेवाली 'आदिनाथपुराण' 'श्रेणिकचरित' आदि कई रचनाएँ लिखी । वास्तवमे इनसे ही प्रादेशिक भाषामे काव्य-रचनाका आरम्म होता है । सत्रहवी शताब्दीमें महाकवि बनारसीदास, रूपचन्द और हेमविजय आदि अनेक कवि हुए, जिन्होने राजस्थानी और ब्रज-भाषाम गद्य-पद्यात्मक रचनाएँ लिखीं। इस प्रकार सातवी शतीसे आजतक जैन-हिन्दी-साहित्यकी धारा मानव जीवनकी विभिन्न समस्याओका समाधान करती हुई अपनी सरसता और सरलताके कारण गृहस्थ जीवनके अति निकट आयी। इस धाराका सन्त कवियोपर गहरा प्रभाव पड़ा; जिस प्रकार जैन-कवियोने घरेलू जीवनके दृश्य लेकर अपने उपदेश और सिद्धान्तोका जन-साधारणमें प्रचार किया, उसी प्रकार सन्त-कवियोने भी। अहिंसा सिद्धान्तकी अभिव्यक्ति करनेवाले लोक-जीवनके स्वाभाविक चित्र जैन साहित्यमें उपलब्ध हैं; इस साहित्यमे सुन्दर, आत्मपीयूष रस छल-छलाता है। धर्मविशेषका साहित्य होते हुए भी उदारताकी कभी नहीं है। आत्मस्वातन्त्र्य प्रत्येक व्यक्तिके लिए अभीष्ट है । प्रत्येक मानव स्वावलम्बी बनना चाहता है और चाहता है उद्घाटित करना आत्मानुभूति-द्वारा अपने भीतरके तिरोहित देवाशको। दार्शनिक आधार हिन्दी जैन साहित्यकी मित्ति जैन-दर्शनपर आश्रित है। इसी कारण जैन-साहित्यकारोंने विलास और शृङ्गारसे दूर हटकर आत्मसमर्पण और उत्सर्गकी भावनाका अंकन किया है। अतएव शृगार-रसका Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिक आधार वर्णन अल्प परिमाणमे हुआ है। नायिकाके यौवन, रूप, गुण, गील, प्रेम, कुल, वैभव और आभूषणोका निरूपण न्यूनतम - मात्रामे उपलब्ध है। यह बात नहीं कि हिन्दी-जैनपृष्ठभूमि साहित्यमे अज्ञातयौवनाका भोलापन, शातयौवनाका मानसिक विश्लेषण, नवोढाकी लबाकी ललाई, प्रौढाका आनन्द-संमोहन, विदग्धाका चातुर्य, मुदिताकी उमग, प्रोषितपतिकाकी मिलनोत्कण्ठा, प्रवत्स्यत्यतिकाकी बेचैनी, आगमिण्यत्सतिकाकी अधीरता, खण्डिताका कोप एव कलहान्तरिताका प्रेमाधिक्यनन्य कलहका चित्रण नहीं है, पर प्रधानतया इसमे मानवकी उन भावना और अनुभूतियोको पृष्ठाधार रूपमे स्वीकार किया गया है, जिनपर मानवता अवलम्बित है। हिन्दी जैन-साहित्यके मूलाधारभूत जैन-दर्शनके मुख्य दो भाग हैएक तत्त्वचिन्तनका और दूसरा जीवन-शोधनका । 'जगत् , जीव और ईश्वरके स्वरूप-चिन्तनसे ही तत्त्वज्ञानकी पूर्णता नहीं होती है, किन्तु इसमें जीवन-शोधनकी मीमासाका भी अन्तर्भाव करना पडता है । जैन-मान्यताम जीव, अजीच, आखव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोम ये सात तत्त्व माने गये हैं। इनके स्वरूपका मनन, चिन्तनकर आत्मकल्याणकारी तत्त्वोमें प्रवृत्ति करना जैन-तत्त्वज्ञानका एक पहलू है। उक्त सातो तत्त्वामें जीव और अजीव ये दो मुख्य तत्त्व हैं। सच्चिदानन्द मय आत्मा या नीव जान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणोंका अक्षय भाण्डार है। यह अखण्ड, अमूर्तिक पदार्थ है, जो न शरीरसे बाहर व्यास है और न शरीरके किसी विशेष भागमें केन्द्रित है, किन्तु मनुष्यके समग्र शरीरमे व्यास है। __आत्माएँ अनेक है, सबका स्वतन्त्र अस्तित्व है। कर्म-अनीव (पुद्गल) के सम्बन्धके कारण ससारी आत्माएँ अशुद्ध है, राग-द्वेषसे विकृत हैं। जब कर्म बन्धन हट जाता है, तब कोई भी आत्मा शुद्ध हो जाती है। वह शुद्ध आत्मा ही ईश्वर या मुक्त कहलाती है। प्रत्येक आत्मामे ईश्वर बननेकी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '२४ हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन योग्यता विद्यमान है; अपने पुरुपार्थकी हीनाधिकता के कारण आत्माएँ भिखारी या भगवान् बननेकी ओर अग्रसर होती है । आत्माकी शुद्धिके लिए राग-द्वेपको हटाना आवश्यक हैं तथा रागद्वेपको हटानेके लिए दृढ़तर प्रयत्न करना ही पुरुषार्थ है । यह पुरुपार्थ प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्गों द्वारा सम्पन्न किया जाता है । प्रवृत्ति-मार्ग कर्मबन्धका कारण है और निवृत्ति-मार्ग अबन्धका । यदि प्रवृत्ति-मार्गको घूम-घुमावदार गोलघर माना जाय, जिसमे कुछ समय के पश्चात् गमन 'स्थान पर इधर-उधर दौड़ लगानेके अनन्तर पुनः आ जाना पडता है, तो निवृत्ति-मार्गको पक्की सीधी ककरीली सीमेंटकी सडक कहा जा सकता है, जिसमें गन्तव्य स्थानपर पहुँचना सुनिश्चित है, पर गमन करना कष्टसाध्य है। जैन दर्शन निवृत्ति-प्रधान है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय ही निवृत्ति-मार्ग है । जीवादि सातों तत्त्वोकी सच्ची श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन, इन तत्त्वोंका सच्चा ज्ञान सम्यग्ज्ञान और आत्मतत्त्वको प्राप्त करनेका सम्यक् आचरण ही सम्यक्चारित्र कहलाता है। इस मार्गपर आरूढ़ होनेसे ही जन्म• मरणका दुःख दूर हो निःश्रेयस् ग्रा मोक्षकी प्राप्ति होती है । ' जैन-दर्शनम आत्माकी तीन अवस्थाएँ मानी गयी है-वहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । जब अज्ञान और मोहकी प्रवलताकै कारण आत्मा वास्तविक तत्त्वका विचार न कर सके तथा कल्याणकी दिशामें 'विल्कुल न बढ़ सके, बहिरात्मा कही जाती है । जब सच्चा विश्वास उत्पन्न ' हो जाता है, विवेकशक्तिके जागृत होनेसे राग-द्वेपके सस्कार क्षीण होने लगते हैं, तव अन्तरात्मा कही जाती है और आत्मिक शक्तिको आच्छादित 'करनेवाले कारणोंके क्षीण हो जानेपर परमात्मा अवस्थाका प्रादुर्भाव होता • है। आत्माकी ये तीनो अवस्थाएँ रत्नत्रयके अभाव, प्रादुर्भाव और विकासके 'कारण होती हैं। निष्कर्ष यह है कि जब तक रत्नत्रयकी उत्पत्ति नहीं होती, , आत्मा अपने स्वरूपको भूलकर अन्यथा रूपसे प्रवृत्त होती है । रत्नत्रयका Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिक माधार २५ प्रादुर्भाव हो जानेपर आत्मा स्वोन्मुखरूपसे प्रवृत्त करती है, जिससे रागद्वेषके सस्कार शिथिल और क्षीण होने लगते है तथा रत्नत्रयके परिपूर्ण होनेपर आत्मा परमात्मा अवस्थाको प्राप्त हो जाती है। अतः आत्म गोधनमें सम्यक् श्रद्धा और सम्यग्ज्ञानके साथ सदाचारका महत्त्वपूर्ण स्थान है । जैन - सदाचार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप है । इन पाँचो व्रतोमे अहिंसाका विशेष स्थान है, अवशेष चारो अहिंसाकै विभिन्न स्प हैं । कपाय और प्रमाद - असावधानीसे किसी जीवको कष्ट पहुँचाना या प्राणघात करना हिंसा है, इस हिंसाको न करना अहिसा है । मूलतः हिसाके दो भेद है— द्रव्यहिसा और भावहिसा । किसीको मारने या सता के भाव होना भावहिंसा और किसीको मारना या सताना द्रव्यहिसा है । भावोंके कलुपित होनेपर प्राणघातके अभाव में भी हिंसा - दोष लगता है । अहिसा की सीमा गृहस्थ और मुनि - साधुकी दृष्टिसे भिन्न-भिन्न है। गृहस्थकी हिसा चार प्रकारकी होती है—संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी । विना अपराधकै जान-बूझकर किसी जीवका वध करना सकल्पी हिंसा है। इसका दूसरा नाम आक्रमणात्मक हिसा भी है । प्रत्येक गृहस्थको इस हिसाका त्याग करना आवश्यक है। सावधानी रखते हुए भी भोजन बनाने, जल भरने, कूटने-पीसने आदि आरम्भ-जनित कार्यों में होनेवाली हिंसा आरम्मी; जीवन निर्वाहके लिए खेती, व्यापार, शिल्प आदि कायामे होनेवाली हिंसा उद्योगी एवं अपनी या परकी रक्षाके लिए होने'वाली हिंसा विरोधी कही जाती है। ये तीनों प्रकारकी हिंसाऍ रक्षणात्मक हैं । इनका भी यथाशक्ति त्याग करना साधकके लिए आवश्यक है । 'स्वयं जियो और अन्यको जीने दो' इस सिद्धान्त वाक्यका सदा पाल्न करना सुख-शान्तिका कारण है । राग, द्वेष, घृणा, मोह, ईर्ष्या आदि विकार हिंसा में परिगणित है । जैनधर्मके प्रवर्तकोने विचारोको अहिसक बनानेके लिए स्याद्वाद - विचार समन्वयका निरूपण किया है। यह सिद्धात आपसी मतभेद अथवा पक्षपात Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन पूर्ण नीतिका उन्मूलन कर अनेकनामे एकता, विचारोमे उदारता एव सहिष्णुता उत्पन्न करता है। यह विचार और कथनको संकुचित, हठ एव पक्षपातपूर्ण न बनाकर उदार, निष्पक्ष और विशाल बनाता है। वस्तुतः जीवन अहिंसक तमी बन सकता है, जब आचार और विचार दोनो अहिंसक हो जायें । पूर्ण अहिसक ही राग-द्वेष और कर्म-बन्धनका ध्वंसकर मोक्ष या निर्वाणको प्राप्त करता है। मानव-जीवनका चरम लक्ष्य निर्वाण या मोक्षको प्राप्त करना ही है। इस समित दार्शनिक विवेचनकै प्रकाशमें हिन्दी-जैन-साहित्यकी पृष्ठभूमिकी निम्न भावनाएँ है: सम्यग्दर्शन जन्य १-अपनेको स्वयं अपना भाग्यविधाता समझकर परोम शक्तिईश्वरादि शक्ति सुख-दुःख देनेवाली है, विश्वासको छोड़ पुरुषार्थमें प्रवृत्त होना। २-आत्माके अस्तित्वका विश्वासकर मन-वचन-कायके अपने प्रत्येक क्रिया-व्यापारको अहिंसक वनाना। ३-अपने पुरुषार्थपर विश्वासकर सर्वतोमुखी विशाल दृष्टि प्राप्त करना। ४--राग-द्वेषादि सस्कार अनात्ममाव है, यह विश्वास उत्पन्न करना। सम्यग्ज्ञान जन्य १-चैयक्तिक विकासके लिए हृदयकी वृचियोसे उत्पन्न अनुभूतियोको विचारके लिए बुद्धि के समक्ष उत्पन्न करना और बुद्धि-द्वारा निर्णय हो जानेपर कार्यमें प्रवृत्त हो जाना। २-विरोधी विचार सुनकर घबड़ाना नहीं, अपने विचारोके समान अन्यके विचारोका मी आदर करना तथा अपने विचारोपर भी तीन आलोचनात्मक दृष्टि रखना। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य २७ ३-मिथ्यामिमान छोड़कर उदारतापूर्वक विचार सहिष्णु बनना तथा अपनी भूलको सहर्ष स्वीकार करना। ४-तत्त्वज्ञानके चिन्तन-द्वारा अहंभावका इदभावके साथ सामञ्जस्य प्रकट करना। सम्यकवारित्र जन्य १.-निर्मय और निर होकर शान्तिके साथ जीना और दूसरोको जीवित रहने देना। २-अहिंसा और संयमके समन्वय-द्वारा अपनी विशाल और उदारदृष्टिसे विश्ववन्धुत्वकी भावनाको जागृत करना। ३-वासना, इच्छा और कामनाओपर नियन्त्रण करना तथा आत्मासोचनमे प्रवृत्त होना। ४-दया, ममता, करुणा आदिके उद्घाटन द्वारा मानवताको प्रतिठित करना। ५-मौतिकवादकी मृगमरीचिकाको अध्यात्मवादकी वास्तविकताद्वारा दूर करना। । ६-शोषित और शोषकमे समता लाने के लिए अपरिग्रहवाद और संयमको जीवनमे उतारना। ७-शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्यके लिए शुद्ध आहार-विहार करना। पुरातन काव्य-साहित्य [८वीं शतीसे १९वी शतीतक] अपनश भाषाकी उत्पत्ति पाँचवीं शतीमे हुई थी और छठवीं शतीम यह देशी भापाका रूप ग्रहण कर चुकी थी। अतः छठवी शतीसे ग्यारहवी गतीतक इस भाषामे पुष्कल परिमाणमे साहित्यका सृजन होता रहा । आगे चलकर इसी मापाने हिन्दी-भाषी प्रान्तोमें हिन्दीका रूप और अन्य माषा-भाषी प्रान्तोमे मराठी, गुजराती आदि भाषाओका रूप धारण किया। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन जैन-कलाकारोने मध्यकालमे इसी देशी भाषाका आधार लेकर अपने आन्तरिक भावोकी अधिक-से-अधिक स्पष्ट, मनोरजक और प्रभावपूर्ण ढगसे अभिव्यखना की । जीवनका चिरन्तन सत्य, मानव कल्याणकी प्रेरणा एव सौन्दर्यकी अनुभूतिको अनुपम, मधुर देशी भापामे ही प्रकट करना अधिक उपादेय समझा गया । अतः प्रस्तुत प्रकरणमे देशी भाषा-अपभ्रश, पुरानी हिन्दी, ब्रजभाषा और राजस्थानीके काव्य साहित्यकी विवेचना की जायगी। लोक-भाषा होनेके कारण देशी भाषामे आरम्भमें गीत ही रचे गये। इन गीतोमे जन-साधारणकी भावनाएँ अभिव्यजित हुई है। सर्वसाधारणके सुख-दुःख, हर्प-विषाद और हास-विलास इनके वर्ण्य विषय थे। भावनाओकी सघनताकी अभिव्यञ्जना होनेके कारण इन गीतोके लिए छन्दके बन्धनोंकी आवश्यकता नहीं थी। ८-९वी शतीमे भक्ति, प्रेम, वीरता, करुणा, हास्य आदिकी अभिव्यक्ति के लिए दोहा, चौपाई, कडावक, पत्ता, छप्पय, रोला आदि मात्रा-वृत्तोंका भी देशी भाषामे प्रयोग होने लगा, फलस्वरूप इस भाषामे प्रबन्ध काव्योका आविर्भाव हुआ। जैन-हिन्दी-साहित्यमे प्रबन्ध काव्यकी धारा आठवीं शतीसे ही प्रवाहित हुई और अबतक प्रवाहित हो रही है। इसका कारण यह है कि हिन्दी-जैन-कवियोंने प्राचीन कथाओंको लेकर ही अपने काव्यभवनका ..निर्माण किया है। तीर्थंकर, चक्रवर्ती और नारायण आदि महान् व्यक्तियोके सरस और हृदयग्राही जीवकाव्य - नाकन-द्वारा दिव्य और चिरन्तन सौन्दर्यको प्रकाशित करना उन्होने सरल तथा मानवताके कल्याणके लिए उपादेय समझा। हिन्दी-जैन-प्रबन्ध-साहित्यकी उषाने मध्यकालमे जनसाधारणके सर्वाङ्गीण जीवन-क्षितिजको आनन्द-विभोर बना दिया, जिससे जीवनका कोना-कोना आलोकित हो उठा। प्रबन्ध-काव्यमे इतिवृत्त, वस्तुव्यापारवर्णन, भावव्यञ्जना और सवाद ये चार अवयव होते है | कथामे पूर्वांपर क्रमबद्धताका रहना तो अनिवार्य Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पुरातन काव्य-साहित्य २९ है ही, इसके बिना कोई काव्य प्रबन्ध कोटिमे नही आ सकता है। देशी मापा और पुरानी हिन्दीमें जैन-प्रबन्ध-काव्योंकी भरमार है। ब्रजभाषा और राजस्थानी, टूढारी भाषामें भी कतिपय सुन्दर जैन प्रवन्ध काव्य हैं। ___अपभ्रंश भाषामे 'पउमचरिउ-रामायण, हरिवंशचरित-कृष्णचरित, रिटनेमिचरिउ, भविस्यत्तकहा, तिसहिमहापुरिसगुणालकार और है वैरसामिचरिउ प्रमुख है। प्रवन्ध कान्यकी सफलता ___ कथाकी पूर्वापरक्रमवद्धताके साथ उसके मर्मस्थलोंकी पहिचानपर निर्भर है। जो कथाकै मर्मस्थलोकी प्रबन्ध-काव्य - परख रखता है, उसे प्रबन्ध-काव्यके सृजनमें पूर्ण सफलता प्राप्त होती है। देशी भाषाके जैन कवियोंने कुटुम्बियोके विछोह होनेपर इष्ट जनोका विलाप, युद्धमे योद्धाओकी उमगे, रणयात्राका सजीव चित्रण, विरहके गीत आदि मर्मस्पर्शी स्थलोकी परखसे मानवकी सहृदयता और सहानुभूति बढानेमें वेजोड सफलता प्राप्त की है। 'पउमचरिड' में वर्णित रावणकी वीरगति हो जानेपर मन्दोदरीके करुणापूर्ण विलापको सुनकर निठुरता भी रुदन किये विना नही रह सकती । कविकी अनुभूति कितनी गहराईतक पहुंची है, वर्णनमे कितनी सजीवता है, यह निम्न उदाहरणसे स्पष्ट है। आएहिं सी आरियहि, अट्ठारह हिव जुवइ सहासेहिं । णव पण माला डंबरेहि, छाइउ विज्नु जेम चउपासेहिं । रोवह लंकापुर परमेसरि। हा रावण ! विहुयण जण केसरि ॥ पड विणु समर दूरु कहाँ वज्जइ । पड विणु वालकील कहाँ छनइ ॥ पड विणु णव गह एकीकरण। को परिसइ कंठा हरण । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन पइ विणु को विज्जा आराहह। पड विणु चन्दहासु को साहह । को गंधव वापि आडोहह । कण्णहो छवि-सहासु संखोहह ॥ पइ विशु को कुवेरु भंजेसह । तिजग-विहुसणु कहो वसे होसह ॥ पइ विणु को जमु विणिधारेसह । को कहलासुखरण करेसइ ।। सहस-किरण णलक्कुव्वर-सक्कहु । को अरि होसइ ससि-वरुणकहु । को णिहाण रयणइ पालेसह । को बहुरूविणि विजा लएसइ ॥ सामिय पई भलिएण विणु, पुष्फविमाणे चडेवि गुरुभत्तिए । मेर-सिहरे जिण-मंदिरइ, को मइणेसह बंदण-हत्तिए । इसी प्रकार हनूमानके युद्धका वर्णन भी बहुत ही ओजस्वी और मर्मस्पर्शी है, पढ़ते ही हत्तन्त्रियाँ शकृत हो उठती हैं, मनमे उत्साह और स्फूर्ति जागृत हो जाती है। समस्त वातावरण युद्धोन्मुख दिखलायी पड़ता है, निर्जीव और शुष्क धमनियोमे भी खस्थ रक्तका संचार होने लगता है। - अपभ्रश भापाके पउमचरिउ, हरिवंशचरित, भविसयतकहा आदिके प्रवन्धमें तनिक भी शिथिलता या विशृखलता नहीं है। कथाको न तो अनावश्यक विस्तार दिया गया है और न अक्रमबद्धता । कथानकमें गतिखामाविकता और प्रवाह है। वस्तुव्यापारवर्णन और भावाभिव्यञ्जना भी अनुपम है। चरित्र-चित्रणमें इन कवियोने अपनी पूरी पटुता प्रदर्शित की है। रामके वन-गमनके समय दशरथकी मानसिक अवस्थाका चरित्रचित्रण पितृहृदयकी अपूर्व झॉकी उपस्थित करता है। 'पउमचरित' में सीताहरणके पश्चात् रामकी अर्द्ध विक्षिप्त और मोहामिभूत अवस्थाका चित्रण रामके मानवीय चरित्रमे चार चांद लगाता है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य अपभ्रंश प्रवन्ध-काव्योमे वस्तुव्यापार वर्णन भी सुन्दर है। संवाद इतने प्रभावोत्पादक हुए हैं, जिससे इन प्रवन्धकारोंकी सहृदयताका सहज ही पता लगाया जा सकता है। यद्यपि वस्तु पुरातन है, पर जीवनकै बाह्य और आन्तरिक दृश्योंका इतनी कुशलता और सूक्ष्मतासे उद्घाटन किया है, जिससे प्रबन्ध सहजमे ही चमत्कारपूर्ण हो गये हैं। ___ भावव्यञ्जना इन अपभ्रश प्रबन्ध-काव्योंमें इतनी स्पष्ट है, जिससे पढ़ते ही हृदयकी रागात्मक वृत्तियोंमे सिहरन उत्पन्न हो जाती है। मननशील प्राणोके आन्तरिक सत्यका आभास जो कि जीवन के स्थूल सत्यसे भिन्न है, प्रकट हो जाता है । जीवनकी अन्तस्चेतना तथा सौन्दर्षभावना उद्बुद्ध हो चिरन्तन सत्यकी ओर अग्रसर करती है। इन प्रबन्धकारोने घटनावर्णन, दृश्य-योजना, परिस्थिति-निर्माण और चरित्र-चित्रणमें ही अपनेको उलझानेका प्रयास नहीं किया है, बल्कि भाव, रस और अनुभूतिकी अभिव्यञ्जना भी अनूठे ढगसे की है। देशी भाषाके जैन-प्रबन्ध-कार्योकी रचनाशैलीके आधारपर जायसी, तुलसी तथा विद्यापति आदि कवियोने अपने काव्योंका निर्माण किया है। पद्मावत और रामचरितमानसमें बहुत-सी बातें पउमचरिउ और भविसदेशी भापाके प्र यचकहाको ज्यो-की-त्यो पायी जाती हैं। जिस काव्योंका जायसी, प्रकार देशी भाषाके जैन-प्रबन्ध कायोंका आरम्भ तुलसी वथा हिन्दीके स ईश-वन्दनासे हुआ है, उसी प्रकार पद्मावत और रामचरितमानसका भी। जैन-प्रवन्धकारोंने देशी """'भाषाके प्रबन्ध कायोंमें जैसे बत्तीस मात्राओंकी : अर्धालियोवाले पंझटिका या अलिला नामक कतिपय छन्दोके बाद बासठ मात्राओंवाला पत्ता रखा है, वैसे ही जायसी' और तुल्सीने भी बत्तीस -जायसीके पभावतका रचनाकाल सन् १५४०, धनपालजी भवि-] सयत्तकहाका रचनाकाल लगभग १००० ईस्वी सन्। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन मात्राभवाली चौपाइयोकी अधलियोके बाद अड़तालीस मात्राओंवाले दोहे रक्खे हैं । भविसयत्तकहाकी तुकोंकी लड़ी हर एक चरणकै अन्तमें कम-से-कम प्रत्येक दो चरणमे मिलती है, उसी प्रकार जायसी और तुलसीकी भी । इसी तथ्यसे प्रभावित होकर प्रोफेसर श्री जगन्नाथराय शर्माने अपने 'अपभ्रंश-दर्पण' में लिखा है कि "हिन्दीका कौन कवि है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूपमें अपन शके जैन- प्रबन्ध-काव्योंसे प्रभावित न हुआ हो ? चन्दसे लेकर हरिश्चन्द्र तक तो उसके ऋण भारसे दवे हैं ही, आजकलकी नई-नई काव्यपद्धतियोके उद्भावक भी विचारकर देखनेपर उसकी परिधि बहुत चाहर न मिलेंगे ।”” जायसीका पद्मावत तो भविसयत्तकहाके अनुकरणपर ही नही लिखा गया, अपितु उसका कथानक भी भविसयन्तकहासे मिलता-जुलता है । यदि I भविसयत्तकहाके पात्रोंके नामोंको बदल ले तो कथाका अवशेप मानचित्र पद्मावत प्रवन्धके मानचित्रसे ज्यो-का-त्यो मिलेगा । जिस प्रकारका प्रेम. चित्रण भविसयत्तकद्दाम है, ठीक उसी प्रकारका रत्नसेन - पद्मावतीकी कथामे भी। दोनों कृतियोकी कथावस्तुमे बहुत साम्य है । सिंगलगढका उल्लेख दोनों है | अलाउद्दीन द्वारा रानी पद्मिनीके अपहरणका प्रयत्न अस्वाभाविक लगता है, भले ही वह ऐतिहासिक हो, किन्तु भविष्यदत्तकी स्त्रीका अपहरण उसके भाई बन्धुदत्त द्वारा अधिक स्वाभाविक है । पद्मावतमें जायसीने यत्र-तत्र ही आध्यात्मिक सकैत रक्खे हैं, किन्तु भविसयत्तकहाको धार्मिक रूप ही दिया गया है। जायसीने पद्मिनीकी निराशा दिखलाकर मृत्यु दिखायी है, पर भविसयत्तकहामै बन्धुदत्तने भविष्यदत्तकी स्त्रीका अपहरण किया है, अतः घटनाचक्र के अनुकूल होनेपर भविष्यदत्तको अपनी स्त्री वापिस मिल जाती है और बन्धुदत्त दण्ड पाता है । पद्मावतकी वर्णन अंशो मिलती-जुलती है। भी पउमचरिउ और भविसयत्तकहासे बहुत बन्धुदत्तकी समुद्रयात्रा रत्नसेनकी समुद्रयात्रासे १ - देखें अपभ्रंग दर्पण पृष्ठ २५ । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य तथा नखशिखवर्णन पद्मावतके नखशिखवर्णनसे भावमे ही नहीं, किन्तु शब्दोमे भी साम्य रखता है। उदाहरणार्थ वन्धुदत्तकी समुद्रयात्राकै कुछ पद्य उद्धृत किये जाते है। इन उद्धृत-पद्योकी पद्मावतके पद्योंके साथ तुलना करनेसे स्पष्ट है कि भविसयत्तकहाके रचयिता धनपालकी शैलीका जायसीने कितना अनुकरण किया है-- णिज्जावय वयणुज्जु अमुहह, किरववइँ गणं भडॉ। सचलह रयणायरहो जलि, खरपवहाणय-धय-वण ॥ दिढ-बधई जिह मल्लर-गणाई । जिल्लोहइ जिह मुणिवर-मणा: । णिन्मिण्ण: जिह सजण-हियाइ । मकियस्थ जिह दुजण-कियाई ॥ वहण: वहति जलहरसहि । दुचरि अत्याहि महा समुहि ॥ लेंचंतह दीवंतर-थलाइ । पिसंति विविह कोऊ हलाई । इय लीलई वच्चंताह ताहँ। उच्छाह-सन्ति-विक्कम पराह । दुप्पवणे घणवरुबर-समीवे। वहण लांग: मयणाय दीवे ॥ कल्लोल-बोल-जलरल वमाले । असगाह-गाह गहणंतराले ॥ तीरंदरेज सघष्ट पोय । उत्तरिय तरिव पमुहाइ लोय ॥ वयणु सुणिवि णायर जगहु, न सिरि वजदंड पडिक । वोहित्थई लेवि दुरास खलु, गहिर महासमुहि चडिऊ ॥ -भविसयचकहा पृष्ठ २१ सायर तरै हिये सत पूरा । जो जिउ सत, कायर पुनि सूरा ॥ तेइ सत बोहित कुरी चलाए । तेइ सत पवन पंख जनु लाए॥ सत साथी, सत कर संसारू । सत खेह लेह लावै पारू। सत्त ताक सब आगू पाछु । जहें जहँ मगर मच्छ औ काछू ॥ उठै लहरि जनु ठाढ़ पहारा । चढ़े सरग औ परै पतारा ॥ -जायसी ग्रंथावली पृ० ६४ १-स्वयंभूके पउमचरिउका रचनाकाल ई० सन् ७९० । Aar Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन इसी प्रकार विरह, युद्ध, ऋतु, नगर आदिका वर्णन भी पनावतमे भविसयत्तकहाके समान ही हुआ है। देशी भाषाके शब्दोंके स्थानपर तत्सम शब्दोंको रख देनेपर भविसयत्तकहाके अनेक वर्णनात्मक स्थल पद्मावतके हो जायेंगे। __ हिन्दी साहित्यके अमरकवि तुलसीदास पर स्वयंभूकी परमचरिड और भक्सियत्तकहाका अमिट प्रभाव पड़ा है। महापंडित राहुल साकृत्यायनने अपनी हिन्दी काव्यधारामे बताया है कि "मालम होता है, तुल्सी बावाने खयभू-रामायणको जरूर देखा होगा, फिर आश्चर्य है कि उन्होंने खयभूकी सीताकी एकाध किरण भी अपनी सीतामें क्यों नहीं डाल दी। तुलसी बावाने स्वयभू-रामायणको देखा था, मेरी इस वातपर आपत्ति हो सकती है, लेकिन मै समझता हूँ कि तुल्सी बाबाने “कचिदन्यतोपि" से स्वयभूरामायणकी ओर ही सकेत किया है। आखिर नाना पुराण, निगम, आगम और रामायणके बाद ब्राह्मणोका कौन-सा ग्रन्थ वाकी रह जाता है, जिसमे रामकी कथा आयी है। "कचिदन्यतोपि"से तुलसी वावाका मतलब है, ब्राह्मणोक साहित्यसे वाहर "कहीं अन्यत्रसे भी” और अन्यत्र इस जैन अन्थमे रामकथा पड़े सुन्दर रूपमे मौजूद है। जिस सोरो या सूकरक्षेत्रमे गोखामीजीने रामकी कथा सुनी, उसी सोरोंमें जैन-घरोमे खयमू-रामायण पढ़ी जाती थी। रामभक्त रामानन्दी साधु रामके पीछे जिस प्रकार पड़े थे, उससे यह विल्कुल सम्भव है कि उन्हे जैनोके यहाँ इस रामायणका पता लग गया हो। यह यद्यपि गोस्वामीनीसे आठ सौ बरस पहले बना था किन्तु तद्भव शब्दोके प्राचुर्य तथा लेखको वाचकोके जब-तबके शब्द-सुधारके कारण भी आसानीसे समझमे आ सकता था। -गोस्वामी तुलसीदासका जन्म सं १५८९ और स्वयंभूदेवका ईस्वी सन् ७७०। २-हिन्दी काव्यधारा पृष्ठ ५२ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य राहुलजीका उपर्युक्त कथन कहॉतक यथार्थ है यह तो पाठकोपर ही छोड़ा जाता है, पर इतना सुनिश्चित है कि रामचरितमानसके अनेक स्थल खयभूकी पउमचरिउ-रामायणसे अत्यधिक प्रभावित हैं तथा स्वयंभूकी शैलीका तुलसीदासने अनेक स्थलोंपर अनुकरण किया है। जिस प्रकार स्वयभूने पउमचरिउके आरम्भमें अपनी लघुता प्रदर्शित की है उसी प्रकार तुल्सीने मी । स्वयभूका आत्मनिवेदन तुलसीके आत्मनिवेदनसे भावसाम्य रखता है, अतः यदि यह माना जाय कि तुलसीने स्वयभूका अनुकरण किया है तो इसमे आश्चर्य ही क्या है ? उदाहरणके लिए कुछ अश पउमचरिउके नीचे उद्धृत किये जाते हैं :बुह-यण सर्यभु पइँ विण्णवइ । महु सरिसउ अण्ण गाहि कुकइ ॥ वायरशु कयाह ण नाणियउ । उ वित्ति-सुत्त धक्खाणियउ। णा णिसुणित पंच महाय क्ब्बु । णउ भरहु ण लक्खणु छंदु सध्छु । णउ बुझिउ पिंगल-पच्छारु । णड भामह-दंडीय लंकार ॥ वे वे साय तो वि णउ परिहरमि । परि स्यडा वृत्तु कच्छ करमि ॥ सामाणमास छुड मा बिहडउ । छुड आगम-जुचि किंपि घडर। छुड हॉति सु हासिय-वयणाई । गामेल्ल भास परिहरणाई ॥ एहु सजण लोयहु किउ विणउ । जं अबुहु परिसिठ अप्पण' ॥ जं एवंवि रूसाइ कोवि खल्लु । हो हत्युस्थस्लिड लेउ छलु ॥ पिसुणे किं भन्भत्थिएण, जसु कोवि ण रुथइ। किं छण-इन्दु मरुग्गहे, ण कंपंतु विमुखा। -पउमचरित -३ निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं । वाते विनय करउँ सब पाहीं ॥ करन चहउँ रघुपति गुनगाहा । लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥ सूझ न एकट अंग उपाऊ। मन भति रंक मनोरथ राऊ॥ मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी । चहिम अमिम नग जुरह न छाछी ।छमिहहिं सजन मोरि विठाई । सुनिहहिं बालवचन मन लाई ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन जौं बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥ हॅसिहहिं कूर कुटिल कुविचारी । जे पर दूपन भूपन धारी ॥ X X X भाव भेद रस भेद अपारा। कवित दोप गुन विविध प्रकारा ॥ कवित विवेक एक नहिं मोरे । सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे ॥ -- रामचरित मानस, बालकाण्ड इसी प्रकार ऋतु, काल, सन्ध्या, नगर, समुद्र, नदी, वन, यात्रा, नारी सौन्दर्य, विलाप, रनिवास, जलक्रीड़ा, विरह एव युद्ध आदि विषय, तथा छन्द, शैली आदि दृष्टियोसे 'पउमचरिउ' से तुलसीदास ने बहुत कुछ ग्रहण किया प्रतीत होता है । भविसयत्तकहासे भी तुलसीदासने विपय और से अनेक बाते ग्रहण की है । पाठक देखेगे कि समानता है— वर्णनशैलीकी अपेक्षानिम्न पद्योंमे कितनी सुणिमित्त जाभई तासु ताम । गय पयहिणंन्ति वायंगि सुति सहसहइ बाउ । पिय मेलावइ वामउ किलकिंचित कावएण । दाहिणउ अंगु दाहिण लोयणु फंदइ सबाहु । णं भणइ एण दाहिन काग सुखेत सानुकूल वह त्रिविध उदेवि साम ॥ काउ || कुलकुलड़ दरिसिङ मरण ॥ मनोण जाहु ॥ उसको सुन्दर शकुन दिखलायी पड़े । श्यामापक्षी उड़कर दाहिनी ओर आगया । बाई ओरसे मन्द मन्द वायु बह रही थी और प्रियतमसे मेल करानेवाली ध्वनिमे कौआ बोल रहा था । व्यवाने बाई ओर बोलना शुरू किया और दाहिनी ओर मृग दिखलाई पड़े । इसी भावकी कविवर तुलसीदासकी चौपाइयाँ देखिये सुहावा । नकुल दरस सब काहुन पावा | प्यारी । सघट सवाल भाव घर नारी ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन कान्य साहित्य लोवा फिरि-फिरि दरस दिखावा । सुरभी सन्मुख शिशुहिं पिमावा ॥ मृगमाला दाहिन दिशि आई। मंगल गन जनु दीन्ह दिखाई ॥ वात्सल्य और शृङ्गार रसके मर्मज्ञ कवि सूरदास भी देशी भाषाके जैन कवियोसे अत्यधिक प्रभावित है । सूरने पदोकी रचना देशी भाषाके जैन कवियोकी शैलीके आधारपर की है। देशी भाषाके जैन कवियोने दो चरणोका एक चरण माना है, वे चौपाईके चार चरण नहीं लिखते, दो ही चरणमे छन्द समाप्त कर देते हैं। कहीं-कहीं एक चरण रखकर उसे ध्रुवकके रूपमे कुछ पक्तियोंके बाद दुहराया गया है। यही प्रक्रिया पदोकी टेक बन गयी है । देशी भाषामें संगीत और लयका समन्वय अपूर्व है। इस भापाका काव्य वाद्यके साथ गेय गीतोमे माधुर्य और ताल्के साथ गाया जा सकता है । सूरदासने इसी शैलीको अपनाया है। बाललील और शृङ्गारका वर्णन जैन साहित्यकी देन है । हेमचन्दके व्याकरणमे प्रोषितपतिकाके अनेक सुन्दर सरस उदाहरण आये है, जो गोपियोकी विरह-विह्वल दशाका चित्र उपस्थित करनेमे सक्षम हैं । कवि पुष्पदन्तने ऋषभदेवकी बाललीलाका वर्णन बड़े ही सुन्दर ढगसे किया है। हमारा अनुमान है कि यह मक्त कवि बाल-चित्रणमे जैनकवियोसे अत्यधिक अनुप्राणित हैं। उदाहरणके लिए दो-चार पद्य उद्धृत किये जाते हैं। सेसवलीलिया कीलमसीलिया। पहुणादाविया केण ण भाविया ।। धूलीधूसरु ववगयकडिल्लु । सहजायक विलकॉतलु जडिल्लु ॥ हो हल्लरु जो जो सुहं सुमहिं पई पणवंतउभूयगणु । गंदइ रिझइ दुकियमलेण कासुवि मलिगुण ण होइ मणु । धूली धूसरो कति किंकिणीसरो। णिरुबमलीलड कीलह वालड । -पुष्पदन्त-महापुराण-प्रथमखण्ड Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन महाकवि सूरदास ने कृष्णकी बाललीलाओंका चित्रण बहुत-कुछ इसी प्रकारका किया है । नुलनाके लिए सुरदासकी कुछ पद्य-पंक्तियाँ उद्धृत की जाती हैं कहाँ लौं वरणों सुन्दरताइ, खेलत कुँअर कनक आगन में, नैन निरख छवि छाइ । कुलहि लसति सिर स्याम सुभग अति, बहुविधि सुरंग बनाइ । मानों नव धन ऊपर राजत, मघवा धनुप चदाइ। अति सुदेश मृदु हरत चिकुर मन, मोहन मुख वगराइ । खंडित वचन देत पूरन सुख, भल्प अल्प जलपाइ । घुटुरन चलत रेनु तन मंडित सूरदास बलि जाइ । लोकजीवनके ऐसे अनेक स्वाभाविक चित्र जैन देशी भाषा प्रवन्ध कायोमे अंकित किये गये हैं, जिनसे हिन्दीकाव्य अद्यावधि अनुमाणित होता चला आ रहा है । दोहा छन्द मूलतः जैन कवियोंका है । ८-९ वीं शताब्दीमें यह ठन्द जैनामे इतना अधिक लोकप्रिय था कि इसी इन्टमें शृङ्गार, वैराग्य, नीति आदि विषयोकी फुटकर रचनाएँ विपुल परिमाणम हुई । कुछ कवियाने कनिपय छोटे-मोटे आख्यान भी दोहाम लिखे । हेमचन्द्र के व्याकरणम ऐसे अनेक दोहोका संग्रह है, निनसे जैन कवियोंकी 'अल्प शब्दां-द्वारा अधिक भाव अभिव्यक्षित करनेकी शैलीका परिनान सहजम ही हो जाता है। भावकी दृष्टिले ऐसी अनेक भावनाएँ दोहामं चित्रित हैं, जिनका पूर्ण विकास विहारीमें नाकर हुआ। यद्यपि शृङ्गार रसको बढ़ा-चढ़ा कर नहीं निरपित किया, फिर भी विरह और प्रेमकी भावनाओंकी कमी नहीं है। 1-कवि सूरदासका समय वि. सं. १५४० और पुप्पदन्तका ई. सं. ९५९। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य - साहित्य ३९ प्रवन्धचिन्तामणि, सोमप्रमका कुमारपाल प्रतिबोध आदि रचनाएँ पुरानी हिन्दी के प्रबन्ध काव्योंमे परिगणित है । यद्यपि इन ग्रन्थोंकी प्रवन्धपद्धति शिथिल और विशृंखलित है, फिर भी गैली और भाषाकी दृष्टिसे इन काव्योका विशेष महत्त्व है । प्रवन्ध चिन्तामणि भोज-प्रबन्धके ढंगकी रचना है। इसमे जैन धर्मका उद्योतन करनेवाली कई कथाओंका सग्रह किया है । कथाका आरम्भ करते हुए बताया गया है कि एक दिन विक्रमादित्य रातको नगरका परिभ्रमण करने गया और एक तेलीसे निम्न दोहेका अर्धोश सुना । दोहेका उत्तरार्द्ध सुननेकी अभिलाषासे राजा वहाँ बहुत देर तक ठहरा रहा, पर उसे निराश ही लौटना पड़ा । प्रातःकाल दरवारमे उसने तेलीको बुलाया और उससे दोहेको पूरा कराया " अपभ्रंशके वादकी पुरानी हिन्दीके जैन-प्रवन्ध काव्य - अम्मणिभो संदेसडमो नारय कन्ह कहिज । जगु दालिचिहि डुब्बिड वलिबंधणह मुहिज्ज || अर्थात् - हे नारद, कृष्णसे हमारा सन्देश कह देना कि नगर दरिद्रतासे पीड़ित है, बलि-बन्धन (करका बोझ ) छोड़ दो। इसमे मुञ्ज, तैलप, भोज, कुमारपाल, अभय, रावण आदि राजाओंको जैन धर्मावलम्वी मानकर आख्यान दिये गये हैं। वर्णन साहित्यकी अपेक्षा इतिहासके अधिक निकट हैं । यद्यपि वसन्तका शब्द-चित्रण साहित्यकी दृष्टिसे सुन्दर हुआ है, लेखकने कल्पनाकी उड़ान और भावनाकी तहमें प्रवेश करनेका पूरा यत्न किया है, पर सफलता कम मिली है। उदाहरण यह कोइल-कुल-रव-हुल भुवणि वसंतु पयहु । भड्डु व मयण-महा-निवह पयदिम-विजय मरहु ॥ सूर पलोहवि कंत करु उत्तर- दिसि-आसन्तु । नीसासु व दाहिण - दिसय मलय- समीर पवत्तु ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन काणण- सिरि सोहइ अरुण - नव- पल्लव परिणद | नं रतंय-पावरिय महु-पिययम संवद्ध ॥ सहयारिहि मंजरि सहहि भ्रमर-समूह-सणाह | जालार व मयणानलह पसरिय-धूम-पवाह || अर्थात्-कोयलोके शब्दसे मुखरित वसन्त जगमे प्रविष्ट हुआ, मानो कामदेव महानृपके विजय- अह्कारको प्रकट करनेवाला योद्धा ही हो । सुन्दर किरणोंवाले सूर्यको उत्तर दिशामे आते देखकर मलय- समीर दक्षिण दिशा निश्वासकी तरह बहने लगा | अरुण नव कोपोसे परिणढ कानन श्री ऐसी गोमित होती है, मानो वह रक्ताशु लपेटे हुए वासनारूपी प्रियतमसे आलिगित हो । भ्रमर-समूहसे युक्त आम्रमञ्जरी ऐसी जान पड़ती है, मानो मदनानलकी ज्वालासे धुंआ उठ रहा हो । प्रवन्ध-चिन्तामणिमें छोटी-छोटी कई कथाएँ है, इन कथाओं में आपस मे कोई सम्बन्ध नही है; अतः यह सफल प्रवन्ध-काव्य नहीं कहा जा सकता । कुमारपाल प्रतिबोध कुमारपालको प्रबुद्ध करनेके लिए ५७ लघुकथाएँ दी गयी हैं । कविने सप्त व्यसन जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पान करना, शिकार खेलना, परस्त्रीसेवन करना, चोरी करना और वेव्या एवं काम वासना के त्याग करनेका उपदेश देते हुए अनेक छोटे-छोटे आख्यानोंको उदाहरणकै रूपमें प्रस्तुत किया है । यद्यपि प्रासङ्गिक कथाओंकी आधिकारिक कथा के साथ अन्विति है, पर प्रबन्धमें शैथिल्य है । क्रमवद्धताका भी अभाव है । कतिपय वर्णन कल्पनाकी उड़ान और भावनाकी सघनताकी दृष्टिसे सुन्दर हुए हैं। जगत्की तुच्छता और निस्सारता दिखलाते हुए मौतिक पदाथाँकी क्षणभंगुरताका मर्मस्पर्शीं निरूपण किया है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन कान्य-साहित्य १३ वीं शतीसे लेकर १९ वी शती तक रासा चरित्र और पौराणिक कथाओके रूपमें जैन साहित्यकार प्रबन्ध-काव्योका निर्माण करते रहे है। हिन्दी-जैन यद्यपि इन अन्योंमेंसे अधिकाश काव्योंकी वस्तु पुरासाहित्यके परवर्ती तन है या संस्कृत और प्राकृतके कथा-प्रन्योका पद्या प्रबन्ध काव्य नुवाद है, फिर भी आत्मद्रष्टा भावुक जैन कवियोने अपनी कल्पना-द्वारा सुनहला रङ्ग भरकर कलाको चमका दिया है। १३ वी शतीमे धर्मसूरिने जम्बूस्वामी रासा, विजयसरिने रेवंतगिरि रासा, विनयचन्द्रने नेमिनाथचउपई, १४ वी शतीमे सतोत्र रासा, अम्बदेवने सघपति समरा रासा, १५वी शतीमे विजयमढने गौतमरासा, १६वी शतीमे ईश्वरसूरिने ललितागचरित्र तथा इसी शताब्दीकी अज्ञात नामवाली रचनाएँ, यशोधरचरित और कृपणचरित एवं १७वी गतीमे मालकविने भोजप्रवन्धकी रचना की है। १८वी गतीको रचनाओमे भूधरदासका पार्श्वपुराण तथा पौराणिक आधारोपर विरचित हरिवत्रपुराण, पद्मपुराण, श्रीपाल चरित और श्रोणिक चरित आदि मुख्य है। मानवके अन्तर्द्वन्द्व, आत्मचिन्तन, पाप-पुण्यके फल, अन्तस्तलकी निगूढ भावनाओंके घात-प्रतिघात एवं कायोमे मस्तिष्क और हृदयके समन्वयको जितनी खूबी और सूक्ष्मताके साथ इन परवर्ती जैन प्रबन्धकारोने दिखलाया है उतनी खूबी और सूक्ष्मताके साथ इनका अन्यत्र मिलना असम्भव तो नहीं, पर कठिन अवश्य है। एक अहिसा तत्वकी भावना सर्वत्र अनुस्यूत मिलेगी। प्रबन्ध चाहे छोटे हो या बड़े, पर जैन कवियोने कथाके अनुपातका पूरा ख्याल रखा है। कथामें कहीं मन्थरता और कही लपक-झपक नहीं है, बल्कि सन्तुलनात्मक गति है। जिससे पाठक भावनाके उच्च धरातलपर सहनमे ही पहुँच जाता है। पाचपुराण और श्रीपाल चरित्र तो श्रेष्ठ प्रवन्ध काव्योकी श्रेणीम रखे जा सकते हैं। चरित्रॉम स्थिर और गतिमय दोनो ही प्रकारके चरित्र चित्रित है। पार्श्वपुराणम अत्यन्त सूक्ष्म पर्यवेक्षणसे काम लिया है, इसी कारण कविने सजीव चित्र Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन खीचनेमे अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। जीवनकी कमजोरियॉ, मानसिक विकार और विभिन्न परिस्थितियोके गहन स्तरोकी अभिव्यञ्जना भी प्रशंस्य है। प्रवन्धकाव्यके दो भेद हैं-महाकाव्य और खण्डकाव्य । महाकाव्यम सम्पूर्ण जीवनका चित्रण रहता है, पर खण्डकाव्यम जीवनके किसी खास हिन्दी जैन अधका ही चित्राकन किया जाता है। काव्य मनी महाकाव्य पियोंने महाकाव्यमें जीवनकी सर्वाङ्गपूर्ण कथाकै साथ निम्नाङ्कित बातोका होना भी आवश्यक माना है १-कथावस्तु सर्गों या अधिकारोंमे विभक्त होती है। २-नायक तीर्थकर, चक्रवती या अन्य महापुरुप होता है। ३-शृङ्गार, वीर या शान्त रसकी प्रधानता रहती है। ४-सन्धियोमें अद्भुत रस होता है, प्रसगवश अन्य रस भी आ सकते हैं। ५-नाटककी सभी सन्धियों पायी जाती है। ६-कथावस्तु ऐतिहासिक या जगत्-प्रसिद्ध होती है। ७-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इनमेंसे किसी एक पुरुषार्थको प्राप्त करना उद्देश्य माना जाता है। ८-आरम्भमें मंगलाचरण, आशीर्वचन अथवा प्रतिपाद्य वस्तुका संकेत रहता है। ९-सगीकी संख्या आठसे अधिक होती है । १-सर्गवन्धो महाकान्यं तन्त्रको नायका सुरः । सदशः क्षत्रियो वापि धीरोदातगुणान्वितः॥ एकवंशभषा भूपाः कुलजा बहवोऽपि धा। भंगारवीरशान्तानामेकोशी रस इप्यते ॥ -साहित्यदर्पण Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य १०-सर्ग या अधिकारके अन्तमे छन्द बदल जाते हैं, कमी-कमी एक ही सर्गमें कई प्रकारके छन्द आते है।। ११-प्रभात, सन्ध्या, प्रदोष, सूर्य, चन्द्र, अन्धकार आदि प्राकृतिक दृश्यों, सयोग, वियोग, युद्ध, विवाह आदि जीवनकी परिस्थितियाँ एवं स्वर्ग, नरक, ग्राम, नगर आदि अनेक प्रकारकी वस्तुओका चित्रण रहता है। १२-महाकाव्यका नामकरण किसी प्रधान घटना, काव्यगत वृत्त, कविका नाम अथवा नायकके नामके आधारपर होता है। देशी भाषामें स्वयम्भूदेवके पउमचरिउ, रिक्षणेमिचरिउ, पुष्पदन्त कविका तिसद्विमहापुरिसगुणाकार, पद्मकीर्तिका पार्श्वपुराण और नयनन्दिका सुदर्शनचरित हैं। ब्रजभाषा और राजस्थानी भाषामे विनयसूरिका मलिनाथमहाकाव्य, भूघरदासका पार्श्वपुराण तथा अनूदित हरिवशपुराण आदि हैं । वास्तविक बात यह है कि राजस्थानमे अभी जैन काव्योका अन्वेषण करना शेष है। हमारा विश्वास है कि जयपुरके आस पासके जैनमन्दिरोंके शास्त्रागारोमे हिन्दीके अनेक महाकाव्य छुपे पड़े है। ___ यहॉ दो-चार उन मुख्य अन्योका ही विवेचन दे रहे है, जो हमारे अनुशीलनका विषय रहे है। परमचरित-पभचरित्र इस अन्थमे १२००० पद्य हैं। ९० सन्धियाँ (जैन रामायण) और ५ काण्ड हैं । विवरण निम्न है विद्याधरकाण्ड-२० सन्धि अयोध्याकाण्ड-२२ सन्धि सुन्दरकाण्ड-१४ सन्धि युद्धकाण्ड-२१ सन्धि उत्तरकाण्ड-१३ सन्धि इन सन्धियोमें ८३ सन्धियाँ स्वयभूदेवकी हैं और शेष सात सन्धियाँ इनके पुत्र त्रिभुवन द्वारा रचित हैं। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શું हिन्दी - जैन-साहित्य परिशीलन कथावस्तु विद्याधर, राक्षस और वानरवशका परिचय देनेके अनन्तर बताया है कि विजयार्द्धकी दक्षिण दिशामे रथनूपुर नामके नगरमे इन्द्र नामका प्रतापी विद्याधर रहता था। इसने लकाको जीतकर अपने राज्यमें मिला लिया । पाताल-लकाके राजा रनवका विवाह कौतुकमगल नगरके व्योमविन्दुकी छोटी पुत्री केकसीसे हुआ था, रावण इसी दम्पत्तिका पुत्र था। इसने बचपन में ही बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की थी, जिससे यह अपने शरीरके अनेक आकार बना सकता था। रावण और कुमकरणने लकाके अधिपति इन्द्र और प्रभावशाली विद्याधर वैश्रवणको परास्तकर अपना राज्य स्थापित कर लिया । खरदूपण रावणकी वहन शूर्पणखाका हरण कर ले गया, पीछे रावणने अपनी इस बहनका विवाह स्वरदूपणके साथ कर दिया और पाताल-लकाका राज्य भी उसीको दे दिया । वानरवंशके प्रभावशाली शासक वालिने ससारसे विरक्त होकर अपने लघु भाई सुग्रीवको राज्य दे दिगम्बर- दीक्षा ग्रहण कर ली और कैलास पर्वतपर तपस्या करने लगा। रावणको अपने वल, पौरुषका बडा अभिमान था, अतः वह बालिपर क्रुद्ध हो कैलास पर्वतको उठाने लगा । इस इसलिए बाटिने अपने अगूठेके पर्वतके ऊपर बने जिनालय सुरक्षित रहे, जोरसे कैलास पर्वतको दबा दिया, जिससे रावणको महान् कष्ट हुआ । पञ्चात् वालिने रावणको छोड़ दिया और तपस्या कर निर्वाण पाया । अयोध्यामे भगवान् ऋषभदेव के वशसे समयानुसार अनेक राजा हुए, सबने दिगम्बरी दीक्षा लेकर तपस्या की और मोक्ष पाया । इस वाके राजा रघुकै अरण्य नामक पुत्र हुआ, इसकी रानीका नाम पृथ्वीमति था । इस दम्पत्तिको दो पुत्र हुए —अनन्तरथ और दारथ । राजा अरण्य अपने बड़े पुत्र सहित ससारसे विरक्त हो तपस्या करने चला गया तथा अयोध्याका शासनभार दशरथको मिला । एक दिन दशरथकी सभा में नारद ऋषि आये, उन्होने कहा कि रावणने किसी निमित्तज्ञानीसे यह जान Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव-साहित्य ४५ लिया है कि दशरथ-पुत्र और जनक-पुत्रीके निमित्तसे मेरी मृत्यु होगी । अतः उसने विभीषणको आप दोनोको मारनेके लिए नियुक्त कर दिया है, आप सावधान होकर कही छुप जायें। राजा दशरथ अपनी रखाके लिए देश-देशान्तरमे गये और मार्गमे कैकयीसे विगह किया। कुछ समय पश्चात् महाराज दशरयके चार पुत्र हुए और एक युद्धमे प्रसन्न होकर उन्होंने कैकयीको वरदान भी दिया । रामके राज्याभिषेकके समय कैकयीने वरदान मॅगा, जिससे राम-लक्ष्मण और सीता बन गये तथा महाराज दशरथने जिन-दीक्षा ग्रहण की। सीता-हरण हो जानेपर गमने वानरवगी विद्याधर पवनञ्जय और अञ्जनाके पुत्र हनूमान एव सुग्रीवसे मित्रता की । रामने सुप्रीवके शत्रु साहसगतिका वधकर सदाके लिए सुग्रीवको अपने वश कर लिया और इन्हीके साहाय्यते रावणका वधकर सीताको प्राप्त किया। रावण जैन धर्मानुयायी था। प्रतिदिन जिनपूजा और लुति करता था, पर अनीतिके कारण उसके कुलका सहार हुआ। ___अयोध्या लौट आनेपर लोकापवादके भयसे रामने सीताका निर्वासन किया। सौभाग्यसे जिस स्थानपर जगलमें सोताको छोड़ा गया था, वजब राजा वहाँ आया और अपने घर ले जाकर सीताका सरक्षण करने लगा | सीताके पुत्र लवणाकुशने अपने पराक्रमसे अनेक देशोंको जीतकर वनजंघके राज्यकी वृद्धि की। जब यह वीर दिग्विजय करता हुआ अपोल्या आया तो रामते युद्ध हुआ तथा इसी युद्धमे पिता पुत्र परस्परमे परिचित भी हुए। सीता अमिपरीक्षा उत्तीर्ण हुई, विरक्त हो तपस्या करने चली गयी और स्त्रीलिङ्ग छेदकर स्वर्ग प्राप्त किया। मणकी मृत्यु हो जानेपर राम शोकाभिभूत हो गये, कुछ काल बाद बोध प्रास होनेपर दिगम्बर मुनि हो गये और दुद्धर तपत्याकर उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। यह सफल महाकाव्य है। इसकी आधिकारिक कथा रामचन्द्ररी कया है, अवान्तर या प्रासनिक कथाएँ वानरवश और विद्याधर वंशक Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन आख्यान रूपमे आयी हैं। प्रासङ्गिक कथावस्तुमे प्रकरी और पताका दोनों ही प्रकारकी कथाएँ है। पताका रूपमे सुग्रीव महाकाव्यत्व और मारुत-नन्दनकी कथाएँ आधिकारिक कथाकै साथ-साथ चली है और प्रकरी रूपमे बालि, भामण्डल, वनजंघ आदि राजाओंके आख्यान हैं। कार्य-व्यापारकी दृष्टिसे उक्त कथावस्तुमे प्रारम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्यागा, नियताप्ति और फलागम ये पॉचों ही अवस्थाएँ पायी जाती हैं। विद्याधर - वंगके वर्णनके उपरान्त अयोध्याकाण्डकी तीसरी ___सन्धिर्म कथासूत्र फल्की इच्छाके लिए उन्मुख होता है । इन्वाकुवंशके महाराज दशरथके प्रागणमे राम खेलते दिखलायी पडते हैं। द्वितीय अवस्था उस समय आती है जब राम विवाहकर घर लौट आते हैं । वन जाना, सीताका हरण होना और युद्ध करके रावणके यहॉसे सीताको ले आनेके उपरान्त रामका धार्मिक कृत्योंमें लीन हो जाना तथा लक्ष्मणकी मृत्यु के उपरान्त रामका वेदनाभिभूत होना और देवों-द्वारा बोध प्राप्त होना तीसरी प्राप्त्याशा नामक अवस्था है | रामका तपस्याके लिए जाना नियताप्ति नामक चौथी अवस्था और रामका निर्वाण प्राप्त करना फलागम नामक पॉची अवस्था है। इस महाकाव्यमें कथावस्तुकै चमत्कारपूर्ण वे अग वर्तमान है, जो कथावस्तुको कार्यकी ओर ले जाते है। बीज प्रारम्भ नामक अवस्थासे अर्थप्रकृतियाँ ही दिखलायी पड़ता है, जिस प्रकार वीजमे फल छिपा रहता है उसी प्रकार वशोत्पत्ति नामक आख्यानमें सारी कथा छुपी है । वानरवश, विद्याधरवश और राक्षसवाका पारस्परिक सम्बन्ध दिखलाकर कविने मानवीय और दानवीय प्रवृत्तियोके द्वन्द्वकी अभिव्यञ्जना की है। विन्दुका आरम्भ रामके जन्मसे होता है, कथाक वास्तविक विस्तार और निगमनका यही स्थान है। पताका और प्रकरीम बालिका तपाख्यान, विशल्याकै भवान्तर, हनूमानका निर्वाण लाम आदि Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य अवान्तर कथास्थान हैं। रामका निर्वाण लाभ कार्य नामक अर्थप्रकृति है । अवस्था और अर्थप्रकृतियोका मेल इसमें सुन्दर ढंगसे हुआ है । बीज अर्थप्रकृति - वंशाख्यानका प्रारम्भ नामक अवस्था - रामके साथ योग दिखलाना मुख सन्धि है । प्रतिमुख सन्धि कथाक्त वह सन्धियाँ १७ स्थान है जहाँ रामकी वानरवंशके विद्याधरोंसे मित्रता होती है । गर्भसन्धिमे कथाका विस्तार बहुत हुआ है । अवमर्ग सन्धिमे रामका वेदनाभिभूत हो जानेवाला कथाका त्यान है । रामका निर्वाण प्राप्त करना निर्वहणसन्धि-स्थान है, जहाँ कार्य और फलका योग हुआ है। इस महाकाव्यकी कथावस्तुकै नायक पद्म-राम है । यह धीरोदात हैं। इनके चरित्रमें महती उदारता है। इनमें शक्तिके साथ क्षमा तथा दृढ़ता और आत्मगौरव के साथ विनय तथा निरभिमानता है । यह त्रेशठ गल्लाकापुरुपोंमेसे हैं । इस महाकाव्यमें यों तो सभी रस है, पर शान्तरस प्रधान रुपने परिपक्क हुआ है । शृङ्गारकै संयोग और वियोग दोनों पश्चांका वर्णन कविने सुन्दर किया है । करुण रसके चित्रगमें तो अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है । युद्धमे भाई बन्धुओं काम आनेपर कुटुम्बियोके विद्याप पाषाणहृदयको मी द्रवीभूत करनेमें समर्थ है । रस नायक प्रकृति आदिकाल्से ही कवियोका आकर्षण केन्द्र रही है । स कवियोंने विभिन्न रूपोंमे प्रकृतिका चित्रण किया है । इस महाकाव्य मी प्रकृतिचित्रण और षट्ऋतुओंका वर्णन विशुद्ध प्रकृतिके साथ कालव रूपमें किया गया है । सन्ध्याकी सुरमाको कविने अनेक उपमा और उत्प्रेक्षाओंके सुन्दर जालमें वॉवना चाहा है, पर वह सुन्दरीका शब्दचित्र प्रस्तुत नहीं कर सका है। निम्न पंनिय देखने योग्य है वस्तुवर्णन Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Feas a मस्थल सिन्तु । अहिडायण व धरण पाए सीए ॥ ४० हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन उवहसइ संझाराउ सुह-बंधुरु । विदु मयाहरु मोत्तिय-दंतुरु । छिवह व मत्थउ मेरु-महीहरु । तुझुवि भज्युवि कवणु पईहरु । जं चंद-कंत-सलिलाहि सितु । अहिलेय-पणालु घ फुसिय चित्तु । जं विद्रुम-मरगय-ति आहि । थिउ गया व सुधरणु-पति आहि ॥ जं इंदणील-माला मसीए । मलिहइ बंदि मितीए वीए ॥ जहि पोमराय-पह तणु विहाइ । थिउ अहिणव-संझाराउ गाइ ॥ -पउमचरिड ७१३ इस महाकाव्यके दो खण्ड हैं-आदिपुराण और उत्तरपुराण । प्रथम खण्डमें ८० सन्धियाँ और द्वितीयमे ४० सन्धियाँ हैं। आदिपुराणमे तिसहि महापुरिस प्रथम . प्रथम तीर्थकर ऋषमनाथका चरित्र है और उत्तर " पुराणमें अवशेष २३ तीर्थकरोकी जीवनगाथा है। गुणालंकार - आदिपुराणकी कथावस्तुमे एकतानता है, पर उत्तरपुराणमे २३ कथाएँ है, एकका दूसरेसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं | अतएव महाकाव्य के सभी पूर्वोक्त लक्षण आदिपुराणमे वर्तमान हैं । महाकाव्यकी सबसे बड़ी विशेषता कथावस्तुमें अन्वितिका होना है। आदिपुराणमे घटनाचक्रके भीतर ऐसे स्थलोका पूरा सन्निवेश है जो मानवकी रागामिका वृत्तिको उबुद्ध कर सकते हैं, उसके हृदयको मावमग्न बना सकते हैं। इसमें कथाका पूरा तनाव है। इसके नायकमें केवल कालकी अपेक्षासे ही विस्तार नहीं है, बल्कि देशापेक्षया भी है । नायक ऋषमनाथ-आदिनाथ उस समयके समाज और वर्गविशेषके प्रतिनिधि हैं। उनके जीवनमें समष्टिके जीवनका केन्द्रीयकरण है। महाकाव्यके नायकमे यही सबसे बड़ी विशेषता होनी चाहिये कि वह समष्टिगत भावनाओं और इच्छाओंको अपने भीतर रखकर मानवताका प्रतिष्ठान करें। सक्षेपमे यह सफल महाकाव्य है। १वीं शतीमे नयनन्दिने १२ सन्धियोंमे सुदर्शन चरितकी रचना की है। यह ग्रन्थ एक प्रेम कथाको लेकर लिखा गया है। कविने बडे कौशलसे Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य इस कथाकी व्यञ्जनामे पञ्चनमस्कारका फल घटित किया है। प्रतिदिन सुदर्शन चरित _ अरिहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुको सुशन भारत भक्तिपूर्वक नमस्कार करना प्रत्येक साधकका धर्म है। काव्यके बीच-बीचमे धार्मिक प्रकरण रखे गये है। धार्मिक व्यञ्जनाके साथ प्रेम-कथा कहनेकी यह साकेतिक शैली सूफी कवियो के लिए विशेष अनुकरणीय रही है। इस काव्य-ग्रन्थके कथानकके समानान्तर ही प्रेममार्गी कवियोने कथाएँ गढकर अपने सिद्धान्तोका प्रचार किया है। प्रस्तुत काव्यग्रन्थमे यद्यपि शृगाररसकी प्रधानता है, तथापि इसका पर्यवसान शान्तरसमें हुआ है। कविने जहाँ एक और स्त्रीके सौन्दर्यचित्रण और आकर्षक परिस्थितियोंमे अपनी कल्पना एव सौन्दर्य-दर्शनकी अन्तर्दृष्टिका परिचय दिया है, वहाँ बीच-बीचमे जैनधर्मके सिद्धान्तोका भी स्पष्टीकरण किया है। नायिका-भेद, नख-शिख वर्णन, प्रकृति चित्रणके रसानुकूल प्रसग वडे मनोहर ढगसे प्रस्तुत किये है। जैन साहित्यमे इस महाकाव्यकी शैलीपर अधिक रचनाएँ नही हो सकी है। आकर्षक रूपसौन्दर्य ही इस महाकाव्यके आख्यानका आधार है। सुदर्शनका रूम ससारकी समस्त सुन्दर वस्तुओके समन्वयसे निर्मित है। इसके वर्णन, दर्शन या भावनामात्रसे किसीके भी हृदयमे गुदगुदी उत्पन्न हो सकती है। ___ कवि नयनन्दने अपनी सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि द्वारा मिन्न-भिन्न परिस्थितियोके वीच घटित होनेवाली अनेक मानसिक अवस्थाओका सुन्दर विश्लेषण किया है। अभयाके सामने जब सुदर्शन पहुंचता है तो वह उन्मुक्त हृदयसे प्रेमकी भीख माँगती है, किन्तु शीलपर हिमालयकी चधनकी तरह अडिग सुदर्शन मानसिक द्वन्द्वोंके बीच पड़कर भी कमनोरियोपर विजय पाता है और स्पष्ट शब्दों में उसके प्रस्तावको ठुकरा देता है। क्षोभसे उत्पन्न उदासीनता और आत्मग्लानिकी भावनासे अभिभूत अभया शोर मचाती है, जिसका परिणाम दानवीय शक्तिपर मानवीय शक्तिके विजय रुपमे होता है । करुणा, रति, क्रोध, उत्साह आदि स्थायी भावोके अतिरिक कितने Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन ही छोटे-छोटे भाव और विभिन्न मानसिक दशाओका चित्रण श्रेष्ठ कविने किया है। इस कारण इसमें महाकाव्यत्वकी अपेक्षा नाटकत्व अधिक है। सुदर्शनके स्वभावमे वैयक्तिक विशेषता है, यह धीर प्रशान्त नायक है, स्वभावतः शान्त और अपनी प्रतिभापर अटल है, इसे कोई भी प्रलोमन पथभ्रष्ट नहीं कर सकता है। कञ्चन और कामिनी जिनसे संसारकै दने-गिने व्यक्ति ही अपनेको विलग रख पाते हैं, से सुदर्शन निल्ति है। रस और शैलीकी दृष्टिसे भी यह महाकाव्य है, नायककै नामपर इसका नामकरण किया गया है। दृश्य-योजना, वस्तु-व्यापार-वर्णन और परिस्थिति-निर्माणकी योजना कविने यथास्थान की है। वर्णनोंमें नामोकी भरमार नहीं है, किन्तु वस्तुके गुणोका विश्लेषण किया गया है। टेगी भाषा और पुरानी हिन्दीके पश्चात् कई महाकाव्य प्रचलित हिन्दी भापाम भी लिखे गये । यद्यपि सोलहवी गतीके अनन्तर महाकाव्य लिखनेकी परिपाटी उटती गयी, फिर भी पुराण साहित्यको काव्यका विषय बनानेके कारण महाकाव्य रचनेकी परम्परा भीण स्पर्म चलती रही । प्रकरणवश राजस्थानी और व्रजभापाके कतिपय जैन महाकाव्योंका आलोचनात्मक परिचय देना अप्रासगिक न होगा। यह सफल महाकाव्य है, पूर्वोक्त सभी महाकाव्यके लक्षण इसमें वर्तमान हैं । इसकी कथा बड़ी ही रोचक और आत्मपोपक है। किस प्रकार पाश्र्यपुराण . चैरकी परम्परा प्राणीके अनेक जन्म-जन्मान्तरोतक ' चलती रहती है, यह इसमे बड़ी ही खूबीके साथ बतलाया गया है । पार्श्वनाथ तीर्थकर होनेके नौ भवपूर्व पोदनपुर नगरके राजा अरविन्दके मन्त्री विश्वभूतिके पुत्र थे। उस समय इनका नाम मरुभूति और इनके भाईका नाम कमठ था। विश्वभूतिके दीक्षा लेनेके अनन्तर दोना भाई राजाकै मन्त्री हुए । अव राजा अरविन्टने वनकीर्तिपर चढाई की तो कुमार मरुभूति इनके साथ युद्ध-क्षेत्रमे गया। कमठने राजधानीम अनेक उत्पात मचाये और अपने छोटे भाईकी पलीके साथ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य दुराचार किया । जब राजा शत्रुको परास्तकर राजधानीमे आया तो कमठके कुकृत्यकी बात सुनकर उसे बडा दुःख हुआ। कमठका काला मुंहकर गधेपर चढ़ा सारे नगरमे घुमाया और नगरकी सीमाके बाहर कर दिया। - आत्मप्रताड़नासे पीडित कमठ भूताचल पर्वतपर जाकर तपखियोके साथ ' रहने लगा । मरुभूति कमठके इस समाचारको पाकर भूनचल्पर गया, पर वहाँ दुष्ट कमठने उसकी हत्या कर दी। इसके पश्चात् आठ जन्मोकी : कथा दी गयी है, नौवे जन्ममे काशीके विश्वसेन राजाके यहाँ पार्वनाथका • जन्म होता है। यह आजन्म ब्रह्मचारी रहकर आत्म-साधना करते है, पूर्वभवका साथी कमठ इनकी तपस्यामे नाना विघ्न उत्पन्न करता है, पर ये अविचलित रहकर आत्म-साधना करते है। कैवल्य-प्राति हो जानेपर .. भव्य जीवोको उपदेश देते है और सौ वर्षको अवस्थामे निर्वाण प्राप्त करते है। ___ कथावस्तुसे ही इसका महाकाव्यत्व प्रकट है। नायक पार्श्वनाथका जीवन अपने समयके समाजका प्रतिनिधित्व करता हुआ लोक-मगलकी __ रमाके लिए बद्ध-परिकर है। कविने कथामे क्रमबद्धता महाकाव्यत्व का पूरा निर्वाह किया है। मानवता और युग-भावनाका प्राधान्य सर्वत्र है । परिस्थिति-निर्माणमें पूर्वके नौ भवोकी कथा जोड़कर कविने पूरी सफलता प्राप्त की है। जीवनका इतना सर्वानीण और स्वत्य विवेचन एकाध महाकाव्यमें ही मिलेगा। यह जीवनका काव्य है। इसमें एक व्यक्तिका जीवन अनेक अवस्थाओ . और व्यक्तियोके बीच अंकित है । अतः इसमें मानव राग-द्वेषोकी क्रीड़ाके लिए विस्तृत क्षेत्र है। मनुष्यका ममत्व अपने परिवारके साथ कितना अधिक रहता है, यह पार्श्वनायके जीव मरुभूतिके चरित्रसे स्पष्ट है। जीवनकै आन्तरिक दर्शनका आभास वृद्ध आनन्दकुमारकी आत्मकल्याणकी छटपटाहटमें कविने कितने सुन्दर ढगसे दिया है। कवि कहता है Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन वालक काया कृपल लोय । पन्न रूप जीधनमें होय ॥ पाको पात जरा तन करै । काल बयारि चलत पर झरै ॥ मरन दिवसको नेम न कोय । यातै कछु सुधि पर न लोय ॥ एक नेम यह तो परमान । जन्म धरे सो मरै निदान । वस्तुतः उपर्युक्त पक्तियोका यथार्थ चित्रण अत्यन्त रमणीय है। कवि कहता है कि किशोरावस्था कोपलके तुल्य है, इसमें पत्र-रूप यौवन अवस्था है। पत्तोका पक जाना-जरा है। मृत्यु-रूपी वायु इस पके पचेको अपने एक हल्के धक्केसे ही गिरा देती है। जब जीवनमें मृत्यु निश्चित है, तो हमे अपनी महायात्राके लिए पहलेसे तैयारी करनी चाहिये । जीवनका अन्तर्दर्शन ज्ञानदीपके द्वारा ही हो सकता है, किन्तु इस जानदीपमें तपरूपी तैल और स्वात्मानुभवरूपी बत्तीका रहना अनिवार्य है ज्ञान दीप तप तेल भर, घर शोधे श्रम छोर । या विधि बिन निकसै नहीं, पैठे पूरब चोर ॥-१८१ वस्तु-वर्णन, चरित्र-चित्रण और भाव-व्यञ्जना इस महाकाव्यमे समन्वित रूपमे वर्तमान है। घटना-विधान और दृश्य योजनाओको भी कविने पूरा विस्तार दिया है। आदर्शवादका मेल कविताकी समाजनिष्ठ पद्धति और प्रबन्ध-शैलीसे अच्छा हुआ है। पाश्र्वनाथका चरित्र हिंसापर अहिंसाकी विजय है । आमाका पीयूप क्रोध और वैरको सुधा बना देता है, क्रोध और उत्पातके स्वरूपको बदल देता है। प्रतिशोध और वैरकी भावनाका अन्त हो जाता है । इसपर कवि कहता है इत्यादिक उत्पात सब, वृथा भये अति घोर। जैसे मानिक दीपकौं, लगै न पवन शकोर ॥ प्रभु चित चल्यो न तन हिल्यों, टल्यों न धीरज ध्यान । इन अपराधी क्रोधवस, करी वृथा निन हान ॥८॥२३, २५ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! पुरातन काव्य - साहित्य हिन्दी - जैन- खण्डकाव्य खण्डकाव्यमे जीवन के किसी खास पहलपर कविकी दृष्टि केन्द्रित रहती है । यद्यपि घटना- विधान, दृश्य-योजना और परिस्थिति-निर्माणका भी प्रयास खण्डकाव्यके निर्माताओको करना पडता है, पर जीवनके किसी खास अंगकी सीमामें बांधकर । जैन साहित्यकारोंने भी हिन्दी भाषामे अनेक खण्डकाव्योकी रचना की है। परिस्थिति निर्माणमें इन्हें अभूतपूर्व सफलता इसलिए प्राप्त हुई है कि जीवनके द्वन्ढोमें प्रवृत्तिसे हटकर निवृत्तिकी ओर ले जाना इनका व्येय था । इस कारण जीवनकी मर्मस्पर्शी घटनाओको घटित करानेके लिए परिस्थितियोका निर्माण सुन्दर ढगते हुआ है । ससारका कोई भी पदार्थ अपनी स्थितिमे नही रहना चाहता है, परिस्थितिकी ओर बढता है, क्योकि जड़ और चेतन सभी प्रकार के पदाथोमे परिवर्तन और गतिका होना अनिवार्य है। जैन हिन्दी कवियोने स्याद्बाद दर्शनकी अनुभूतिसे प्रत्येक पदार्थकी गति और परिस्थितिका अनुभव कर खण्डकाव्योंमें घटना-विधान इतने सुन्दर ढगसे घटित किये हैं, जिससे मानव जीवनके राग-विराग सहजहीमे प्रकट हो जाते है । ५३ पञ्चमीचरित, नागकुमारचरित, यशोधरचरित, नेमिनाथचउपई, बाहुबलिरास, गौतमरास, कुमारपाल - प्रतिवोध, जम्बूस्वामीरासा, रेवतगिरिरासा, संघपति समरारास, अञ्जना सुन्दरीरास, धर्मदत्तचरित, ललितागचरित, कृपणचरित, धन्यकुमारचरित, जम्बूचरित आदि अनेक जैनखण्डकाव्य देशी भाषा, पुरानी हिन्दी और परवती हिन्दीमे विद्यमान है । इन समी खण्डकाव्योमें घटना-वैचित्र्य के साथ चरित्र-चित्रण सफल हुआ है । मानव जीवनकी रागात्मिका वृत्तिके उद्घाटनके साथ शुद्धात्मानुभूतिकी ओर ले जानेकी क्षमता इन सभी खण्डकाव्यो में है । नायक, रस, बलुविधान, अलंकार-योजना और शैली आदि विभिन्न दृष्टिकोणोंकी अपेक्षासे ये सभी खण्डकाव्य सफल है । यह जैन कवियोंकी प्रमुख विशेषता है कि वे पुरातन कथावस्तुमे नवीन प्राणोकी प्रतिष्ठा कर नूतन और मौलिक Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन उभावनाएँ करनेमे सफल हुए है। पौराणिक कथानकके होनेपर भी विचार निखरे और पुष्ट है । इनसे कुछका विवरण निम्न प्रकार है यह कवि पुष्पदन्तकी अमर कृति है । इसमें नौ सन्धिया है। पञ्चमी व्रतके उपवासका फल प्राप्त करनेवाले नागकुमारका चरित वर्णित है। नागकुमारके जीवनको प्रकाशमें लाने के लिए कविने नागकुमारचरित अपनी कल्पनाका पूरा उपयोग किया है। युद्ध और संघर्षकी परिस्थितिके क्षणामे होनेवाली नागकुमारकी विलक्षण मनोदशाका कविने वैज्ञानिक उद्घाटन किया है। आजकलके मनोविज्ञानके सिद्धान्त भले ही उसमे न हो, पर संघर्षकी स्थितिम मानवमन किस प्रकार ब्याकुल रहता है तथा कल्पनाके मुनहले परॉपर बैठ नभोमण्डलमें कितनी दूर तक विचरण कर सकता है, का आभास सहजमें ही मिल जाता है । इस खण्डकाव्यमें वस्तुवर्णनका कौशल और प्रबन्धकी पटुताका अद्वितीय मिश्रण है। कवि नागकुमारको बनरानके द्वारा देखे जानेका वर्णन करता हुआ कहता है जहिं काणणते ठागोहतर, तहि हुँतट पल्लरिट सवरु ।। दिट परमेसरु कुसुम सर, आवासिट सणरु जणतिहरु ।। आएल पुरिनु परियाणियड, मिश्चहिं जाइपि परियाणियट ॥ तं दिटु जयंधर णिवतणत, असकेट देट किं सो मणड । पुच्छिट काम किं आइअड, को तुहुं विणएण विराइयउ॥ कवि पुष्पदन्तका देशी भाषामें नागकुमार चरितके समान यह भी मुन्टर खण्डकाव्य है। इसमें यशोवर राजाका चरित्र कणित है । कविने जनताकी भावनाका चित्रण यशोधरके चरित्रमें किया " है। बीर-गाथाकालीन रचना होनेके कारण शक्ति और शौर्यका प्रदर्शन अधिक किया गया है। इस कायम मूर्त जीवनमें अमूर्तको, स्यूल शरीरमें सूक्ष्मको और क्षण-मंगुर संसारमे नित्य और अमरतत्वको अभिव्यजित करनेका प्रयास किया है। लौकिक प्रेमकी विभिन्न Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य अवस्थाओंका उद्घाटन जीवनकै विभिन्न चित्रो द्वारा किया है । वर्णन और दृश्य-योजना भी सुन्दर बन पडी है। धर्मसूरि विरचित १३ वी शतीका यह खण्डकाव्य है। इसमे भगवान् महावीरके समकालीन जम्बूस्वामीका चरित्राकन किया है। यह गृहस्थ ... अवस्थामें ही अपने बुद्धि-कौशल और वीरत्वके लिए जम्बूस्वामीरासा " प्रसिद्ध थे। मगधसम्राट् विम्बसारके आदेशानुसार इन्होने पर्वतीय शत्रुको परास्तकर गौरव प्राप्त किया और अन्तम भगवान् महावीरके संघमे दीक्षित हो तपस्या की और निवांण-पद पाया। कविने इसमें गाईस्थ्य जीवनका सुन्दर चित्रण किया है। दाम्पत्यको मर्यादामे बद्ध कर शृङ्गारिक जीवन आध्यात्मिक जीवनपर किस प्रकार छा जाता है, इसका दिग्दर्शन कराया है। __ दपोंक्तियों वीर रसके पोषणमें कहाँ तक सहायक हैं, यह पर्वतीय राजाके दपसे स्पष्ट है । आत्म-विश्वास और आत्म-गौरवकी भावनाका जम्बूस्वामीमे अकनकर उनके प्रतिनायक पर्वतीय राजाके विचारोका कच्चा चिट्ठा सुन्दर ढगसे दिखलाया है। रस, नायक, दृश्यविधान, घटना-वैचित्र्य आदिकी दृष्टिसे यह खण्डकाव्य है, पर सवादोंका अमाव और कथावस्तुकी शिथिलता इसके सौन्दर्यको विकृत करनेमे सहायक हैं। सभी रासा ग्रन्थ एक ही शैलीपर लिखे गये है। इनमें से अधिकाश खण्डकाव्योंमें काव्यत्व अल्प और पौराणिकता अधिक है। धर्मवार्ता अन्य सा होनेके कारण सुन्दर नीति और विश्वोपकारकी भावना - अन्तर्हित है। इन ग्रन्थोके रचयिताओने धार्मिक आस्थाको खुलखुलनेके लिए सुदृढ और सौम्य दृष्टान्तोको प्रस्तुत किया है। मानवको इन्द्रिय और मनकी दासतासे छुड़ाकर अतीन्द्रिय आनन्दकी चौरस भूमिमें ल उपस्थित किया है। रासा ग्रन्थोंमे प्रेम और विरहके चित्रोका भी अमाव नहीं है। वेदनाकी अग्निमे तपाकर आध्यात्मिक रसानुभूतिकी तीव्रता दिखलायी है । वीर रसका चित्रण तो इन काव्योमे Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन सफल हुआ है। किन्तु शान्तरस निरुपणकर सभी रास पर्यवसानको प्राप्त हुए है । जीवनके आवरणमं छुपे चिरन्तन राग-द्वेपोका जिस कविको जितना गहरा परिज्ञान होगा, वह उतना ही सफल खण्डकाव्य लिख सकेगा। जैन कवियोंमें यह परख-विद्यमान थी, निससे वे राग-द्धपका परिष्कार करनेवाली वैराग्यप्रद परिस्थितियोका निर्माणकर काव्यजगत्म सफल हुए । जीवनके क्रिया-व्यापारोंका संचालन रासग्रन्थोंके रचयिताआम विद्यमान था, जिससे वे घटना-विधानमं अधिक सफल हो सके हैं। __अननासुन्दरी रासाम अजनाके विरहका ऐसा मुन्टर चित्रण किया गया है, जिससे विरहिणीके जीवनकी समस्त परिस्थितियांका चित्र सामने प्रन्नुत हो जाता है। संस्कृत साहित्यम विरहकी जिन दस दशाओका नित्पण किया गया है, वे सभी अंजनाके जीवनमें विद्यमान हैं। विरहम प्रियसे मिलनेकी उत्कठा, चिन्ता अथवा प्रियतमके इष्ट-अनिष्टकी चिन्ता, स्मृति, गुणकथन आदि समी नैसर्गिक ढगसे दिखलाये गये है। विरहिणी अजनाके जीवनमे कविने सहानुभूतिकी भी कमी नहीं दिखलायी है। पति-द्वारा अकारण तिरस्कृत होनेसे अजनाके मनम अत्यन्त ग्व्यानि है, वह अपने सुखी बाल्यकालकी स्मृतिका पतिके प्रथम साक्षात्कारकी मधुर स्मृतिके अनुभव द्वारा अपने दुःख-संकटके समयको प्रसन्नतापूर्वक विता देती है। भगवद्भक्ति और सदाचार ही उसके जीवनका आधार है । वह एक क्षण भी अधार्मिक जीवन विताना पाप समझती है। पतिक इतने बड़े अन्यायको भी प्रसन्नतापूर्वक सहन करती हुई, अपने भाग्यको कोसती है । अंजनामें अपूर्व शालीनता है, पातिव्रतकी ज्योति प्रभामण्डल बनकर उमे आलोकित कर रही है। ___ अंजनाको गलतफहमीके कारण उसकी सास गर्भावस्थाम बरसे निकाल देती है । उस समयकी उसकी करुण अवस्थाको देखकर निष्टुरता भी स्टन किये विना नहीं रह सकती है। यह एक सरस खण्ड काव्य है। यद्यपि इसकी भाषा पर गुजरातीका पूर्ण प्रभाव है, तो भी रस-परिपाकम Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य मी नही आयी है। इसके रचयिता कवि महानन्द है । वसन्तका चित्रण करता हुआ कवि कहता है मधुकर करई गुंजारव मार विकार वहति । कोयल करई पटहूड़ा इकट्ठा मेलवा कन्त ॥ मलयाचल थी चलकिरा पुलकिड पवन प्रचण्ड | मदन महानृप पाझs विरहीनिं सिर दंड ॥ ૧૭ 'घुसीता सतु' कवि भगवतीदासका एक सुन्दर खण्डकाव्य है । इसमे कविने सीताके सतीत्वकी झॉकी दिखायी है। बारह मासीमं मन्दोदरी - सीताके प्रश्नोत्तरके रुपमे रावण और मन्दोदरीकी चित्तवृत्तिका नुन्दर विलेपण किया गया है । मानसिक घात-प्रतिघातांकी तस्वीर कितनी चतुराईसे खींची गयी है, यह निम्न उदाहरणसे स्पष्ट है तब बोलइ मन्दोदरी रानी । सखि अपाद घनघट घहरानी ॥ पीय गये ते फिर घर भवा । पामर नर नित मंदिर छाया ॥ लवहि पपीहे दादुर मोरा । हियरा उमग धरत नहिं धीरा ॥ बादर उमहि रहे चौपासा । तिय पिय विनु लिहिं उरुन उसासा । नन्ही वृन्द झरत झर लावा । पावस नभ आगसु दरसावा ॥ दामिनि दमकत निशि अधियारी । विरहिनि काम वान उरमारी। भुगवहि भोगु सुनहि सिख मोरी । जानति काहे भई मति चौरी ॥ मदन रसायनु हुइ जग सारू । संजम नेमु कथन विवहारू ॥ जब लग हंस शरीर महिं, तब लग कीचड़ भोगु । राज तजहिं भिक्षा भमहिं, इठ भूला सबु लोनु ॥ कविवर ब्रह्मगुलारने १७वी छातीमे इस काव्यव रचना की है। इसकी कथावस्तु रोचक औ कृपणजगावन काव्य सरस है । राजगृह नगरमं वसुमति राजा गासन करता था । मी नगर Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन श्रेष्ठपुत्री क्षयंकरी रहती थी। राजाने मुनिराजसे भयंकरोकी भवावली पूछी । मुनि कहने लगे यह पहले भवम उनके सेठ धवलक्री पत्नी थी, इसका नाम मल्लि देवी था। उनके राजा पद्मनाथने अष्टालिका पर्वका उत्सव सामूहिक स्पसे मनाया, धवल सेठ भी इसमें शामिल हुआ, पर मल्लि सेठानीको यह नहीं रुचा। पूजाके लिए सामग्री और पकवान बनवाये अवश्य, किन्तु अच्छी वस्तुएँ न लेकर सडे गले सामानसे सामग्रियों तैयार की, जिससे मुनियोंको आहार नहीं दिया जा सका। मल्लिकी भावनाएँ सदा कलुपित रहती थी; दान धर्ममे एक कानी कौड़ी भी खर्च करनेमें उसके प्राण सूखते थे; इस कारण पतिसे निरन्तर संघर्ष होता रहता था। इस कंजूसीके परिणामस्वरूप ही वह कुष्ठ रोगसे पीड़ित हो गयी। मुनिराज आगे बोले-स्त्रियाँ ही लोम नहीं करती, पुरुष भी परमलोमी होते हैं । वह कहने लगे कि कुण्डरूनगरमै लोभटत्त सेठ रहता था, कमला और लच्छा उसकी उदारमना पलियाँ थीं, दोनों स्त्रियोंमें अत्यन्त स्नेह था । सेठ बहुत ही लोभी था, जब कही वह जाना तो अपने भण्डार-घरका ताल बन्द कर जाता। ____एक दिन दो चारणमुनि सौभाग्यसे वहाँ आये, उनके वहाँ उतरते ही द्वार खुल गया। मुनिरानोंको आहारदान देनेसे उन्हें आकाशगामिनी और वन्धमोचनी विद्याएँ सिद्ध हो गयी। अतः सेठके घरसे बाहर जानेपर वे दोनो अपनी विद्याओं के प्रभावसे तीर्थाटन करने लगी। एक दिन पड़ोसिन स्टकर आयी और छिपकर उनके विमानमें बैठ गयी, दोनो सेठानियों के साथ उसने सहन्नकूट चैत्यालयके दर्शन किये और वहाँसे मूल्यवान रत्न ले आयी। संयोगकी बात वे श्रीमती रत्न लोमदत्त सेठके हाथ येचे । रनोंके सौंदर्य और गुणोंपर मुग्ध होकर ने उससे कहने लगा, 'तू जहाँसे इन रत्नोंको लायी है, उसकी खान बतला दें। लोभमे आकर पडोसिनने सेठको विमानम छुपाकर बैठा दिया । रलद्वीपसे लेटते समय Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्डकाव्यरत पुरातन काव्य-साहित्य मार्गमे अक्स्मात् वह विमान फट गया और सेठकी मृत्यु हो गयी। तेठानियाने संसारके स्वल्पका विचारकर धैर्य धारण किया और अन्तम समाधिपूर्वक प्राण-विसर्जन करनेके कारण देव हुई। मुनिराजके उपदेशसे अयकरीको विरक्ति हो गयी और उसने तपस्याद्वारा प्राण विसर्जनकर देव-पर्याय प्राप्त की। यद्यपि इसमे खंडकाव्यके अनेक क्षण नहीं भी पाये जाते है, फिर मी जीवनको प्रभावित करनेवाली घटनामें सार्वजनीन चित्रण है । इसका - नायक धवलसेठ और नायिका मल्लिदेवी है। नायक खण्डकान्यव सात्त्विक प्रकृतिका है और नायिका तामसी प्रकृतिकी, इसमे लोमकी पराकाष्ठा है । मल्लिकी आधिकारिक कथावस्तु है और लोमदत्त सेठको कथा प्रासंगिक है। दोनो कथाओंम अन्विति है। लेभीकी सूक्ष्म मानसिक दशाओका चित्रण करनेम कविको पूर्ण सफलता मिली है। ___ खरी आलोचनाकी दृष्टिसे वह सफल खंडकाव्य नहीं भी ठहरता है, पर जीवनके कतिपय तत्त्वोका विवेचन ऐश मार्मिक हुआ है, जिससे इसे सफल खंडकाव्य कहा जा सकता है। पाश्चात्य समीक्षा पद्धतिमें नायकका वर्ग और जातिका प्रतिनिधि होना तथा परिस्थितियोंका ऐसा निर्माण रहे, जिसने नायक अपना विस्तार कर सके और उसके चरित्रका दर्शन समी कर सके खंडकाव्यका विषय है। वस्तु, संवाद आदि भी इसके सफल हैं। कवि मनरालाल विरचित यह एक खण्डकाव्य है। इसकी भाषा मिला कन्नौजीसे प्रभावित खड़ी बोली है। भगवान् नेमिनाथ का चरित कवियोंके लिए अधिक आकर्षक रहा है, अतएव अपभ्रंश और हिन्दीम अनेक रचनाएँ काव्यल्पमें लिखी गयी हैं। जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रके अन्तर्गत सौराष्ट्र देशमे द्वारावती नगरी थी। इस नगरीम राजा समुद्रविनय राज्य करते थे। ये बड़े धर्मात्मा परान्म शाली और शूरवीर थे। इनकी रानीका नाम शिवदेवी था। इनके पुत्रका नाम नेमिकुमार रखा गया । कथावस्त Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन साहित्य परिशीलन नेमिकुमार बचपनसे ही होनहार, धर्मात्मा और पराक्रमगाली थे। इन्हीके वंशज कृष्ण और बलभद्र थे । कृष्णने अपने भुजवल द्वारा कंस, जरासंघ जैसे दुर्दमनीय राजाओका भणभरमे सहार कर दिया था। इनकी सोलह हजार रानियाँ थी, जिनमें आठ रानियॉ पथमहिपीके पटपर प्रतिष्ठित थी । एक समय नेमिकुमारके पराक्रमको सुनकर कृष्णके मनमे ईर्या उत्पन्न हुई तथा इन्होंने उनकी शक्तिकी परीक्षाके लिए उनको अपनी सभाम आमन्त्रित किया । नेमिकुमार यथासमय कृष्णकी सभामं उपस्थित हुए और अपनी कनिष्ठ अंगुलीपर जनीर डालकर कृष्ण आदिको झुला दिया, कृष्णको इनके इस अद्भुत पराक्रमको देखकर महान् आश्चर्य हुआ। फलतः उन्होने अपनी पटरानियोको नेमिस्वामीके पास भेजा । रानियोने चारो ओरसे नेमिकुमारको घेर लिया ओर अधिक अनुरोध करनेपर विवाह करनेकी स्वीकृति प्राप्त कर ली। कृष्णने नेमिकुमारका विवाह शूनागढ़के राजा उग्रसेनकी कन्या राजुलमतीसे निश्चित कराया | वहॉपर इन्होंने अपनी कूटनीतिसे पशुओको पहलेसे कैद करवा दिया । जिससे अगवानीके पश्चात् टीकाको जाते समय पशुओकी चीत्कार नेमिस्वामीको सुनाई दी। पशुओके इस करुणक्रन्दनको सुनकर नेमिकुमारको ससारकी सारहीनताका अनुभव हुआ और उन्हे विषय-कपायोसे विरक्ति हो गयी। पशुओंको बन्दीगृहसे मुक्तकर नेमिकुमार बरके वस्त्राभूपणोको उतार दिगम्बर दीक्षा ले गिरनार पर्वतपर तपस्या करने चले गये। एक क्षण पहले जो हर्ष और उल्लास दिखलायी पड़ रहा था, विवाहकी मधुर सहनाई बज रही थी; दूसरे ही क्षण यह हपंका वातावरण शोको परिणत हो गया । सहनाई बन्द हो गयी। वरके विना विवाह किये चले जानेसे अन्तःपुरमें रोना-धोना शुरू हो गया। महाराज उग्रसेन चिन्तामन हो गये। राजुलमतीको जब यह समाचार मिला तो वह मूर्छित हो पृथ्वीपर गिर पडी । प्रयत्न करनेपर जब उसे होश आया तो वह विलाप करने लगी। माता-पिताने राजुलमतीको अन्य वरके साथ विवाह करनेके लिए Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य बहुत जोर दिया, पर उसने कहा- "भारतीय रमणी एकबार जिसे आत्मसमर्पण कर देती है, फिर वही सदाके लिए उसका अपना हो जाता है । भले ही लोगोके दिखावे के लिए विवाहकी रस्म पूरी न हुई हो । स्वामी तप करने चले गये, मैं भी उन्हीके मार्गका अनुसरण करुँगी ।" इतना कहकर राजुल भी तपस्या करने गिरनार पर्वतपर चली गयी । ६१ इस काव्यमे शान्तरस, वात्सल्यरस, करुणरस और विप्रलम्भ शृंगारका सुन्दर परिपाक हुआ है। सीमित मर्यादामे स्वस्थ वातावरणको उपस्थित करनेवाला विप्रलम्भशृङ्गार विशेषरूपसे राजुलके विलाप वर्णनमे आया है । करुणरसके वर्णनमें शब्द स्वयं करुणाका मूर्त्तिमान रूप लेकर प्रस्तुत हुए हैं । कविको इस रसर्क परिपाकमे अच्छी सफलता मिली है । मानवकी राग-भावनाओका चित्र प्रस्तुत करनेमे कुशल चित्रकारका कार्य कविने कर दिखलाया है । अलंकारोमे अनुप्रास, यमक, उत्प्रेक्षा, रूपक, उपमा और अतिशयोक्तिका समावेश सर्वत्र है । छन्दोंमे दोहा, चौपाई, भुजगप्रयात, नाराच, सोरठा, अडिल, गीता, छप्पय, त्रोटक, पहरी आदि छन्दोंका प्रयोग किया गया है । गणदोष, पटदोष, वाक्यदोष और यतिभग आदिका अभाव पाया जाता है । कोमलकान्तपदावलीयुक्त भाषा अपूर्व विकासको लिये हुए है। इस काव्यका सन्देश यह है कि प्रत्येक व्यक्तिको जीवनमे जनसेवाको अपनाना चाहिए | इसके लिए परिश्रमी, अध्यवसायी, कर्मठ, चारित्रवान्, आत्मशोधी, उदार और परोपकारी बनना आवश्यक है । निष्क्रिय और अकर्मण्य व्यक्ति ससारमे कुछ भी नहीं कर पाता है । हिसासे हिसाकी आग नहीं बुझाई जा सकती है, घृणासे घृणाका अन्त नही हो सकता है । प्रेम, क्षमा, अहिंसा, सहानुभूति और आत्मसमर्पण-द्वारा ही शान्तिकी स्थापना की जा सकती है। कविने इसमें नेमिकुमारके उस जीवन-अंशको दिखलाया है, जिसका Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन-साहित्य- परिशीलन अनुकरण कर समाज, देश और जातिकी भलाई की जा राकती है। परोपकार या सेवा करनेके पहले अपना आत्मशोधन करना आवश्यक है, जिससे सेवक अपने सेवाकार्यसे च्युत न हो सके । ६२ चरित और कथा काव्य अतिरिक्त कुछ अधिक है । हिन्दी जैन साहित्यमे महाकाव्य और खण्डकाव्योंके काव्यग्रन्थ ऐसे भी हैं, जिनमें काव्यत्व अल्प और चरित्र धर्मोपदेश देनेके लिए तीर्थकरो या अन्य पुरुषोंके चरित्र लिखे गये है । कुछ ऐसी कथाएँ भी पद्यवद्ध है, जो प्रतोकी महिमा प्रकट करनेके लिए लिखी गई है। अपभ्रंश भाषामे १०-१५ चरित ग्रन्थ, २ बड़े-बडे कथाको एव ३०-३५ छोटी-छोटी कथाएँ आज भी उपलब्ध है। इसी प्रकार हिन्दीमे लगभग १०० चरित ग्रथ और २०० कथाऍ उपलब्ध हैं । इन कथाओमे चरित्र-चित्रणके साथ आनन्द और विषादका अपूर्व मिश्रण विद्यमान है । काव्य के मूल आलम्बन राग-द्वेपके विभिन्न रूपान्तर इन कथाओं और चरितकाव्योमे पाये जाते है । जीवनमे पाये जानेवाले भावोका चरित्र-काव्योमे यथेष्ट समावेश हुआ है । चरितोमे भिन्न-भिन्न पात्रोंकी भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंकी सूक्ष्मता दिखलायी गयी है । सास्कृतिक विशेषताएँ तो इन ग्रन्थोंमें विगेपरूपसे उपलब्ध है । ये चरिग्रंथ और कथाग्रंथ रोचक होनेके साथ अहिसा सस्कृतिकै विशाल भवनकी ऑकियों सामने प्रस्तुत करते है । पाठक इनके अध्ययन और स्वाध्यायसे कुछ समय के लिए सासारिक विपमताओको भूल जाता है, उसके सामने आदर्शका एक ऐसा मनोरम चित्र खिच जाता है, जिससे वह अपनी कुत्सित वृत्तियोको परिष्कृत करने के लिए सकल्प कर लेता है। यद्यपि अपनी मानवीय कमजोरीके कारण पाठक थोड़े समय के पश्चात् ही अपने सकल्पको भूल जाता है और पुनः विपय-कपायोमे आसक्त हो पूर्ववत् आचरण करने लगता है, तो भी सत् सस्कारोका निर्माण होता ही है । इन ग्रन्थोंमे स्त्री-पुरुपोकी नैसर्गिक विशेषताएँ भी दिखलाई पडती Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य हैं । घटनाओकी कुशल संघटनकी ओर प्रत्येक लेखक बहुत सावधान रहा है, जिससे चरितीमे रंजन-शक्तिकी भी कमी नहीं आने पायी है। जीवन और जगत्की लोकरजनकारिणी अमिव्यञ्जना करनेमें कथाकाव्यके निर्माताओको पर्याप्त सफलता मिली है। इन्होने भावोन्मेप और मानव-मनरंजिनी शक्तिकी अभिव्यक्ति इतनी चतुराईसे की है, जिससे रसोद्रेकमे तनिक भी कमी नहीं आने पायी है। वस्तु और उद्देश्यकी दृष्टिसे इन ग्रन्थोमे शान्तरस प्रधान है परन्तु इसके एक ओर करुण और दूसरी ओर वीररसकी धारा भी कल-कल निनाद करती हुई अबाध गतिसे बहती है। कहीं-कहीं विप्रलम्भ शृगार भी प्रबल वेगके साथ कगार तोडता हुआ-सा दृष्टिगोचर होता है, परन्तु शान्तरसके सामने उसे भी हारकर सिर झुका लेना पड़ता है। व्यग, विनोट और हास्यकी भी कमी इन ग्रन्योमे नही है। सामन्तकालीन अन्तःपुरोकी विलासिताका चित्रण भी कवियोने विषयकषायोके त्यागके लिए ही किया है। आदिसे अन्त तक स्वस्थ बौद्धिक दृष्टिकोण (Intellectual vision) उपस्थित किया गया है। निस्सग सरोवरमे मजन करने के लिए रमणियोके विलास वैभवका अतिरेक प्रस्तुत किया गया है । झूठा आदर्श जीवन के लिए मगलपद नहीं हो सकता, यह चरित-काव्योंसे स्पष्ट है । जैन कवियोने भावोंकी अतल गहराईमे उतरकर इन चरितोंमे भी अमूर्त भावनाओको मूर्तरूप प्रदान करनेका प्रयास किया है । पाठकोको जिज्ञासाको उत्तरोत्तर तीव्र करनेके लिए कथाओंको गतिशीलता दी गयी है। अतः ये कथाएँ व्रत या चरित्र पालनेके लिए भावोतेजक (thought Provocation) है। काव्यकी दृष्टि से इनमें कविता अलंकृत नही की गयी है। शब्दचयन और वाल्ययोजना भी चमत्कारपूर्ण ढगसे नहीं हुई है तथा महाकाव्य या खण्डकाव्यकै विधानका अनुसरण मी इनमें नहीं हुआ है। इसी कमीके Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन कारण इनको पृथक् काव्यकोटिमें रखा जा रहा है। चरित और कथाअथ इतने अधिक है, कि इनका अनुशीलनात्मक परिचय देना असभव-सा है । अतएव इस प्रकरणमें केवल तीन-चार प्रयोंके अनुशीलन देकर ही इस कोटिके काव्यों से परिचित करानेका प्रयास किया जायगा | इस चरितात्मक विशाल साहित्यका परिशीलन स्वय एक वृहद् अथ वन सकता है। यह सुन्दर चरित-काव्य है। इसमें गनसिंह गुणमालका प्राचीन आख्यान दिया गया है । प्रसंगवश कविने अपने समयके समाज, सम्प्रदाय गजसिंह-गुणमाल ....... और राज्यका भी चित्रण किया है। कवि कहता है कि "" गोरखपुरी नगरीम अरिमर्दन नामका राजा राज्य करता था, इसकी कनकावती नामकी रानीकी कोखसे गजसिह नामके राजकुमारका जन्म हुआ था। गनसिंहके विवाहके अनतर राजा-रानी अपने पुत्रको राज्यभार सौंप स्वय चारित्र पालने के लिए वनवासी हो गये। इसी गोरखपुरीम एक सेठकी कन्या गुणमालके स्प सौन्दर्यपर मुग्ध होकर गजसिंहने उसके साथ विवाह किया था। कारणवश गजसिंह गुणमालसे स्ठ गया और गुणमाला अकेली रहने लगी। एक विद्याधरने उसे शीलधर्मसे च्युत करना चाहा, परन्तु गुणमाला अपने व्रतपर दृढ़ रही । गुणमालाको शीलवती जानकर विद्याधरने अनेक विद्याएँ उसे भेंट की। अव गजसिंह उससे सशक रहने लगा । वह किसी पुरुपकी तलागमे रहा और यन्त्र-मन्त्र के चक्करमे बहुत दिनों तक पड़ा रहा । उसने देवी, भैरव और यक्षको प्रसन्न करनेके लिए अनेक यल किये । उसकी इम प्रवृत्तिसे एक तान्त्रिक अवधूतने लाम उठाया और उसने अपने आधीन कर लिया। योगीने एक योगिनी-द्वारा गुणमालकी परीक्षा करायी। गुणमाला शीलशिरोमणि थी, उसके आगे किसीकी कुछ भी न चली। १. यह अन्य अप्रकाशित है। प्रति प्राप्तिस्थान-जैनसिद्धान्तभवन, भारा। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य कुछ समय बाद गजसिंह और गुणमालामें पुनः सन्धि हो गयी और दोनो आनन्दपूर्वक रहने लगे। एक दिन एक विद्याधरी गजसिंहको और विद्याधरीका पति गुणमालाको उठाकर ले गया। दोनोने दोनोको वासनानुरक्त बनानेके असफल प्रयल किये। वे पति-पत्नी दोनो ही अपने भीत्वतमें दृढ रहे। उनकी दृढताके कारण विद्याधर-दम्पत्तिकी वासना काफूर हो गयी, और वे सकट मुक्त हो पुनः मिले। कुछ समय पश्चात् दम्पतिने श्रीसम्मेद शिखरकी यात्रा की। कालन्तरमें इन्हें एक पुत्र उत्पन्न हुआ। इस पुत्रको घोड़ेपर चढकर चौगान खेल्नेका बहुत शौक था। एक दिन रत्नशेखर मुनिसे इस राजकुमारने भी स्वदारसन्तोष और परिग्रहपरिमाण व्रत ग्रहण किये । विदर्भ नगरकी राजकुमारीसे इसका विवाह हुआ। अन्तम गजसिह और गुणमात्मने धर्मघोप मुनिसे जिनदीक्षा लेकर तप किया। ___ इस चरितमे मानव-जीवनके गग-विरागोंका सुन्दर चित्रण हुआ है। इसमे अनुरक्त और विरक्त युवक-युवतियोंकी मनोवृत्तिका बड़ा ही सरस और हृदयग्राह्य चित्रण किया गया है । वैभवकी अपारराशिके बीच रहकर भी व्यक्ति किस प्रकार प्रलोभनोको ठुकराकर नैतिकताका परिचय दे सकता है, यह गुणमालाके चरितसे स्पष्ट है । नारीका सारा अवसाद पातिव्रतसे ही दूर हो सकता है, स्वर-लहरीके प्रकम्पनमे नारीकी आत्मज्योति जाग्रत होती है। मिथ्याविश्वास और आडम्बर जीवनको कितना विकृत करते है, यह गजसिंहकी मन्त्र-तन्त्रको साधनासे स्पष्ट है । दृढ़ विश्वासकी विद्युत् बड़े-बडे सकटोके पर्वतोको चूर-चूर करनेकी क्षमता रखती है। नारी जीवनमे लबाका आवरण मगल-सूत्र है, इसके फट जानेसे वेदनाका ज्वार दवाये नहीं दवता, जीवन नारकीय बन जाता है। कविने वन, नदी, सन्ध्या और उपाका भी सरस चित्रण किया है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जन-साहित्य परिशीलन उपमा, उबक्षा, यमक, रूपक, अनुप्रास और उदाहरण अलंकारोंकी भरमार है। भाषा और उनिको अलंकृत बनानेकी कविने पूरी चेष्टा की है । शृंगार, करुण, वीर, बीभत्स और शान्तरसका परिपाक यथास्थान अच्छा हुआ है । अनेक स्थानों में काव्य-चमत्कार भी विद्यमान है। इस चरितके रचयिता परिमल कवि है। इसमें श्रीपाल और मैनासुन्दरीकी प्रसिद्ध कथा लिखी गयी है। देश और पुरीका वर्णन विशद श्रीपालचरित स्प र स्पमे किया गया है । जीवन-कथाको सीधे और सरल ढगसे व्यक्त कर कविने घटनाओंकी क्रमबद्धताका पूरा निर्वाह किया है। इसमें धर्म और अधर्मका संघर्ष, पाप और पुण्यका द्वन्दू, हिंसा और अहिंसाके घात-प्रतिषात मार्मिक ढगसे व्यक्त किये गये है। अमिमान व्यक्तिको कितना नीचे गिरा देता है, अविवेकसे बुद्धिका सर्वाभाव किस प्रकार हो जाता है, यह मैनासुन्दरीके पिताकी हटग्राहितासे स्पष्ट है। ___ोहे और चौपाई छन्दमें ही यह चरित-ग्रन्थ लिखा गया है। प्रासयोजनामे कविको अच्छी सफलता मिली है। यतिभंग या छन्दोमंग कहीं भी नहीं मिलेगा। गेय छन्दका प्रयोग करनेसे भावनाओको गतिशील बनानेका आयास प्रशस्य है। भापाकी दृष्टिसे इसमें ब्रज, अवधी, बुन्देलखण्डी और मारवाड़ीका पूरा मिश्रण है। कहींपर दीनी, बीनी; कहीं दियो, लियो, अजहूँ और कहीं कहाणे, सुवासणि, सीसाण और मज़े आदि शब्दोंका प्रयोग हुआ है । तत्सम शब्द बहुन कम आये है। वाहन, कोढ़ी, परवीण आदि तद्भव शब्दोका प्रयोग बहुलतासे हुआ है। वर्णनमें कवि यथास्थान उपदेश देनेसे नहीं चूका है। धवल सेठको धिक्कारते हुए उपदेशौकी अढी लगा दी है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य इस चरितके रचयिता कवि हीरालाल है। इसमें काव्य-चमत्कार विद्यमान है। वें तीर्थंकर भगवान् चन्द्रप्रमकी जीवन-गाथा इसमें र वर्णित की गयी है। इस चरितमे १७ सन्धियाँ हैं। आरम्भमे श्रोता, वक्ता, नमस्कार और त्रिलोक वर्णनको विस्तार देनेके कारण कथाका आरम्म बहुत दूर जाकर किया गया है। जो व्यक्ति आरम्भसे ही कथा-जिज्ञासु है, वह इस वर्षनके पढ़नेसे ऊब-सा जाता है। आरम्भमें चार सन्धियोंमें ऋषभदेवके चरितका ही वर्णन किया गया है। पॉचवी सन्धिसे दसवीं सन्धितक पद्मनाभके भवान्तरोंका विशद वर्णन किया गया है। इस प्रकार दस सन्धियो तक चरित-नायकके जीवनके सम्बन्धमें कुछ भी प्राप्त नहीं हो पाता है। ग्यारहवी सन्धिमे भगवान् चन्द्रप्रमका गर्भावतार दिखलाया गया है। भव-भवान्तरोकी प्रासंगिक कथाओको कविने इतना रोचक बनाया है, जिससे जिज्ञासु पाठकोंका मन अवता नहीं है। ये कथाएँ आधिकारिक कथासे जुटी हुई हैं, समस्त झरने एक ही साथ मन्दाकिनीका रूप धर ग्यारहवी सन्धिमें उपस्थित हो जाते है। ___ भगवान् चन्द्रप्रभ काशीके नृपति महासेनकी पट्टरानी लक्ष्मणाके गर्भसे उत्पन्न हुए। नगरीके सौन्दर्य और वनविभूतिके चित्रणमे कविने अपना पूरा उपयोग लगाया है। वनवर्णनमें कितने ही प्रसिद्ध, अप्रसिद्ध मेवे और फलोके नाम गिनाये है। उदाहरणार्थ एक पद्य उद्धृत किया जाता है कमरख करपट कैर कैथ कटहर किरमारा । केरा कौच कसेर कंज कंकोल कव्हारा खिरनी खैर खजूर खिरहरी खारख खेनर । गौंदी गौरख पान गुंज गूलर गुझ गोझर ॥ बारहवी सन्धिमे भगवान्की बाललीलाओका बड़ा ही सरस चित्रण किया है। उनकी वेषभूषा, अनुपम शौर्य-पराक्रम, ज्ञान एवं अन्य काँका Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन चित्रण किया गया है। तेरहवी सन्धिमे ससारके स्वार्थ, राग, द्वेष और क्षणभगुर रूपको देख चन्द्रप्रमकी विरक्तिका वर्णन किया है। वे ससारकी वस्तुस्थितिका नाना प्रकारसे विचार करते हैं। शरीर, धन-वैभव जो एक क्षण पहले आकर्पक मालम पड़ते थे, वे भी विरक्त हो जानेपर काटनेको दौडते हैं । कविने इस स्थलपर मानवीय भावनाओसे आरोपित प्रकृतिके बीभत्स रूपका सुन्दर विश्लेषण किया है। चौदहवीं सन्धिमे केवलज्ञान प्राप्तकर भगवान्ने ससारसे तत और मार्गभ्रष्ट प्राणियोंको कल्याणका मार्ग बतलाया है । इस प्रकरणमे आत्माही परमात्मा है, यही कर्ता, भोक्ता और अपने उत्थान-पतनका उत्तरदायी है, आदि बतलाया गया है । पन्द्रहवीं सन्धिमे ज्ञानका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है और सोलहवी सन्धिमे चन्द्रप्रम स्वामीका मोक्षगमन तथा सत्रहवीमें कविने आत्मपरिचय लिखा है। वर्णनशैलीमे प्रवाह है, भाषा सानुप्रास है । कवितामे ताल, स्वर और अनेक राग-रागनियोका भी समावेश किया गया है। अनुप्रास, यमक, विरोधाभास, श्लेष, उदाहरण, रूपक, उपमा, उत्प्रेभा और अतिशयोक्ति अलंकारकी यथास्थान योजना की गयी है । निम्न पद्य दर्शनीय हैंकवल बिना जल, जल बिन सरवर, सरवर बिन पुर, पुर बिन राय । राय सचिव बिन, सचिव बिना बुध, बुध विवेक बिन शोभ न पाय ॥ इस प्रकार भाव, भाषा और शैली आदिकी रिसे यह चरित सुन्दर काव्य है। - इस चरितके रचयिता कवि नवलशाह हैं । इसमे अन्तिम बमानचरित तीर्थंकर भगवान् महावीरका जीवनचरित विस्तार - पूर्वक वर्णित है। इसमे सोलह अधिकार हैं। आरम्भमें वक्ता, श्रोता आदिका लक्षण बतलाया है। वर्द्धमान स्वामीके पूर्वभवोंका. वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि पुष्कलावती देशमे पुण्डरीकिणी नगरीके वनमे पुरुरवा भील रहता था। इसने श्रावकके व्रत ग्रहण किये, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य : ६९ व्रतोके प्रमावसे वह मरकर सौधर्म स्वर्गमे देव हुआ और वहॉसे च्युत होकर भरतचक्रवतीके मरीचिकुमार नामका पुत्र हुआ। भगवान् आदिनायके साथ मरीचिकुमारने भी जिनदीक्षा ग्रहण की। दीक्षासे भ्रष्ट होकर इन्हें अनेक योनियोमे भ्रमण करना पडा। अनेक जन्म धारण • करनेके उपरान्त यही मरीचिकुमारका जीव कुण्डलपुर नगरमे राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणीके वर्द्धमानकुमार नामका पुत्र हुआ। कुमार वर्द्धमानकी शूरवीरता, ज्ञान एव दिव्य तेजसे प्रभावित होकर ही लोगोने इनके नाम महावीर, सन्मति एव वीर रखे थे। यह आजन्म अविवाहित रहे । ३० वर्षकी अवस्थामे समारसे विरक्त हो तप करने चले गये और आत्मशोधन कर अशान्त विश्वको शान्तिका उपदेश दिया । अव महावीर भगवान् महावीर बन गये, इनका उपदेशामृत पान करनेके लिए मनुष्य ही नहीं, पशु, पक्षी, देव, दानव सभी आते थे । भगवान् महावीरने समस्त आर्यदेशेमे विहारकर जनताको कर्तव्यमार्गका उपदेश दिया। अन्तमें मोक्ष लाम किया। इस चरित-काव्यमे सभी प्रसिद्ध छन्दोका प्रयोग किया गया है। कविता साधारणतः अच्छी है । सिद्धान्त और आचारकी बातोंका निरूपण वडे विस्तारके साथ किया गया है। नख-शिख वर्णनमें भी कवि किसीसे पीछे नहीं है। महारानी प्रियकारिणीके रूप सौन्दर्यका चित्रण करता हुआ कवि कहता है अम्बुजसौ जुग पाय बनै, नख देख नखत भयौ भय भारी। नूपुरकी झनकार सुनै, हग शोर भयौ दशहू दिश मारी। कंदल थंभ वनै जुग जंध, सुचाल चले गनकी पिय प्यारी। क्षीन बनौ कटि केहरि सौ, तन दामिनी होय रही लज सारी॥ नामि निवौरियसी निकसी पढहावत पेट सुकंचन धारी। काम कपिच्छ कियौ पट अन्तर, शील सुधीर धरै अविकारी ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन भूपन बारह भाँतिनके अंत, कण्ठमै ज्योति से अधिकारी । देखत सूरज चन्द्र छिपे, मुख दाडिम दंत महाछविकारी ॥ भाषा ब्रन, मुन्देली और खड़ी बोलीका मिश्रित रूप है । उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोक्ति अल्कारोंका प्रयोग अनेक स्थलो पर किया गया है। ७० १७ वी शती रायमल्लके प्रद्युम्नचरित और सुदर्शन चरित, १९ वीं शतीमें ज्ञानविजयका मल्यचरित, नथमल वित्ालाके नागकुमारचरित और जीवन्धर चरित; सेवाराम के हनुमच्चरित, शान्तिनाथ पुराण और भविष्यदत्त चरित एव भारमलके चारुदत्तचरित और समव्यसनचरित चरित-काव्य है । कवियोने इन काव्योमे मानव जीवनकी सुन्दर अभिव्यंजना की है। हिन्दीके कथाकाव्योमें पद्यात्मक दो कथासग्रह बहुत प्रसिद्ध हैंआराधनाकथाकोश और पुण्यासवकथाकोश | भारमलकी कई कथाएँ जो कि प्रवन्धकाव्यके रूपमे लिखी गयी हैं, बड़ी ही रोचक और हृदयस्पर्शी हैं। शीळकथा, दर्शनकथा, एव निशिभोजनत्याग कथा तो अत्यन्त लोकप्रिय है । आराधनाकथाकोशमें १२९ कथाओका सग्रह और पुण्यासवकथाकोशमे ५६ कथाभोका सग्रह है । मानव विकासके साथ उसकी इच्छाशक्ति और जिज्ञासावृत्ति भी विकसित होती है । यहीं वृत्ति मानवको कथा सुनने और कहने के लिए बाध्य करती है । कुशल कलाकार कथाओंको भी काव्यका रूप दे देते हैं, वे इन्हे इतना रोचक और सरस बनाते हैं जिससे ज्ञानकी मरुभूमिको पार करते समय पाठक ऊब न जाय और वह बीच-बीचमे वृक्षोकी छायासे आच्छादित सरोवरोके निकट बैठकर शान्ति लाभ कर सके । पुण्यास्तव कथाकोशकी कथाऍ वड़ी ही रोचक, हृदयको छूनेवाली और मर्म-वेदनाको प्रकट करनेवाली हैं। लेखकने इनसे पाप-पुण्यके फलका भी विवेचन किया है । आजकलकी कहानी के समान जीवन के किसी Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन काव्य-साहित्य एक घटनाको लेकर ही ये कथाएँ नही लिखी गयी हैं, बल्कि इनमे सर्वाङ्गीण जीवनका चित्राकन सफलतापूर्वक किया गया है। इस कयासंग्रहमें चारुदत्त, राना श्रेणिक, सेठ सुदर्शन, प्रभावती, वज्रदन्त, पूजाका फल, नवकारमन्त्रका फल आदि कथाएँ अधिक मर्मस्पर्शी है। सेठ सुदर्शनकी कथाको ही लीजिये। निश्चकित एवं श्रद्धामय भावनासे एक मन्त्रक दृढ़ श्रद्धानके फलसे एक ग्वाला भरकर श्रीष्टिपुत्र सुन्दर कुमार होता है । उसका रूप-लावण्य इतना आकर्षक है कि एक रानी भी उसके चरणोंमे गिर पडती है और रूपकी भिक्षा मॉगती है। इस स्थानपर मानवकी रागात्मक भावनाओंका हृदय-ग्राह्य सूक्ष्म विश्लेषण किया है। इस कथामे सत्संगति और कुसगतिके फलकी भी अमिव्यनना की गयी है। तीन दिनकी मुनिसंगतिसे एक गणिका अपने कृत्योपर पचात्ताप करती हुई अन्यायोपार्जित धनपर लात मारकर आर्यिकाकै व्रत ग्रहण कर लेती है और अन्तमें उच्च पद पाती है। इस कथामे शुभाशुभ कर्चव्यके फलाफलका सरस विवेचन किया गया है। अन्य कथाएँ भी आनन्दानुभूति उत्पन्न करनेवाली हैं। चारुदचको कथा तो इतनी मार्मिक है कि कोई भी प्राणी इसे पढ़कर दो ऑसू गिराये विना नहीं रह सकता। इसी प्रकार अवशेष कथाएँ भी रस-सचार करती हैं। इस संग्रहकी वर्णनशैली मनोरम और अलंकृत हैं। काव्यक चमत्कारके साथ सौन्दर्यानुभूति इसमें चार चाँद लगाये हुए है। __जोधराज गोदीआ विरचित सम्यक्त्वकौमुदीकी कथाएँ भी बही रोचक हैं। दोहा, सवैया, सोरठा, छप्पय, चौपई आदि छन्दोंमे यह कथाग्रन्थ लिखा गया है। जीवनकै विभिन्न धात-प्रतिघातोंका सुन्दर विश्लेपण इस काव्य-ग्रन्थमें किया है। घटना-निर्माण और परिस्थितियोजनाका सुन्दर समावेश किया गया है। कविता अच्छी है । उदाहरणके लिए एक छप्पय उद्धृत किया जाता है Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन तबहिं पावढी देखि चोर भूपति निज जान्यौ । देखि मुद्रिका चोर तबै मन्त्री पहिचान्यो । सूत जनेऊ देखि चोर मोहित है भारी। पंचनि लखि विरतान्त यहै मनमें जु विचारी ॥ भूपति यह मन्त्री सहित प्रोहित युत काढी दयौ । इह भाति न्याव करि भलिय विधि धर्म थापि जग जस लयौ ॥ इस प्रकार कथा-काव्य मनोरजनके साथ आदर्श प्रस्तुत करते है, जिससे कोई भी व्यक्ति अपने जीवनका उत्कर्ष कर सकता है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयाध्याय हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य और उसकी इतर गीतिकाव्यसे तुलना कविता जीवनका अन्तर्दर्शन और रागामिका अभिव्यक्ति है। सुखदुःखानुभूति मानवमें ही नहीं, पशु-पक्षियोमे भी पायी जाती है। वाणी या अन्य माध्यमो द्वारा मनुष्यने अपनी अनुभूतियोंकी अभिव्यक्तिको स्थायित्व प्रदान किया है । गीतिकाव्योम भावनाकी अनुभूति अधिक गहरी होती है। मिलन-विरह, हर्प-शोक और आनन्द-विषादका चित्र सीमित रूपमे गेयता-द्वारा गीतिकाव्यमें उपस्थित किया जाता है। इसमे छन्द और रागविशेष-द्वारा आत्मनिष्ठता, आत्मानुभूति एव भाव-प्रकाशन किया है। हिन्दी-जैन साहित्यमे गीतिकान्यका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपभ्रश भाषामे भी जैन कवियोंने अनेक सरस गीत लिखे हैं, जिनमें प्रेम, विरह, विवाह, युद्ध और अध्यात्म-भावनाकी अभिव्यञ्जना सुन्दर हुई है । संगीत और लयके सहारे ये गीत गानेके लिए रचे गये है। परवर्ती हिन्दी-जैन-साहित्यमें लावनी, भजन, पद आदिके रूपमे विपुल गीतात्मक साहित्य पाया जाता है। विषयकी दृष्टिसे अध्यात्म, नीति, आचार, वैराग्य, भक्ति, स्वकर्तव्य-निरूपण, आत्मतत्त्वकी प्रेयता और शृङ्गार भेदोमे विभक्त किया जा सकता है। प्रायः सभी पदोमे आस्मालोचनके साथ मन, शरीर और इन्द्रियोकी स्वाभाविक प्रवृत्तिका निरूपण कर मानवको सावधान किया है। गीतिकाव्यकै निम्न सिद्धान्तो के आधारपर जैनपर्दोका विश्लेषण किया जायगा। १-संगीतात्मकता। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन २ - किसी एक भावना या किसी रागात्मिका अनुभूतिकी कलापूर्ण समन्वित अभिव्यक्ति । ७४ ३ - आत्मदर्शन और आत्मनिष्ठा । ४ --- वैयक्तिक अनुभूतिकी गहराई । गीत या पटो गेयताका रहना आवश्यक है। इसका आधार शब्द, अर्थ, चेतना और रसात्मकता है। शब्द जहाँ पाठकको अर्थकी भाव जैन पदोमें संगीतात्मकता भूमिपर ले जाते हैं, वहाँ नादके द्वारा श्रव्य मूर्त विधान भी करते है । शब्दोंका महत्त्व उनके द्वारा प्रस्तुत मानसिक चित्र और ज्ञापित वस्तुकै सामञ्जस्यमे है । जिस वस्तुको चर्मचक्षुओसे नहीं देखा है, उसका भी कल्पना-द्वारी मानस-चक्षुओके सामने ऐसा चित्र प्रसूत होता है, जो अपने सौन्दर्यक स्रोतमे मानवके अन्तस्को डुबा देता है। जैनपदोमे स्वाभाविक गीतधाराका अक्षुण्ण प्रवाह है, उनमे अतलस्पर्गिनी क्षमता है । बनारसीदास, दौलतराम, बुधजन और भागचन्दके पदोमे मुक्त संगीतकी धारा स्वच्छन्द और निर्वाध रूपसे प्रवाहित है । यो तो श्र ेष्ठ पदोका सौन्दर्य सगीतमे नहीं, भावात्मकतामे होता है। अकुश रूपये रहनेवाला संगीत सौन्दर्यकी विकृतिमे साधन बनता है । संगीतका अनुबन्ध रहनेपर भी जैनपढोमे जो मार्मिकता और स्नेहपिच्छल रसधारा है, उसका समाहित प्रभाव मानवीय वृत्तिपर पड़े बिना नही रह सकता । प्रभातराग, रामकली, ललित, बिलावल, अलहिया, आसावरी, टोरी सारग, लूहरि सारंग, पूर्वी एकताल, कनड़ी, ईमन, झंझोटी, खंभाच, केदार, सोरठा, बिहाग, मालकोस, परज, कलिंगड़ो, भैरवी, धनासरी, मल्हार आदि राग-रागनियों इन पदोमें व्यक्त हैं । कवि दौलतरामके निम्न पदमें नाट सौन्दर्यके साथ स्वर और तालका समन्वय सगीतके मूर्तरूपको भी मुखरित करता है - चलि सखि देखन नाभिरायघर नाचत हरिनटवा ॥ टेक ॥ अद्भुत ताल मान शुभलय युत चवत रागपटवा ॥ चलि सखि ० ॥ १ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य मनिमय नूपुरादि भूपनदुति, यव सुरंग पटवा । हरिकर नखन नखन पैसुरतिय, पग फेरत क्टवा चलि सखि०॥२॥ किन्नर कर धर वीन वजावत, लावत लय झटवा । दौलत ताहि लखें चख तृपते, सूक्षत शिषबटवा चलि सखि०॥३॥ कविवर बुधजनने भी विलावल रागको धीमी तालपर कितने सुन्दर ढगसे गाया है। इस पदमे माषाकी तड़क-भड़क और चमक दमक ही नहीं, किन्तु छन्द और ल्यका सामजस्य मानव अन्तर्रागको उवुद्ध करनेमें समर्थ है। ससारके वाह्य रूपपर मुग्ध व्यक्तिको सजग करनेके लिए तथा वासनामे फंसे व्यक्तिको सावधान होनेके लिए कहा है कि इस भवको प्रासकर कौडीके मोल न बहाओ। कवि कहता है नरभव पाय फेरि दुख भरना, ऐसा कान न करना हो ।टेका नाहक ममतानि पुदलसौं, करम-जाल क्यों परना होगटेक॥ यह तो नह ज्ञान भरूपी, तिल-तुप ज्यों गुरु वरना हो। राग-दोस तजि भजि समताको, करम साथके हरना हो। नरभवः ॥टेका यो भव पाय विसय-सुख सेना, गज चदि ईधन ढोना हो। 'बुधजन' समुक्षि सेय जिनवर-पद, ज्यो भव-सागर वरना हो। नरभव०॥ ससारकी स्वार्थपरतासे भयभीत होकर कविवर मागचन्दने राग विलावलम संगीतकी तान छोडते हुए अन्ततमकी अभिलाषा अभिव्यक्त की है। कवि कहता है कि सभी पुरजन-परिनन स्वार्थके साथी हैं। अन्त समय कोई काम नहीं आता; जिस प्रकार हिरण मृगमरीचिकाके प्रलोमनसे आकृष्ट होकर नाना कट सहन करता है उसी प्रकार यह जीव भी ससार रूपी वनमे निरन्तर कपाय और वासनाओंसे अभिभूत होकर भटकता रहता है। गरीरमोगोसे जबतक विरक्ति नहीं होती; शान्ति नहीं मिलती Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन सुमर सदा मन आतमराम, सुमर सदा मन आतमराम ॥टेक॥ स्वजन कुटुम्बी जन तू पोपे, तिनको होय सदैव गुलाम । सो तो हैं स्वारथके साथी, अन्तकाल नहिं आवत काम ॥ सुमर सदा० ॥१॥ जिमि मरीचिका मृग भटकै, परत सो जब प्रीपम अतिघाम । तैसे तू भव माही भटकै, धरत न इक छिन हू विसराम ।। सुमर सदा ॥२॥ करत न ग्लानि अवै भोगनिम, धरत न वीतराग परिनाम । फिरि किमि नरक माहि दुख सहसी, नह सुखलेश न आ जाम ।। सुमर० ॥३॥ तातें आकुलता अब तनिक, थिर है बैठो अपने धाम । 'भागचन्द' बसि ज्ञान-नगरम, तजि रागादिक ठग सब ग्राम ॥ सुमर सदा० ॥टेक। 'सुमर सदा मन आतम राम' में कविने अनेक अशोमै रेखाचित्रकी भॉति कतिपय शब्दरेखाओ-द्वारा ही भावनाको अभिव्यञ्जना की है। सगीतके मौन-सौन्दर्यके साथ कल-कल ध्वनि करती हुई भावधारा मानवमनको स्वच्छ करनेमे कम सहायक नहीं है। मैया भगवतीदासके पदोमे भी सगीतका निखरा स्वरूप मिलता है । राग-रागनियोका समन्वय भी प्रत्येक पदमें विद्यमान है। शरीरको परदेशीका रूपक देकर वास्तविकताका प्रदर्शन किस माधुर्यके साथ किया गया है, यह देखते ही बनता है। कविने कुशल कलाकारकी तरह मीनाकारी और पञ्चीकारी की है ____ कहा परदेशीको पतियारो। मनमाने तब चलै पंथको, साँझ गिनै न सकारो। सधै कुटुम्ब छाँद इतही पुनि, त्याग चलै तन प्यारो॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य दूर दिशावर चलत आपही, कोउ न रोकन हारो। कोक प्रीति करो किन कोटिक, अन्त होयगो न्यारो॥ धन सौ राचि धरम सौ भूलत, झूलत मोह मंझारो। इहि विधि काल अनन्त गमायो, पायो नहिं भव पारो॥ साँचें सुखसों विमुख होत हो, भ्रम मदिरा मतवारो। चेतहु चेत सुनहु रे भइया, आप ही आप सॅभारो॥ जैन पदोंमें गीतिकाव्यकी दूसरी विशेषता आत्मनिष्ठा भी पायी जाती है। अन्तर्दर्शन द्वारा आत्मनिष्ठाकी भावना वैयक्तिक सुख, दुःख, हर्ष, जैन-पदोंमें है शोक, राग, द्वेष एव हात्य अश्रुके गीत गाती है। इन पदोमें आत्म-भावनाकी अभिव्यञ्जना इतनी प्रबल आत्मनिष्ठा और वैयक्तिता है, जिससे इनका आधार अधिकरण-निष्ठताको माना जा सकता है। कल्पनाशील भावुक कवि केवल वाह्य वस्तुओंसे ही प्रभावित नहीं होता, केवल सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक कारण ही उसे क्षुब्ध नहीं करते, बल्कि वह आन्तरिक कारणोसे भी क्षुब्ध और प्रताडित होता है। जैन पट रचनेवाले सभी कवियोने अपने अन्तर्तमसे प्रेरणा प्राप्त की, वे वाह्य संसारसे अनासक्त है । चर्म-चक्षुओके स्थानपर उनके मानस-चक्षु उद्बुद्ध है। उन्होने अपनी भावनाओंको विश्वजनीन बनानेके लिए वैयक्तिक भाव और चेतनाको आदर्श एव भावात्मक रूप प्रदान किया है । आत्म-चेतनाकी जाग्रति इन पदोंका प्राण और ल्यपूर्ण भाषामें आत्मानुभूतिकी अभिव्यक्ति इनका उद्देश्य है । कविवर वुधजनने निम्नपदमे कितनी गहरी आत्मानुभूतिका परिचय दिया है, इनकी अन्ताला धू-धूकर जल रही है। कविके आकुल प्राण शान्तिप्रासिके लिए छटपटा रहे है, अतः कवि आत्म-विभोर हो कहता है हो मना जी, थारी बानि, बुरी छै दुखदाई पटेका निज कारिज ने न लागत, परसौ प्रीति लगाई ॥ हो । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ हिन्दी - जैन साहित्य- परिशीलन या सुभावसौं अति दुख पायो, सो अब त्यागो भाई ॥ हो० ॥२॥ 'बुधजन' ओसर भाग न पायो, सेवो श्री जिनराई ॥ हो० ॥३॥ जहाँ हम कवि भागचन्दके पटोंमे अन्तर्दहनके साथ गाम्भीर्य पाते हैं। वहाँ कवि बनारसीदास के पदोके प्रबल वेग, अन्तस्के शोधनकी क्षमता और स्वस्थ व्यजना पाते है । आध्यात्मिक शान्ति प्राप्ति के लिए कवि दौलतरामने कोमल-कान्त- पदावलीमे अपनी कमनीय अनुभूतियों की मार्मिक अभिव्यञ्जना की है । कवि अन्तस्मै गुनगुनाता हुआ गा उठता है पारस जिन चरण निरख, हरख यो लहायो, चितवत चन्दा चकोर ज्यों प्रमोद पायो ॥ ज्यों सुन घनघोर शोर, मोर हर्पको न ओर, रंक निधि समाजराज पाय मुदित थायो ॥ पारस ० ॥ ज्योंजन थिरक्षुधित होय, भोजन लखि सुखित होय, भेपन गदहरण पाय, सरुज सुहरखायो ॥ पारस ० ॥ वासर भयो धन्य आज, दुरित दूर परे भाज, शान्तदशा देख महा, मोहतम पलायो ॥ पारस जिन० ॥ भानन भवकानन इम, शिव 'सुख ' ललचायो ॥ पारस जिन० ॥ जाके गुन जानत जिम, जान 'दौल' शरन आय, इन पक्तियोंमें आत्मनिवेदनकी भावना तीव्र और गम्भीर है । प्रभुभक्तिका जलप्रवाह सारी चेतनाओंको धो देता है, जानका बॉध टूट जाता है और प्रबल वेगमे जीवन प्रवाहित होने लगता है तथा अपने आराध्य के निकट पहुँचकर शान्तिलाभ करता है । कविकी यह अनुभूति ऐन्द्रियक नही, इन्द्रियातीत है । गीतिकाव्यका तीसरा तत्व भाव और अभिव्यञ्जनाके समन्वयमे अनुभूतिकी अन्विति है । इसके बिना न तो सवेदनशीलता रहती है और न उससे उत्तेजना प्राप्त होती है । जीवनमे ऐसे कम ही क्षण आते हैं, जब Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य मानवकी वृत्ति अन्तमुखी होती है। मानसिक प्रतिक्रियाएँ सामाजिक आधार रखकर गतिशीलता ग्रहण करती हैं । सहसा समन्वित दीत हो उठनेवाले क्षणोंमें सवेदनशीलता गतिमान अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । जिस प्रकार रेखाचित्रमे एक रेखाके अभावमें चित्र अधूरा रह जाता है और एक रेखा अधिक होनेसे चित्र विकृत हो जाता है उसी प्रकार अनुभूतिकी अभिव्यजनामे मी हीनाधिकता होनेपर विकृति आती है, अतः अभिव्य जनामें अत्यन्त सावधानी रखनी पडती है। जैनपदोमे अनुमतिकै सकेतोंका सन्तुलन है, अतः रूपहीनता अथवा विरूपताके चित्रोंका प्रायः अभाव है। कविवर बनारसीदासके निम्न पदमे अनुभूति और सकेतोंका सन्तुलन दर्शनीय है चेतन तू तिहुँकाल अकेला। नदी नाव संमोग मिलै ज्यों, त्यों कुटुम्बका मेला ॥ चेतन० ॥ यह संसार अपार रूप सब, ज्यों पट पेखन खेला। सुखसम्पति शरीर जल बुदबुद, विनशत नाही बेला । चेतन० ॥n मोहमगन आतमगुन भूलत, परी सोहि गलजेला ॥ मैं मैं करत चहूँ गति डोलत, बोलत जैसे छेला ॥चेतन०॥२॥ कहत 'बनारसि' मिथ्यामत तजि, होय सुगुरुका चेला । तास वचन परतीत आन जिय, होइ सहज सुरझेला ॥चेतन०॥३॥ कविवर भूधरदासजीने ससारकी असारता दिखाते हुए अपनी आन्तरिक भावनाओंको वडे ही सुन्दर ढगसे अमिव्यक्त किया है। कवि कहता है जगमें जीवन थोरा, रे भज्ञानी जागि टेका जनम ताड तरु से पड़े, फल संसारी जीव । मौत मही में आयहैं, और न और सदीय ॥जगमें॥३॥ गिर-सिर दिवला जोइया, बहु दिशि वाजै पौन । बलत अचमा मानिया, बुझत अचम्भा कौन जगम ॥२॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन जो छिन जाय सरे आयूमें, निश दिन टूक काल । बाँधि सके तो है भला, पानी पहिली पाल जगमे ॥३॥ मनुप देह दुलंग्य है, मति चूकै यह दाव । 'भूधर' राजुल कंत ही, शरण सितायी आव नगमें०॥४॥ अध्यात्म प्रेमी कवि बनारसीदासने आत्मानुभूतिके कवि वनारसी. निरसे प्रवेशकर कान्यकी सुरीली तान भरी है। दासके पद इनके सरस और हृदयग्राही पद आत्मकल्याणमे बडे ही सहायक है। मानव अनुभूति, वासना और विचारोंसे जीवित है। जीवनकी विस्तृत भूमिकाके रूपमे अनुभूतिका आलोक है और अनुभूतियोमें श्रेष्ठ है आत्मानुभूति । इसमे सारा ध्यान खिंचकर एक विन्दुपर आ टिकता है, जहाँ दुःख नहीं, छिपाव नहीं, सकोच नहीं । व्यक्ति वाहसे विमुख हो अन्तस्की ओर जबतक नहीं मुडता है, मन इधर-उधर भटकता रहता है। मन एक बार जब आत्मोन्मुख हो जाता है तो फिर भागनेका उसे अवकाश नही रहता | कविवरने मनको इसी सन्तोपकी ओर ले जानेका सकेत किया है । मनके तुष्ट हो जानेपर अन्तस्तलका रस उमड पडता है, मनुष्य अपनी सुधबुध खो आल्माका साक्षात्कार करता है। आस्था और विश्वाससे परिपूर्ण सनकी अविचलित अवस्था कर्म-प्रन्थिक मोचनमें बड़ी सहायक होती है। तृष्णा इतनी प्रबल और उद्दाम है कि मनुष्यका इस ओर मुकाव होते ही वह इसकी प्रबल लपेटोंसे आक्रान्त हो जाता है और अपना सर्वस्व खो बैठता है । इसके विपरीत जीवनमे वही व्यक्ति सफलता प्राप्त कर सकता है जो आशाके वशवर्ती न होकर सन्तोपके मार्गका पथिक है। लोभका वीन परिग्रह है, क्योकि परिग्रहके बढ़नेसे मोह बढता है और मोहके बढ़नेसे तृष्णा बढ़ती है, तृष्णासे असन्तोप और असन्तोपसे दुःख होता है। कविने निम्नपदमे इसी भावनाको वडे अनूठे ढंगसे प्रदर्शित किया है Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ! हिन्दी - जैन गीतिकाव्य रे मन ! कर सदा सन्तोष । जातें मिटत सब दुख दोष ॥ रे मन० ॥ टेक ॥ १ ॥ बढत परिग्रह मोह बढ़ावत, अधिक तृष्णा होत | बहुत ईंधन जरत जैसे, अगनी ऊँची ज्योति है ॥ रे मन० ॥२॥ लोभ लालच मूढ जनसों, कहत कन्चन दान | फिरत आरत नहिं विचारत, धरम धनकी हान ॥ रे मन० ॥३॥ नारकिनके पाँव सेवत, सकुच मानत संक । ज्ञान करि बूझे 'बनारस', को नृपति को रंक ॥ रे मन० ||१|| जब कवि ससारके त्वाथोंसे ऊब गया, नाना उपचार करनेपर भी उसके मनका साय नही हटा तो वही अपने मनकी आलोचना करना हुआ आकाक्षा व्यक्त करता है । कविकी आकाक्षा वैयक्तिक नहीं, अपितु सार्वजनीन है । सारग रागकी मधुरिमा हृदयको रससिक्त कर देती है तथा अन्तस्मै आत्मबुद्धि जाग्रत करती है। कविवर कहता है -- दुविधा कब जैहै या मनकी ॥ दुवि० ॥ कब जिननाथ निरंजन सुमिरों, तजि सेवा जन-जनकी ॥ कय रुचिसों पीवँ हम चातक, बूँद अखयपद धनकी ॥ कव शुभ ध्यान धरौ समता गहि, करूँ न मलता तनकी ॥ कय घट अन्तर रहे निरन्तर, दिदता मुगुरु कब सुख लहीं भेद परमारथ, मिटै धारना दुविधा ||१|| ८१ दुविधा ||२|| वचन की । धन की ॥ दुविधा० ॥३॥ कब घर छोटि होहुँ एकाकी, लिये लालसा यन की । ऐसी इसा होय कब मेरी, हाँ बलिन्यलि या उन की ॥ दुपिया• ॥४॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन बुद्धि, राग और कल्पना तत्त्वका समन्वय, अनुभूतिका सन्तुलन, भाव और भाषाका एकीकरण, लय और तालकी मधुरता एवं भावगाम्भीर्य और कोमल-कान्त-पदावली बनारसीदास के पदोंम वर्तमान है। भैया भगवतीदासने अपने पदोंमें सहजानुभूतिकी अभिव्यजना की है। इनके पदो चिन्तनके स्थानमें आध्यात्मिक उल्लासकी अनुभूति प्रधान है। उन्होने मानव पर्यायको प्रकृतिने सुन्दर मगलमय, मधुर और आत्मकल्याणमें सहायक माना है । इसी कारण अपने हृदय - कुंजम मदिरभाव विहंगों का कृजन सुनकर इन्होंने संसारके सम्बन्धोकी अस्थिरताका साक्षात्कार कराया है । आध्यात्मिक उन्मेपसे कविका प्रत्येक पद प्रभावित है । आकाद्यमे घुमड़नेवाले बादलोंके समान क्षणभंगुर वासनाओं, जो कि प्रत्येक व्यक्तिकै मानसको आन्दोलित करती रहती हैं, का कविने पढोमे सूक्ष्म विश्लेषण किया है । अतः चिन्तनशील होकर कवि जीवनके मूलभूत तत्त्वोंका उद्घाटन करता हुआ कहता है ८२ भैया भगवती दास के पद : परिचय और समीक्षा afs अभिमाननिय रे, छाँड़ि दे अभि० ॥टेक॥ काको तू अरु कौन तेरे, सब ही हैं महिमान | देख राजा रंक कोऊ, थिर नहीं यह थान जिय रे० ॥ ॥ जगत देखत तोरि चलचो, तू भी देखत आन । घरी पलकी खबर नाहीं, कहा होय विहान लिय २०॥२॥ त्याग क्रोध रु लोभ माया, मोह मंदिरा पान | राग दोपहिं दार अन्तर, दूर कर अज्ञान || लिय २०॥३॥ भयो सुरपुर देव कहूँ, कयहुँ नरक निदान | इम कर्मवा बहु नाच नाचे, भैया आप पिछान ॥जिय रे० ॥४॥ इनके पदोंका संग्रह ब्रह्मविकास तथा फुटकर संकलनके रूपमें प्रकाशित हुआ है । प्रभाती, स्तवन, अध्यात्म, वस्तुस्थितिनिरूपण, Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन - गीतिकाव्य હવે आत्मालोचन एव आराध्य के प्रति दृढतर विश्वास विषयोंमे इनके पदोको विभाजित किया जा सकता है । वस्तुस्थितिका चित्रण करते हुए बताया है कि यह जीव विश्वकी वास्तविकता और जीवनके रहस्योंसे सदा आँखे बन्द किये रहा । इसने व्यापक विश्वजनीन और चिरन्तन सत्यको पानेका प्रयास ही नही किया । पार्थिव सौन्दर्य के प्रति मानव नैसर्गिक आस्था रखता है, राग-द्वेषोंकी ओर इसका झुकाव निरन्तर होता रहता है, परन्तु सत्य इससे परे है | विविध नाम-रूपात्मक इस जगत्से पृथक् होकर प्रकृत भावनाओका सयम, दमन और परिष्करण करना ही प्रत्येक व्यक्तिका जीवन लक्ष्य होना चाहिए । इसी कारण पश्चात्तापके साथ सजग करते हुए वैयक्तिक चेतनामें सामूहिक चेतनाका अध्यारोप कर कवि कहता हैभरे तैं जु यह जन्म गमायो रे, अरे तें ॥टेक॥ पूरब पुण्य किये कहुँ अतिही, वातैं नरभव पायो रे । देव धरम गुरु ग्रन्थ न परसै, भटकि भटकि भरमायो रे ॥ अरे० ॥ १ ॥ फिर तोको मिलिबो यह दुरकभ, वश दृष्टान्त बतायो रे । जो चेतै तो चेत रे भैया, तोको कहि समुझायो रे ॥अरे ० ॥२॥ आत्मालोचन -सम्बन्धी पदोमे कविने राग-द्वेष, इर्षा - घृणा, मद-मत्सर आदि विकारोंसे अभिभूत हृदयकी आलोचना करते हुए गूढ़ अध्यात्मकी अभिव्यजना की है। यह आलोचना केवल कविहृदयकी नही बल्कि समस्त मानव समाजकी है । मानव मात्र अपने विकारी मनका परिशोधनकर मंगल प्रभातके दर्शन करनेकी क्षमता प्राप्त कर सकता है । बिनाशीक ससारके स्वार्थमयी सम्बन्धोकी सारहीनता दिखलाता हुआ कवि राग-द्वेषादि विकारोंको दूर करनेकी बात कहता है । जव वह इस ससारके भ्रम-जालकी वास्तविकतासे परिचित हो जाता है तो दृढ़ आत्मनिष्ठा प्रकट करता हुआ देव गन्धार राग अलापने लगता हैra मैं छॉडयो पर जंजाल, अब मैं ॥ टेक ॥ लग्यो अनादि मोह भ्रम भारी, तज्यो ताहि तत्काल । अब मैं ० ॥ १ ॥ • Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन आतमरस चख्यो मैं अद्भुत, पायो परम दयाल | अब मैं०॥२॥ सिद्ध समान शुद्ध गुण राजन, सोमरूप सुविशाल | भघ मैं ० ॥३॥ भैया भगवतीदासके पर्दोंमे जितनी सुन्दर अध्यात्म तत्त्वकी अभिव्यंजना हुई है उतनी मानवीय राग-द्वेपकी नहीं । श्रृगारिक भावना के अरुण रूपोंका प्रायः अभाव है । भापामे नाद साम्य और अनुप्रासोकी बहुलता श्रवण-सुखद है । आनन्दघनके पद परिचय आनन्दघनके पद कबीरदासके समान आध्यात्मिकतासे ओतप्रोत हैं । यह पहुॅचे हुए महात्मा और आत्मरसिक कवि थे । इस कारण इनके पर्दो सच्ची अनुभूति विद्यमान है। प्रेत-आत्माके रूपमाधुर्यका दर्शन सर्वत्र कवि करता है । बाताबरणके प्रत्येक कणसे उसे आत्मानुभूतिकी झलक मिलती है। और समीक्षा यद्यपि कविने आत्माको सर्वत्र व्यापक रूपमे नही देखा है, शरीर प्रमाण ही माना है, फिर भी उसे पानेके लिए सच्ची प्रेयसीके समान आकुल है। प्रातः- समीर अपनी नवीन सुरभिसे प्रत्येक अग- प्रत्यगको सुरभित करता हुआ कविको आत्मानुभूतिमे प्रेरक प्रतीत होता है । स्वानुभूतिका प्रादुर्भाव होते ही कवि अनुभव करता है कि जन्ममरणके कारण राग-द्वेपके भस्म हो जानेपर ही आवागमन के दुखसे छुटकारा मिल सकता है; आत्मा अजर है, अमर है, इसकी उपलब्धि रत्नत्रयके द्वारा ही सम्भव है । अतएव सत्यद्रष्टा कविकी पारदर्शिका आँखे जगके भौतिक आवरणको भेदती हुई अन्तस्तत्त्वोपर स्थित होती हैं। आसवाणीके द्वारा पार्थिकताको ललकारते हुए शाश्वत आनन्दकी बात कहता है । इसलिए इनके पदोंमें प्रधानतः आशा, उल्लास और चेतनाका अभिनन्दन विद्यमान है । कवि अपने अन्तस्में आत्मतत्त्वकी महत्ताका अनुभव कर आध्यात्मिक धरातल पर मानव मात्रका उत्कर्प दिखलाता है तथा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य ऐन्द्रियिक आनन्दको निकृष्ट और हीन वतलाकर इन्द्रियातीत अलौकिक आनन्दकी अभिव्यञ्जना करता है। कविने निम्न पदमे अपनी अमरताका भाव सत्य और वस्तु सत्यसे भिन्न कितना सुन्दर विवेचन किया है अव हम अमर भये न मरेंगे ॥टेक॥ या कारन मिथ्यात दियौ तज, क्योकर देह धरेंगे ॥१॥ राग-दोष जग बन्ध करत हैं इनको नाश करेंगे। मस्यो अनंत काल ते प्राणी, सो हम काल हरेंगे॥२॥ देह विनाशी हूँ अविनाशी, अपनी गति पकरेंगे। नासी नासी हम थिरवासी, चोखे है निखरेंगे ॥३॥ मयो अनन्त वार बिन समझे, अबसो सुख बिसरेंगे। 'मानन्द धन' निपट-निकट अक्षर दो, नहिं सुमरै सो मरेंगे ॥an यद्यपि इसी आशयका एक पद कवि द्यानतरायका भी मिलता है, तो भी इस पद्यका माधुर्य विचित्र है। कविने वैज्ञानिक तथ्योंके आधारपर आत्मानन्दको व्यक्त किया है। इनके समस्त पद तीन वर्गोंमें विभक्त किये जा सकते है। प्रथम वर्गमें उन पदोको रक्खा जा सकता है, जिनमे रूपको द्वारा आत्मतत्वका विश्लेषण एक सहृदय और भावुक कविके समान किया गया है। कविने इन पर्दोमे मधुर रागात्मक सम्बन्धोको उद्घाटित करते हुए मिथ्यात्वके निष्कासनपर अधिक जोर दिया है। आत्मानुभूति या स्वानुभूतिमे प्रवल वाधक कारण यह मिथ्यात्व ही है, अतः अनेक रूपकोद्वारा इस आत्म-अशुद्धिके कारणका विश्लेषण किया गया है। । दूसरी श्रेणीमे वे पद हैं जिनमें घरेल दैनिक व्यवहारमे आनेवाली वस्तुओंके प्रतीकों द्वारा संसारकी क्षणभगुरता दिखलाकर आत्म-तत्त्वका सश्लिष्ट चित्र प्रकट किया है। विनय और चन्दना सम्बन्धी पद इस कोटिमे आते है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन . तीसरे वर्गमें उन मिश्रित पदोको रक्खा जा सकता है जिनमें तन्मयता के साथ भाव-गाम्भीर्य भी विद्यमान है। समता-रसका वासन्ती समीर मनकी राशि-राशि अभिलापाओ और हृदयकी कोमल कमनीय ऐन्द्रियिक भावनाको विकसित पुष्पके परागकी तरह धूल्सिात् कर देता है तथा समता-पीयूपकी खुमारी आत्मविभोर बना देती है। कवि उपर्युक्त भावना का विश्लेषण करता हुआ कहता है ___ मेरे घट ज्ञान भाम भयौ भोर। चेतन चकवा चेतन चकवी, भागी विरहको सोर ॥ १॥ फैली चहुँदिशि चतुरभाव रुचि, मिट्यो भरम-तम जोर । आपकी चोरी आपही जानत और कहत न चोर ॥२॥ अमल-कमल विकसित भये भूतलमन्द विषय शगिकोर । 'आनन्दघन' इक वल्लभ लागत, और न लाख किरोर ॥ ३॥ 'जसविलास सग्रह' नामसे इनके पदोका सग्रह प्रकाशित हुआ है। इनके पदोमे भावनाएँ तीव्र आवेगमयी और संगीतात्मक प्रवाहमें प्रस्फुटित र हुई है । भापामें लाक्षणिक वैचित्र्यके स्थानपर सरसता और सरलता है। पदोमें प्रधान स्पसे-आध्यात्मिक भावोकी अभिव्यजना है । अपने आराव्यके प्रति ' आत्मनिवेदनकी भावना भी तीव्र स्पमे पायी जाती है। आत्माकी अभिरुचि उत्पन्न होते ही अज्ञान, असंस्कार, मिथ्यात्व आदि भस्म हो जाते है, जिससे स्वानुभूति होनेमें विलम्ब नहीं होता। कविके अनेक पदोंमे वौद्धिक शान्ति स्थानमे आध्यात्मिक शान्ति शुद्धानुभूतिका निरूपण है । आध्यात्मिक विश्वासोकी भूमि कितनी दृढ है तथा खानुभूति उत्पन्न हो जानेपर मानव आत्मानन्दम कितना विभोर हो सकता है यह निम्न पदमे दर्शनीय है । कवि कहता है हम मगन भये प्रभु ध्यान में । विसरगई दुविधातन-मनकी, मचिरा सुत गुनगान में हम ॥१॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य हरि-हर ब्रह्म पुरन्दरकी रिधि, मावत नहिं कोउ मान में। चिदानन्दकी मौज मची है, समता रसके पानमें ॥ हम० ॥ २॥ इतने दिन तूं नाहिं पिछान्यो, जन्म गंवायौ अनान में। भब तो अधिकारी है वैठे, प्रभुगुन अखय खजान में । हम० ॥३॥ गई दीनता सभी हमारी-प्रभु तुझ समकित दान में। प्रमुगुन भनुभवके रस आगे, आवत नहिं कोड ध्यान में ॥ ४ ॥ यशोविजयजीके पदोकी भाषा बड़ी ही सरस है। आत्मनिष्ठा और वैयक्तिक भावना भी इनके पदोंमें विद्यमान है। कवि भूधरदास कुशल कलाकार है। इन्होने गीति-कलाकी बारीकियों अपने पदोमे प्रदर्शित की हैं। यह स्थूलको छोड सूक्ष्म सौन्दर्यको व्यक्त .. करना चाहते है। यद्यपि बाह्य-सौन्दर्यका अपने भूधरदासके पदः * सूक्ष्म पर्यवेक्षण-द्वारा निरीक्षण किया है, किन्तु वह पारचार र स्थिरता प्रदान नही कर सका है। यही कारण ना है कि इनके पदोमें भावुकताके सहारे करुण रस और आत्मवेदनाकी भी अभिव्यजना हुई है। पदोमे शाब्दिक कोमलता, भावनाओकी मादकता और कल्पनाओका इन्द्रजाल समन्वित रूपमे विद्यमान है। इनके पदोका एक संग्रह 'भूघर-पदसग्रह' के नामसे प्रकाशित हो चुका है। इन पदोको सात वर्गोंमें विभक्त किया जा सकता है-स्तुतिपरक, जीवके अज्ञानावस्थाके परिणाम और निखार सूचक, आराध्यकी शरणके दृढ विश्वाससूचक, अध्यात्मोपदेशी, ससार और गरीरसे विरक्ति-उत्पादक, नामस्मरणके महत्त्व द्योतक और मनुष्यत्वकी पूर्ण अभिव्यक्ति द्योतक । प्रथम श्रेणीके पद जिनेन्द्रप्रमु जिनवाणी और जितेन्द्रिय गुरुके सवनोसे सम्बद्ध है। इन पदो कविने दास्य भावकी उपासना-द्वारा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन । अपनेको उज्ज्वल बनानेका प्रयास किया है। किन्तु दास्यताकी यह भावना सर्वत्र परतन्त्र बनानेवाली नहीं है। दूसरी श्रोणीके पदोंमे जीवको अजानताकै कारण होनेवाले परिणामोंको दिखलाकर सावधान करनेका प्रयास किया है। अज्ञानी पाप धतूरा न बोय ॥ टेक ॥ फल चाखनकी वार भरै ग, मरहै मूरख रोय ॥ अज्ञानी० ॥१॥ किन्चित् विपयनके सुख कारण दुर्लभ देह न खोय । ऐसा अवसर फिर न मिलेगा, इस नीदडी न सोय ॥ अज्ञानी०॥२॥ भावुक कविने अन्तस्मे मायाकी वञ्चकताका अनुभव कर उसके मोहक रूपका बड़ा ही सुन्दर विश्लेषण किया है। कविने मायाको ठगनीका रूपक देकर उसके घृणित रूपका, जिसे विषयी जीव मोहक समझते है, मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। सुन उगकी माया ते सब जग उग खाया ॥ टेक ॥ टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पिछवाया ॥ सुन० ॥१॥ विकारग्रस्त मानव अहके वशीभूत हो ससारमें असमताका व्यवहार करता है, नाना कामनाओंको अन्तस्मे समेटे स्वमलोकमे विचरण करता रहता है, उसके सकल्प कच्चे धागेके समान बाधा और विघ्नोके हल्के झोंकेसे ही टूट जाते है । ससारके मायावी बधन उसे जकड़ते जाते हैं, अतः वस्तुस्थितिका यथार्थ दर्शन कराता हुआ कवि निराशामें आशाकी किरणोंका आलोक वितरण करता है । तथा "एकौं के घर मंगल गावे, पूगी भनकी आसा । एक वियोग भरे बहु रोच, भरिभरि रैन निरासा ॥" में कितना सुन्दर यथार्थका चित्रण हुआ है। कविका यथार्थ जीवनकै शाश्वत सत्यसे सयुक्त है । यद्यपि यह चित्रण ससारके वास्तविक रूपको Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैनगीतिकाव्य प्रस्तुत करता है, पर इसमे निराशा अन्वित नहीं है। विश्वका वास्तविक खारस्य दिखलाकर कवि आत्मानुभूतिको जगाता है। शरीरको चरखाका स्पक देकर निम्नपदकी आध्यात्मिक अभिव्यक्ति कितनी मर्मस्पर्शी है मोटा मही कातकर भाई, कर अपना सुरझेरा। अन्त भागमें ईधन होगा, 'भूधर' समझ सवेरा। रागात्मिका वृत्ति और बोध-वृत्तिकै समन्वित स्पमे पूर्ण मानवताकी अभिव्यजना करनेवाले इनके अनेक पद है। इनमें कविने मानवताकी प्रतिष्ठाके लिए वासना और कपायोंके मधुमत्त समीरके स्पर्शसे बचानेकी आकाक्षा व्यक्त की है। कवि कहता है-"सुनि ज्ञानी प्राणी, श्री गुरु सीख सयानी" आदि। राग विहाग, मनकी दुर्वलता तथा अह और इदकै सघर्षसे उत्पन्न कामवासनाका नियन्त्रण करता हुआ कवि चारित्रकी गोधशालामे नैतिक मन और नैविक बुद्धिकी आवश्यकताका निरूपण करता है जगत जन जुवा हारि चले। टेक ॥ काम-कुटिल संग बाजी मॉडी, उन करि कपट छले । जगत० ॥३॥ चार कपायमयी जहू चौपरि पांसे जोग रले। इन सरवस उत कामनिकोड़ी इहविधि झटक चले ॥ जगत० ॥२॥ भूधरदासके पदोमें राग-विरागका गगा-यमुनीसगम होनेपर भी शृगारिकता नहीं है। विरहकी विविध अवस्थाओका निरूपण भी इनके पदोंमे नहीं हुआ है। भापाकी लाक्षणिकता और काव्योक्तियोकी विदग्धता यत्र-तत्र रूपों में विद्यमान है। गीति-काव्यक मर्मज्ञ कवि द्यानतरायके पोंमें अन्तर्दर्शनकी प्रवृत्ति प्रधान रूपसे वर्चमान है। शब्द सौन्दर्य और शब्द-सगीतकी झकार सभी पदोमे सुनाई पड़ती है। इनके पदोंमे अतृप्ति नहीं, सतोप है, उन्माद Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीक्षा हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन नही, मस्ती है; अवसाद नही, औत्सुक्य है; कर्कशता नहीं, तीव्रता है और शानरताय पर उच्छृङ्खलता नहीं, आस्था है। इन्होने अपने भक्ति सूचक पदोमे जीवनको अन्तर्वृत्तिकी ऐसी सुन्दर अभिव्यजना की है, जिससे बोध-वृत्ति जाग्रत हुए " बिना नहीं रहती। इनकी भावुकता सरस, सरल और सहज है । पदोमे तथ्योका विवेचन दार्शनिक शैलीमें नहीं किया गया है, किन्तु काव्य-शैलीका प्रयोग कर कविने मानवप्रवृत्तियोके उद्घाटनमे अपूर्व सफलता प्राप्त की है। तीव्र आलोक और प्रखर प्रवाह दो चार पदोमे ही उपलब्ध है, अधिकाश, पदोमे वैयक्तिकता या अधिकरणनिष्ठताका आधार ही प्रधान है। कविने अपनी आनन्दानुभूतिको प्रत्येक पदमें व्यक्त करनेका प्रयास किया है। इनके सकलित पदोंको छः श्रोणियोंमे विभक्त किया जा सकता है बधाई, स्तवन, आत्मसमर्पण, आश्वासन, परत्ववोधक एव सहन समाधिकी आकामा । बधाई-सूचक पदोमे तीर्थकर ऋपमनाथके जन्म-समयका आनन्द व्यक्त किया है। प्रसगवश प्रभुके नखशिखका वर्णन भी जहां-तहाँ उपलब्ध है। अपने इष्टदेवके जन्म-समयका वातावरण और उस कालकी समस्त परिस्थितियोको स्मरण कर कवि आनन्द-विभोर हो जाता है और होन्मत्त हो गा उठता है माई आज आनंद या नगरी ॥ टेक ॥ गजगमनी शशिवदनी तरुनी, मंगल गावति है सगरी माई० ॥ नाभिराय घर पुन्न भयो है,किये हैं अजाचक जाचक री ॥माई ॥ 'धानत' धन्य कूख भरुदेवी, सुर सेवत जाके पगरी । माई.॥ द्वितीय श्रेणीके पदोंमें अपने आराध्य पचपरमेष्ठीकी नाना प्रकारसे स्तुति की है। इस श्रेणीके पदोमे उपमानोका आश्रय लेकर अपने इष्ट देवको प्रसन्न करनेका प्रयास कविने किया है। आरती स्तुतिका ही एक रूप है, अतः अपनी विश्वव्यापिनी आरती करता हुआ कवि कहता है । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य मंगल भारती आतम राम । तन मंदिर मन उत्तम राम । समरस जल चन्दन आनंदा तन्दुल तत्त्वस्वरूप अमन्द ॥ ॥ मंगल आरती०॥ सनसार फूलनकी माल । अनुभौ सुख नेवन भरि थाल ॥ मंगल आरती० ॥ दीपक ज्ञान ध्यानकी धूप । निर्मल भाव महाफल रूप । __ मंगल आरती० ॥ सुगुन भविक जन इक रंग लीन । निहचै नौधा भगति प्रवीन ॥ मंगल भारती०॥ धुनि उत्साह सु अनहद म्यान । परम समाधि निरत परधान ॥ मंगल आरती० ॥ वाहज आतम भाव वहाव । अंतर है परमातमध्याव ॥ ___मंगल आरती० ॥ साहव सेवक भेद मिटाय । 'धानत' एकमेव हो जाय ॥ मंगल भारती० ॥ कवि दौलतराम उन गीतिकाव्य-रचयिताओमे से हैं, जिन्होने जीवनको खूब चारीकियोमे देखा है, उनकी विविध प्रवृत्तियोंकी गहराईमे उतर दौलतरामके पद : _ कर अनुशीलन किया है। मनकी गूढ़ और विविध परिचय और * दशाओंका समाधान करते हुए कवि अनुभव करता है कि क्या वात है कि जिससे मानव जीवन बोझिल और त्रस्त है ? कल्पना, विचार और भावनाकी त्रिवेणीमें निमजन कर निश्चय किया कि मानव चंचल चित्त के कारण ही कान्त एवं त्रस्त है। कभी यह दिव्य अगनाओका आलिंगन करना चाहता है, तो कभी सुन्दर नृत्य देखनेके लिए लालायित है । एक आकाक्षा तृप्त नहीं होती, कि दूसरी अनन्त आकाक्षाएँ उत्पन्न हो जाती है । मनकी गति पवनसे भी अधिक चंचल है, इसपर अंकुश रखे बिना कोई भी Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यो दौड़ता रहनसे तूने अनार नहीं किया, ९२ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन सत्यको प्राप्त नहीं कर सकता है। कवि कहता है-"मन तेरी बुरी आदत क्यों पड गई है ? तू अनादिसे इन्द्रियोके विषयोंकी ओर क्यो दौड़ता चला आ रहा है, इन्हीके अधीन रहनेसे तूने अनादिकालसे अपनी आत्माका निरीक्षण नहीं किया, अपने स्वरूपको नहीं पहचाना हे मन, तेरी को कुटेव यह, करन-विषय मे धावै है । टेक ॥ इन्हींके वश द अनादि ते, निन स्वरूप न लखावै है। पराधीन छिन-छीन समाकुल, दुरगति-विपति चखावै है ॥ हे मन० ॥१॥ फरस-विषयके कारण पारन, गरत परत दुख पावै है। रसना इन्द्रीवश अप जल में, कंटक कंठ छिदा है। हेमन० ॥२॥ गंध-लोल पंकन मुद्रितमें धुलि निज प्रान खिपाचै है। नयन-विषय-वश दीपशिखामें अंग पतंग जरावै है। हे मन० ॥३॥ करन-विषय-वश हिरन अरन में, खलकर प्रान लुना है। 'दौलत' तब इनको, जिनको भज, यह गुरु सीख सुना है। हेमन० ॥॥ इनके पट विषयकी दृष्टिसे रक्षाकी भावना, आत्मनिक्षेप भत्र्सना, भयदर्शन, आश्वासन, चेतावनी, प्रभुस्मरणके प्रति आग्रह, आत्मदर्शन होनेपर अस्फुट वचन, सहज समाधिकी आकाक्षा, स्वपदकी आक्रामा, संसार-विश्लेपण, परसत्त्ववोधक एवं आत्मानन्द श्रेणीमे विभक्त किये जा सकते है। उक्त वर्गीकरणमसे कुछ पद उदाहरणार्थ प्रस्तुत किये जाते हैं । आत्मनिक्षेप-सम्बन्धी पढोमें भगवान्के सम्मुख आत्मसमर्पणकी भावना प्रदर्शित की गई है। इन पदोंमे अपने प्रति और अपने आराध्यके प्रति एक अखण्ड अविचलित विश्वास है। इसी कारण इस श्रेणीके पढाम सीधे-सादे भाव पाठकके हृदयपर सीधे चोट पहुंचाते हैं Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन-गीतिकाव्य ९३ मोहि ताजी क्यों ना ? तुम तारक त्रिजग त्रिकाल में ॥ मोहि० ॥ मैं उदधि परयो दुख भोग्यौ, सो दुख जात कह्यौ ना । नामन मरण अनंत तनो तुम जानन माहिं छिप्यौ ना ॥ मोहि० ॥ भर्त्सना विषयक पदोमे कविने विषय-वासनाकै कारण मलिन हुए मनको फटकारा है तथा कवि अपने विकार और कषायोका कच्चा चिट्ठा प्रकट कर अपनी आत्माका परिष्कार करना चाहता है । नाना प्रकारकी विषयेच्छाऍ तृष्णा और सुनहली आशा कल्पनाएँ इस प्राणीको और भी कष्ट देती हैं; अतएव विषयोको निस्सार समझ त्यागना चाहिये । यह शरीर अत्यन्त घृणित है, माता-पिता के रज-वीर्यसे उत्पन्न हुआ है । इसमे अनेक अशुचि पदार्थ विद्यमान हैं, अतएव इससे ममता छोड देनी चाहिये मत कीनो री यारी, छिन गेह देह जब जानके ॥ टेक ॥ उपजी मल-फुलवारी लाल-लाल-जल क्यारी ॥ मत० ॥ मात-पिता-रज-वीरज सो यह, अस्थि- माल-पल नसाजाल की, कर्म-कुरंग-थली पुतली यह मूत्र पुरीष मँडारी । धर्म-मडी रिपु-कर्म-कडी धन-धर्म चुरावन हारी ॥ मत० ॥ X X X हो तुम शठ अविचारी जियरा जिनवृप पाय वृथा खोवत हो ॥ टेक ॥ पी अनादि मदमोह स्वगुननिधि भूल अचेत नौंट सोबत हो ॥ हो तुम० ॥ भय दर्शन- सम्वन्धी पदोमे मनको भय दिखलाकर आत्मोन्मुख किया गया है । कविने अपने अन्तस्मै ससारकी झझटो, बाधाओं और विका अनुभव कर वास्तविक परिस्थितियोका साक्षात्कार किया है । जान पडता है जैसे संसारके मायावी बन्धनोसे वह भयभीत है । अतः ससारकै मायानालसे उन्मुक्त होनेके लिए अत्यन्त उत्सुक है, उसकी आत्मामं सासारिक Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन जान बूझ कर अन्ध बने हैं ऑखन बाँधी पाटी ॥ अरे ॥ निकल जायगे प्राण छिनको पड़ी रहेगी माटी ॥ अरे॥ 'दौलतराम' समझ मन अपने, दिलकी खोल कपाटी ॥ अरे॥ X अव मन मेरा वे सीख वचन सुन मेरा । X जिया तुम चालो अपने देश। मत कीजो जी यारी ये भोग भुजंग सम जानिके । कवि चेतावनी देता हुआ कहता है मेरे कब है वा दिनकी सुपरी। वन विन बसन असन बिन वनमें, निबसौं नासा दृष्टि धरी ॥ मेरे कब०॥ पुण्य पाप परसों कब विरचो, परचो निजनिधि चिर-बिसरी। वज उपाधि, सन सहज समाधी, सहों धाम-हिम मेघ-शरी। मेरे कब०॥ कब थिर-जोग धरौं ऐसौ मोहि, उपल जान मृग खाज हरी। ध्यान कमान तान अनुभवशर, छेदों किह दिन मोह भरी ॥ मेरे कब० ॥ कव वृन कंचन एक गनो भरु, मनि-जडितालय शैलदरी। 'दौलत' सतगुरु चरनन लेंडे, जो पुरवी आश यहै हमरी ॥ मेरे कब.॥ x चेतन अब धरि सहज समाधि, जात यह विनशै भव व्याधि । चेतन०॥ मोह ठगौरी खायके रे, परको भापा जान । मूल निजातमऋद्धि को है-पाये दुःख महान ॥ चेतनः ।। x Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य जब आत्मानुभूति उत्पन्न हो जाती है, हृदयके समस्त कालुष्य धुल जाते हैं एवं जीवनका प्रवाह अपनी दिशाको बदलकर प्रवाहित होने लगता है तो भावातिरेकके कारण अस्फुट वचन निकलते हैं । कवि कहता है चिन्मूरत हग्धारीकी मोहि, रीति लगत है अटापटी ॥ चिन्मूरत०॥ बाहिर नारकि कृत दुख भोगे, अन्तर सुखरस गटागटी॥ रमत अनेक सुरतिसंग पै तिस परनति नै नित हटाहटी चिन्मूरतः॥ कवि दौलतरामकी दृष्टि आत्मनिष्ठ है, वस्तुनिष्ठ नही । अतः किसी वस्तुके बाह्य स्थूल सौन्दर्यकी अपेक्षा आन्तरिक सूक्ष्म सौन्दर्यका अधिक विश्लेषण किया है । भावनाकी भव्यता और अनुभूतिकी सूक्ष्मता दर्शनीय है। इनकी भाषामे सयम, अभिव्यजना-शक्ति, स्पष्टता और व्यावहारिकता पूर्णतः विद्यमान है। भाषाकी लाक्षणिकताने कोमल और माधुर्य मावनाओको भरनेमे विलक्षण कार्य किया है। रूपोंमे कविकी लाक्षणिक शैली दर्शनीय है मेरो मन ऐसी खेलत होरी। मन मिरदंग साज करि लारी, तनको तमूरा बनो री ॥ सुमति सुरंग सरंगी बजाई, ताल दोडकर जोरी। राग पाँचौं पद कोरी, मेरो मन ऐसी खेलत होरी॥ समकृति रूप गहि भर झारी, करुना केशर घोरी। ज्ञानमई लेकर पिचकारी दोउ कर माहिं सम्होरी ॥ इस प्रकार कवि दौलतरामके पर्दोमे भावावेश, उन्मुक्त प्रवाह, आन्तरिक संगीत, कल्पनाकी तूलिका-द्वारा भावचित्रोकी कमनीयता, आनन्द-विहलता; रसानुभूतिकी गम्भीरता एव रमणीयताका पूरा ममन्वय विद्यमान है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन कवि भागचन्दके पद : परिचय और ममक्षा कविवर मागचन्द उन महृदय और भालुक कविययम है जो निरन्तर आत्मगुत्यांक मुझमें मग्न रहते हैं । इनके पटा तन्मयता अधिक पायी जाती है । निज कारन काहूं न सारे रे, भूले प्रानी ॥ टेक ॥ परिग्रह भारयकी कहा नहीं, उनरत होत विहारे रे । निल कारब० । रोगी नर तेरी बपु को कहा निसदिन नहीं नरं रे ॥ निल कारन० ॥ ऋनि संसारकी अत्रगन्तत्रिकताका चित्रण करना हुआ कहता है जीव तू भ्रमत सदैव अकेला | मंग साय कोई नहीं तेरा | अन्तको बेला । अपना सुख दुःख आप ही सुगते, होत कुटुम्ब न मेला । स्वार्थ भनेँ सब विहरि बात हैं, विवट जात ज्यॉ नेला ॥१॥ रक्षक कोई न पूरन है जब, आपु फूटन पार चैवत नहिं जैसे उदर जलको ठेला ॥२॥ नन-धन-जीवन विना नात ज्य, इन्द्रवालको खेला | 'भागचन्द' इमि लिखकर भाई, हो सतगुरुकाला ॥३॥ नीतू भ्रमत सदैव अकेला ! आयमिक साधनाएं सबसे बड़ी बाधा मोहने उदयसे उत्पन्न होतो है । यह जीव मांगचित्रकी नि भी मोहके कारण ही करना है । नुन्दर मन्त्राभूषण, अलंकार, पुण्यमान्य आदि द्वारा गर्नरको मुक्ति करनेकी केष्टा भी इसके उदयसे उत्पन्न होती है। मोह वह तेन शराब है जिसका नद्या जीवको मुख और शान्ति वंचित कर देता है, मानवकी सारी प्रवृत्तियाँ बहिर्मुखी हो जाती हैं जिससे वह अन्नं कर्मकायको दूर नहीं कर पाता | मुकता रस ही एक ऐसा आनन्द है, दिनले मानवको अद्भुत शान्ति मिलती है, कविने इस प्रसंग पदम माविकी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन - गीतिकाव्य विगर्हणा की है । यद्यपि काव्यके मूल तत्त्व हृदयकी रागात्मक विभूतिका शुद्धात्मदर्शन के साथ सामजस्य नही बैठता है, पर कविने आध्यात्मिक चिन्तन-प्रधान पदोमे भी अपनी भावुकताका समावेश कर अपने कविकर्मका परिचय दिया है । ९९ कवि भागचन्दमें दौलतराम के समान हृदय-पक्षका सन्तुलन नहीं है । इनमें तर्क, विचार और चिन्तनकी प्रधानता है । इसी कारण इनके पर्दो विचारोकी सघनता रहती है । निम्नपदमे दार्शनिक तत्त्वोको हृदयग्राहक रूप देनेकी सफल चेष्टा वर्तमान है । जे दिन तुम विवेक विन खोये ॥ टेक ॥ चिर सोये । मोह वारुणी पी अनादि तैं, परपद सुख करंड चितपिंड आपपद, गुन अनन्त नहिं जोये ॥ जे दिन० ॥ होहि बहिर्मुख हानि राग रुख, कर्मबीज बहु बोये । तसु फल सुख-दुःख सामग्री लखि, चितमें हरपे रोये ॥ जे दिन० ॥ धवल ध्यान शुचि सलिल पूरतें, भास्रव मल नहिं धोये । पर तुव्यनि की चाह न रोकी, विविध परिग्रह ढोये || जे दिन० ॥ अब निजमें निज जान नियत तहाँ, निज परिनाम समोये । यह शिव-मारग समरस सागर, 'भागचंद' हित तो ये ॥ जे दिन० ॥ विशुद्ध दार्शनिकके समान कविने तत्त्वार्थश्रद्धानी और ज्ञानीकी प्रशसा की है । यद्यपि वर्णनमे कविने रूपक उत्प्रेक्षा अलकारोंका भवलम्बन लिया है, किन्तु शुष्क सैद्धान्तिकता रहनेसे भाव और रसकी कमी रह गयी है। ज्ञानी जीव किस प्रकार ससारमे निर्भय होकर विचरण करता है तथा उन्हें अपना आचार-व्यवहार किस प्रकार रखना चाहिये इत्यादि विषयका विश्लेषण करनेवाले पदोमें कविका चिन्तन विद्यमान है; पर भावुकता नहीं है। हॉ, प्रार्थनापरक पदोंमें मूर्त-अमूर्त्तको आलम्बन लेकर कविने अपने अन्तर्जगत्की अभिव्यक्ति अनूठे ढंग से की है। इन Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दीजैन साहित्य-परिशीलन पदोमें विराट कल्पना, अगाध दार्शनिकता और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विशेषताएँ हैं। भावनाओमें विवेचनकी प्रवृत्ति इनके पदोंका एक मुख्य गुण है । निम्नपद दर्शनीय है आनन्दानु बहैं लोचनत, वाते आनत न्हाया । गद्द स्पष्ट वचनजुत निर्मल, मिष्टजान सुरगाया ॥ टेक ॥ भव वन में बहु भ्रमण कियो तहाँ, दुःखदावानल ताया। अब तुम भक्तिसुधारसवादी मैं अवगाह कराया ॥ मानन्दाश्रु.॥ इस प्रकार कवि भागचंदके पदोमे हृदयकी तीव्रानुभूति विद्यमान है। जिस पदमें जिस भावनाको व्यक्त करना चाहते हैं उस पदमें उसे वह गहराई, सूक्ष्मता और मार्मिकताके साथ व्यक्त कर सके हैं। __मनन और पद रचनेमें इनका जैन कवियोमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके पदोमे अनुभूतिकी तीव्रता, लयात्मक संवेदनशीलता और र समाहित भावनाका पूरा अस्तित्व विद्यमान है। पद: परिचय आत्मशोधनके प्रति जो जागरूकता इनमें है, वह और समीक्षा कम कवियोमे उपलब्ध होगी। इनकी विचारोकी कल्पना और आत्मानुभूतिकी प्रेरणा पाठकोके समक्ष ऐसा सुन्दर चित्र उपस्थित करती है जिससे पाठक अनुभूतिमें लीन हुए बिना नहीं रह सकता । तात्पर्य यह है कि इनकी अनुभूतिमे गहराई है, प्रबल वेग नहीं । अतः इनके पद पाठकोको डूबनेका अवसर देते है, बहनेका नही । संसाररूपी मरुभूमिकी वासनारूपी वालुकासे तत कवि शान्ति चाहता है। वह अनुभव करता है कि मृत्युका सबध, जीवनके साथ है, जीवनका शाश्वतिक सत्य मृत्यु है। यह मृत्यु हमारे सिरपर सदा वर्तमान है । अतः हर क्षण प्रत्येक व्यक्तिको सतर्क रहना चाहिये । कवि गुनगुनाता हुआ कहता हैकाल अचानक ही ले जायगा, गाफिल होकर रहना क्यारे । टेक ॥ छिनहूँ तोकू नाहिं बचावे, तोसुमटन का रखना क्या रे .काल. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैनगीतिकाव्य रंच सवाद करन के काजै, नरकन में दुख भरना क्या है। काल० ॥ कुलजन पथिकन के काजै, नरकन मैं दुख भरना क्या रे ॥ काला ॥ आज दर्शन हो जाने पर कविने आत्माका विश्लेषण एक भावुकके नाते बड़ा ही सरस और रमणीय किया है। कवि कहता है मैं देखा आतम रामा ॥ टेक॥ रूप, फरस, रस, गंध ते न्यारा, दरस-ज्ञान गुन धामा। नित्य निरंजन नाकै नाही, क्रोध, लोभ-मद कामा । मैं देखा०॥ भूख-प्यास सुख-दुख नहिं जाके, नाही वनपुर गामा। नहिं साहब नहिं चाकर भाई, नहीं तात नहिं मामा ॥ मैं देखा० ॥ भूलि अनादि थकी जग भटकत, लै पुलका जामा । 'बुधनन' संगति जिनगुरुकी ते, मैं पाया मुझ ठामा । मैं देखा० ॥ इनके पदोको भी दो भागोमे विभक्त किया जा सकता है-भक्ति या प्रार्थनापरक और तथ्यनिरूपक या दार्शनिक । दोनों प्रकारके पदोका वर्ण्य विषय भी प्रायः वही है । जिसका निरूपण पूर्वमे किया जा चुका है। ___ भगवद्भक्ति के विना जीवन किस प्रकार विषयोंमें व्यतीत हो जाता है | विषयी प्राणी तप, ध्यान, भक्ति, पूजा आदिमे अपना चित्त नही लगाते। उन्हे परपरिणति ही अयतर प्रतीत होती है। पर मक्ति द्वारा सहनमें मानवको आत्मबोध प्राप्त हो जाता, जिससे वह चैतन्याभिराम गुणग्राम आत्माभिरामको प्राप्त कर लेता है । जबतक शरीरमे बल है, शक्ति है, तभी तक प्रमु-भजन या प्रभु-व्यानकी क्रियाको सम्पन्न किया जा सकता है, परन्तु शरीरके शिथिल हो जानेपर भक्ति-भावनाको सम्पन्न नहीं किया जा सकता। अतएव शरीरके स्वस्थ रहनेपर अवश्य ही प्रभु-भजन करना चाहिये । कवि इसी तथ्यका निरूपण करता हुआ मानव जीवनका विश्लेपण करता है Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन भनन विन यौँ ही जनम गमायौ। पानी पै या पाल न बांधी, फिर पीछे पछतायो । भजना रामा-मोह भये दिन खोचत, आशापाण बंधायो। जप-तप संजम दान न दीनौं, मानुप जनम हरायो । भजन । देह सीस जय कॉपन लागी, दसन चलाचल थायों। लागी आगि वुझावन कारन, चाहत कूप खुदायो॥ भजन॥ कवि बुधजनकी भाषापर राजस्थानी भापाका प्रभाव ही नहीं है अपितु इन्होंने राजस्थानी मिश्रित बज भापाका प्रयोग किया है। पदो प्रवाह और प्रभाव दोना ही विद्यमान है । रूपकोंमे भाषाकी लाक्षणिकत और वर्णोंका विचित्र विन्यास भी है। जैन-पट-रचयिताओमें कवि वृन्दावनका भी प्रतिष्ठित स्थान है इनके पदोंमे भक्तिकी उच्च भावना, धार्मिक सजगता और आत्म निवेदन विद्यमान है। आत्म-परितोपके साथ लोक हित सम्पन्न करना ही इनके काव्यका उद्देश्य है। यद्यपि इनके पदोंमें मौलिकताका अभाव है। हॉ भनि-विहल्ता और विनम्र आत्म-समर्पणकै कारण अभिव्यंजना शक्ति पूर्णरूपेण विद्यमान है। इनकी भावनाएँ आत्मजगत्की सीमासे बाहर निकलकर सर्वसामान्यके साथ सहानुभूति रखती हैं। इनकी भक्ति केवल आत्म-परितोपी ही नहीं, विश्वव्यापक भी है । सुकुमार भावनाएँ और लयात्मक संगीतने अनुभूति और कल्पनाका समन्वय प्रस्तुत किया है। निराशाके वाट आगाका सदेश और आराध्यम अटूट विश्वास इनके पदोका प्राण है । कवि कहता है - निशदिन श्रीजिन मोहि अधार ॥ टेक ॥ जिनके चरन-कमलके सेवत, संकट कटत अपार ॥ निशदिन० ॥ जिनको वचन सुधारस-गर्भित, मेरत कुमति विकार निशदिन०॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य १०३ भव आताप वुझावतको है, महामेघ जलधार ॥ निशदिन० ॥ जिनको भगति सहित नित सुरपत, पूजत अष्ट प्रकार निशदिन०॥ जिनको विरद वेदविद वरनत, दारुण दुख-हरतार ॥ निशदिन० ॥ भविक वृन्दकी विया निवारो, अपनी ओर निहार ॥ निशदिन० ॥ नीति-विषयक पदो और ज्ञानोपदेशक पदोमे कविने जैनागमके सिद्धान्तोंका प्रतिपादन करते हुए नीति और जानकी वाते बतायी है । यद्यपि वर्णनकी प्रणाली अत्यन्त सरल है, भाषामे माधुर्य गुण है। धन धन श्री गुरु दीन दयाल ॥ टेक० ॥ परम दिगम्बर सेवाधारी, जगजीवन प्रतिपाल । मूल अठाइस चौरासी लख, उत्तर गुण मनिभाल ॥ धन० ॥ देह भोग भयसो विरकत नित, परिसह सहत त्रिकाल ॥ धन० ॥ शुद्ध उपभोग जोग सुदमंडित, चाखत सुरस रसाल ॥ धन० ॥ X X X X सेठ सुजन बर निधि भरी, दुख द्वन्द विदारे। कवि वृन्दावनकी मापा पर पूर्वी भाषाका प्रभाव है । सुकुमार शब्दावलीमे स्वरकी साधना और तन्मयताका व्यकारी सगीत है। पदोंका तुलनात्मक विवेचन अखण्ड सौन्दर्यात्मक सत्यके भणिक पर्णमात्रसे मानव-हृदय परिस्पन्दित हो भावना-लहरियोसे उद्वेलित होने लगता है । इसी हृदयालोडनका परिणाम गीति-काव्य है, जिसमें संगीतका माध्यम सर्व प्रधान स्थान रखता है। देश, काल और व्यक्तिकी सीमित परिधिसे आवेष्टित हो आन्तरिक सगीतका यह व्यक्तरूप अनेक रूप धारण कर सकता है। परन्तु प्ररणाका प्रधान उत्स अखिल सत्य वास्तवमें अखण्ड और एक है। अतः बाह्य रूपरेखामे महान अन्तर होते हुए भी यदि विभिन्न गीतिकारोने एक ही मौलिक तत्व व्यक्त किये हों तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं । जो कुछ विभिन्नता मिलती है वह तो स्थूल Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन जगत्के प्रभावका परिणाम है। सूक्ष्म भावजगत्में तो अनेकताका कोई स्थान ही नहीं। इसलिए यह आवश्यक है कि हम विभिन्न देश और कालके तथा विभिन्न दार्शनिक विचारों से प्रभावित गीतकारोंके मौलिक तत्त्वों तथा उनकी कलात्मक विशेषताओंका तुलनात्मक विचार करे। हम देख चुके है कि जनपद-साहित्यमे सगीतमय भावात्मक आत्माभिव्यक्ति के साथ दार्शनिक विचारोकी अभिव्यंजना भी अन्तर्निहित है । यद्यपि पदोका अन्तरङ्ग-वस्तुतत्त्व हृदयके अनुरूप ही सुकोमल, तरल और भावनापूर्ण है। पर मस्तिष्ककी ऊहापोही और दार्शनिक विचारोंकी गहनता भी है। जैन-पद-रचयिताओंकी प्रेरणाका स्रोत जिनेश्वर भक्ति या आत्मरति है। जैन दर्शनमें भक्तिका रूप दास्य, सख्य और माधुर्य भावकी भक्तिसे भिन्न है, अतः कोई भी साधक अनेक चिकनी-चुपड़ी प्रशसात्मक बातो-द्वारा वीतरागी प्रभुको प्रसन्न कर उनकी प्रसन्नता-द्वारा अपने किसी लौकिक या अलौकिक कार्यको सिद्ध करनेका उद्देश्य नही रखता है और न परम वीतरागी देवके साथ यह घटित ही हो सकता है, क्योंकि सच्चिदानन्दमय प्रभुमे रागागका अभाव होनेसे पूजा, स्तुति या भक्ति द्वारा प्रसन्नताका सचार होना असम्भव है; अतएव वह भक्ति करनेवालोंको कुछ देता, दिलाता नहीं है। इसी तरह द्वैपाशका अभाव होनेसे वीतरागी किसीकी निन्दासे अप्रसन्न या कुपित भी नहीं होते है और न दण्ड देने, दिलानेकी ही कोई व्यवस्था निर्धारित करते है। निन्दा और स्तुति, भक्ति और ईयां उनके लिए समान है, वह दोनोके प्रति उदासीन हैं। परन्तु विचित्रता यह है कि स्तुति और निन्दा करनेवाला स्वतः अभ्युदय या दण्डको प्राप्त कर लेता है ।। १-सुहृत्वयि श्रीसुभगत्वमश्नुते, द्विपस्वयि प्रत्यय-वत्प्रलीयते। भवानुदासीनतमस्तयोरपि, प्रभो! परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥१९॥ अर्थ-हे भगवन् ! आपका मित्रसे न अनुराग है और न शत्रुसे द्वेष है; अतः आप किसीसे प्रसन्न और मप्रसन्न नहीं होते है। फिर भी Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्दोका तुलनात्मक विवेचन शुद्धात्माओंकी उपासना या भक्तिका आलम्बन पाकर मानवका चंचल चित्त क्षण भर के लिए स्थिर हो जाता है, आलम्बनके गुणका स्मरण कर अपने भीतर भी उन्हीं गुणोको विकसित करनेकी प्रेरणा पाता है तथा उनके गुणोंसे अनुप्राणित हो मिथ्या परिणतिको दूर करने के पुरुषार्थमे रत हो जाता है। जैन दर्शनमें शुद्ध आत्माका नाम ही परमात्मा है; प्रत्येक जीवात्मा कर्मबन्धनोके विलग हो जाने पर परमात्मा बन जाती है । अतः अपने उत्थान और पतनका दायित्व स्वय अपना है । अपने कार्योंसे ही यह जीव बँधता है और अपने कार्योंसे ही बन्धनमुक्त होता है । १०५ कमका कर्त्ता और भोक्ता भी यह जीव ही है । अपने किये कम का फल इसको स्वयं भोगना पडता है। ईश्वर या परमात्मा किसी भी प्राणीको किसी भी प्रकारका फल नहीं देता है । इस प्रकारके ईश्वरकी उपासना करनेसे साधककी परिणति स्वतः शुद्ध हो जाती है, जिससे अभ्युदयकी प्राप्ति होती है । अतः जैन दर्शनानुसार उपासना या भक्ति अकिंचन या नैराग्यको भावना नही है । साधक उन शुद्धात्माओकी, जिन्होंने आत्म-संयम, तपस्या, योग, ध्यान प्रभृतिके द्वारा कर्म-बन्धनको नष्टकर जीवन्मुक्त अवस्थाको प्राप्त कर लिया है । पूर्ण ज्ञान ज्योतिके प्रज्वलित हो जानेसे जिन्होंने ससारके समस्त पदार्थों एव उनके समस्त गुण और अवस्थाओंको भली भाँति अवगत कर लिया है, उपासना करता है। इस प्रकारकी उपासना या भक्तिसे आराधककी आत्मा स्वच्छ या निर्मल होती है । जैन-पद-रचयिताओंने इसी भक्तिभावनासे प्रेरणा प्राप्त कर भावात्मक 'पदोकी रचना की है । यद्यपि कतिपय पद, जिन्हें प्रभाती या बधाईकी आपकी भक्ति करनेवाला श्रीसमृद्धिको और निन्दा करनेवाला पापवृद्धि को प्राह होता है, यही आश्चर्यकी बात है । -स्तुतिविद्या । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन संज्ञा दी गयी है, में दास्यभाव वर्तमान मिलेगा, परन्तु प्रधानतः साधक अपनेको शुद्ध करनेके लिए इस प्रकार शुद्धात्माओंका आश्रय लेता है, जिस प्रकार दीपकको प्रज्वलित करनेके लिए अन्य दीपकाकी लौका सहारा लेना पड़ता है। बैंका अवलम्बन देनेवाला दीपक अपने भीतरसे किसी वस्तुको प्रदान नहीं करता है, पर अपने तेन-द्वारा अन्यको प्रकाशित या प्रज्वलित करनेमें सहायक होता है । जैन पद-रचयिताओंने भी इसी भक्तिभावनाकी अभिव्यजना की है। अवतारवाद इन्होने नहीं माना है और न निर्गुण या सगुण सिद्धान्तकै विवादमें पडनेका प्रयास किया है। जैन नमें अनेकान्तवाटकी विवेचना-परस्पर आपेक्षिक अनेक धर्मात्मक वस्तुकी विवेचना की गयी है, जिसने आराध्य बीतसगी प्रभु एककी अपेक्षा सुनिश्चित दृष्टिकोणसे सगुण और अन्य आपेक्षिक धर्मकी अपेक्षा निर्गुण है। यद्यपि आराध्यको शील, ज्ञान, शक्तिका भाण्डार माना है, जिससे कोई भी साधक अपनी मनोरम, गुसशक्तियोका उद्घाटन करनेमे प्रगतिशील बनता है। लोकरजन और लोकरक्षण करना भगवान्का कार्य नहीं है, किन्तु उनके पूत गुणोकी स्मृति करनेसे लोकरजनके कार्य सहजमें सम्पन्न हो जाते हैं । इसी कारण जैन-पद-रचयिताओको ससारका विलेपण करते समय माया, मिथ्यात्व, शरीर, विकार आदिका विवेचन भी करना पड़ा. है। संसार और प्रलोभनोंसे वचनेके लिए जैन-पद-रचयिताओने मानव प्रवृत्तियोंका सुन्दर विश्लेषण किया है। इनके मूल्लोत एवं प्रेरणा दोनोका स्थान हृदय है । जैन सन्तोका भगवत्प्रेम शुष्क सिद्धान्त नहीं, अपितु. स्थायी प्रवृत्ति है । यह आत्माकी अशुभ प्रवृत्तिका निरोध कर शुभ प्रवृत्तिका उदय करता है, जिससे दया, क्षमा, शान्ति आदि श्रेयस्कर परिणाम उत्पन्न होते हैं। जैन पदोका वर्ण्य विषय भक्ति और प्रार्थनाके अतिरिक्त मन, शरीर, इन्द्रिय आदिकी प्रवृत्तियोंका अत्यन्त सूक्ष्मता और मार्मिक्रवाके साथ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदोंका तुलनात्मक विवेचन विवेचन करना एव आध्यात्मिक भूमियोका स्पर्श करते हुए सहज समाधिको प्राप्त करना है। साधक अपने इस शरीरका उपयोग मोक्षप्राप्तिके लिए करता है, वह विश्वके भौतिकवादकी चकाचौधते अविचलित रहकर स्वानुभूति-द्वारा आत्माकी विभाव परिणतिको स्वभाव परिणतिक रूपमे परिवर्तित करता है । जैनपदोमे यद्यपि ऊँचे दार्शनिक सिद्धान्तोका भी विश्लेषण है, परन्तु जीवनकी व्याख्या अपनी प्रवृत्तियोका परिष्कार कर जीवनके चरम लध्यको प्राप्त करनेका सकेत भी निहित है। हिन्दी साहित्यम गीत और पद-रचयिताओमे निर्गुण सन्त कबीर रविदास, दादू, मलूकदास और सगुण सम्प्रदायमे सूर, तुल्सी, मीरा आदि मक्त कवियोका नाम आदरके साथ लिया जाता है। इन सन्त और मत्ताने पदोकी रचना कर हिन्दी साहित्यमे भक्ति और अध्यात्म-सम्बन्धी अपूर्व व्याख्याएँ प्रस्तुत की है । निर्गुण सन्तोंके तात्त्विक सिद्धान्त उपनिपटोंके वेदान्तवाद तथा जैनोके शुद्धात्मवादसे बहुत साम्य रखते हैं। इन सबोंकी भक्तिकी मूलप्रेरणा वेदान्त या शुद्धात्मवादसे मिली, इसी कारण कवीरने बताया-"सबके हृदयमे परमात्माका निवास है। उसे बाहर न ढूंढकर भीतर ही ढूँढ़ना चाहिये । आत्मा ही परमात्मा है, दोनोंमे एकत्वभाव है। इस प्रकार प्रत्येक जीव परमात्मा है । यही नहीं, एक अर्थमे जो कुछ है सब परमात्मा है। निर्गुण सन्तोंने अवतारवादका खण्डन किया । पूजा-अर्चा जिसका सम्बन्ध दृश्य पदार्थोरो है, इनके विचारोके प्रतिकूल है । भौतिक गरीरकी दृष्टिसे कोई भी व्यक्ति ईश्वर नहीं हो सकता है । आत्माकी दृष्टिसे समी आत्माएँ ब्रह्म है । अतएव सन्तांक मतमे जन्म-मरणसे रहित परब्रह्म ही परमात्मा हो सकता है। इसी परब्रह्मका नाम-स्मरण, भक्ति और प्रेम करनेसे कल्याण होता है। जब इसका प्रेम चरमावस्थाको प्राप्त हो जाता है तो साधककी आत्मा उसी ब्रह्ममे मिल जाती है । इसी भक्ति-भावनाको लेकर कवीर, रविदास आदि सन्तोने अध्यात्म-पद रचे । इन पदोंकी तुलना अनेक जैन पदोसे की जा सकती Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन है। कवीरके रहस्यवाद-सम्बन्धी अनेक पद बनारसीदासके पदोके समकक्ष है। कबीरका मानवीय विकारों और प्रवृत्तियोंका विश्लेपण तो अनेक अशोमें जैन-पद-रचयिताओंसे समानता रखता है। मोक्षप्राप्तिका मूल्साधन ब्रह्म या शुद्धास्माकी स्मृति है। मनुष्य सासारिक स्वार्थपरक कार्योंमे जैसे-जैसे रत होता जाता है, वैसे-वैसे यह स्मृति भी क्षीण होती जाती है। कवीरने बताया है कि इस सासारिक द्वन्दमें रहते हुए भी कभी-कभी ब्रह्मकी स्मृतिकी झलक प्राप्त हो सकती है। मनुष्य अपने स्वरूपको भूल जानेसे ही ससारमें परिभ्रमण कर रहा है। भ्रान्तिसे जैसे सिंह जलमं पडनेवाले प्रतिविम्बको अपना शत्रु समझ क्रुद्ध हो उससे युद्ध करने लगता है और अनेक विपचियोको सहन करता है, अथवा शुक जैसे अपने उड़नेकी चालको भूलकर व्याधकी नलिनीपर बैठते ही, उसके घूम जानेसे उल्टा लटक जाता है और समझने लगता है कि नलिनीने उसे पकड लिया है। इसी प्रकार यह आत्मा अपने स्वस्पको भूलकर नाना प्रकारके कष्टोको उठा रहा है __अपनपो आप ही विसरौ। जैसे सोनहा काँच-मन्दिर में भरमत भूकि मरो ॥ जो केहरि वपु निरखि कृपजल प्रतिमा देखि परो। ऐसेहिं मदगज फटिकशिला पर दसननि आनि अरो।। मरकट मुठी स्वाद ना विसरै घर घर नटत फिरो। कह 'कवीर' नलनी के सुवना तोहि कौने पकरो ॥ कवि दौलतरामने इसी आशयका विवेचन किया है। आत्मस्वरूपकी विस्मृतिके कारण ही ससारमे अनेक कष्ट उठाने पड़ रहे है । भ्रमवा ही यह जीव अपनेसे भिन्न पर-पदार्थोंको अपना समझ गया है। कवि कहता है Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदाका तुलनात्मक विवेचन अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपायौ । ज्या शुक नभचाल बिसरि नलिनी लटकायौ । चेतन अविरुद्ध शुद्ध दरशवोधमय विशुद्ध , तनि जडरस-फरस-रूप, पुदल अपनायो। इन्द्रिय सुख दुख मे नित, पाग राग रुख में चित्त, दायक भव-विपति वृन्द बन्धको बढायौ ॥ अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपायौ । आपा नहिं जाना तूने, कैसा ज्ञानधारी रे। देहाश्रित करि क्रिया आपको, मानत शिवमगधारी रे ॥ भाप भ्रमविनाश आप आप जान पायौ, कर्णश्त सुवर्ण जिमि चितार चैन थायो। मेरो तन तनमय तन, मेरो मै तनको निकाल, यौँ कुवोध नश सुबोध मान जायौ ॥ आप०॥ यह सुजैनवैन ऐन, चिन्तत पुनि पुनि सुनैन, प्रगटौ अव भेद निज, निवेद गुन बढ़ायौ । माप०॥ यौ ही चित अचित मिश्र, ज्ञेय न अहेय हेय, इंधन धनंज जैसे, स्वामि योग गायौ ॥ माप०॥ #मर पोत छुटत झटति, वाछित तट निकटत जिमि, मोह राग रुख हरजिय, शिवतट निकटायो । आप०॥ विमल सौख्यमय सदीव, मैं हूँ मैं नहिं मजीव, जोत होत रज्जुमय, भुजंग मय भगायौ ॥ आप० ॥ यौं ही जिनचंद सुगुन, चिंतत परमारथ चुन, 'दौल' भाग नागो जव, अल्प पूर्व भायौ। भाप ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन तुलनात्मक दृष्टिसे कबीर और दौलतरामकै उपर्युक्त पढोमे उपमान प्रायः समान हैं। श्रमको व्यक्त करनेके लिए कवीरने मुआकी नलिनी, कर्णधृत स्वर्ण, सिहका प्रतिविम्ब, स्कटिकशिलाम गजके दाताका प्रतिविम्य और वन्दरका घर-घर नाचना आदि दृष्टान्त दिये है। कवि दौलतराम ने सुआकी नलिनी, कर्णधृत स्वर्ण आदि उदाहरणोंको ही लेकर भ्रमका सुन्दर विश्लेषण किया है । कबीरदासने जहाँ उदाहरणोंके द्वारा ही भ्रमकी अभिव्यक्ति की है, वहाँ दौलतरामने भ्रमकी अमिन्यक्तिमे भ्रम क्या है, किस प्रकार हो रहा है तथा उसे किस प्रकार दूर किया जा सकता है, आदि विवेचन भी किया है। अर्थात् उनकी दार्शनिक भूमि अपेक्षाकृत विशद है। कवीरने मायाका विवेचन करते हुए बतलाया है कि इस मोहिनी मायाने सारे ससारको ठग लिया है। मायाकै कारण ही विष्णु, शिव आदि देव भी लक्ष्मी और भवानीके आधीन है। मायाकी व्यापकताका विवेचन करता हुआ कवि कहता है माया महा ठगिनी हम जानी। तिरगुन फॉस लिये कर डोले, बोले मधुरी बानी ॥ केगव के कमलाद्वै बैठी, शिव के भग्न भवानी । पंडा के भूरति है बठी, तीरथ में भइ पानी ॥ योगी के योगिनी है वैठी, राजा के घर रानी । काहू के हीरा है वैठी, काहु के कौड़ी कानी । भक्तन के भक्तिनि है वैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मानी । कह 'कबीर' सुनो हो संतो, यह सब अकय कहानी । कवि भूधरदासने भी मायाके उसी ठगिनी रुपका कवीरते मिलताजुलता विवेचन किया है। मायाको ठगिनीका रूपक ढोनोंका समान है। अन्तर इतना ही है कि जहाँ कवीरने केवल उदाहरणो-द्वारा माया Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदोका तुलनात्मक विवेचन १११ -की धूर्तताका विश्लेषण किया है, वहाँ कवि भूधरदासने मायाके मोहक कायका निरुपण करते हुए उसकी ठाईका परिचय दिया है । भूधरदासके इस पदमे व्यग्यका पुट रहनेसे सर्व साधारणको अधिक प्रभावित करता है । कवि भूषराम कहता है सुन ठगनी माया, तैं सब जग ठग खाया । टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पछिताया ॥ सुन० ॥ आपा तनक दिखाय बीज ज्यां, मूढ़मती ललचाया । करि मद अंध धर्म हर लीनौ, अंत नरक पहुँचाया ॥ सुन० ॥ केते कंथ किये तैं कुलटा, तो भी मन न अघाया । किसही सौं नहि प्रीति निवाही, वह तजि और लुभाया ॥ सुन० ॥ 'भूधर' ठगत फिरै यह सबको, भौटू करि जग पाया । जो इस उगर्नाको ठग बैठे, मैं तिसकों सिर नाया ॥ सुन० ॥ नाम सुमिरनको सभी धर्मोोंने एक विशेष स्थान दिया है। नामस्मरण करनेसे मन पवित्र होता है तथा आराध्य के उज्ज्वल गुणोंके प्रति सहज ही आकर्षण उत्पन्न होता है । वस्तुतः नामस्मरण वाह्य साधना नही है, किन्तु एक आध्यात्मिक साधना है, ध्यान का एक भेद है । जो विना भाव के मन्त्रवत् नाम दुहराने को सब कुछ मानते है, कवीरने उनका खढन किया है । कबीर ने कहा है – “पडित व्यर्थ ही बकवाद करते हैं, यदि राम कहने मात्र से ही ससारको मुक्ति मिल जाय तो 'खॉड' शब्दके कहने मात्रसे ही हमारा मुँह मीठा हो सकता है । यदि 'आग' कहनेमात्रसे ही पॉव जल्ने गे अथवा 'पानी' कहनेमात्र से ही प्यास जाती रहे तथा 'भोजन' कहने मात्रसे ही भूख मिट जाय तो सभी मुक्तिके भागी हो सकेंगे । परन्तु केवल ऐसे मान्त्रिक स्मरणोसे वास्तवमे कोई लाभ नहीं ।" जैन मान्यतामे भी विना, हार्दिक भावके नामस्मरण या माला फेरना निरर्थक माना गया है । "यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः " भावरहित नामस्मरण या Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन मक्ति करनेसे आत्मिक विकास नहीं होता है। जैनधर्मकी उपासना साधनाभय है, दीनतामरी याचना या खुशामद नहीं है ।शुद्धात्मानुभूतिके गौरवसे ओत-प्रोत है; दीनता, क्षुद्रता और स्वार्थपरताको इसमे तनिक भी स्थान प्राप्त नहीं है। नामस्मरण और भगवद्भननको जैन साहित्यकारोने शुमपरिणति रूप मानते हुए भी शुद्ध परिणविका प्रबल साधन माना है। उक्त टोनो साधन थाल्माको ध्यान या समाधिकी ओर प्रेरित करते है। जो केवल शब्दोच्चारण कर जाप कर लेनेमें अपने कर्तव्यकी इतिश्री मानते है, वे वस्तुतः अन्धेरैम है । हार्दिक भावनाओका उपयोग-प्रभु-गुणाका ध्यान रहना परमावश्यक है । अतः कवीरके नामस्मरण-विषयक पद जैन पदोसे समता रखते हैं। कबीरने भी शब्दोचारणकी अपेक्षा भावको प्रधानता दी है। संसारके बाह्य द्वन्दॉम सलग्न रहनेपर भी साधक आराध्यके स्मरणसे अपने स्वरूपको उपलब्ध करनेमें समर्थ होता है। धीरे-धीरे वह 'सोऽई का अनुभव करने लगता है और आगे चलकर "शुद्धोऽहं, बुद्धोऽई, निरंजनोऽद्द की अनुभूति करता हुआ अपनेमें विचरण करता है। कबीए कहता है भजु मन जीवन नाम सबेरा । सुन्दर देह देख जिन भूलो, मपट लेत नस थान बटेस। यह देही को गरव न कीजै, उड़ पंछी बस लेत बसेरा या नगरी में रहन म पैहो, कोह रहि बाय न दूख धनेरा। कह 'कबीर' सुनो भाई साधो, मानुप ननम न पहो फेरा II नाम सुमिर पछतायेगा। पापी जिपर लोम करत है, मान काल उठि जायेगा I लालच लागी जनम गँवाया, माया भरम भुलायेगा । धन जोबन का गरव न कीजे, कागद ज्यों गलि जायेगा। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदोंका तुलनात्मक विवेचन ११३ जव जम आइ केस गहि पटक, ता दिन कछु न बसायेगा। सुमिरन भजन दया नहिं कीन्हीं, तो मुख चोटा खायेगा । धरमराय जब लेखा मांगे, क्या मुख लेके जायेगा। कहत 'कबीर' सुनो भई साधो, साध संग तरि जायेगा । कवि दौलतरामने इसी आशयके अनेक पदोकी रचना की है । निम्नपद तो बहुत अशोमें मिन्ते-जुलते हैं । पाठक देखेंगे कि दोनों ही भक्त कलाकारोमे कितना साम्य है भगवन्त भजन क्यों भूला रे। यह संसार रैन का सुपना, तन धन पारि-वधूला रे ॥ भगवन्त०॥ इस जोवन का कौन भरोसा, पावक में तृण-पूला रे। काल कुदाल लिये सिर बा, क्या समझे मन फूला रे। भगवन्त०॥ स्वास्थ साधैं पाँच पाँव तू, परमारथ कौं लूला रे। कहु कैसे सुख पैहे प्राणी, काम करै दुखमूला रे ।। भगवन्तः॥ मोह पिशाच छल्यो मति मार, निज कर कंध वसूला रे। भज श्रीराज मतीवर 'भूधर', दो दुरमति सिर धूला रे भगवन्त०॥ जिनराज ना विसारो, मति जन्म वादि हारो। नर भौ आसान नाहिं, देखो सोच समझ वारो ॥ जिनराला सुत माव तात तरुनी, इनसौं ममत निवारो। सवही सगे गरज के, दुखसीर नहिं निहारो । जिनराज० ॥ नामस्मरण और भगवत्-भजन करनेपर जोर देते हुए बुधजन, आनन्दधन, भागचन्द आदिने भी अनेक सरस पदोंकी रचना की है। मोह, अहंकार, कपट, आशा, तृष्णा, निद्रा, निन्दा, कनक-कामिनी, सन्तोष, धैर्य, दीनता, दया, सत्य, अहिंसा, मानसिक विकार, भौतिक जगत्को निस्सारता आदि-विषयक पर्दाम कबीर और जैनपद रचयिताओ. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन के भावोंम साम्य-सा है। अनेक पदोमे तो केवल शन्दोंका अन्तर है। कही-कही कबीरके दो-तीन पदोंके भाव दौलतराम, भूधर, बुधजनके एक पदमे आ गये हैं और एकाध स्थलपर जैन-पद-रचयिताओंके दो-तीन पदोंके भाव कवीरके एक ही पदमे अभिव्यक्त हुए है । कबीरका चरखा और तंबूरेका रुपक भूधरदासके चरखाके रूपकसे कितना साम्य रखता है चरखा चले सुरत विरहिन का। काया नगरी बनी अति सुन्दर, महल बना चेतन का। सुरत भाँवरी होत गगन में, पीदा ज्ञान रतन का ॥ मिहीन सूत विरहिन काते, माझा प्रेम भगति का। कहैं 'कबीर' सुनो भई साधो, माला गथो दिन रैन का । . साधो यह तन ठाठ सॅचूरे का। खंचत तार मरोरत खूटी, निकसत राग हरे का। टूटे तार बिखरि गई खूटी, हो गया धूरम धूरे का ॥ या देही का गरब न कीजै, उडि गया हंस तंबूरे का। कहत कबीर सुनो भई साधो, अगम पंथ कोइ सूरे का ॥ भूधरदास कहते हैं चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पुराना। पग खटे द्वय हालन लागे, उर मदरा खखराना। छीदी हुई पाँखड़ी पसली, फिरे नही मनमाना ॥ चरखा० ।। रखना तकनी ने बल खाया, सो अव कैसे खूटे। सबद सूत सूधा नहिं निकस, घडी घडी पल टूटै ॥ चरखा० ॥ आयु माल का नहीं भरोसा, अंग चलाचल सारे। रोज इलाज मरम्मत चाहै, वैद बादई हारे । चरखा० ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदोका तुलनात्मक विवेचन नया चरखला रंगारंगा, सबका चित्त बुरावै। पलटा चरन गये गुन अगले, अव देखै नहिं भावै ॥ चरखा० ॥ मोटा महीं कात कर भाई, कर अपना सुरक्षेरा । अन्त भाग में इंधन होगा “भूधर" समक्ष सबेरा ॥ चरखा० ॥ रूपकोमें जैन-पद-रचयिताओने निर्गुण सन्तोके समान आध्यात्मिक रहस्योंकी अभिव्यक्ति अपूर्व ढगसे की है। आध्यात्मिक जीवनके बीज आत्मनिरीक्षण और पश्चातापकी भावनापर जैन कवियोने विशेष जोर दिया है। __उपासनाके लिए उपास्यके विशिष्ट व्यक्तित्वकी आवश्यकता-समझ सगुण भक्तिका आविर्भाव हुआ। सगुण उपासकोंमें कृष्णभक्ति-गाखा और रामभक्ति शाखामे श्रेष्ठ कलाकार हुए, जिन्होने पद और गीतोकी रचनाकर हिन्दीके भण्डारकी वृद्धि की। महाकवि सूरदासने पद-साहित्यमे नवीन उद्भावनाएँ, कोमल कल्पनाएँ और वैदग्धपूर्ण व्यजनाएँ की। वस्तुतः सूर माव-जगत्के सम्राट माने गये हैं। हृदयको जिवनी गहरी थाह सूरने ली, उतनी शायद ही किसी अन्य कविने ली हो । यद्यपि सूरने अपने पदोको रचना जयदेव और विद्यापतिकी गीत पद्धतिपर की है। फिर भी सजीवता, चित्रमयता, मनोवैगानिकता और स्वामाविकताके कारण इनके पदोंमे मौलिकता पूर्णरूपसे विद्यमान है। जैन-पद-रचयिताओंसे सूरके पद कल्पक्ष और भावपक्षकी दृष्टि से अनेक अशोंमे साम्य रखते है। जिस प्रकार सूरने गौरी, सारग, आसावरी, सोरठ, भैरवी, धनाश्री, ध्रुपद, विलावल, मलार, जैतिश्री, विहाग, शझोरी, सोहनी, कान्हरा, केदारा, ईमन आदि राग-रागनियोमे पदोकी रचना की है, उसी प्रकार प्रभाती, बिलावल कनडी, रामकली, अलहिया, आसावरी, जोगिया, माझ, टोडी, सारग, लहरि सारंग, पूरवी, गौड़ी, काफी कनड़ी, ईमन, अशोरी, खमाच, अहिंग, गारो कान्हरो, केदारा, सोरठ, विहाग, माल Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन कोस, परन, कालिंगडी, गजल, मल्हार, देवता, विलावन्द, वा, fieड़ा, हु, आदि अनेक राग-रागिनियोन न-पद- रचयिताओंने पदकी रचना की है। संगीतका माधुर्य नरके पर्व के मम्गन ही जैनपदोम मी विद्यमान है । S अन्वनंगनने चित्रगकी दृष्टिले नरकं अनेक पद जैन-पदक सम्मान मात्रपूर्ण हैं । बाम्मुल्य शृंगार और शान्त इन तीनों रसोंका परिपाक सूरके पदोंमें विद्यमान है । वन्मुल्य रमके चित्रण चान्मनीविडान, श्रहार- वियक पदोंमें प्रेमकी वृतिका व्यापक दिग्दर्शन एवं भक्ति-वियक पदोंमें आत्माभिव्यक्ति पूर्ण रूपसे हुई है । विनयके पदों के आरम्भ में आराध्य श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए कवि कहता है चरनकमल बन्द हरिनाह । बाकी कृपा पंगु गिरि लंबे, अम्बेको सब कुछ दरसाइ ॥ बहिरो सुन, गूंग पुनि बोले, रंक चलें सिर छत्र धराड़ | 'सूरदास' स्वामी नामय, वारम्वार बन्द तिहि पाई ॥ जैनपदाएँ इस आशय अनेक पद हैं। बुधदनका एक पद उद्धृत किया जाता है । कितनी समानता है— यहाँ तुलनाके लिए कवि पटक देखेंगे कि दोनोंमें तुम चरननकी डारन, आय सुख पायौ । अत्र त्रिर मत्र न मैं डोस्यो, जन्म जन्म हुन्न पायौ ॥ नुमः ॥ ऐसो सुन्न सुरपति के नाहीं, मौ मुख ज्ञान न गाय | अत्र मत्र सम्पति मां दर आई, मन वत्र तन नैं उठ कर गर्मी, बारम्बार चीन 'घनन आज परम पढ़ लायौ ॥ तुल० ॥ कबहुँ न ज्या विपरायी । की मनको नात्री ॥ तुनः || 1 सुहाने अपने न्नका परिष्कार करते हुए अपनी दूषित प्रवृत्तियांत्री निन्दा की है। aण अपने आराध्य के सम् पनी आत्मालोचना करते Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदोंका तुलनात्मक विवेचन हुए अपनी कमजोरियो और त्रुटियोका यथार्थ प्रतिपादन किया है। जैनपद-रचयिताओमे कवि भागचन्दके पद सरदासके इन पदोसे बहुत कुछ साम्य रखते है। आत्मालोचन और पश्चात्ताप सम्बन्धी एक-दो पद तुलनाके लिए उद्धृत किये जाते हैं । सूरदास कहते हैं मो सम कौन कुटिल खल कामी। तुम सौं कहाँ छिपी करुनामय, सबके अन्तरजामी॥ जो तन दियो ताहि बिसरायो, ऐसौ नोन-हरामी । भरिभरि द्रोह विष को धावत, जैसे सूकर मामी ॥ सुनि सतसंग होत लिय मालस, विषयनि संग विसरामी । श्रीहरि-चरन छाडि विमुखनि की, निसदिन करत गुलामी ॥ पापी परम, अधम अपराधी, सब पतितनि में नामी। 'सूरदास' प्रभु मधम-उधारन, पुनियै श्रीपति स्वामी ॥ कवि भागचन्द भी पश्चात्ताप करते हुए कहते हैं मो सम कौन कुटिल खल कामी, तुम सम कलिमल दलन न नामी । हिंसक झूठ बाद मति विचरत, परधन-हर परवनितागामी । लोमित चित नित चाहत धावत, दशदिश करत न खामी मो सम०॥ रागी देव बहुत हम जाँचे, राचे नहि, तुम साँचे स्वामी। बाँचे श्रुत कामादिक पोषक, सेये कुगुरु सहित धन धामी ॥ मो सम० भाग उदय से मैं प्रभु पाये, वीतराग तुम अन्तरजामी । तुम धुनि सुनि परमय में परगुण, जाने निजगुण चित विसरामी॥मोसम० तुमने पशु पक्षी सब तारे, तारे अंजन चोर सुनामी । 'भागचंद' करुणाकर सुखकर, हरना यह भवसन्तति लामी ।मो सम० कवि सूरदासने विपयोकी और जाते हुए मनको रोका है और Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन उसे नाना प्रकारसे फटकारते हुए आत्माकी ओर उन्मुख किया है। नाना प्रकारकी आकांक्षाएं और तृष्णाएँ ही इस मनको आकृष्ट कर विपर्योम मलग्न कर देती हैं, जिसमे भोला असहाय मानव विषयेच्छायों की अग्निमें जलता रहता है। अनादिकालसे मानव विकार और वासनाओंके आधीन चला आ रहा है, जिससे इमे जीवनकी विविध प्रवृत्तियोंके अनुशीलनका अवसर ही नहीं मिला है। कवि सूरदासने मनको समझाते हुए अहकार और ममकारकी भावनामे मनको दूर रखनेकी बात कही है । वास्तवमें अध्यात्म-आनन्द तभी प्रात हो सकता है, जब मन और हृदयका परिष्कार कर लिया जाय । इस स्वार्थी संसारके वाह्य रुपको देखकर मनुष्य अपनेको भूल जाता है, इसी कारण वह मणिक इन्द्रिय-जन्य सुखोंमें आनन्दका अनुभव करता है। चिरन्तन आनन्द काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ईयां, मात्सर्य आदि विकारोक परास्त करने पर ही प्राप्त हो सकता है। सत्य, सन्तोप और पवित्रता तमी आ सकती है, जब मानव अपनी आत्माम जान और ध्यानकी अग्निको प्रज्वलित करे | ममत्व भाव ही वस्तुतः अनेक दुःखों की जड़ है। ममता के कारण ही पर-वस्तुओको मानव अपनी समझता है। निज प्रकृतिमें दोप उत्पन्न कर अपनेको दुःखी बनाता है। प्रयोजनीभूत तत्त्वोंका चिन्तन और मनन न कर शरीरको ही अपना समझ लेता है। कवि सूरदास मानवके अचान भ्रमको दूर करता हुआ कहता है रेमन मूरख, जन्म गॅवायो। कर अभिमान विषय-रस राँच्यो, स्याम सरन नहिं आयो । यह संसार फूल समर को, सुन्दर देखि भुलायो। चाखन लाग्यो रुई गई उड़ि, हाथ कछु नहिं आयो । कहा भयो अब के मन सोचे, पहले नाहिं कमायो । कहत 'सूर' भगवन्त-भजन दिनु, सिर धुनि धुनि पछितायो । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदोंका तुलनात्मक विवेचन ११९ जा दिन मन पंछी उडि जैहैं। ता दिन तेरे तन-तरुवरके, सबै पात झरि जैहैं । घरके कहें, बेगि ही काढौ, भूत भये कोड खैहैं। जा प्रीतम सों प्रीत घनेरी, सोऊ देखि डरैहैं । रे मन जन्म अकारथ जात । बिछुरे मिलन बहुरि कब ढहै, ज्यो तरुवरके पात ॥ सन्निपात कफ कण्ठ-विरोधी, रसना दूरी बात । प्रान लिये जम जात मूढमति, देखत जननी तात ॥ कवि सूरदासने ऊपर जिस प्रकारका ससार, गरीर और विषयोके सम्बन्धमे चित्रण किया है, ठीक वैसी ही भावाभिव्यञ्जना जैन कवियोने की है। जैन-पद-रचयिताओने वताया है कि हम स्वभावसे सुखी, ज्ञानी तथा सहज आनन्द स्प चेतन हैं । अपने इस स्वभावके भूल जानेके कारण ही हम दुःखी हो रहे है | शरीर जड है, विश्वके अन्य पदार्थ भी जड़ हैं। यद्यपि चैतन्य आत्मके गुणोकी अभिव्यक्ति शरीर आदि निमित्तोके आधीन है, पर स्वल्पतः आत्मा इनसे भिन्न है। मानवको दुःख कर्मबन्धके कारण आत्माके विकृत हो जानेसे है। आत्माकी राग-द्वेष रूप परिणति ही कर्मवन्धका कारण है, अतः इस शरीरको परपदार्थ समझ कर शुद्धात्म-तत्त्वको प्राप्त करनेकी चेष्टा करनी चाहिए। व्यर्थ ही मानव रागद्वेष रूप परिणतिमे आसक्त रहता है तथा इसी आसक्तिमे इस अमूल्य जीवनको व्यतीत कर देता है । सभी जैन कलाकारोंने जीवन और जगत्के विविध रहस्योका उद्घाटन सहृदय सरस कविके रूपमे किया है, केवल दार्शनिक वनकर नहीं, यद्यपि दर्शनकी सबसे बडी थाती उनके पास थी। इसी कारण इनके जीवन सम्बन्धी इन विश्लेपोंमे ठोस ससारकी वास्तविकता कल्पना और मावनाके मनोरम आवरणमें निहित है । जीवनके Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० हिन्दीजैन-साहित्य-परिशीलन प्रति इनका एक विशेष भावात्मक दृष्टिकोण है, जिससे जगत्के विभिन्न सत्योका विश्लेषण बडे ही सुन्दर ढगसे किया है। अहकार और ममकार जो कि जीवनके सबसे प्रबल विकार है, जिनके कारण हमारा जीवन निरन्तर विचलित रहता है, का स्पष्ट और भावनात्मक निरूपण किया गया है । सूरदासके ही समान कवि बनारसीदास भी कहते हैं ऐसे क्यों प्रभु पाइये, सुन मूरख प्रानी । जैसे निरख मीरिचिका, मृग मानत पानी ॥ ज्यो पकवान चुरैलका, विषयरस त्यो ही। ताके लालच तू फिरे, भ्रम भूलत यों ही ॥ देह अपावन खेटकी, अपनी करि मानी। भाषा मनसा करम की, तें अपनी करि जानी ॥ कवि भूधरदास मी संसारके विपयोसे सावधान करते हुए कहते हैंमेरे मन सुवा, जिनपद पीजरे वसि, यार लाव न घार रे । संसार में बलवच्छ सेवत, गयो काल अपार रे। विषय फल तिस तोड़ि चाखे, कहा देख्यो सार रे। कवि बुधजन कहते है रे मन मूरख बावरे मति दीलन लावै । अपरे श्री अरहन्तकौं, यो मौसर जावै ॥ नरभव पाना कठिन है, यो सुरपति चाहै। को जाने गति काल की, यौ अचानक आवै ॥ छूट गये अब छूटते, जो छूटा चावै । सब छुटै या जालौं, यो आगम गावै ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ पदोंका तुलनात्मक विवेचन 'भोग रोग को करत हैं, इनकी मत लावै । ममता तजि समता गहौ, 'बुधजन' सुख पावै ॥ क्यो रेमन तिरपत नहिं कोय । अनादि काल का विपयन राच्या, अपना सरबस खोय ॥ 'नेकु चाख कै फिर न बाहुडे, भधिका लपटै जोय । ज्यों ज्यो भोग मिलै त्यो तृष्णा, अधिकी अधिकी होय ॥ मन रे तेने जन्म भकारय खोयो। तू ढोलत नित जगत धंध में, ले विपयन रस लूट्यो ।। इस प्रकार जैन कवियोने आशाके निन्ध रूपकी विवेचना सूरदास के समान ही की है। वस्तुतः आशा इतनी प्रचण्ड अमि है कि इसमे जीवनका सर्वस्व स्वाहा हो जाता है। जैन कवियोंने इसी कारण मनकी विविध दशाओका विवेचन सूक्ष्म स्पसे किया है। महाकवि तुल्सीदासके पटोकी प्रसिद्धि भी हिन्दी साहित्यमें अत्यधिक है । इन्होंने बुद्धिवादके साथ हृदयवादका भी समन्वय किया है। इनके आध्यात्मिक और विनय-विषयक पदोका सकल्न विनयपत्रिकामे है। इनके मतसे अन्तस्की शुद्धिके लिए भक्ति आवश्यक है, इसके लिए प्रमु-कृपा होनी चाहिये। ___ भक्तिके लिए दो बातें आवश्यक है-प्रथम आराध्यकी अपार वैभवशालीनता, शक्तिपूर्णता और सर्वगुणसम्पन्नताका अनुभव और द्वितीय अपनी तुच्छता, आत्मग्लानि, दीनता और असमर्थताका प्रदर्शन सच्चे भक्त अपनी दीनता या असमर्थता प्रदर्शित करनेमे अधिक Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन आनन्दानुभूलिका अनुभव करते है। कवि तुलसीदासने अपने पदो और भजनोमे भक्तिके सभी साधन-मजन (नाम-स्मरण ), शरणागत भाव, चरित्रश्रवण-मनन-कीर्तन, शान्त स्वभावकी प्राप्तिका यन, आराध्यक स्वल्पका ध्यान, मन और गरीरके सयम-द्वारा सा व्यकी प्राप्ति, आराध्यसे सम्बद्ध गगा, चित्रकूट आदि तीर्थाका वन्दन-स्मरण एव सत्संग, साधुसेवा, शिवभक्ति, हनुमद्भक्ति आदिका निरूपण किया है। दास्यभावकी भक्ति न होनेपर भी जैन-पढ-रचयिताओने तुलसीदासके समान ही अपने पद और भजनाम भक्त्यङ्गोको स्थान दिया है। आत्मशुद्धिके लिए भी रागात्मिका भक्तिको लाभदायक बतलाया है। जैनकवियोंके द्वारा रचित पद-साहित्य अन्तःकरणमें रस उत्पन्न कर मनको सब ओरसे हटाकर उसीम लीन करता है। इनके पट भाव, मापा, शैली और रसकी दृष्टिसे कवीर, सर, तुलसी आदि हिन्दीके कवियोसे किसी भी बातमें हीन नही है । तुल्सीने अपनी विनयपत्रिका गणेशजीकी स्तुतिसे आरम्भ की है। जैनकवि वृन्दावन भी अपने आराय्य ऋषभनाथकी वन्दनासे ही कार्यारम्भ करनेकी ओर सकेत करता है। ___ कवि तुलसीदासने भगवान्से प्रार्थना की है कि हे प्रभो, आपके चरणों को छोड और कहाँ जाऊँ ? ससारम पतितपावन नाम किसका है ? जो दीनोपर निष्काम प्रेम करता है वही सच्चा आराध्य हो सकता है । कविने अनेक उदाहरणो द्वारा भगवान्की सर्व-शक्तिमत्ताका विवेचन किया है। उसने देव, दैत्य, नाग, मुनि आदिको मायाके आधीन पाया, अतएव वह सर्वव्यापक आरायके महत्त्वको बतलाता हुआ कहता है जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे। काको नाम पतितपावन जग, केहि अति दीन पियारे ॥ 900 कौन देव वराइ विरद-हित, हम्हिठि अधम उधारे । खग, मृग, व्याध पखान विटप जड, नवन-कवन सुरतारे ॥२॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदाका तुलनात्मक विवेचन देव, हनुन, मुनि, नाग. मनुज सव, माया विवस विचारे । तिनके हाथ 'दास तुल्सी' प्रभु, कहा अपनपी हारे ॥३॥ पवि दौलतराम भी इसी आगयका विग्लेपण करते हुए कहते हैं जाऊँ कहाँ तज शरन विहारे। चूक अनादितनी या हमरी, माफ करो करुणा गुनधारे ॥ १॥ इवत ही भवमागरम भव, तुम विन को मुह पार निकारो॥२॥ तुम मम देव अवर नहि कोई, तातें हम यह हाथ पसारे ॥ ३ ॥ मोसम अधम अनेक उधारे, बरनत हैं श्रुत शास्त्र अपारे ॥ ४ ॥ 'दौलत' को भवपार करो अब, आया है शरनागत थारे ॥५॥ कवि नुल्सीदासकं पोंमें मनका विटलेपण, जगत्की क्षणभरता एक आत्मगोधन और हरिस्मरणकी आवश्यकताका प्रतिपादन जैन-पदरचयिताओके समान ही किया है । कवि कहता है मैं हरि, पतित-पावन सुने। मैं पतित नुम पतितपावन, दोउ बानक बने। कवि बुधजनने मी इसी आगयक अनेक पद रचे है पतित-उधारक दीनदयानिधि, सुन्यौ तोहि टपगारो। मेरे आगुनपै नति जावो, अपनो सुजस विचारो॥ पतित उधारक पतित रटत है, सुनिये अरज हमारी। तुमसो देव न आन जगत में, जासौं करिये पुकारी ॥ इसी प्रकार कवि तुलसीदासक पद जैन पदोके साथ भाव, भाषा और गैलीकी दृष्टि से साम्य रखते हैं । प्राचीन कवियों के अतिरिक्त आधुनिक छायावादी और रहत्यवादी कवियोंके आध्यात्मिक गीत भी जैनपदोसे अनेक अगोंमे अनुप्राणित हैं।. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन जिस परिस्थितिमे ससीम आत्मा विश्वके सौन्दर्यम असीम परमात्माकै चिर सुन्दर रूपका दर्शन कर उससे तादात्म्य स्थापन करनेके लिए आकुल हो उठती है, उस स्थितिका चित्रण आध्यात्मिक जैनपढोंसे ग्रहण किया गया प्रतीत होता है। महादेवी वर्माके चिन्तनपरक और भक्तिपरक गीताकी भावसरणी रूप-सौन्दर्य और भावनाओके गाम्भीर्यकी दृष्टिसे महाकवि बनारसीदास के पदोसे प्रभावित प्रतीत होती है। दोनो कलाकारोके अन्तस्मै दार्शनिक सिद्धान्तकी भावधारा एक-सी ही है। महादेवी वर्मा अव्यक्त सत्ताका अपने भीतर अनुभव करती हुई बुद्विका विकास और भावनाका परिकार कर कहती हैं १२४ सखी मैं हूँ अमर सुहाग भरी ! प्रियके अनन्त अनुराग भरी ' किसको त्यागूँ किसको माँगूँ ; है एक मुझे मधुमय चिपमय; मेरे पद छूते ही होते, कोटे कलियाँ प्रस्तर रसमय । पार्टी नग का अभिशाप कहाँ, प्रतिरोमोंमें पुलकें लहरीं । X x fir चिन्तन है सजनि क्षण क्षण नवीन सुहागिनी मैं । x x प्रिय सांध्य गगन, मेरा जीवन ! कवि वनारसीदास भी आत्माकी रहस्यमयी प्रवृत्तियोका उद्घाटन करते हुए कहते हैं— Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदोंका तुलनात्मक विवेचन १२५ बालम तुहु वन चितवन गागरि फूटी। अचरा गौ फहराय सरम गै छूटी ॥ बालमः । हूँ तिक रहूँ जे सजनी रजनी घोर । घर करकेउ न जानै पहुँदिसि चोर ॥ बालम। पिड सुधियावत वनमें पैसिट पेलि। छाडठ राज डगरिया भयउ अलि ॥ बालम० । संवरौ सारददामिनि और गुरु भान । कछु बलमा परमारथ कहीं बखान ॥ बालम०॥ या चेतनकी सब सुधि गई। व्यापत मोहि विकलता भई। पिउ निरन्तर रहत सजनि । विपय महारस चेतन विष समवल। छाडहु वेगि विचार पापतरु मूल ॥ कवि प्रसादके अनेक रहस्यवादी दार्शनिक गीतोपर जैनपदोकी भावसरणीका प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है। कवि प्रसाद कहता है कि जीव वृद्धावस्था और मृत्युके भयसे सदा दुःखी रहता है। जीवनमें जितने परिवर्तन होते आ रहे हैं, उनकी कोई सीमा नहीं है। जीवनमें अमरता स्वानुभूतिको प्राप्त करना ही है। विश्वका अणु-अणु परिवर्तनकी ओर अग्रसर हो रहा है, परिवर्तन ही जीवनका एक सत्य सिद्धान्त है । अमर आत्मामें भी शाश्वत परिवर्चन होता है । यह जीवात्मा शुद्ध होनेके लिए प्रतिक्षण प्रयत्नशील है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन मानव जीवन अनेक तृष्णा और आकाक्षाओंका केन्द्र है । हृदयम अनेक प्रकारकी लालसाऍ वरावर उठती रहती है। जैसे पहाड़की चोटियोंसे बादल टकराते हैं, उसी प्रकार अनेक इच्छाएँ जीवनके कगारोंसे टकराती रहती है। बादलोंके बरसनेसे नदी प्रवाहित होती है और पहाड़ी भूमिमै हाहाकार गुरु गर्जन करती हुई तरंगायित हो आगे बढ़ती है, ठीक इसी प्रकार वेदना-परिपूर्ण ऑसुयोर्क वरसनेसे नाना प्रकारकी वृत्तियों जाग्रत होती है । कवि प्रसाद जीवनके व्यर्थ बीतने पर पश्चात्ताप करता हुआ कहता है सव जीवन वीता जाता है, धूप छाँह के खेल सदृश । सव० । समय भागता है प्रतिक्षण में, नव-अतीत के तुपारकण में, हमें लगाकर भविष्य रण में, आप कहाँ छिप जाता है । सवः । कवि द्यानतरायने भी जीवन के यों ही बीतने पर पश्चात्ताप प्रकट किया है। जीधन यों ही जाता है। बालपने में ज्ञान न पायो, खेलि खेलि सुख पाया है। समय निकलता है प्रतिक्षण ही, मूरख मदमें सोया है। धूप-चाँदनी झिलमिल करती, ले आशाओं का घेरा है। धनि चेतन तू जाग आज रे, मूरख रैन बसेरा है। कवि प्रसादका चिरकालीन अशान्ति-चित्रण, जिसमे जीवनके सुखदुख, हर्प-विपाद, आशा-निराशाकी भावनाओंका मार्मिक चित्रण Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदाका गुलनाग्मक विवेचन ૧ર૦ है पनि भूगरताम और भग्न पगमे अनुप्राणिन-मा प्रतीत होता है। भगाटात. न जगभरण चिर शान्त । निमको अपगक समझ में मनीषनर्म परिवर्तन अनन्त, अमर र यात मय भूलंगा नुम भाकुल दमको हो भन्न । मपि भूपारे तापा मानी मुषि-युधि बिमरानी । चंचल पिस घरन घिर राग, विषयन ते परती। भानन में गुनगाय निरन्तर, पापन पाय जजी ॥ सानपानदोग भागनति गोमन और गार गन्दॉक सम्बल्से अभिनन । पटोमेगास्टाल मुन्न । यषि यनारमीदास, भूपरदाम, भागनन्द, दौलतगम, पन्न, मानन्दपनके पट हिन्दी गदिन्य निधि नभ पचौर, घर और गुल्गी जैसे पनि अधिr आग्मागुनि यिमान है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयाध्याय ऐतिहासिक गीतिकाव्य अतीतसे सदा मानवका मोह रहा है। यह अतीत चाहे सुनहला हो अथवा मटमैला, पर उससे लेह करना मानवका स्वाभाविक गुण है। अतीतके प्रति इस प्रकार आकर्पित होनेका प्रधान कारण यह है कि भूतकालीन घटनाओकी मधुर स्मृति वर्तमानकालीन कठिनाइयोको विस्मृत करा सरस आनन्दानुभूति प्रदान करती है। बीती बातोंके चिन्तनमे अपूर्व रसानुभूति होती है, हृदय गौरव-रससे लबालब भर जाता है। मानवका आदिकालसे ही कुछ ऐसा अभ्यास है, जिससे वह यथार्थ जीवनके संकल्पोंसे ऊपर उठ कल्पना-लोकोमे विचरण कर स्वर्णिम अतीतकी सजीव प्रतिमा गढ़ता है। पूर्वजोंका ज्वलन्त आदर्श नस-नसमेंउष्ण रक्त प्रवाहित कर देता है। उज्ज्वल अतीतका प्रखर प्रकाश मानवके वर्तमान अन्धकारको विच्छिन्न कर उसे आलोकित करता है, और प्रस्तुत करता है उसे दानवतासे उठा मानवतामे । भूतकालसे पृथक् रहकर मनुष्य अपने वर्तमानसे अभिज्ञ नहीं हो सकता है क्योकि वर्तमानके साथ भूतकाल इस प्रकार लिपटा हुआ है, जिससे प्रत्येक वर्तमान मण अतीत बनता जा रहा है। प्रत्येक क्षणका क्रिया-व्यापार अतीतके कोपमै सचित होता जा रहा है तथा कालान्तरमे यही इतिहासका प्रतिपाद्य विषय बननेका उम्मेदवार है। यही कारण है. कि ऐतिहासिक स्थलो एव महापुरुषोंके नामोके साथ हमारे हृदयका घनिष्ठ सम्बन्ध है और इसी कारण हम इतिहास-प्रेमी बनते हैं। मानवशान-कोपका प्रत्येक कण इस बातका साक्षी है कि इतिहासका कलेवर. साहित्यसे ही निर्मित होता है। प्रत्येक देश, प्रत्येक राष्ट्र और प्रत्येक नाति. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक गीतिकाव्य अपनी आदर्शमयी यशस्वी गौरव गाथाओंके मौलिक उपादानोंको लेकर ऐतिहासिक काव्योंका सृजन करती हैं। क्योकि इतिहास ही राष्ट्र और व्यक्तिके जीवनमं चैतन्य, स्फूत्ति, स्वाभिमान, आशा और गौरवकी भावना उत्पन्नकर मानवको गतिशील जीवनकी ओर अग्रसर करता है । जबतक हमे अपनी प्रातन सस्कृति और आचार-व्यवहारोकी अभिज्ञता नही रहती, हम वास्तविक उन्नति करनेका अभ्यास नहीं कर पाते । महाभारतमें कृष्ण द्वैपायनने इसी कारण धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और पुरावृत्त कथाओंका मिश्रित रूप इतिहासको कहा है । इतिहासमे अतीतके समी चलचित्र चित्रित किये जाते हैं, जिससे आगामी परम्परा जागरण प्राप्त करती है । कवि या साहित्यकारोने मानवताको अक्षुण्ण रखनेके लिए सरस, रागात्मक, मर्मस्पर्शी और कोमल-कमनीय भावनाओ की अभिव्यञ्जनाके साथ ऐतिहासिक व्यक्तियोके चरित्र, सास्कृतिक स्थलोकी गौरवगाथा, धर्म और संस्कृति प्रतिष्ठापकों के त्याग बलिदान एव सत्साहित्य निर्माताओंकी जीवनगाथा भी अभिव्यक्त की है । महाभारत के रचयिताने इसी कारण इतिहासको मोहान्धकारनाशक दीपक कहा है धर्मार्थकाममोक्षाणामुपदेशसमन्वितम् । पूर्ववृत्तकथायुक्तमितिहासं प्रचक्षते ॥ इतिहासप्रदीपेन मोहावरणघातिना । लोकगर्भगृहं कृत्स्नं यथावत् संप्रकाशितम् ॥ १२९ nifer अर्थशास्त्र रचयिता चाणक्यने भी इतिहासके विपयका प्रतिपादन करते हुए पुराण, इतिवृत्त, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्रकी अन्वितिका निरूपण करना इतिहासका विषय बताया है । वस्तुतः अतीत-चित्रणमे हमारा चित्त रमता है, सौन्दर्यका साक्षात्कार होता है और पुरातन उदात्त भावनाओंका अवलम्बन पा हम सर्वतोमुखी विकासकी सीढीपर चढ़ते है । 'अह' और 'मम' की भावनामे परिष्कार होता है, जिससे अन्तः विश्वासकी धारा अपनी प्रखरताकै कारण ऊपरी Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन सतहपर लगे विकारोको ही नहीं, अपितु आन्तरिक जगत्मे प्रविष्ट हो प्रमाद और बुराइयोको भी प्रक्षालित कर देती है। कला-सौन्दर्यके मर्मोंने जनोद्वोधनके लिए ऐतिहासिक काव्योकी आवश्यकता इसीलिए प्रतिपादित की है, जिससे जीवनकी पलायन और टैन्यवृत्ति छूट जाय तथा भाववीचियाँ एक लयसे तरगित हो पाठकको रसमम बना सके । पूर्वजोके वल, वैभव और विक्रमसे अनुप्राणित हो मानव जीवन-सग्राममे आन्तरिक और बाह्य द्वन्दोके मध्य लडखडाता हुआ लोकमगलके दीप प्रज्वलित कर सके तथा जीवनके चरम लक्ष्य आनन्दानुभूतिको पा सके। मक्ति-विभोर हो जैन कवियोने अपने धर्माचायौँका जीवनवृत्त भी काव्यामे अकित किया है। इस आम्नायम गुरुका स्थान देवके तुल्य माना गया है, अतः देवतुल्य उनकी भक्ति करना और अपनी श्रद्धा भावनाको उनके चरणोमे उड़ेलना जीवनोत्थानके लिए परम आवश्यक है। हिन्दी भाषाके जैन कवियोंने सहस्रो गीत महापुरुषोके कीर्ति-स्मरणमें रचे है, जिनमे सूक्ष्म और व्यापक धार्मिक भावनाएँ व्यक्त हुई है । सरस और मनोहर राग-रागनियोमे रचे जानेके कारण इन गीतोमे अपूर्व माधुर्य और लालित्य है । ये गीत शृगार-भावनाके स्थानमे हृदयकी सात्त्विक और उदात्त भावनाओको उत्तेजित करते हैं । जैन गुरु और मुनियोंने अपने धर्म-प्रचारके लिए जो त्याग या चमत्कार दिखलाया है, उसका सरण इन गीतोमे किया गया है। गीतोकी ओर लोकरुचि विशेष रहनेके कारण तथा अपनी भावानुभूतिको व्यक्त करनेकी सुविधा अधिक होनेके कारण जैन कवियोने गीतिकाव्यका प्रणयन अधिक किया है। तीर्थयात्रा या अन्य धार्मिक उत्सवोके अवसरपर ऐतिहासिक गीत गाये जाते है, इन गीतामे पुरातन गौरव-गाथाएँ निहित रहती हैं। जिससे साधारण व्यक्किमे धार्मिक भावना उमड़ जाती है और वह अपने धर्म-प्रचारके महत्त्वका मूल्याङ्कन कर लेता है। महापुरुपोका कीर्ति-सरण करनेसे धृति और साहसकी भावना जागृत हो जाती है। दानवीरोंकी Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक गीतिकाव्य १३१ यशोगाथाएँ दान देनेकी प्रेरणा तो देती ही है, पर साथ ही धर्मोत्कर्षक लिए आनन्दपूर्वक समस्त कष्टोको सहन करनेका सदेश भी हृदय पटल पर अकित कर देती है । वैयक्तिक विकासके वीज भी इनमें व्यात है। ऐतिहासिक गीतोमें जैन कवियोने ऐतिहासिक तथ्योंके साथ अनुभूति और कल्पनाका प्रदर्शन भी किया है। महत् अनुभूतिके विना न तो ऐतिहासिक तथ्य ही प्रभावोत्पादक हो सकते है और न कल्पना ही ठहर सकती है। जिन गीतोमे अनुभूतिका अभाव है, वे निष्प्राण है, उनमे मानव हृदयको रमानेवाले तत्त्व नहीं हैं। अनुभूतिहीन कल्पना और तथ्यविवेचन जीवन-तत्त्वोको छोडकर गतिशील होनेके कारण हृदयको अपने साथ नहीं ले जा सकते है, अतः हृदय तत्त्वका अभाव होनेसे वे लोकप्रिय नहीं बन सकते है। जिन गीतोंमे लोकानुरजनकी क्षमता होती है, वे ही जनताके हृदयमें रसानुभूति उत्पन्न कर सकते है तथा मानव इसी प्रकारके गीतोंको अपना कण्ठहार बनाता है। कल्पना और वैचिन्यकी प्रधानता रहने पर भी लोकानुरजनके अभावमें गीत जीवनको अनुप्राणित कर सकेगे, इसमे सन्देह है। अतएव जैन कवियोने ऐतिहासिक गीतोंमे जीवन-तत्त्वोका पूरा समावेश किया है, उन्होंने लोकानुरंजन और अनुभूति को पूरा अवकाश दिया है। यही कारण है कि ऐतिहासिक होनेपर मी जैन-गीत लोकप्रिय हैं। यद्यपि समयके प्रभावसे अब अधिकाश पुराने गीताको जैन जनता भूल रही है, फिर भी इन गीतोका महत्त्व सदा अक्षुण्ण रहेगा। गीतिकाव्यके विकास-क्रमको अवगत करनेके लिए तथा जीवनकी भावधारासे परिचित होनेके लिए जैन ऐतिहासिक गीतिकाव्योका विशेष महत्व है। भाषाके पारखियोंके लिए तो ऐतिहासिक जैन गीतोका अत्यधिक महत्व है ही, पर कलापारखियोके लिए भी जीवन-तत्त्वांका अभाव नहीं है। बाह्य सौन्दर्यानुभूतिके साथ अन्तःसौन्दर्यका इतना सुस्पष्ट वर्णन क्म ही सलोंमें मिलेगा । अन्तः साधनके स्पर्म ज्ञान, दर्शन और चारित्रको महत्त्वा दी Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ हिन्दी - जैन-साहित्य- परिशीलन गयी है, किन्तु हृदय - पद्मको विकसित होनेकी पूरी गुजाइश है । यद्यपि इन ऐतिहासिक गीतिकाव्योंमे रागात्मक तत्त्वोंकी अनुभूति अधिक गहरी नही है; जिससे शायद कतिपय समालोचक हृदय-रमण-वृत्तिका अभाव • अनुभव करेंगे; परन्तु दार्शनिक पृष्ठभूमिपर भक्ति भावनाका पुट इतना अधिक है जिससे चराचर जगत्के साथ मानवका सौहार्द स्थापित हो जाता है | अहिसाकी सूक्ष्म और सरस व्याख्याऍ रहनेके कारण मानव सहानुभूति-सूत्र में आवद्ध हो, विश्वबन्धुत्वकी ओर अग्रसर होता है और जीवनमे प्रेम, करुणा एव दयाकी यथार्थताको अवगत करता है । मानवकी मानवके साथ ही नहीं, अन्य समस्त प्राणि-जगत् के साथ जो सौहार्दसम्बन्ध है, उसकी अभिव्यंजना इन काव्योमे मुख्य रूपसे हुई है । जगत् और जीवनके नाना रूपोंकी मार्मिक अनुभूति कई गीतोंमे विद्यमान है । जैन ऐतिहासिक गीतोका प्रधान वर्ण्य विषय जैन साधुओ और गुरुभोकी कीर्त्तिगाथा, राजा-महाराजाओं और सम्राटोंको प्रभावित कर धार्मिक अधिकार प्राप्त करनेकी चर्चा, जैनधर्मके व्यापक प्रभाव एव धार्मिक भावनाओको उभाडनेके तत्त्व है । अनेक सूरि और आचायोंने मुसलिम बादशाहोको प्रभावित कर अपने धर्मकी धाक जमाई थी तथा सनदे प्राप्त कर जिनालय निर्माण करनेकी स्वीकृति प्राप्त की थी। जिनप्रभ सूरिकी प्रशसा करते हुए एक गीतमें बताया गया है कि अश्वपति कुतुबु - द्दीनके वित्तको प्रसन्न कर इन्होंने अनेक प्रकारसे सम्मान प्राप्त किया था । सवत् १३८५ पौष सुदी ८ शनिवारको इन्होने दिल्लीमे अश्वपति मुहम्मदशाहसे भेट की थी । सुल्तानने इन्हे उच्चासन दिया । इनकी भाषण -क्ति विलक्षण थी, अतः इन्होने अपने व्याख्यान- द्वारा सुल्तान का मन मोह लिया | सुल्तानने भी ग्राम, हाथी, घोडे, धन तथा यथेच्छ वस्तुएँ देकर सूरीश्वरका सम्मान करना चाहा, पर इन्होंने स्वीकार नहीं किया । इनके इस त्यागको देखकर सुल्तानको इनके प्रति भारी भक्ति हो गई, जिससे उन्होंने इनका जुलूस निकाला, रहने के लिए 'वसति' Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक गीतिकाव्य निर्माण करायी । गीतमें अनेक राष्ट्रिय और अहिंसक भावनाओके साथ उक्त ऐतिहासिक तथ्य व्यञ्जित किया है-' उदय के खरतरगच्छ गयणि, अभिनउ सहस करो । सिरी जिणप्रभुसूरि गणहरो, जंगम कल्पतरो ॥ X X X हरखितु देइ राय गय तुरय, धण कणय देस गामा । भणइ अनेषि जे चाह हो, ते तुह दिउ इमा ॥ लेड हु किंपि जिणप्रभसूरि, मुणिवरो अतिनिरीहो । श्रीमुख सलहिउ पातसाहि, विधिहपरि सुणि सीहो ॥ X X X 'असपति' 'कुतुबदीनु' मनरंजेड, दीठेलि निणप्रभ सूरी ए । एकन्तिहि मन सासउ पूछई, राममणोरह पूरी ए ॥ गाम भूरिय पटोला गजवल, ठठ देह सूरिताणू ए । जिणप्रभसूरि गुरुकम्पनई छह, तिहु अणि अमलिय माणू ए ॥ ढोल दमामा अरु नीसाणा, गहिरा बाजद्द तूरा ए । इनपरि जिनप्रभसूरि गुरु आवद्द, संघ मणोरह पूरा ए ॥ एक दूसरे 'गीतमे बताया गया है कि जिनदत्त सूरिने बादशाह सिकन्दरशाहको, जो बहलोल लोदीके उत्तराधिकारी थे, अपना चमत्कार दिखलाकर ५०० वन्दियोको मुक्त कराया था । इस गीत में अनेक उपमा और उत्प्रेक्षाओंका आश्रय लेकर अन्य ऐतिहासिक तथ्यके साथ जीवन की सरस अनुभूतियोकी भी अभिव्यंजना सुन्दर हुई है । १. ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह पू० १३-१४ । २. ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह पृ० ५३-५४ | Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन सरसति मति दिड अम्ह अति धणी, सरस सुकोमल वाणि। श्रीमजिनहंस सुरि गुरु गाइसिउँ, मन लीणउ गुण नाणि ॥ नति यधावइ गीत गावइ, पुण्यकलस धरह सिरे । सिंगारसारा सब नारी करइ, उच्छव घर घरे॥ श्री सिकंदर चित्त मानिपट, किरामत काई कही। पाँच सह वन्दी बाखरसी, छोढव्या इण गुरु सही ॥ कुछ गीताम बताया गया है कि मुगल सम्राट् अकवरके मनम जिनचन्द्र सूरिके दर्शनकी बड़ी उत्कण्ठा थी, अनः उन्होने सूरीश्वरको गुजरातसे बडे आग्रह और सम्मानसे बुलाया। सूरीश्वरने आकर उन्हें उपदेश दिया और मम्राट्ने उनकी बड़ी आवभगत की। जब वादगाह सलेमशाह 'दरमबिया' दीवान पर कुपित हो गये थे तो इन्हीं सूरीश्वरने गुजरातसे आकर बाद गाइके क्रोधको भान्त किया और धर्मकी महिमा बढ़ाई । यह सूरीश्वर मुलतान भी गये थे, और वहॉके खानमलिक-द्वारा इनका सम्मान किये जानका भी उल्लेख है। ___ इन गीतोंमें युग-चेतनाके स्पष्ट दर्शन होते हैं। उस युगके मानवकी विराट् व्यथा, हिमाके चार और उतार-चढ़ाव, साम्प्रदायिक संकीर्णता, ग्रामीणांक हृदयकी ऑकी एवं देशको यथार्थ स्थितिका विश्लेपण इन गीनोंका प्राण है। साम्प्रदायिक गीताम भी रचयिताऑने मानव-समानके हितोंकी पूरी विवेचना की है। ऐमा शायद ही कोई गीत होगा, निसम चेतना और स्फूर्ति न विद्यमान हो। अपभ्रंशसे प्रभावित पुरानी रानस्थानी भाषा होने के कारण आनके पाठक इन गीतोंमे शायट रम न सके, परन्तु भारतीय संस्कृति और सभ्यताका परिचय पाने तया युगविधायक १. ऐतिहासिक न काव्य-संग्रह पृ०५०, ८१,८२, ९६ । - Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक गीतिकाव्य L सामाजिक घटनाओसे अवगत होनेके लिए इन गीतोका अत्यधिक महत्त्व है । इसी कारण इनको केवल जैनोंकी सम्पत्ति न मानकर हिन्दी - साहित्यकी अमूल्य निधि मानना चाहिये । इन गीतोमे मुसलिम शासनके अन्याय और शोपणका विवरण भी उपस्थित किया गया है, परन्तु यह विवरण ऐतिहासिक तथ्य नही, प्रत्युत काव्यका तत्त्व है । कतिपय गीतोमें' ग्राम-बधुऍ पथिकोसे अनुरोध कर पूछती है कि आप जिस रास्तेसे आ रहे हैं, क्या आपको उस मार्ग में आचार्यश्री मिले ? इन सूरिजी की वाणीमे अमृत है, अनेक चमत्कारोके ज्ञाता और ये अपरिमित शक्तिके धारी है। इनके तेजका वर्णन कोई नही कर सकता है । ये परम अहिंसा धर्मके पुजारी है, शुद्ध आचार-विचारका पालन करते हैं, समस्त प्राणियो के साथ इनकी मित्रता है। जो एक बार इनका दर्शन कर लेता है, इनके मिष्ट वचनोको सुन लेता है, उसकी इनके प्रति अपार श्रद्धा हो जाती है । कचन और कामिनी, जिन्होने सारे जगतको अपने वश कर रखा है, इनके लिए तृणवत् है । हैं पथिक ! यदि तुम इनके आगमनका यथार्थं समाचार कह सको, तो तुम्हारी हमारे ऊपर बड़ी कृपा हो। हमारा मन - मयूर उनके आगमन के समाचारको सुन कर ही हर्षित हो जायगा | हमारे हृदयकी वीणाके तारोपर सुरीले स्वरोका आरोहणअवरोहण स्वतः होने लगेगा । इस प्रकार अपनी भावनाको व्यक्त करती हुई ग्राम बधुएँ उन सूरीश्वरका ऐतिहासिक परिचय भी देती हैं, जिससे उनके आगमन की सच्ची जानकारी प्राप्त कर सकें। इस ऐतिहासिक परिचयमै सन्, सवत् और तिथिका उल्लेख तो है ही, साथ ही उन सूरीश्वरके गण, गच्छ, गोत्र, गुरु और प्रभावका भी ऐतिहासिक तथ्य निरूपित है । गुरु दर्शन हो जानेपर अपूर्व आनन्दानुभूति होती है। जैन कवियोंने ऐतिहासिक गीतो में सरसताको पर्याप्त स्थान देनेके लिए ऐसे अनेक गीतोंकी रचना की है, जिनमे अपूर्व आत्म-परितोष व्यक्त किया गया है । निम्न Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन गोताम इतिहासको शुष्क धाराको कितना शीतल और सरस बनानेका प्रयास किया है आन मेरे मनकी आश फली। श्री जिनसिंह सूरी मुख देखत, आरति दूर टली ॥१॥ श्री जिनचन्द्र सूरि सई सत्यह, चतुर्विध संघ मिली। गाही हुकम आचारज पदवी, दीधी अधिक भली ॥२॥ कोडिवरिम मंत्री श्री करमचन्द्र, उत्सव करत रली ॥ 'समयसुन्दर' गुरुके पदपंकन, लीनो जैम अली ॥३॥ निम्न गीतमें जिनसागर सरिक जन्मका निरूपण करते हुए बताया गया है कि बीकानेर नगरमै बोथरा गोत्रीय शाह वच्चा निवास करते थे, इनकी भायांका नाम मृगादे था। जब यह सूरीश्वर गर्मम आये तो माताको 'रक्तचोल रत्नावलीका स्वप्न', आया, उसीके अनुसार इनका नाम 'चोला' रखा गया। कालान्तरमे यह श्रीनिनसिंह सूरिजीसे दीक्षा लेकर साधु बन गये और इनका नाम जिनसागर मरि पडा । उसके चमकार और महत्त्वको प्रकट करने वाले अनेक गीत है। सुख भरि सूती सुन्दरी, देखि सुपन मध राति । रगत चोल रत्नावली. पिठ ने कहह ए बात ॥ सुणी वचन निज नारि ना, मेघ घटा निम मोर । हरख भणइ सुत ताहरइ, थासइ चतुर चकोर ॥ आस फली भाइरी मन मोरी, कुखइ कुमर निधान रे। मनवांछित दोहला सवि पूरइ, पामइ अधिकट मान रे॥ संवत 'सोलवावन्ना' वरपइ 'काती सुदी' रविवार रे। चउदसिने दिनि असिनि नक्षत्रह जनम थयो सुखकार रे॥ १. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० २४१-'सुण रे पन्थियाँ गीत, पृ० २४५, पृ० २४६ 'नीही पन्यी' गीत। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक गीतिकाव्य नित नित कुमर बाधह बहुलक्खणि सुरतरु नउ जिमि कंदरे। नमणी अनोपम निलवट सोहइ, बदन पूनम नउ चंद रे॥ सहुभ सजन भगतावी भगतइ, मेलि बहु परिवार रे । 'चोलउ' नाम दियउ मन रंगइ, सुपन तणइ अनुसारि रे ॥ सहिम समाण मिलि मात पासह सरह 'बच्छराज कुल दीव रे। 'सामल' नाम धरि हुलरावइ, सुखि बोलइ चिरजीव रे ॥ गुरुओंके चातुर्मासोका वर्णन, सघका वर्णन तथा उनके धर्मोपदेश और धर्म प्रभावनाका वर्णन इन ऐतिहासिक गीतोमें सुन्दर हुआ है। अधिकाश-गीतोका एक विशाल संग्रह 'ऐतिहासिक जैन काव्यसग्रह' के नामसे श्री अगरचद नाहटा और श्री मॅवरलाल नाहटाके सम्णदकत्वमे प्रकाशित हो चुका है। इस सग्रहके सभी गीत राग-रागनियोसे युक्त हैं। कर्मगीतोंमें ६ राग और ३६ रागनियोका समावेश किया गया है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाध्याय आध्यात्मिक रूपक काव्य जैन कवि अपनी रचनाओंमें आत्मभाव सनाईके साथ अभिव्यक्त किया है। इनके काव्य के अन्तर्वृत्ति-मृतक विदेशणने जीवनका विभिन्न वृत्तियोंका परिज्ञान महदमें किया जा सकता है । इनके काव्यमें शुद्धात्मा और सारी अपर्क प्रसंगको उपस्थितकर आध्यात्मिक दोषके साथ fferer at न् वनाये रखनेका प्रयास निहित है | चैन कवियोंने आध्यात्मिक अनुभूतिकी मचाईको अन्योक्ति और समामोतिमें चड़ी मार्मिकता साथ व्यक्त किया है। इन कवियोंकी आध्यात्मिक मानाने हृदयको पर लाकर भावका सार समन्वय उपस्थित क्रिया हैं। जीवन मुन्न-दु:ख, हर्ष-विपाट, आकर्षण - विकर्षणको दार्शनिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने में मानव भावनाओंका गहन विलेपण किया गया है। प्रस्तुत द्वारा अन्तुका विधान साधारण छोटी-छोटी आख्यायिकाओंमें किया गया है । कत्रियोंने इतिवृत्त भी कहीं कहीं आध्यात्मिक हीं अग्नाये हैं; परन्तु इनमें विचारों, भावनाओं और प्रवृत्तियाँके मंस्टिट चित्रका मुद्रा पूर्ण संग विद्यमान है। जैन आध्यात्मिक रूपक कायोंमें विवाह कल्पना, अगाध दाईनिकता या सूक्ष्म भावनाओंका विद्वेषण है। इन काव्यां तु व्याख्यानों मैं क्षमा, क्रोध, उनकाह एवं महानुभूति आदि नैसर्गिक त्रोंकी योजना कर जीवन के प्रकाश और अन्धकार rai aorat मौलिक रूपये की है। इन कन्यकारोंकी कव्यनानं कमी स्वर्णकमलने कलित-सुधा सरोवर के कूलर कल्यानि सन्दित पाटों विकरण किया है, कभी अल्कापुरीके रत्ननटिन प्रासादको सारहीनताका संस करते हुए क्रोध Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक कान्य मान-माया-लोभादि मनोविकारोके परिमार्जनका प्रयास किया है एव कमी कनकमेखलामडित विविधवर्णमय घनपटलोकी क्षणमगुरताका दिग्दर्शन कराते हुए संसार-आसक्त मानवको वैराग्यकी ओर ले जानेका सुन्दर प्रयत्ल किया है। आध्यात्मिक स्पक काव्योका उद्देश्य ज्ञान और क्रिया-द्वारा दुःखकी निवृत्ति दिखलाकर लोककल्याणकी प्रतिष्ठा करना है। लोकमंगलागासे जैन कवियोका हृदय परिपूर्ण और प्रफुल्ल था | अतः सच्चिदानन्द स्वरुप आत्माका आभास करा देना ही इन्हे अभीष्ट है और इसीमें इन्होने सञ्चा लोककल्याण भी समझा है। मनोविकारोके आधीन रहनेसे मानव-जीवनमें 'शिव'की उपलब्धिमे बाधाएँ आती है, जीवनव्यापी आदरों और धमाकी अनुभूति भी नहीं हो पाती है तथा सात्विक, राजस और तामस प्रवृत्तियोंमेसे राजस और तामस प्रवृत्तियोका परिष्कार भी नहीं हो पाता है; जिससे जीवनकी सात्त्विक, उदात्त भावनाएँ आच्छादित ही पड़ी रहती है । भौतिकवादकी निस्सारता और आध्यात्मिकवादकी श्रेयताका मार्मिक विवेचन-"मात्मनः प्रतिकूलानि परेपां न समाचरेत्" अहिंसा वाक्यको मूलमें रखकर किया है। आत्माकी प्रेयता तथा इसका शोधन भी अहिंसाकी भावनापर ही अवलम्बित है। इसी कारण रूपक काव्यनिर्माताओने आत्मतत्वकी उपलब्धिके लिए निवृत्ति मार्गको विशेषता या महत्त्व प्रदान किया है । यद्यपि प्रवृत्ति-मार्ग आर्पक है, पर पूर्ण दुःखकी निवृत्ति नहीं करा सकता है तथा इस मार्गमें पास होनेवाली भोगसामग्रियाँ क्षणभगुर होनेसे अन्तमे वेदनाप्रद होती है । अतः जैन कलाकारोने जैन दर्शनके सूक्ष्म तत्त्वोके विश्लेपणकै साथ शुद्धात्माकी उपलब्धिका विधान बताया है। इस विधानमै आत्माकी विभिन्न अवस्थाओ और उसके विभिन्न परिणामोका बड़े ही स्पष्ट और मार्मिक ढगसे विवेचन हुआ है। आध्यात्मिकताकै विकृत रूपके प्रति विद्रोहकर आत्माकी विशाल अतुलित शक्तिका उद्घाटन भव्य और आकर्षक रूपमें विद्यमान है। इस विवेचनमें Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन उदात्त भावनाके चित्र बडे ही संयत, गम्भीर और आदर्श उतरे हैं। दार्शनिक भाव-भूमिपर आत्मा और बड-बन्धनके विश्लेषणको जिस प्रकार सजाया-सँवारा है, वह महान् है । मानव हृदयकी दुर्बलताओं और शक्तियाँको इतना टटोला और परखा है, जिससे रूपोंमें तात्विक अभिव्यंजनाने नीरसता नहीं आने दी है। आत्मिक विधान स्वस्थ और सन्तुलित स्पर्म मानस सगोधनके लिए प्रेरणा तो देता ही है, साथ ही जीवनको कर्तव्य-मार्ग-रचनात्मक मार्गकी ओर गतिशील करता है। ___ आध्यात्मिक स्पक जैन कान्य-निर्माताओम महाकवि बनारसीदास और मैया भगवतीदासका नाम विशेष गौरवके साथ लिया जाता है। कवि बनारसीदासने नाटक समयसार, वरयै, सोलह तिथि, तेरह काठिया, ज्ञानपच्चीसी, अध्यात्मबत्तीसी, मोनपैड़ी, शिवपच्चीसी, भवसिन्धु चतुर्दशी, जानवावनी आदि रचनाएँ लिखी है। चेतन कर्मचरित्र, अक्षरबत्तीसी, मिथ्यावविध्वंसन चतुर्दशी, मधुविन्दुक चौपई, सिद्ध चतुर्दशी, अनादिबत्तीसिका, उपशमपच्चीसिका, परमात्मछत्तीसी, नाटकपच्चीसी, पञ्चेन्द्रियसंवाद, मनबत्तीसी, स्वमवत्तीसी एवं स्वावतीसी आदि रचनाएँ भैया भगवतीदासने लिखी हैं । इनम कुछका परिचय निम्न है यह एक उत्कृष्ट आव्यात्मिक रचना है। आत्मान्वेषर्कोको सरस कवितामें आत्म-तत्त्वकी उपलब्धि करनेकी सुन्दर अभिव्यनना इसमें निहित - है। कुशल कलाकारने चित्रकारके समान आत्मानु " भूतिम नाना कल्पनाओंका रंग लगाकर अद्भुत चित्र खींचनेका प्रयास किया है। यद्यपि कविने अपने इस ग्रन्थकी रचना आचार्य कुन्दकुन्दके समयसारके आधारपर की है, परन्तु रागवत्त्व, बुद्धितत्त्व और कल्पनातत्त्वका मिश्रण कर इसे मौलिकता प्रदान करनेमे तनिक भी कमी नहीं की है। प्रत्येक पद्यमे प्रवाह और माधुर्य वर्नमान है। सरस और कोमल शब्दोंका चयन करनेमें कविने अद्भुत सफलता पायी है। अनूठी उक्तियाँ और नवीन उद्भावनाएँ तो पाठकका मन बरवन ही नाटक प्रसार Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यास्मिक रूपक काव्य १४१ अपनी ओर खीच लेती हैं। जीवनके कोमल पक्षको सम्यक् अभिव्यजना होनेसे कविता हृदय और मस्तिक दोनोंको समान रूपसे छूती है । इसमें जीवन सम्बन्धी उन विशेप विचारो और भावनाओका सकलन किया गया है, जो यथार्थ जीवनको प्रगति देते हैं । ____ अन्तर्जगत् और बाह्य-जगत्का यथार्थ दिग्दर्शन कराते हुए आत्माकी शुद्धताका निस्पण अद्भुत ढगसे किया है। इसमे ३१० दोहासोरठा, २४३ सवैया-इकतीसा, ८६ चौपाई, ६० सवैया-तेईसा, २० छापय, १८ कवित्त, ७ अडिल्ल और ४ कुण्डलिया है। सब ७२६ पद्य हैं । इसमे कविने आत्मतत्त्वका निरूपण नाटकके पात्रोका रूपक देकर किया है। इसमे सात तत्त्व अभिनय करनेवाले है। यही कारण है कि इसका नाम नाटक समयसार रखा गया है। कविने मगलाचरणके उपरान्त सम्यग्दृष्टिकी प्रगसा, अज्ञानीकी विभिन्न अवस्थाएँ, नानीकी अवस्याएँ, ज्ञानीका हृदय, ससार और शरीरका स्वरूप-दिग्दर्शन, आत्मजागृति, आत्माकी अनेकता, मनकी विचित्र दौड़ एवं सप्त व्यसनोंका सच्चा स्वस्प प्रतिपादित करनेके साथ, जीव, अनीव, आसव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोन इन साती तत्वोका काव्य स्पमे नित्पण किया है। आत्माकी अनुपम आमाका कविने कितना सुन्दर और स्वाभाविक चित्रण किया है । कवि कहता है जो अपनी दुति आप विराजत, है परधान पदारथ नामी। चेतन अंक सदा निकलंक, महासुख सागरको विसरामी ॥ जीव अनाव जिते जगमें, तिनको गुननायक भन्तरजामी। सो शिवरूप व शिवथानक, ताहि विलोकनमे शिवगामी । अनानी व्यक्ति भ्रमके कारण अपने स्वस्पको विस्मृत कर समारम जन्म-मरणके कष्ट उठा रहा है। कवि कहता है कि कायाकी चिनगालामें कर्मका पलग विछाया गया है, उसपर मायाकी सेज सजावर मिय्या Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन कल्पनाका चादर डाल रखा है । इस शय्यापर अचेतनकी नीदमें चेतन सोता है । मोहकी मरोड़ नेत्रोका बन्द करना-झपकी लेना है। कर्मके उदयका बल ही श्वासका घोर शब्द है और विषय सुखकी दौर ही स्वप्न है। इस प्रकार तीनो कालोमे अजानकी निद्रामे मन यह आत्मा श्रमजालम ही दौड़ती है, अपने स्वरूपको कभी नहीं पाती। अज्ञानी जीवकी यह निद्रा ही ससार-परिभ्रमणका कारण है। मिथ्यात्व-तत्त्वोकी अश्रद्धा होनेसे ही इस जीवको इस प्रकारकी निद्रा अभिभूत करती है। आत्मा अपने शुद्ध, निर्मल और शक्तिशाली स्वरूपको विस्मृत कर ही इस व्यापक असत्यको सत्य रूपमे समझती है। अतः कवि यथार्थताका विश्लेषण करता हुआ कहता है काया चिनसारीमें करम परजंक भारी, मायाकी सवारी सेन चादर कलपना। शैन करे चेतन अचेतनता नीद लिए, मोहकी मरोर यह लोचनको उपना ॥ उदै वल जोर यहै श्वासको शबद घोर, विष सुखकारी जाकी दौर यह सपना । ऐसी मूढ़ दशाम मगन रहे तिहुकाल, धावे श्रम-जालमें न पावे रूप अपना ॥ कविने रूपक द्वारा अज्ञानी जीवकी उक्त स्थितिका मार्मिक चित्रण किया है । वस्तुतः आत्मा सुख-शान्तिका अक्षय भण्डार है, इसमे ज्ञान, सुख, वीर्य आदि गुण पूर्ण रूपेण विद्यमान है, अतएव प्रत्येक व्यक्तिको .इसी शुद्धात्माकी उपलब्धि करनेके लिए प्रयत्नशील होना चाहिये । जानका प्रकाश होते ही हृदय परिवर्तित हो जाता है। परिरकृत हृदयमे नानाप्रकारकी विचार-तरंग उठने लगती है। एकाएक सारी स्थिति बदल जाती है। जिन पर-पदाथामे निजबुद्धि उत्पन्न हो गयी थी, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य १४३ वे पदार्थ आत्मासे भिन्न प्रतीत होने लगते है । शरीर एव बाह्य भौतिक 'पदार्थोंकी आत्मासे पृथक् अनुभूति होने लगती है । कवि इसी परिवर्तनकी अवस्थाका चित्रण करता हुआ कहता है-- आत्म-ज्ञानकै अभावमे मानवका हृदय माया-मोह और बेचैनीसे व्यथित रहता है, जिससे प्राणिहिंसा, असत्य आदि दुष्प्रवृत्तियाँ शाध्वत सत्यको प्राप्त करनेमे अत्यन्त बाधक होती है । कुत्सित रूपोमे राग या द्वेष दोनों ही प्रकारकी वृत्तियाँ दुःख परम्पराको उत्पन्न करती हैं। राग-द्वेषके नाना सकल्प मोहके विकारको उद्बुद्ध करते हैं । क्रोध, मान, माया और लोभ ये अन्तरात्माक भयंकर -दोप है । इनका पूर्णरूपसे त्याग करनेपर ही ज्ञानभावकी उत्पत्ति होती है । जिस प्रकार सूर्यके उदय होनेसे घना अन्धकार दूर हो जाता है, जलकी वर्षा होनेपर दावाग्नि शान्त हो जाती है एव वसन्तागमन जानकर कोयल कूकने लगती है उसी प्रकार ज्ञान भावके उदित होते ही मोह, 'पाप, भ्रम, अज्ञान, दुष्प्रवृत्तियॉ क्षणभरमे पलायन कर जाती हैं। हिरदै हमारे महामोहकी बिकलताई, ताते हम करुना न कीनी जीवघातकी । आप पाप कीने औरनिको उपदेश दीने, दुती अनुमोदना हमारे याही बातकी ॥ मन, वच, काया में मगन है कमायो कर्म, धाये भ्रमजाल में कहाए हम पातकी । ज्ञानके उदयतें हमारी दशा ऐसी भई, जैसे भानु भासत अवस्था होत प्रातकी ॥ आत्मामे अशुद्धि परद्रव्यकै सयोगसे आतो है । यद्यपि मूल द्रव्य अन्य प्रकार रूप परिणमन नही करता है, फिर भी पर द्रव्यके निमित्तसे अवस्था सलिन हो जाती है । जब सम्यवत्वके साथ ज्ञानम भी सच्चाई उत्पन्न होती तो ज्ञानरूप आत्मा परद्रव्योसे अपनेको भिन्न समझकर शुद्धात्मावस्थाको Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन 1 प्राप्त होती है । कवि कहता है कि कमल रातदिन पकमें रहता है तथा पकज कहा जाता है, फिर भी कीचड़से वह सदा अलग रहता है । मन्त्रवादी सर्पको अपना गात पकड़ाता है, परन्तु मन्त्रशक्तिसे विषके रहते हुए भी सर्पका डक निर्वित्र रहता है । पानीमें पड़ा रहनेसे नहीं लगती है ; उसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति ससारकी करते हुए भी अपनेको भिन्न एव निर्मल समझता है । जैसे स्वर्णमे काई समस्त क्रियाओको १४४ जैसे निशिवासर कमल रहे पंक ही में, पंकज कहावे पैन वाके ढिग पंक्र है । जैसे मन्त्रवादी विषधरसों गहावै गात, iraat aafa art बिना विप ढंक है । जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे रूखे अंग, पानीमें कनक जैसे काईसे अटंक है । तैसे ज्ञानवान नानाभाँति करतूत ठाने, किरिया तैं भिन्न माने मोते निष्कलंक है ॥ $ I ज्ञानके उत्पन्न होनेपर ही आत्मराज्यकी उत्पत्ति होती है, विकार और वासनाऍ ज्ञानके उद्बुद्ध होते ही क्षीण हो जाती हैं। यह ज्ञान बाह्य' पदार्थम नही रहता है, किन्तु आत्माका गुण है । आत्मबोध पाते ही ज्ञानकी अवस्था जागृत हो जाती है । आत्मज्ञानी भेद-ज्ञानकी ओरसे 1 आत्मा और कर्म इन दोनोकी धाराओंको अलग-अलग करता है । आत्माका अनुभव कर श्रेष्ठ आत्मधर्मको ग्रहण करता है और कमोंके भ्रमको नष्ट कर देता है। इस प्रकार रत्नत्रय मागंकी ओर अग्रसर होता है, जिससे पूर्ण ज्ञानका प्रकाश सहजमे ही उत्पन्न हो जाता है । ज्ञानी 1 विश्वनाथ बन जाता है । पूर्ण समाधिमे मग्न होकर शुद्धात्माको प्राप्त करता है, जिससे शीघ्र ही ससारके आवागमनसे रहित होकर कृतकृत्य हो विश्वनाथके पदपर आसीन हो जाता है । कवि कहता है L Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य भेदज्ञान आरा स दुकारा करे ज्ञानी जीव, आतम करम धारा भिन्न भिन्न चरचै । अनुभौ अभ्यास लहे परम धरम गहे, करम भरम का खजाना खोलि खरचै ॥ यों ही मोक्ष मग धावै केवल निकट आवे, पूरण समाधि जहाँ परमको परचै । भयो निरदोर याहि करनो न कछु और, ऐसे विश्वनाथ ताहि वनारसी भरचै ॥ १४५ जड कमोंके ससर्गसे आत्माकी विभिन्न प्रकारकी लीलाएँ हो रही हैं । निश्चय रूपसे वास्तविक दृष्टिकोणसे आत्मा एक होनेपर भी व्यवहारमे अनेक रूप है तथा अनेक होनेपर भी एक रूप है । ससारसे कम के बन्धन ने आत्माको इतना विकृत और विचित्र कर दिया है, जिससे इसकी यथार्थ अवस्थाका चित्रण नहीं किया जा सकता है । यह आत्मा कर्त्ता भी है और अकर्त्ता भी । कर्मफलका भोक्ता भी है और अभोक्ता भी व्यवहारसे पैदा होता है और मरता है, किन्तु निश्चयसे न पैदा होता है और न मरता है । व्यवहार रूपमे बोलता है, विचारता है, नाना प्रकार के सिंह-शूकर-श्वान-शृगाल-काक-कीट आदि रूपोको धारण करता है । वस्तुतः यह आत्मा अचेतन कर्मोंके ससर्गसे नट बन गयी है, इसी कारण अनेक aurat धारणकर नानाप्रकारकी क्रियाओको किया करती है । समयआत्मा के विभिन्न नटरूपो तथा उसके वास्तविक स्वरूपका विश्लेषण होनेसे ही इस ग्रन्थका नाम समय-सार नाटक रखा है । कवि आत्माकी इसी नट-वाजीका निरूपण करता हुआ कहता है एकमे अनेक है अनेक ही में एक है सो, एक न अनेक कछु कह्यो न परत है । करता करता है भोगता अभोगता है, उपने न उपजत मरे न मरत है ॥ १० Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन बोलत विचारत न बोले न विचारे कछु, भेख को न भाजन पै भेख को धरत है। ऐसो प्रभु चेतन अचेतनको संगतिसों, उलट-पलट नटवानी सी करत है । जिस प्रकार नदीकी एक ही धारामें नाना स्त्रोतोका नल आकर मिलता है तथा जिस स्थानपर पापाणशिलाएँ रहती हैं, वहाँ धारा मुड़कर जाती है ; जहाँ ककड़ रहते हैं, यहॉ झाग देती हुई आगे बढ़ती है ; जहाँ हवाका जोर पड़ता है, वहाँ चचल तरंग उठती है और जहाँकी भूमि नीची होती है, वहाँ मॅबरें पड़ती है। इसी प्रकार आत्मामें पुद्गलअचेतनके अनन्त रनोंके कारण अनेक प्रकारके विभव उत्पन्न होते है। आत्माकी ये लीलाएँ नाटकके पात्रोकी लीलाओमे कम नहीं होती। संसाररुपी रंगस्थलीपर आत्मा नट बनकर नाना तरहकी लीलाएँ किया करती है । नायक आत्मा है और प्रतिनायक पुगल-जड़ पदार्थ । कविने आत्माकी इस अनेकरूपताका कितना स्वाभाविक चित्रण किया है जसे महीमण्डलम नदीका प्रवाह एक, ताहीने अनेक भाँति नीरी दरनि है। पाथरके नोर तहाँ धारकी मरोर होत, कांकरको खानि वहाँ मागको अरनि है। पानी अकोर वहाँ चंचल तरंग उठे, भूमिकी निचानि वहाँ मौरकी परनि है। तेसो एक आत्मा अनंत रस पुद्गल, दोहके संयोगविभावकी भरनि है ॥ नाटक समयसारकी मापा सरस, मधुर और प्रसादगुणपूर्ण है। शब्द चयन, वाक्य-विन्यास और पदावलियोंके संगठनम सतर्कता और सार्थकताका ध्यान सर्वत्र रखा गया है। इसमें मलयानिलका स्पर्श Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य ११७ विद्यमान है, जो हृदयकलिका विकसित करने में पूर्ण समर्थ है। अतएव भाव और भाषा दोनो ही दृष्टियोसे यह रचना उत्कृष्ट कही जा सकती है। यह एक सरस रचना है। इसमे कवि बनारसीदासने भौतिक जीवनको पशु-जीवन बतलाते हुए मानव बननेका मार्ग बतलाया है । मानव जीवनतेहादिया का उच्च आदर्श प्रतिपादित होनेके कारण यह वर्ग " विशेषकी वस्तु न होकर सर्व साधारणकी सम्पत्ति है। इसमे साहित्यके उपयोगवादी दृष्टिकोणके अनुसार जीवनमे 'अशिव'का परिष्कार कर 'शिव'को प्राप्त करनेका सकेत किया गया है | क्षणमगुर शरीरके मोह और ममताको छोड़ आत्माकी अमरताको प्राप्त करनेका प्रयत्न ही साध्य हो सकता है। समस्त पार्थिव तृतियो के साधन रहते हुए भी मन एक अभावका अनुभव करता है; सारी सुख-सुविधाओके रहने पर भी मनकी तृप्ति नहीं होती है, यह अभाव राजनैतिक या सामाजिक नहीं; प्रत्युत आव्यात्मिक होता है। इस ग्रन्थमे कविने जीवनमे इसी अभावकी पूर्णताकी आवश्यकता बतलायी है। आध्यात्मिक संवेदनशील सरस सोतसे हमारी समस्त आन्तरिक पीडाएँ दूर हो जाती है। यह सरस रचना पाठकको साधारण मानव-जीवनके धरातलसे ऊपर उठाकर जीवनका वास्तविक आनन्द देती है। कवि जीवन-परिष्कारके लिए विधानका प्रतिपादन करता हुआ कहता है कि जिस प्रकार लुटेरे, बदमाश, चोर आदि देशमे उपद्रव मचाते है, उसी प्रकार तेरह काठिया आत्मामे उपद्रव-विकृति उत्पन्न करते हैं। जुआ, आलस, शोक, भय, कुकथा, कौतुक, कोप, कृपणबुद्धि, अज्ञानता, भ्रम, निद्रा, मद और मोह ये तेरह आत्मामें विकार उत्पन्न करते हैं। विभाव परिणतिके कारण शुद्ध, बुद्ध और निरंजन आत्म-तत्त्वमें परपदार्थोके संयोगसे विकृति उत्पन्न हो जाती है। जब तक आत्मामे विभावपरिणति पर-पदार्थ रूप प्रवृत्ति, करनेकी क्षमता रहती है तब तक उक्त Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० कि और धनका मत् भावना है। स्वार्थ हिन्दी-जन-साहित्य परिशीलन तेरह धूर्त आत्माकै निजी धन अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यको चुराते रहते हैं। __ पहला धूतं जुआ है। मानव जीवनमे सबसे बड़ी अशान्ति इसीके कारण उत्पन्न होनी है । यह प्रमुता, शुभकृत्य, मुयश, धन और धर्मका ह्रास करता है। जुआरी व्यक्ति सबसे प्रथम अपने वैभव और साखसे हाथ धोता है । मान-मर्यादा और ऐश्वर्य समी जुआके कारण नष्ट हो जाते है । आत्मोत्थानके कार्याने प्रवृत्ति नहीं होती है, निन्द्य और खोटे कामोम शक्ति और धनका व्यय होता है । जगत्म जुआरीका अपयश भी फैल जाता है। हृदयकी सत् भाग्नाएँ समाम हो जाती हैं और आसुरीभावनाओंका प्रतिष्ठान होने लगता है। स्वार्थ और हिंसा प्रवृत्ति जो व्यक्ति और समाज दोनोके लिए अत्यन्त अहितकारक है; जुयाकै कारण ही जन्म-ग्रहण करती है। ___ दूसरा धूर्त है आलस | यह जीवनकै मन्दाकिनी-प्रवाहको पर्वतके उस सूने पथपर ले जाता है, जहाँ लहर उठती है और कगारकी गोटमं जाकर विलीन हो जाती है। जीवनमसे श्रद्धा, विश्वास और कर्तव्य-पगयणता निकल जाती है तथा हृदय-मण्डलम धूल और राख मर जाती है । जीवन शितिज अन्धकाराच्छन्न हो ज्ञान-मार्गको अवरुद्ध करनेमें सहायक वनता है, शान्त-सरोवरकी मधुर चाँदनी अस्ताचलकी ओर प्रस्थान कर देती है तथा भावनाओंका उठना बन्द हो जाता है और झपकी आने लगती है। बाह्य जगत्का हाहाकार अन्तर्नगत्म भी मुखरित होने लगता है। प्रेमका पपीहा अध्यात्मरस न मिलनेसे प्यासा ही रह जाता है। जीवनकी ओर गतिशील होनेकी कामना सुख-स्वप्न हो जाती है और जीवन बेठकी दुपहरियाकै समान प्रमादकै कारण दहकता है। कविका कहना है कि प्रमाद का अभाव होनेपर ही जीवन-शितिन रम्प प्रकाश-रदिमोसे व्यात हो सकता है। तीसरा धूर्त शोक है, यह सन्ताप-वीजको उत्पन्न कर आत्माकी धैर्य Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ आध्यात्मिक रूपक कान्य और धर्म-क्रियाओंको लुस कर देता है । परिश्रम और शक्तिका अभाव हो जानेपर शोक नृपका शासन अधिक दिनों तक चलता है। जीवनमें अगणित विद्युत्-कण नृत्य करने लगते हैं। प्रलयकालीन मेघोंकी मूसल्लाधार वर्षा होने लगती है। जीवन-समुद्रमे यह धूर्त वाड़वाग्नि उत्पन्न करता है, जिससे वह गुरु गर्जन-तर्जन करता हुआ क्षुब्ध हो जाता है तथा नाना प्रकारके भयकर और विषैले जन्तु आत्माकी शक्तिका अपहरण कर लेते है। चौथा ठग है भय । जीवन-पथको विषय और भयकर बनानेमें यह अपनी सारी शक्ति को लगाता है। उल्लास, पूर्ति, तेज और गतिशीलता आदि सभी प्रवृत्तियोम ज्वालामुखी विस्फोटन होने लगता है। जीवननौका डॉड न लगनेसे तथा पतवारके अस्थिर होनेसे अनिश्चित दिशाकी ओर विभिन्न विकारजनित लहरों के साथ थपेड़े खाती हुई प्रवाहित होती जाती है। इस ठगका आतक इतना व्यास रहता है जिससे सामनेका कगार मी धुंधला ही दृष्टिगोचर होता है। जीवनमे अगति और अनिश्चितवा इसीके कारण आती है तथा भयाक्रान्त व्यक्ति जीवनमे सुनहले प्रभातके दर्शन कभी नहीं कर पाते है । जीवनका प्रत्येक कोना इस ठगके कारण अरक्षित रहता है। यह रात्रिमे ही धोखा नहीं देता, चोरी नहीं परता प्रत्युत दिनमें भी निघड़क हो अपने कार्योंका सम्पादन करता है। जीवनको विकासशील त्यितिको डावॉटोल करना इसीका काम है। जीवन-मार्गका पाचवॉ ठग कुकया है। रागात्मक चर्चाएँ आत्माभावनाको आवृतकर अनात्म-भावनाओंको उबुद्ध करती है। जिस प्रकार प्रल्यकालम समुद्रके जल-जन्तु विकल हो उछल-कूद मचाते है, उसी प्रकार कुऋथाओके कहने और सुननेसे मानसिक विकार आत्मिक भावोका मन्थन करते है, जिससे आत्मिक शक्तियों कुटित हो जाती है। आत्मचेतना लुप्त हो जाती है और जीवनमे विकारोका तूफान उठकर जीवनको परम अगान्त बना देवा है। मानव प्रकृत्या कमजोर है, वह कुत्सित Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन चर्चाओं और वार्ताओंके श्रवण, पटन एवं चिन्तनमें सदा आगे रहता है, जिससे यह ठग अपना अवसर पाकर आत्मिक शक्तिको चुपचाप ही अपहृत कर लेता है तथा जीवन अशान्त हो जाता है । यौन प्रवृत्तिको प्रोत्साहन भी इसी ठग द्वारा मिलता है। जीवन-मार्गका छठवाँ पाकिटमार है कौनहल | इसकी माया अपार है, निघर अपूर्व और रमणीय वस्तु दिखलायी पड़ती है, उधर भी यह पहुँच जाता है । कोमट, मुनहली और उनकी आशा-किरणें जीवन के मार्गम मनमोहक और आकर्षक हृभ्य उपस्थितकर एकान्त और निर्जन धानके ग्वेतामें ले जाती हैं; नहीं जीवात्माके रत्रत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको बलपूर्वक लूट लिया जाता है । यद्यपि इस मार्ग में शीतलजल्के सत्रों स्रोत रम वर्षा करते हैं, परन्तु है यह खतरनाक । सातवाँ डाकु कोप है। इस अग्निमें अधिक उष्णता, दाहकता और भन्मसात् करनेकी शक्ति निहित है । जीवनमें कालरात्रिका आगमन इस डाकूकी कृपाका ही फल है । दया और स्नेह, जिनसे जीवनमें सरसता आती है, हृदय कंजॉपर अनुराग मकरन्द बिखरने लगता है एवं नाना भाव रुपी वृक्षोंपर आच्छादित हिमके पिघल जानेसे जीवनकी जड़ी-बूटियाँ जागरणको प्राप्त करती हैं, यह डाकू उन्हें देखते-देखते ही चुरा लेता है । इसी कारण इसे पव्यतोहर कहा गया है। ज्ञान और अमाके साथ इसका भीषण युद्ध भी होता है। दोनोंकी सेनाएं सजती हैं, युद्ध-वाद्य बजते हैं, तथा अपनी-अपनी ओरसे युद्ध कौशलका पूरा-पूरा प्रदर्शन किया जाता है | यह विद्रोही रत्नत्रयको लेनेके लिए नाना उपाय करता है, इसको परास्त करना साधारण गत नहीं है। श्री महावीर हैं, इन्द्रियजयी हैं, संयमी है और जिन्होंने प्रलोभनोंको जीत लिया है, वे ही इसे परान्त करनेकी क्षमता रखते हैं । जीवनमें उच्छृङ्खलता और अव्यवस्था इसकी देन हैं । आठवाँ ठग है कृपणबुद्धि । समस्त वस्तुओंको ले लेनेका टोम करना Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य १५. ही आत्मोत्थानका बाधक है। विश्वकै मनमोहक पदार्थ इस प्राणीको अपनी ओर खींचते हैं। प्रलोभनोपर विजय प्राप्त किये बिना व्यक्तित्वका विकास नहीं हो सकता है । वस्तुतः वासना और सयमके उचित अनुपातसे ही जीवन अभ्युदयकी ओर बढ़ता है। प्रलोभनोंके मनमोहक दृश्य मानव मनको उलझाये बिना नहीं रह सकते । कृपणबुद्धि तो सर्वदा ही छोटे-बड़े सभी प्रकारके प्रोमनोंमे ममत्व करती है, जिससे धर्मका नाश होता है। रत्नत्रय-धर्मका विघातक यह ठग है। आजतक इस ठगने कितने ही व्यक्तियोकी हत्या कराई, कितने ही देवायतनोंको दूषित कराया और कितने ही निरपराधियोको मौतके घाट उतारा । सासारिक सौन्दर्य का मूल्य इसी मापदण्डसे निर्धारित किया गया। एक-एक पैसेके लिए पाप किये, अनाचार किये, झूठ बोलग, चोरी की और न मालम क्याक्या नहीं किया । सब इसी ठगने तो कराया, आत्माकी शक्तिको मुख्य रूपमें इसने विकृत किया। नौवॉ ठग है अशान, जिसने प्रकाशमान भास्करके ऊपर घने अन्धकारका आवरण डाल दिया है। इसके रहनेसे जीवन-पथ बिल्कुल अरक्षित है। यह अकेला नहीं रहता है, इसकी सेना बहुत बड़ी है। यद्यपि यह अपने दलका मुखिया है, परन्तु अन्य ठग भी बडे ही शक्तिशाली हैं । सयमसे यह डरता है, उसके धनुषकी टकार सुनते ही इसके कान बधिर और ऑखे अन्धी बन जाती हैं। धर्मरत्नकी सुरक्षाके लिए इस ठगको भगाना ही पडेगा। इसके साथ सन्धि करनेसे काम नहीं चल सकेगा। दसवॉ ठग भ्रम है, इससे सारी शक्तियोको ही चुरा लिया है । यह अहर्निश वसन्त वैमव और ओस मोतीकी माला लिये भावना वैभवकी सृष्टि करता है । जीवनको ठोस सत्यके धरातलसे पृथक्कर किसी भयकर सागरमे डुबाना चाहता है। शुद्ध, निर्मल और ज्ञानरूप आत्माको शरीर आदि जड़ पदायॉमें समझता है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉપર हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन ग्यारहवाँ ठग है नीद । तन्द्रा मानवको संसारके मधुर स्वप्नोंमे भले ही विचरण कराये, पर ठोस विश्वसे पृयक् कर देती है। जन्म-मरणकी समस्या और संसारकै प्रति विराम भावकी कल्पनामें यह अनेक विघ्न उपस्थित करती है। यह ठग आत्मानुभूति सौन्दर्यकी यथार्थ अभिव्यक्तिको चुरा लेता है। वारहवाँ ठग है अहकार । ससारकी दो प्रवृत्तियाँ जो जीवनको इस भितिजसे उस क्षितिजकी ओर ले जाती है, इसीके कारण उत्पन्न होती है । आत्मामे मार्दवधर्म उत्पन्न न होने देना तथा सहानुभूति और सहृदयता, जो कि नम्रता भावको उत्पन्न करनेमे साधक हैं, नही उत्पन्न होने देना इसकी विशेषता है। तेरहवाँ ठग मोह है। सारा विश्व इसके प्रभावसे दुःखी है । रलत्रयचर्मको ये सभी ठग चुराते है, उसको प्राप्त करनेमे बाधक बनते हैं। यद्यपि इस तेरह काठियाकी रचना साधारण है, काव्य-सौन्दर्य अत्यल्प है। फिर भी भावनाओं और विचारकी दृष्टिसे यह रचना श्रेष्ठ है , इसमे जीवनके सभी पक्षोंकी अनुभूतिके लिए हृदय-कपाटको खुला रखा गया है । मनोविकारोंके परिमार्जनकी ओर प्रत्येक व्यक्तिको सर्वदा ध्यान रखना चाहिये, उसपर विशेष जोर दिया है । भाषापर गुजरातीका प्रभाव है। यह सरस हृदयग्राहक रचना है। कवि बनारसीदासने इसमे ससारकी विडम्बनाओसे पृथक रहनेकी ओर संकेत करते हुए परमात्म-चिन्तन भवसि अथवा तत्त्वान्वेषणकी ओर प्रवृत्त होनेकी बात चतशी कही है। प्रायः देखा जाता है कि उच्चतर अमि व्यक्तिसे वचित मानव-जीवन ऐन्द्रिय उपयोगमे ही डूबा रहता है। भौतिक संघर्षके कारण जीवन-नौका आध्यात्मिकताकी ओर गीतशील नहीं होती है। रागवश मानव स्वभावतः विषम परिस्थितियोसे आहत रहता है और उसे आत्म-सुख-रूपिणी स्थिति नहीं मिल Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य १५३ पाती । शरीर और मन दोनो ही अस्वस्थ रहते हैं तथा कुत्सित लालसाऍ जीवन रसको सुखा देती है । कविने प्रस्तुत रचनामे ससारको समुद्रकी उपमा देकर उसका विश्लेषण मनोहर ढगसे किया है तथा आत्मोद्धार करनेके सरल और अनुभूत उपाय बतलाये गये है । उपमाऍ अत्यन्त चुभती हुई सरल और सरस है । कवि कहता है कि कर्मरूपी महासमुद्रमे कोष मान-माया-लोभ रूप विकारोका जल भरा है और विपयवासनाओंकी नाना तरगे अहर्निश उठती रहती हैं। तृष्णा-रूपी प्रवल वाडवाग्नि इसमें नाना प्रकारसे विकृति उत्पन्न करती रहती है और चारो ओर ममतात्पी गुरुगर्जनाऍ होती रहती है। इस विकराल समुद्रमे भ्रम, मिथ्याज्ञान और कदाचारस्पी भँवर उठती रहती हैं । समुद्रकी भीषणता के कारण मनरुपी जहाज चारों ओर घूमता है, कर्मके उदयरूपी पवनके जोरसे वह कभी गिरता है, कभी डगमगाता है, कभी डूबता है और कभी उतराता है । जैसे समुद्र ऊपरसे सपाट दिखलायी पडता है, पर कहीं गहरा होता है और कही चंचल भँवरोमें डाल देता है, उसी प्रकार ससार भी ऊपर से सरल दिखलायी पड़ता है, किन्तु नाना प्रकारके प्रपचोके कारण गहरा है और मोहरूपी भवरोंमें फॅसानेवाला है । इस ससारमे समुद्रकी बड़वाग्नि के समान माया तथा तृष्णाकी ज्वाला जला करती है, जिससे ससारी जीव अहर्निश झुलसते रहते हैं । ससार अग्निके समान भी है, जैसे अग्नि ताप उत्पन्न करती है, उस प्रकार यह भी त्रिविध ताप - दैहिक, दैविक और भौतिक संतापोको उत्पन्न करता है । अग्नि जिस प्रकार ईंधन डालनेसे उत्तरोत्तर प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार अधिकाधिक परिग्रह बढ़ानेसे सासारिक आकाक्षाएँ बढ़ती चली जाती हैं । यह संसार अन्धकारके तुल्य भी है, क्योकि प्राणीके सम्यग्ज्ञानको लुप्तकर उसे विवेकहीन बना देता है । मिध्यात्वके सवर्द्धन Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहिन्य-परिचालन और पोषणने प्रणीको अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं नया मी चिरन्दन शान्ति मी इसीके कारण विकृत हो जाती है। ___ नत्र चैतन्य आत्मा जागृत हो जाती है, तब मानव बड़ पदाणके मुखको नीरस अनुमत्र करने लगता है। मुमतान्ण पतवारके हाथों आजानेसे मन-समुद्रको पार करनेमें सरलता होती है। आत्म्गुणत्पी यन्त्र दिवाओंका परिज्ञान करता है । मुलच्यानन्पी मलह निवद्वीप मोक्षकी औरसे चलता है। यद्यपि मागमें अनेक कठिनाइयोंका साम्ना करना पड़ता है, पर स्नत्रय पाममें रहने गन्तन्यर पहुँचनेम बिलब नहीं होना है। इसमें प्रस्तुत मंसारकी अभिव्यंन्नाके लिए अप्रन्दन सदा सडोपाङ्ग निरूपण करते हुए उस पर होनेके प्रवन्नोपर प्रकाश बाला है। कथानकके अवलम्बन बिना ही मावनामाकी इतनी सुन्दर अनिन्याना कवि काव्य चम्कारकी भूमिका है। अनि कितने सीधे-साद दंग भावाने प्रकट किया है कर्म समुद्र विनाव लल, विषय कपाय तरंग। बड़वानल तृष्णा प्रबल, ममना धुनि सर्वग। मरम मवर ताने फिर, मन जहाल चहुओर। गिर पिरै बूढे तिर, उदय पवनके दोर ।। जब बेठन मालिक वर्ग, लन् विपाक नजून । द्वार समता श्रृंखला, यक घर की म दिगि पर गुण जन्मों , फेरे शरति मुस्तान । धरै साथ गिव दीप मुख, वाइवान शुमच्यान॥ इनकी मात्रा उरल, परिमार्दिट और मधुर है। उगएँ नर्थक है, कल्पनाकी उड़ान ऊँची नहीं है, कि भी मान्की बने रहना अच्छी है। कन्नि इसमें आध्यात्मिक मावनाओंा अपूर्व मिश्रण किया है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य कवि बनारसीदासने हिंडोलेका स्पक देकर आत्मानुभूतिकी जो इतनी सरस अभिव्यञ्जना की है वह अन्यत्र मिल सकेगी, इसमे सन्देह है | चेतन आत्मा स्वाभाविक सुखके हिडोलेपर आत्मगुणोके साथ क्रीडा करती रहती है। हिंडोलेका झुलना आनन्दप्रद, श्रान्ति और क्ान्तिको दूर करनेवाला एव नानाप्रकारसे मनमे हर्ष और प्रसन्नताको उत्पन्न करता है । यह हिंडोला समतल भूमिपर निर्मित किसी भव्य प्रासाद मे रस्सीके सहारे टाँगा जाता है । हिंडोला झूलते समय सौभाग्यवती नारियाँ चित्तको आह्लादित करनेवाले नानाप्रकार के मनोरम गायन गाती है तथा हर्षातिरेकसे तन-बदनको भूल अलौकिक आनन्दमें मन हो जाती है । हिडोलेके समय वर्षा भी होती है, घन-घटाएँ गर्जन - तर्जन करती हुई नानाप्रकारके भय उत्पन्न करती हैं। कभी-कभी शीतल-मन्द- सुगन्धित वायु प्रवाहित होती है, जिससे हिंडोला भूलनेवालेका मन अपार आनन्दको प्राप्त होता है। वर्षा ॠतुमे हिंडोला झूला जाता है, अतः विद्युत्की चकाचौंध अन्धकारमें एक क्षीण प्रकाशकी रेखा उत्पन्न करती है । कविने इस छोटेसे वर्णनके सहारे जीवन और जीवन - विकासके सारे सिद्धान्तको अभिव्यञ्जित करनेमे अपूर्वं सफलता पायी है । कवि इसी स्पकको स्पष्ट करता हुआ कहता है---हर्षके हिंडोलेपर चेतन राजा सहज रूपमें झूमता हुआ झूलता है। धर्म और कर्मके सयोगसे स्वभाव और विभावरूप रस उत्पन्न होता है । मनके अनुपम महल्में सुरुचिरूपी सुन्दर भूमि है, उसमे ज्ञान और दर्शनके अचल खमे और चारित्रकी मजबूत रस्सी लगी है। यहाँ गुण और पर्यायकी सुगन्धित वायु बहती है और निर्मल विवेकरूपी भ्रमर गुञ्जार करते है । व्यवहार और निश्चय नयकी दंडी लगी है । तुमतिकी पटरी बिछी है और उसमे छह द्रव्यकी छह कीले लगी है । क्रमका उदय और पुरुषार्थ दोनो मिलकर हिडोलेको हिलाते है । सवेग और सवर दोनों सेवक सेवा करते है तथा व्रत ताम्बूल आदि देते है, जिससे आनन्दस्वरूप चेतन अपने आत्मसुखकी समाधिमे निश्चल अध्यात्म हिंडोलना १५५ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ हिन्दी-जैनसाहित्य-परिशीलन होता है । धारणा, समता, क्षमा और करुणा ये चारों सखियाँ चारो ओर उपस्थित हैं तथा सकाम, अकाम निर्जरारूपी दासियों सेवा करती हैं . यहाँ सातों नयरूपा सुहागिनी बालाओके कंठकी मधुरध्वनि सुनाई पड़ती है। गुरुवचनका सुन्दर राग आलापा जा रहा है तथा सिद्धान्तरूपी ध्रुपद और अर्थरूपी तालका सचार हो रहा है। सत्य श्रद्धानरूपी मेघमाला गुरु गर्जन करती हुई क्रोध, तृष्णा, ईर्ष्या आदि लुटेरोको भगा रही है। स्वानुभूतिरूपी विद्युत् जोरसे चमकती है और शीलरूपी शीतलवायु प्रत्येक सहृदयके हृदयको रस निमग्न कर देती है। तप करनेसे कर्म-कालिमा भस्म हो जाती है और अपरिमित आत्मशान्ति प्रकट हो जाती है। कविने उपर्युक भावकी कितनी सुन्दर अभिव्यनना की है सहज हिंडना हरख हिडोलना, झूलत चेतन राव । जह धर्म कर्म संजोग उपजत, रस स्वभाव विभाव । जहँ सुमन रूप अनूप मन्दिर, सरुचि भूमि सुरंग। तहँ ज्ञान दर्शन खंभ अविचल चरन आड अभंग ॥ मरुवा सुगुन पर नाय विचरत, भौंर विमल विवेक। व्यवहार निश्चल नय सुदंडी, सुमति पटली एक ।। उद्यम उदय मिलि देहिं झोटा, शुभ-अशुभ कल्लोल । पटकील जहाँ पट् द्रव्य निर्णय, अभय अंग अडोल। संवेग संघर निकट सेवक, विरत धीरे देत। आनन्द कन्द सुछन्द साहिब, सुख समाधि समेत । धारना समता क्षमा करुणा, चार सखि चहुँ ओर। निर्जरा दोउ चतुरदासी, करहिं खिदमत जोर ॥ जह विनय मिलि सातो सुहागिन, करत धुन झनकार। गुरु वचन राग सिद्धान्त धुरपद, ताल अरथ विचार । श्रद्धहन साँची मेषमाला, वाम गर्जन घोर । उपदेश वर्षा अति मनोहर, भविक चातक शोर । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ आध्यात्मिक रूपक काव्य अनुभूति दामिन दमक दीसै, शील शीत समीर। तप भेद तपत उछेद परगट भाव रंगत चीर ॥ यद्यपि अध्यात्म-हिंडोलनाकी भाषा साधारण है, किन्तु कविने रमणीयतामें पवित्रताको इस प्रकार मिला दिया है जिससे आत्म-ज्योति फूटती हुई दिखलायी पडती है। आत्माकी मधुर स्मृति जाग्रत हो जानेसे मानव आत्माके साथ आनन्दका झूला झूलने लगता है अर्थात् अशुद्ध आत्मा शुद्ध होनेकी ओर अग्रसर होती है। यह भैया भगवतीदासका सुन्दर आध्यात्मिक रूपक-काव्य है। वस्तुतः यह आत्मचेतनाकी वाणी है । कवितामें हृदयकी कोमलता, और कल्पनाकी मनोरमता और आत्मोन्मुखी तीव्र अनुपर भूति है | कृति सुरम्य, विचित्रवोंसे सयुक्त, अलौकिक - आनन्द देनेवाली और मनोज है । आन्तरिक विचारो और अनुभूतियोका सम्मिश्रण इस कृतिमे इतना अद्भुत है, जिससे यह कृति मानव अन्तस्तलको स्पर्श किये बिना नही रह सकती है। विकारोको पात्र कल्पना कर कविने इस चरित्रमे आत्माकी श्रेयता और प्रासिका मार्ग प्रदर्शित किया है। सुबुद्धि और कुबुद्धि ये दोनो चेतनकी भाएं थीं। अतः कविने इन तीनोंका वार्तालाप आरम्भमे कराया है। सुबुद्धि चेतन आत्माकी कर्म या सयुक्त अवस्थाको देखकर कहने लगी-"चेवन ! ७ तुम्हारे साथ यह दुष्टोका संग कहाँसे आ गया ? क्या तुम अपना सर्वस्व खोकर भी सजग होनेमे विलम्ब करोगे। जो व्यक्ति सर्वस्व खोकर भी सावधान नहीं होता है, वह जीवनमे कभी मी उन्नतिशील नहीं हो पाता है । नाना प्रकारके व्यक्कियोके सम्पर्क एव विभिन्न प्रकारकी परिस्थितियोंके बीच गमन करते हुए भी वास्तविकताको हृदयंगम करनेका प्रयल अवश्य होना चाहिये।" चेतन-"ह महाभागे! मै तो इस प्रकार फंस गया हूँ जिससे इस Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन अनन्तोको क मेरा उद्धार कमला लगता है। १५८ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन गहन-पंकसे निकलना मुझे असभव-सा लगता है। मै यह जाननेके लिए उत्सुक हूँ कि मेरा उद्धार किस प्रकार हो सकेगा। मै किस प्रकार उन अनन्तोकी पक्तिमे स्थान प्राप्त कर सकूँगा, जो अपनेको ईश्वर हो जानेका दावा करते हैं।" सुबुद्धि-"नाथ! आप अपना उद्धार स्वय करनेमे समर्थ है जो व्यक्ति अपने स्वरूपको भूल जाता है, उस व्यक्तिको पराधीन करनेमे विलम्ब नहीं होता। जब तक हम अपनी यथार्थ स्थिति नहीं समझते है, तब तक प्रायः हमारे ऊपर शासन किया जाता है। हमारे ऊपर शोषणका क्रम भी तभीतक चलता है, जबतक हम अपने अधिकार और कर्तव्योसे वचित है। भेदविज्ञान ही आपके लिए परम उपयोगी अन्न है, इसीसे आप रणक्षेत्रमें युद्ध करनेके लिए सक्षम हो सकते हैं। जैसे सिंह गधोके साथ रहते-रहते अपनेको भूल जाता है, उसी प्रकार आप भी कुबुद्धिके कुसगसे पथच्युत हो गये है तथा इधर-उधर भ्रमण कर रहे हैं । सावधान होकर अब मैदानमे आ जाइये, विजय निश्चित है।" कुबुद्धि-री दुष्टा! क्या बक रही है। मेरे सामने तेरा इतना बोलनेका साहस, तू नहीं जानती कि मै प्रसिद्ध शूरवीर मोहकी पुत्री हूँ। मुझे इस बातका अभिमान है कि अपने प्रभावसे मैंने अनेक योद्धाओको परास्त कर दिया है। अरी सौत! तू इतनी बढ-बढ कर क्यो बाते कर रही है, क्यो नही यहाँसे चली जाती ?" ___ सुबुद्धि-“वाह ! वाह !! आपने खूब कहा। मैं और यहाँसे चली जाऊँ और तुम अकेली क्रीड़ा करो। न!न !! यह कभी नहीं होनेका । मेरे रहते हुए तेरा अस्तित्व कमी सम्भव नहीं, तू दुराचारिणी है । चल हट यहाँसे ।" सुबुद्धिके इन वाक्य-वाणोने कुबुद्धिक हृदय-कुसुमको छिन्न-भिन्न कर दिया, वह क्रुद्ध हो लाल-पीली होती हुई अपने पिता मोहराजके पास गई। यद्यपि यह मोहराज प्रचण्ड बली थे, पर समय और परिस्थितिका उन्हे Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य १५९ पूर्ण रूपसे अनुभव था, अतएव अपनी प्यारी पुत्रीको समझाते हुए कहने लगा-"वेटी, चिन्ता मत करो, मेरे रहते हुए ससारमे ऐसा कोई नहीं है जो तुम्हारा परित्याग कर सके। मै तुम्हारे पतिकी बुद्धिको ठिकाने पर लाता हूँ। अभी अपने समस्त सरदारोंको बुलाकर चेतनके पास भेजता हूँ | जबतक वह सुबुद्धिको निकालकर तुमको अपने घरमे स्थान नहीं देगा, प्यार नही करेगा तबतक मैं चुप होने का नही। मेरी और मेरे योद्धाओकी शक्ति महान् है।" इस प्रकार कुबुद्धिको समझा-बुझाकर मोहने अपने चतुर दूत 'कामकुमार को बुलाया और उसे आदेश दिया कि तुम चेतन राजासे जाकर कहो कि तुमने अपनी स्त्रीका परित्याग क्यो कर दिया है। या तो हाथ जोडकर क्षमा याचना करो, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। दौत्यकर्ममे निपुण काम-कुमारने सोहका सन्देश जाकर चेतन राजासे कह दिया । वाद-विवादके उपरान्त चेतन राजा भी मोहसे युद्ध करनेको तैयार हो गया। मोहने महापराक्रमशाली क्रोध और लोभ योद्धाओंको चेतनराजको पकड़नेके लिए आमन्त्रित किया । राग और द्वेष दोनो मन्त्रियोने नानातरहसे परामर्शकर चेतनराजको आधीन करनेका उपाय बतलाया। ज्ञानावरणने मन्त्रियोको प्रसन्न करनेके लिए चाटुकारिता करते हुए कहा-"प्रमो! मेरे पास पॉच प्रकारकी सेनाएँ हैं, मैंने एक चेतनकी बात ही क्या, सारे ससारको अपने आधीन कर. लिया है। मै, आप जिस प्रकार कहें, चेतनराजको बन्दी बनाकर आपके सामने प्रस्तुत कर सकता हूँ। मेरी शक्ति अपार है, जहाँ-जहाँ आपको अज्ञान दीख पड़ता है, वह मेरी कृपाका फल है।" इसी समय दर्शनावरणने अपनी डीग हॉकते हुए कहा-"देव ! मै अपने विषयमे अधिक प्रशसा क्या करूँ, मैने तो चेतनकी वह दुरवस्था कर रखी है, जिससे वह कहींका नहीं रहा है। मुझ-जैसे सेनानीके रहते हुए आपको चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं" । अवसर पा इसी समय Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन बैठनीय बोला-"नाथ ! मेरा प्रताप जगविख्यात है। जो वीतरागी कहलाते हैं, जिनके पास संसारका तिल-तुप मात्र भी परिग्रह नहीं है उनको भी मने नहीं छोड़ा है। सुख-दुःख विकीर्ण करना मेरी महिमा नहीं तो और क्या है ? अब मोहनीयकी पारी आई और वह ताल ठोकता हुआ वोला-"अह, विश्वमै मेरा ही तो साम्राज्य है। मेरे रहते हुए चेतनका यह साहस कि कुबुद्धिको घरसे निकाल दे। यह कमी नहीं हो सकता है, में तो प्रधान सेनापति हूँ। यदि मै यह कहूँ कि मोहराज्यका सारा संचालन मेरे ही द्वारा होता है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसी प्रकार क्रमानुसार आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायने अपनी-अपनी विशेताएँ बतलायी 1 मोहराता अपनी अपरिमित शक्तिको देखकर हंसा और बोला-"मुझ जैसे प्रतापीके शासन करते हुए, जिसके पास अष्ट कमाकी प्रवल सेना है, चेतनराज कभी अनीति नहीं कर सकेगा। क्या मेरी पुत्री दुर्बुद्धिको इस प्रकार घरसे निकाल सकेगा । अतः निश्चय हुआ कि अब जल्दी ही चेतनरानापर आक्रमण कर देना चाहिये। समस्त सेना आनन्दभेरी वजाती हुई राग-द्वपको मोचेपर आगे कर रणक्षेत्रको चली। जब वे चेतननगरके समीप पहुंचे तो दूर ही पड़ाव डाल दिया। ____ इधर जब चेतनरानाको मोहक आक्रमणका समाचार मिला तो उसने भी अपने सभी सचिव और सेनापतियोको एकत्रित किया। सर्व प्रथम ज्ञान बोला-"नाथ ! मोहसे डरनेकी कोई बात नहीं, विजय निश्चय ही हमारे हाथ है। हमारी वाणवाको मोहकी सेना कभी भी सहन नहीं कर सकती है।" चेदनराजा प्रसन्न हो वोला-"ज्ञानदेव ! तुम्हारी आन ही हमारी शान है। वीर ! मैं तुम्हारे ऊपर पूर्ण विश्वास करता हूँ, अनेक युद्धोंमे तुम्हारी वीरता देख भी चुका हूँ अतः शीघ्र ही अपने सैन्यदलको तैयार कर यहाँ उपस्थित करो। भयकी कोई बात नहीं है ; तुम्हें याद होगा, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य अनेकवार तुमने मोहरानाकी सेनाको परास्त किया है, जल्द जाओ। इसी प्रकार दर्शन, चारित्र, सुख, वीर्य आदि भी क्रमशः चेतनराजाके समक्ष उपस्थित हुए और अपनी-अपनी विशेषताएँ बतलाकर बैठ गये। चेतनराजाने अपनी समस्त सेनाको आज्ञा दी कि शीघ्र ही तैयार होकर एकत्रित हो जाय; आज भयकर युद्धका सामना करना होगा। ज्ञानदेव अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न हो गया था, फिर भी वह शत्रुके पराक्रमसे सशंक था अतः विनीत होकर कहने लगा-"प्रभो ! अपराध क्षमा हो तो प्रार्थना करूँ।" चेतनराजा-"वीरवर ! तुम्हारे ऊपर तो सारे युद्धका निपटारा निर्भर है। इस समय तुम्हें अप्रसन्न करनेसे मेरा कार्य किस प्रकार चल सकेगा ? अतः निस्सकोच जो कहना चाहो, कहो; डरनेकी कोई आवश्यकता नहीं । युद्धके अवसर पर वीरोंकी बात मानी जाती है। जो राजा रणनीतिविज्ञ वीरोकी वात नहीं सुनता वह पीछे पश्चात्ताप करता है, अतः आप निर्भय होकर अपनी बातें कहें । ज्ञानदेव-"प्रमो, युद्धके लिए आक्रमण करनेके पूर्व दूत भेजकर शत्रुके प्रधान सचिवको या उसके किसी प्रतिनिधिको बुल्वा लीजिये तथा जहाँ तक हो सके सन्धि कर लेना ही ठीक होगा।" __ चेतनराजा-"शानदेव | आज तुम युद्धके अवसरपर कातर क्यों हो रहे हो ? हमारी शक्ति अपार है, विश्वास करो, विजय होगी । घरमे दुश्मनको बुलवाना कहातक उचित है । राजनीति बड़ी विलक्षण होती है, अत: अव सन्धिका अवसर नही है। इस समय युद्ध करना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।" शानदेव-"देव ! आप मोहराजाकी अपार शक्तिसे परिचित होकर भी इस प्रकारकी बाते कर रहे है। मेरा विश्वास है कि जब आपके सामने राग-द्वेष नाना प्रलोभनोंके साथ सुन्दर रमणियोंके समूहोंको लेकर प्रस्तुत Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन होंगे, उस समय आप दृढ़ रह सकेंगे ? आप मोहराजाके भयंकर अलोंसे अपरिचित हैं? चेतन राजा ज्ञानदेव ! वात तो तुम्हारी ठीक है। मोहरानाने भुलावा देकर ही अपनी पुत्री कुबुद्धिके साथ मेरा विवाह कर दिया, जिसके कगीभूत हो मैने कौन-कौन कुकर्म नहीं किये हैं ? परन्तु हमें अपनी अतुलित शक्तिका पूर्ण विश्वास है, विजय-लामी मिलेगी। रमणियोके कटाक्ष-वाण हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगे, परन्तु तुम्ह हमारा साथ देना पड़ेगा | वीर तुमने यदि दृढ़तासे हमारा साथ दिया तो मोहका सैन्यदल हमारा कुछ भी नहीं विगाड़ सकेगा। अतः रणनीतिके अनुसार विवेक-दूतको मोहरानाके पास मेज देना चाहिये, शायद सन्धि हो जाय। यहॉ किसीका बुलाना ठीक नहीं | जब हममें अनन्त बल है, अनन्त सुख है, फिर इतना भय क्यों ?" बहुत विचार-विनिमयके वाद शानदेवके सेनापतित्वमें चेतनरानाकी सेना और कामदेव कुमारके सेनापतित्वम मोहरानाकी सेनाका युद्ध होने लगा। ज्ञानदेव समरनीतिका विशेषज्ञ था, यद्यपि कामदेवकुमार भी राजनीतिका पण्डित था, पर था शरीरसे सुकुमार । कठोर बलबाली शानदेवने सुकुमार कामदेव कुमारको एक ही वाणमें धराशायी कर दिया, यद्यपि कामदेव कुमारने अपना पौरुष दिखलाने में कोई कमी नहीं की, किन्नु ज्ञानदेवके समक्ष उसकी एक भी चाल सफल नहीं हुई । नानदेवने चक्रव्यूह-रचना की और द्वारस्सरक्षणका भार व्रतदेवको प्रदान किया । इस चक्रव्यूहको तोड़नेम मोहराजाकी सारी सेना अक्षम रही और शानदेवने अवसर पा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चारों वीरोंको मूछित कर दिया। मिथ्यात्वमट, जो कि मोहका बलवान सेनानी था, व्रतदेवने गिरा दिया। अविरतिको भी इस प्रकार पटका, जिससे यह वीर रणभूमिसे उठ ही नहीं सका, और सटाके लिए सो गया। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य चेतनगढ़ शत्रुओसे खाली हो रहा था, शत्रुसेना माग रही थी और चेतन राजाने गुणस्थान प्रदेशोका मार्ग ग्रहण कर अपने गढ़के कोने कोनेसे शत्रुके भगानेका कार्य आरम्भ किया । यद्यपि मोहराजाकी सेना अस्तव्यस्त थी, फिर भी कुछ सुभट, जिनमें प्रधान लोभ, छल, कपट, मान, माया आदि थे, छिपे हुए उचित समयकी प्रतीक्षामें थे। चेतन राजा मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व और अविरत स्थानोसे मोहकी सेनाको खदेडता हुआ आगे बढ़ा और देशविरत, प्रमत्त एवं अप्रमत्त देशमे जाकर उसने मोह राजाके बलशाली सेनापति प्रमादका हनन किया। इस वीरके मारे जानेसे मोहकी सेना बलहीन होने लगी। भेद-विज्ञानका अस्त्र लेकर चेतन राजाने यहाँ भयकर युद्ध किया और क्षपकणीहूँद-हूँढकर शत्रुओंको परास्त करने के मार्गका आरोहण कर अपूर्वकरण और अनिवृचिकरण नामक नगरोंमे पहुँच शनावरणके दो वीर, मोहनीयके चार और नामकर्मके तीस वीरोंको धराशायी किया। सूक्ष्म लोमका विध्वंस करनेके लिए अपने राज्यके दसवे नगर सूक्ष्मसाम्परायमें प्रवेश करना पड़ा । यहाँ थोड़ी देर तक सूक्ष्म लोमके साथ युद्ध हुआ। बेचारा जर्जरित लोभ चेतन राजाका सामना नहीं कर सका और ध्यानवाण-द्वारा विद्ध होकर गिर पड़ा। चेतन राजाने अव समाधि अस्त्रको अपनाया, उसने समस्त कपाय शत्रुओको इस एक ही वाण-द्वारा परास्त कर ग्यारहवे और वारहवे नगरोको शत्रुओसे खाली कराया। यद्यपि ग्यारहवा नगर उपशान्त मोह चेतन राजाके भयसे यों ही शत्रुओसे खाली हो गया था, इसलिए उसे इस नगरमें जाना नहीं पड़ा । वारहवें क्षीण मोह नगरमें पहुंचकर मोह राजाको चेतन राजाने खूब पटका और उसका सर्वनाश कर कतिपय अवशेष शत्रुओंको परास्त करनेके लिए तेरहवे नगर सयोगकेवली मे पहुँचा और वहाँ विजयका डंका बनाता हुआ केवलज्ञान- लक्ष्मीको प्राप्तकर निहाल हो गया । इस समय एक ओर विजयी चेतन राजा आनन्दमे मन शन-दर्शन सुख-वीर्यको प्रासकर निष्कटक राज्य करने Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन लगा और दूसरी ओर विजित मोह अपनी सेनाको खोकर चेतनकी आधीनता और महत्ता स्वीकार कर चुका था । चेतन राजाने अपने चौदहवे नगरमें पहुंच थोडे ही समयमें मोक्षनगरी प्राप्त कर ली थी और यहीं स्थायी रूपसे राजधानी नियुक्तकर शासन करने लगा। यह एक सुन्दर काव्य है। कविने दोहा, चौपाई, सोरठा, पद्धरि मरहठा, करिखा और प्लवङ्गम छन्दोंमे इसकी रचना की है । कुल पद्य _ २९६ हैं । यह काव्यके अनेक गुणोंसे समन्वित है। काव्य-सौष्ठव ७५ कल्पना, अरूप भावना, अलंकार, रस, उक्ति-सौन्दर्य और रमणीयता आदिका समवाय इसमें वर्तमान है । भावनाओंके अनुसार मधुर अथवा परुप वोंका प्रयोग इस कृतिमे अपूर्व चमत्कार उत्पन्न कर रहा है । युद्ध का वर्णन कविने कितना सजीव किया हैसूर बलवंत मदमत्त महा मोह के, निकसि सब सैन आगे जु आये । मारि घमासान महा जुद्ध बहु क्रुद्ध करि, एक से एक सातों सवाये । वीर सुविवेकने धनुष ले ध्यानका, मारिक सुभट सातों गिराये। कुमुक नो ज्ञान की सैन सव संग धसी, मोहके सुभट मूर्छा सवाये। रणसिंगे बनहिं कोऊ न भजहिं, करहिं महा दोऊ जुद्ध । इत जीव हंकारहि, निज पर धारहिं, करह गरिन को द॥ युद्ध-वर्णनमें द्वित्व और संयुक्त वर्णोंका प्रयोगकर सजीवता लानेका प्रयास प्रशंस्य है। शब्दचित्रो-द्वारा कविने युद्धक्षेत्रका चित्र उतारने में सफलता प्राप्त की है। वीर रसके सहायक भयानक और वीभत्स रसोंका निरूपण भी यथास्थान विद्यमान है। आरम्भमें सुसंस्कृत शृङ्गारका आभास भी मिलता है, कविने वीर रसकी प्रेरणाके लिए संयमित शृङ्गारका वर्णन किया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, यमक, रूपक और समासोक्ति अलंकारोंकी छटा भी कवितामें विद्यमान है । रूपक-द्वारा व्यजित आत्मिक वाणीका सिहावलोकन करनेपर प्रतीत होता है कि कवि चिर सुखकी Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य लालसासे जगत्के कोलाहलपूर्ण वातावरणसे निकलकर जीवनकी आनन्दमयी निधियाँ एकत्रित करनेमे सलग्न है तथा छल-कपट-राग-द्वेप-मोहमाया-मान-लोम आदि विकारोका परिमार्जनकर आत्मानन्दमे विचरण करना चाहता है और अपने पाठकोको भी आत्मसरितामे अवगाहन, मजन और पान करनेकी प्रेरणा करता है । सक्षेपसे यह अनघ पद्य-बद्ध रूपक है। एकसौ आठ पोंमें कवि भगवतीदासने आत्मज्ञानका सुन्दर उपदेश दिया है । यह रचना बड़ी ही सरस और हृदय-बाह्य है । अत्यल्स कथानक र के सहारे मात्मतत्त्वका पूर्ण परिज्ञान सरस शैलीमे करा " देनेमे इस रचनामे अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई है। कवि कहता है कि चेतन राजाकी दो रानियाँ हैं-एक सुबुद्धि और दूसरी माया। माया बहुत ही सुन्दर और मोहक है। सुबुद्धि बुद्धिमती होनेपर मी सुन्दर नहीं है । चेतन राजा माया रानीपर बहुत आसक्त है, दिनरात भोगविलास में सलग्न रहता है । राज-काज देखनेका उसे विल्कुल अवसर नहीं मिलता है, अतः राज्यकर्मचारी मनमानी करते है। यद्यपि चेवन राजाने अपने शरीर देशकी सुरक्षाके लिए मोहको सेनापति, क्रोधको कोतवाल, लोमको मत्रो, कर्म उदयको काजी, कामदेवको प्राइवेट सेक्रेटरी और ईर्ष्या-घृणाको प्रबन्धक नियुक्त किया है, फिर भी शरीर-देशका शासन चेतनराजाकी असावधानीके कारण विशृंखल्ति होता जा रहा है । मान और चिन्ताने प्रधानमन्त्री बनने के लिए संघर्ष आरम्भ कर दिया है। इधर लोम और कामदेव अपना पद सुरक्षित रखनेके लिए नाना प्रकारसे देशको त्रस्त कर रहे है । नये नये प्रकारके कर लगाये जाते है, जिससे राज्यकी दुरवस्था हो रही है। शन, दर्शन,सुख, वीर्य जो कि चेतन रानाके विश्वासपात्र अमात्य हैं, उनको कोतवाल, सेनापति, प्राइवेट सेक्रटरी आदिने खदेड़ बाहर कर दिया है। शरीर-देशको देखनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ चेतनराजाका राज्य न होकर सेनापति मोहने अपना Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दन्नन माहिर परिचालन आन स्थगित कर लिया है। नत्र भावार्थ नर्मलता गयागनी ग मोड और मन्त्री जुगार मंत्रालयल देती है। उन चार पत्र दिया है न गात्र न उलट दिन मात्र और यह उनकी प्राचिन गया खुद श्री चंदन गन चिन्द किये ग मात्र ने अन्न सच और नमकनवा नभाया य उपना st-यन दम नरहनेवाले दान मादिकी नाल नई अस्त हो । इन्टिव और रोगी अना नन्छ माण गर्न इन मामलहना ढन्हें शेम नहीं शामिन बह और श्रम बिॉस दुम्ने विजय लिया है, निकर ही तुमको ठग , दुन्हा चटन्य नारर उनका विचार नग, ऑकिन्न हार अग्नी हार र नीना नही है। दिन मया के द्वारा निदि मंगारिक मत रहने उन्हें कवित्र अगलकमी ला देना पड़ताल में नर्म लिया है, कह डिबुल भरि है। यानी तुम्न दिनार लिया है तुम हो, ऋट आये ही दुकानन कंबा देई हैं किन्न समाने शिकार च्युट रहे हो? डन्य नवनादित्य मात्र जगदगद, निर नुन्हाय मशिन इंगम है, तुन्ने विचलित हैं, इनका दुले में दावायनल नहीं है। नव्या तुम रहा होला अब बाउ बन्ना जहद हो। इन नु और कलाप र वन्ने बहननन्या श्री? टन लंका होकर गया मंडीगटॉम उन्द्रकला हो । गुन्हाट देकर मैंदना सुन रही है, नुन्हान्दारे लिए कान है, अननमय है, अाई, न्योर है और है विधायक चाका महागाइदा ! सन रिजनी कार का Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाध्याल्मिक रूपक काव्य १६७ करें, जिससे शीघ्र ही मोल महलपर अधिकार किया जा सके। प्राणनाथ ! राज्य सँभालते समय तुमने मोममहलको प्राप्त करनेकी प्रतिज्ञा भी की थी। मैं आपको विश्वास दिलावी हूँ कि मोक्षमहलमे रहनेवाली मुक्तिरानी इस ठगनी मायासे करोड़ों गुनी सुन्दरी और हाव-भाव प्रवीण है । उसे देखते ही मुग्ध हो जाओगे। एक बार उसका आलिंगन कर लेनेपर तुम अपनी सारी सुधबुध भूल जाओगे। प्रमाद और अहंकार दोनो ही तुमको मुक्तिरमाके साथ विहार करनेमे वाधा दे रहे हैं। इस प्रकार सुबुद्धिने नाना तरहसे चेतनराजाको समझाया। सुबुद्धि की वात मान लेनेपर चेतनराजा अपने विश्वासपात्र अमात्य ज्ञान, दर्शन आदिकी सहायतासे मोक्षमहलपर अधिकार करने चल दिया। काव्यत्वकी दृष्टिसे इस रचनामें सभी गुण वर्तमान हैं। मानवके विकार और उसकी विभिन्न चित्तवृत्तियोका अत्यन्त सूक्ष्म और सुन्दर विवेचन किया गया है। यह रचना रसमय होनेके साथ मंगलप्रद है। 'शिव' और 'सुन्दरका सयोग इसमे इतने अच्छे ढंगसे दिखलाया गया है जिससे यह रचना स्थायी साहित्यमे अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। प्रैलीकी दृष्टि से इस रचनामे संस्कृत तत्सम शब्दोकी प्रधानता, गम्भीरता और अलंकारोका प्रयोग सुन्दर हुआ है। मावात्मक शैलीमें कविने अपने हृदयकी अनुभूतिको सरलस्पसे अभिव्यक्त किया है। दार्शनिकताके साथ काव्यात्मक शैलीमें सम्बद्ध और प्रवाहपूर्ण भावोकी अभिव्यंजना रोचक हुई है । चमत्कारपूर्ण उक्तियाँ हृदयको स्पर्श ही नहीं करती, किन्तु भीतर प्रविष्ट हो जाती है । माधुर्य और प्रसाद गुणके साथ कतिपय पद्योमें ओनगुण भी विद्यमान है । व्रजभापाका निखरा रूप भावोंको हृदयंगम करनेमें अत्यधिक सहायक है। कवि चेतन राजाकी व्यवस्थाका विश्लेपण करता हुआ कहता है काया-सी जु नगरी में चिदानन्द राज करै। माया-सी जु रानी पै मगन बहु भयो है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन मोह-सो है फौलदार क्रोध-सो है कोतवार; लोम-सो धार जहाँ लूटिवैको रह्यो है। उदैको जु काजी माने, मानको अदल जाने । कामसेनाका नवीस आई चाको कहो है। ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि रह्यो। सुधि जव आई तव ज्ञान आय गो है। मुखुद्धि चेतनराजाको समझाती है कौन तुम, कहाँ आए कौन बौराये तुमहिं । काके रस राचे कछु सुधहू धरतु हो । कौन है ये कर्म जिन्हें एकमेक मानि रहे; अजहूँ न लागे हाय मावरि भरत हो ॥ वे दिन चितारो जहाँ यीते हैं अनादि काल; कैसे कैसे संकट सहे हू विसरतु हो । तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हों; तीन लोक नाय है के दीन से फिरतु हो । सुनो जो सयाने नाहु देखो नेक टोटा लाहु कौन विवसाहु नाहि ऐसी लीजियतु है। दस द्यौस विप सुख ताको कहो केतो दुख , परिक नरक मुख कोली सीजियतु है । केतो काल बीत गयो, मनहून छोर लोय; कहूँ तोहि कहा भयो ऐसो रीझियत है। आपु ही विचार देखो, कहिवे को कौन लेखो; आवत परेखो ना कहो कीलियतु है ॥ इसमे पाँचों इन्द्रियोंका सुन्दर सवाद भैया भगवतीदास-द्वारा वर्णित Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक कान्य १६९ है। बताया गया है कि एक सुरम्य उद्यानमें एक दिन एक मुनिराज न वा धमोपदेश दे रहे थे। उनकी धर्मदेशनाका श्रवण करनेके लिए अनेक व्यक्ति एकत्रित थे। सभामे नाना प्रकारकी शकाएँ की जाने लगी । एक व्यक्तिने मुनिराजसे पूछा"प्रभो । पञ्चन्द्रियों के विषय सुखकर है या दुखकर।" मुनिराज-"ये पञ्चेन्द्रियाँ बड़ी दुष्ट हैं, इनका नितना ही पोषण किया जाता है, दुःख देती हैं। ___एक विद्याधर वीचमे ही इन्द्रियोका पक्ष लेकर बोला-"महाराज इन्द्रियाँ दुष्ट नही है। इनकी बात इन्हीके मुखसे सुनिये, ये प्राणियोंको कितना सुख देती हैं।" ___ मुनिराज-"इन्द्रियाँ मेरे सामने प्रस्तुत हैं। मै आश देता हूँ कि जो इनमे प्रधान हो, वह अपनी महत्ता बतलाये।" मुनिराजके इन वचनोको सुनकर सबसे पहले नाक अपनेको बड़ा सिद्ध करती हुई बोली-"मेरे समान महान् ससारमे कौन है ? नाकके लिए राजा-महाराजा, गरीब-अमीर सभी कष्ट सहन करते हैं। नाक रखनेके लिए ही तो बाहुबलीने दीक्षा धारण की, रामने वन-वन भ्रमण किया, सती सीताने अग्निमे प्रवेश किया, द्रौपदी सोमा आदिने अनेक कष्ट सहन किये और कितने ही साधु बनकर दर-दरके भिखारी बने । मेरी महत्ताका पता इतनेसे ही लगाया जा सकता है कि नाककी रक्षाके लिए कोई भी व्यक्ति अपना सर्वस्व छोड़नेको तैयार हो जाता है।" ___ नाककी इस आत्मप्रशसाको सुनकर कान कहता है-"री मूर्खा ! तुझे घमण्ड हो गया है, तेरे दपको मैं चूर कर दूंगा । तू कितनी धिनावनी है, दिनरात तुझमेंसे पानी गिरता रहता है। छींक किसी भी इष्ट काममे बाधक हो जाती है। तू गन्दगीका भाण्डार है। देख मेरी ओर, मैं कितना भाग्यशाली हूँ। अच्छे-अच्छे मधुर शब्द श्रवण कर कविता रचनेकी प्रेरणा मैं ही देता हूँ| धर्मोपदेश सुननेका काम भी Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन-साहित्य- परिशीलन मेरा ही है, यदि मैं उपदेश न सुनूँ तो यह जीव कभी भी मोक्ष प्राप्त करनेका प्रयत्न नहीं कर सकता है। द्वादशाग वाणीका श्रवण मैं ही करता है, मेरी ही प्रेरणाको प्राप्त कर जीव आत्म-कल्याण करनेके लिए तैयार होता है ।" १७० कानकी इन अहम्मन्यतापूर्ण वार्तोको सुनकर आँख बोली - "तुझे झूठी बड़ाई करते हुए लज्जा नहीं आई, झूठ बोलना पाप है । तुम नही जानते कि तुम्हारे द्वारा ही अलील और गन्दी बाते सुनकर राग-द्वेप उत्पन्न होता है । तुम्हारे द्वारा सुनी गई बातें झूठी भी हो सकती हैं ; कितने ही व्यक्ति इन झूठी बातोंके कारण आपसमें कलह करते हैं, लड़ते हैं तथा कितने ही लड़-झगड़कर मृत्युको भी प्राप्त हो जाते हैं। मुझसे बड़े तुम कभी नही हो सकते। मेरे द्वारा देखी गयी बात कभी भी झूठी नहीं हो सकती है। सुन्दर और मनोरंजक हव्योका अवलोकन में ही करती हूँ । मेरे द्वारा ही तुम तीर्थकरोके मनोहर रूपको देख सकते हो, मेरे द्वारा ही साधु-सन्तोके दर्शन हो सकते हैं । यदि मैं न रहूँ तो } ससारका काम चलना बन्द हो जाय । शरीरमें सबसे प्रधानता मेरी ही है । सिद्धान्त-ग्रन्थों का अध्ययन मुझसे देखे बिना कोई कैसे कर सकेगा ? रास्ता चलना, देना-लेना, पुण्य कार्य करना मेरी ही कृपाका फल है । मेरे रहनेपर ही भाई-बन्धु इज्जत करते है । एक ही क्षणमे में क्यासे क्या बना देती हूँ ।" आँखकी इस आत्मश्लाघाको सुनकर रसना वोली - "अरी ! तुझे काजलसे रंगकर भी लज्जा नहीं आती। तेरी ही कृपाका यह फल है कि सुन्दरी रमणियाँ अपने अद्भुत सलोने रुप द्वारा साधु-मुनियोंको भ्रष्ट कर देती हैं । तुझसे अधिक तो मेरा ही प्रभाव है, अतः मैं तुझसे बड़ी हूँ । क्या तू नही जानती कि मैं ही पट्रस व्यंजनोका स्वाद लेती हूँ | मेरे विना शरीर पुष्ट नहीं रहेगा, परिणाम यह होगा कि न कान सुन सकेगा, न आँख देख सकेगी और न नाक सूंघ सकेगी। स्वाद लेनेके अतिरिक्त Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य १७१ मन्त्रसिद्धि और साहित्यके रसका आखादन मैं ही करती हूँ। मुझमे इतनी प्रवल शक्ति है कि मै शत्रुको मित्र बना सकती हूँ। बड़े-बडे मुनिराज और धर्मोपदेशक मेरे द्वारा ही धर्मका वर्णन करते हैं। स्वर्ग, नरक और मोक्षकी चर्चा मेरे द्वारा ही होती है।" बीचमें वात काटकर स्पर्गनेन्द्रिय बोल उठी-"अरी निहा! व्यर्थ अभिमान मत कर । तेरी ही कृपासे आपसमें युद्ध होता है, तू ही राजामहाराजो-द्वारा खून-खराबी कराती है । अभक्ष्य-भक्षण करना भी तेरा ही काम है । मैं अपने सम्बन्धमे अधिक क्या कहूँ-नाक, कान, ऑख सभी तो मेरे पॉवो पड़ते है, तुम सभी इन्द्रियाँ मेरी दासी हो। मेरे सामने तुमने व्यर्थमे झूठी बडाई कर पाप अर्जन किया है। मेरी महत्ता यही है कि मेरे बिना जप, तप, दान, पुण्य आदि कोई भी कार्य नहीं हो सकता है। हाथोसे दान दिया जाता है, पॉवोसे तीर्थयात्रा की जाती है और मेरे ही द्वारा ससारके विपयोका अनुभव किया जाता है। जानती हो मेरे विना क्रिया नहीं और क्रियाकै बिना सुख नही, अतः मै सब इन्द्रियोंमें प्रधान हूँ।" ___इसी वीचमे मन बोल उठा-"अरी मूर्खा, तुम क्या अनाप-सनाप चकती हो । तुम्हारे समान धूर्त कोई भी नहीं है । रमणियोके प्रेमालिंगन से तुम्ही जीवको बॉधती हो, तपत्यासे विचलित करना तुम्हारा ही काम है । अतः तुमसे बडा और प्रधान मै हूँ। मेरे शुद्ध रहने पर ही सब कुछ शुद्ध रह सकता है। मैं ही उया, ममता आदिको करता हूँ, जितने भी विकार है, मुझमें ही उत्पन्न होते है। इन्द्रियोका सचालन मेरे ही द्वारा होता है । अतः मै सबका राजा हूँ और इन्द्रियों मेरी दासी हैं । मेरी प्रेरणाके बिना एक भी इन्द्रिय अपना कार्य नहीं कर सकती है। जीवके समस्त कार्योंका सचालन मेरे ही हाथमे है।" इसी बीच मुनिराज हंसते हुए कहने लगे-"अरे मूर्ख मन, तू क्यो गर्व करता है। जीवके पापोंकी अनुमोदना तुम्हारे ही द्वारा होती है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૦૨ हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन इन्द्रियॉ स्थिर भी रहती हैं, किन्तु तुम सदा बन्दरके समान चंचल रहते हो । कर्मबन्धनका कारण रे मन, तू ही है। विषयोंकी ओर दौड़ना तेरा सहज स्वभाव है ।" मुनिराजकी इन बातोंको सुनकर नमस्कार करता हुआ मन कहने लगा. "प्रभो ! मै अपना दोप समझ गया । आप कृपाकर मुझे यह बतलाइये कि परमात्मा कौन है और सुख किस प्रकार उपलब्ध होता है ।" मुनिराज - " राग-द्वेपके दूर हो जानेपर यह आत्मा ही परमात्मा बन जाती है। परमात्मा दो प्रकारके हैं-सकल और निकल । परमात्मा के ये भेद राग-द्वेपके अभावकी तारतम्यता के कारण है । यद्यपि किसी भी परमात्मामे राग-द्वेप बिल्कुल नही रहता, परन्तु जर्जरित सस्कार और वासनाऍ इस जीवके साथ लगी रह जाती हैं, जिससे निकल परमात्मा शरीर के बन्धनको छोड़नेके उपरान्त ही यह जीव बन पाता है । " इस पञ्चेन्द्रिय सवादमे इन्द्रियोंके उत्तर- प्रत्युत्तर बड़े ही सरस और स्वाभाविक हैं । कविने प्रत्येक इन्द्रियका उत्तर इतने प्रभावक ढगसे दिखाया है, जिससे पाठक प्रभावित हुए बिना नही रह सकता । सर्व प्रथम अपने पक्षको स्थापित करती हुई नाक कहती है नाक कहै प्रभु मैं बढी, और न बडो कहाय । नाक रहै पत लोकमें, नाक गए पत जाय ॥ प्रथम वदन पर देखिए, नाक नवल आकार । सुन्दर महा सुहावनी, मोहित लोक अपार ॥ सुख विलसै संसारका, सो सब मुझ परसाद । नाना वृक्ष सुगन्धि को, नाक करै आस्वाद ॥ नाक पक्षको सुनकर कानका उत्तर कान कहै री नाक सुन, तू कहा करै गुमान । जो चाकर भागे चलै, तो नहिं भूप समान ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ आध्यात्मिक रूपक काव्य नाक सुरनि पानी झरै, वहे श्लेषमा अपार । गूधनि करि पूरित रहै, लाजै नहीं गवार । तेरी छींक सुनै जिते, कर न उत्तम काज | सूदै तुह दुर्गन्धमें, तऊ न आवै कान ॥ वृपभ ऊ नारी निरख, और जीव जग मॉहि । जित तित तोको छेदिये, तोऊ लजानो नाहि ॥ X कानन कुण्डल शलकता, मणि मुक्ताफल सार। जगमग जगमग है रहै, देखै सब संसार । सातों सुरको गाइबो, अद्भुत सुखमय स्वाद । इन कानन कर परखिये, मीठे मीठे नाद ॥ कानन सरभर को करै, कान बड़े सरदार । छहों द्रव्य के गुण सुनै, जानै सवद विचार ॥ यह एक सरस आध्यात्मिक रूपक काव्य है। इसका सुजन कवि भगवतीदासने मानवात्माकी उस चिरन्तन पुकारको लेकर किया है, जो मधुबिन्दुक चौपाई मानव-मनमें अनादि कालसे व्याप्त जड़ीभूत अन्ध " तमिला-पुब्जका विदारण कर चिर-अमर आनन्दभासके अन्वेषणकी आकाक्षासे व्याप्त है। कविने रूपकात्मक कथानकमे अपने अन्त प्राणोका स्पन्दन भर कर शाश्वत वास्तविकताका अक्षम स्वरूप कलात्मक रूपसे प्रस्फुटित किया है। इसके मममें निहित चिरन्तन सत्य सदा सूर्यकी तरह प्रोज्ज्वल रहेगा, युग या समय-विशेषका प्रकोप श्रावणके मेघोंके समान इसके उज्ज्वल स्वरूपको क्षणभरके लिए भले ही अन्धकारमय बना दे, परन्तु इसका दिव्य सन्देश सदा ही मानवताका पाठ पढ़ाता रहेगा । कविने अतीन्द्रिय आनन्दका निरूपण करते हुए नाना मनोद्वेग एवं मायामय हत्यपटोंका विवेचन बड़े ही हृदय-आय ढंगसे किया है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन प्रलोभन इस मानवको मानवतासे किस प्रकार दूर कर देते हैं तथा जीवनक्षितिज इन प्रलोभनोंसे कितना धूमिल हो जाता है, आदिका सूक्ष्म विश्लेपण इस लघुकाय काव्यमें विद्यमान है । कञ्चन और कामिनीका प्रलोभन ही प्रधान है, इसीके अधीन होकर मानव नाना प्रताडनाओ, वेदनाओं और उद्वेनोका सन्दोह अपने में समेटे अखण्ड ऐश्वर्य-सम्भोगके अप्रतिहत आत्मोल्लास मे रत रहता है । परन्तु इस अपरिमित सुख - भाण्डार में भी आकाक्षाओं की अतृप्ति रहनेसे वेदनाजन्य अनुभूति वर्त्तमान रहती है । कविने अपनी भावुकता और कलात्मकताका आश्रय लेकर इस रूपकमे उपयुक्त तथ्यकी सुन्दर विवेचना की है। कविने मधुबिन्दुकका रूपक देते हुए बताया है कि एक दिन एक मुनिराज पूछे गये प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिए कथा कहने लगे--" एक पुरुष वनमे जाते हुए रास्ता भूलकर इधर-उधर भटकने लगा । जिस अरण्यमे वह पहुँच गया था, वह अरण्य अत्यन्त भयकर था । उसमे सिंह और मदोन्मत्त गजोंकी गर्जनाएँ सुनाई पड़ रही थी । वह भयाक्रान्त होकर इधर-उधर छिपनेका प्रयास करने लगा, इतनेमे एक पागल हाथी उसे पकड़ने के लिए दौड़ा। हाथीको अपनी ओर आते हुए देखकर वह व्यक्ति भागा । वह जितनी तेजीसे भागता जाता था, हाथी भी उतनी ही तेजीसे उसका पीछा कर रहा था। जब उसने इस प्रकार जान बचते न देखी तो वह एक वृक्षकी शाखासे लटक गया, इस वृक्षकी शाखाके नीचे एक बड़ा अन्धकूप था तथा उसके ऊपर एक मधुमक्खीका छत्ता लगा हुआ था। हाथी भी दौड़ता हुआ उसके पास आया, पर शाखासे लटक जानेके कारण, वह उस पेड़ के तनेको सूँड़से पकड़कर हिलाने लगा । वृक्षके हिलने से मधुछत्तेसे एक-एक बून्द मधु गिरने लगा और वह पुरुष उस मधुका आस्वादन कर अपनेको सुखी समझने लगा | नीचेकै अन्धकूपमे चारो किनारोपर वार अजगर मुॅह फैलाये हुए बैठे थे तथा जिस शाखाको वह पकड़े था, उसे काले और सफेद रङ्गके Page #167 --------------------------------------------------------------------------  Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन घटकी जटा लटकि जो रही । सो आयुर्दा जिनवर कही || तिह जर कारत भूसा दोय । दिन नह रैन लखहु तुम सोय ॥ माँखी घूँटत ताहि शरीर । सो बहु रोगादिक की पीर ॥ अनगर पस्यो कूपके बीच | सो निगोद सवतैं गति बीच ॥ याकी कछु मरजादा नाहिं । काल अनादि रहे इह माहिं ॥ ara मिन कही इहि ठौर चहुँगति महित भिन न और ॥ चहुँदिश चारहु महाभुजंग । सो गति चार कही सरवंग ॥ मधुकी बून्द विषै सुख जान । निहँ सुख काज रह्यौ हितमान | ज्योंनर त्या विषयाश्रित जीव । इह विधि संकट सहै सदीव ॥ विद्याधर तहँ सुगुरु समान । दे उपदेश सुनावत ज्ञान ॥ १७६ कविने इस रूपक द्वारा विषय- सुख और सारहीनताका सुन्दर विश्लेषण किया है। तथा मिथ्यात्व, अविरति आदिको त्यागकर सम्यक् श्रद्धालु और सम्यक ज्ञानी बनने के लिए ज़ोर दिया है। स्वप्नवत्चीसी, मिथ्यात्वचतुर्दशी आदि और भी कई रचनाएँ आध्यात्मिक रूपक काव्यके अन्तर्गत आती है । जैन रुपक काव्यकी परम्परा बहुत दिनो तक चलती रही । हिन्दी साहित्यमें जायसीके पद्मावतके पश्चात् रूपक साहित्यकी धारा सुखी-सी मालूम पड़ती है। यद्यपि नाव्यक्षेत्रमें भारतेन्दुका पाखण्ड - विडम्बन, प्रसादका कामना नाटक और कवि पन्तका ज्योत्स्ना रूपककै सुन्दर उदाहरण हैं, तो भी इस अंगके विकासकी अभी आवश्यकता है । काव्य साहित्यमे प्रसादकी 'कामायनी' स्पक काव्य है । भारतेन्दुने कलियुगके प्रभाषसे जीवनमे सतोगुणका अभाव एवं रजोगुण तमोगुणका प्राधान्य है, इसका चित्रण इस रूपकमे किया है । नाटककारने बताया है कि शान्ति और करुणा दो सखियाँ है । शान्ति अपनी प्यारी माँ श्रद्धाके वियोगमे दुःखी है । करुणा अपनी सखी शान्तिको सान्त्वना देती हुई तीथा, Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यात्मिक रूपक काव्य १७७ आश्रमो, मठों, देवाल्यो एव मुनियोके आवासोमें श्रद्धाको ढूँढ़नेको कहती है । शान्ति सर्वत्र श्रद्धाको ढूँढती है, पर उसे सर्वत्र पाखण्ड ही दिखलायी पड़ता है । धार्मिक श्रेष्ठताका भाव केवल शब्दोमे ही है, क्रियामक जीवनमे प्रत्येक धर्मावलम्बी धर्मके उदात्तस्वरूपको भूलकर इन्द्रियसुख-लिप्साम ही धर्म समझता है। यह नाटक शानसूर्योदय नाटककी छाया सा प्रतीत होता है। कवि प्रसादका कामना नाटक सास्कृतिक रूपक है । कामना मानवमनालोककी रानी है, वह विलासके प्रति आकृष्ट होती है, पर उसके साथ उसका विवाह नहीं होता और अन्तमे सन्तोषके साथ उसका परिणय हो जाता है । विलास कामनाको छोड़ लालसाके साथ परिणय करता हैदोनों एक दूसरेके आकर्षणपर मुग्ध हैं। विलास अपना प्रभुत्व स्थापित करनेके लिए स्वर्ण और मदिराका प्रचार करता है, पश्चात् शनैः-शनैः सभ्य शासनकी दुहाई देकर सभी लोगोपर नियन्त्रण करना आरम्भ कर देता है । जव मानवता त्राहि-त्राहि करने लगती है, तो कामनाको अपनी भूल अवगत हो जाती है और वह सन्तोपको वरण करती है। सब मिलकर विलास और लालसाको उनकी समस्त स्वर्णराशिके साथ समुद्रमे विसर्जित कर देते है । वह रूपक सागोपाड़ है। जैन कान्यके रूपक भी साङ्गोपाङ्ग हैं। यद्यपि कथामे मानवीय रोचकवा कुछ क्षीण है, सैद्धान्तिक आधार कुछ अधिक स्पष्ट होनेके कारण मानव मनको रमानेमें कुछ असमर्थ से है; पर मानव मनको थकाते या वोझिल नहीं बनाते हैं । कवित्वका उल्लास प्रत्येक काव्यमे विद्यमान है। पात्रोका चरित्र-विलास, उनका मासल व्यक्तित्व और आकर्षक वार्तालाप इन, काव्योम प्रायः नहीं है, फिर भी विचारोंका सुन्दर सकलन हुआ है। सूक्ष्म शरीरधारी पात्रोंका अतीन्द्रिय कर्मलोक स्वभावतः मनोरक्षक होता है । इन काव्योमें सिद्धान्त और कविता जीवनकी आधार भूमिपर सहन समन्वित है। सुनहली कल्पनाएँ वायवी वातावरणमें कविताकी रग १२ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन विरंगी क्यारियोंमे सिद्धान्तोंकी कुसुमवाटिका आरोपित करती है। यह वाटिका केवल इन्द्रियोको ही तृप्ति नहीं देती, प्रत्युत अतीन्द्रिय जगत्को भी शान्ति प्रदान करती है । जीवनके रागात्मक सम्बन्धोसे पृथक् हो मानव आध्यात्मिक लोकमें विचरण करने लगता है। जैन कवियोने स्मकके अमूर्त सिद्धान्तोमे और मूर्त कथावस्तुमे समानान्तर चलनेवाली एक साम्य भावना अकित की है। साग्य प्रायः इतना स्पष्ट और कथाका आवरण इतना झीना है कि सिद्धान्त स्वय बोलते हुए सुनाई पड़ते हैं। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमाध्याय प्रकीर्णक काव्य जीवनके सूक्ष्म व्यापक सत्योंका उद्घाटन करना, मानवके प्रकृत रागद्वषोंका परिमार्जन करना एव मानवकी स्वभावगत इच्छाओ, आकाक्षाओं और प्रवृत्ति-निवृत्तियोंका सामञ्जस्य करना ही जैन प्रकीर्णक काव्योका वर्ण्य विषय है। इन कार्योंमे मानवको जड़तासे चैतन्यकी ओर, शरीरसे आत्माकी ओर, रूपसे भावकी ओर बढना ही व्येय बतलाया गया है। जीवनकी विभूति त्याग और सयम है, यह त्याग भावुकताका प्रसाद न होकर ज्ञानका परिणाम होता है। जबतक जीवनमे राग-द्वेषकी स्थिति बनी रहती है तबतक त्याग और सयमकी प्रवृत्ति आ नही सकती। राग और द्वेष ही विभिन्न आश्रय और अवलम्बन पाकर अगणित भावनाओके रूपमें परिवर्तित हो जाते है। जीवनके व्यवहार-क्षेत्रमें व्यक्तिकी विशिष्टता, समानता एव हीनताके अनुसार उक्त दोनो भावोंमें मौलिक परिवर्तन होता है। साधु और गुणवान्के प्रति राग सम्मान हो जाता है. यही समानके प्रति प्रेम एव हीनके प्रति करुणा बन जाता है । मानव राग भावके कारण ही अपनी अभीष्ट इच्छाओकी पूर्ति न होनेपर क्रोध करता है, अपनेको उच्च और वड़ा समझ कर दूसरोका तिरस्कार करता है, दूसरोंकी धन-सम्पत्ति एव ऐश्वर्य देखकर हृदयमे ईयाभाव उत्पन्न करता है तथा सुन्दर रमणियोके अवलोकनसे काम-तृष्णा उसके हृदय में जाग्रत हो जाती है। जिस प्रकार रोगकी अवस्था और उसके निदानके मालूम हो जानेपर रोगी रोगसे निवृत्ति प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है, उसी प्रकार प्रत्येक Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन व्यक्ति ससाररूपी रोगका निदान और उसकी अवस्थाको जानकर उससे मुक्त होनेका प्रयास कर सकता है। संसारके दुःखोंका मूल कारण रागद्वेष है, इन्हे शास्त्रीय परिभाषामें मिथ्यात्व कहा जाता है। आत्माके अस्तित्वमें विश्वास न कर अनात्मरूप-राग-द्वेष रूप श्रद्धा करनेसे मनुष्यको स्व-परविवेक नहीं रहता है, जड़-शरीरको आत्मा समझ लेता है तथा स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, ऐश्वर्यमें रागके कारण लित हो जाता है। इन्हे अपना समझकर इनके सद्भाव और अभावमें हर्ष-विषाद उत्पन्न करता है। आत्मविश्वासके अभावमे ज्ञान भी मिथ्या रहता है । अतएव कषाय और असंयमसे युक्त आचरण भी मिथ्याचरण कहा जाता है । अनात्मविषयक प्रवृत्ति होनेसे इस मानवको सर्वदा कष्ट भोगना पड़ता है। इसी कारण सदाचारसे विमुख मानवको आत्ममावमें प्रतिष्ठित करना सत्साहित्यका ध्येय माना गया है। प्रकीर्णक काव्यके रचयिता जैन आचार्यों और कवियोने मानवका परिष्कार करनेके लिए धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक आदि आदर्शोंकी सरस विवेचना की है। उन्होंने मानवको व्यष्टिक तलसे उठाकर समष्टिके तलपर प्रतिष्ठित किया है। बहिर्जगत्के सौन्दर्यकी अपेक्षा अन्वर्जगत्के सौन्दर्यका इन्होंने प्रकीर्णक काव्योंमे विशेष निरूपण किया है । यह सौन्दर्य क्षणिक आनन्दको प्रदान करनेवाला नहीं है, अपितु मानव-हृदयकी गूढतम जटिल समस्याओंका प्रत्यक्षीकरण करनेवाला है। जो कवि मानवके अन्तर्जगत्के रहस्यको खोलकर देखता है, उसकी मानसिक पहेलियोंको सुलझाता है, वही श्रेष्ठ कविके सिंहासनपर आरूढ़ होनेका अधिकारी है। यद्यपि कुछ आलोचक काव्यके इस उपयोगितावादी दृष्टिकोणको स्वीकार नहीं करते हैं तथा आचारात्मक वर्णनोंकी प्रधानता होनेसे दूसरे काव्य साहित्यसे पृथक् ही कर देना चाहते हैं; परन्तु चे सम्भवतः इसे भुला देते हैं कि जीवनमे जो प्रमुख इच्छाएँ और कामनाएँ हैं, साहित्यमे वे ही स्थायी भाव हैं। जो साहित्यकार Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक काव्य मानवको अनात्म-भावनाओंसे मोड़कर आत्मभावनाओंकी समचतुरस्र भूमिमें ले जाता है और वहाँ जीवनका यथार्थ परिज्ञान करा देता है, उसे स्थायी साहित्यका निर्माता माननेमें किसीको भी आपत्ति नहीं होनी चाहिये। हॉ, जहॉपर भावोकी अप्रतिहत धारा न होकर कोरा उपदेश रहता है, वहाँ निश्चय ही काव्य निष्प्राण हो जाता है । जैन प्रकीर्णक काव्य के निर्माताओंने अपार भाव-भेदकी निधिको लेकर प्रायः श्रेष्ठ काव्य ही रचे है, जो युग-युगतक सास्कृतिक चेतना प्रदान करते रहेगे । १८१ काव्यके सत्य, शिव और सुन्दर इन तीनो अवयवोंमेसे जैन प्रकीर्णक काव्योंमें शिवत्व - लोकहितकी ओर विशेष ध्यान दिया है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि सत्य और सुन्दरंकी अवहेलना की गयी है । इन काव्योमे सौन्दर्य और सत्यकी स्वाभाविकता इतनी प्रचुरमात्रामे पायी जाती है, जिससे उदात्त भावनाओका सचार हुए बिना नही रहता । तथ्य यह है कि लोकहितकी प्रतिष्ठा के लिए जैन प्रकीर्णक काव्य रचयिताभने रचनाचातुर्य के साथ मानसिक शक्तिके निमित्त सद्वृत्तियोंकी आवश्यकता अनिवार्य रूपसे प्रतिपादित की है। कबि बनारसीदासकी सूक्तिमुक्तावली, ज्ञानपच्चीसी, अध्यात्मबत्तीसी, कर्मछत्तीसी, मोक्षपैड़ी, शिवपच्चीसी, ज्ञानवावनी; भैया भगवतीदासकी पुण्यपञ्चीसिका, अक्षरबत्तीसिका, शिक्षावली, गुणमंजरी, अनादिवन्तीसिका, मनबत्तीसी, स्वप्नबत्तीसी, वैराग्यपच्चीसिका, आश्चर्यचतुर्दशी; कांव रूपचन्दका परमार्थ- शतक दोहा, कवि द्यानतरायका 'सुबोधपचासिका ' धर्मपच्चीसी, व्यसन त्याग षोड़श, सुखवत्तीसी, विवेकबीसी, धर्मरहस्यबावनी, व्यौहारपच्चीसी, सज्जनगुणदशकः कवि आनन्दघनकी आनन्दबहत्तरी; भूघर कविका जैनशतक, बुधजन कविकी बुधजन सतसई; डालूरामका गुरूपदेश श्रावकाचार एवं दौलतराम कविकी छहढाला प्रसिद्ध प्रकीर्णक काव्य हैं । इन सभी कवियोंने आचार और नीतिकी अनेक बातें Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन सरस रूपमे अकित की है। यहाँ कुछ रचनाओंके सम्बन्धमे प्रकाश डाला जायगा । सूक्तिमुक्तावली संस्कृत भाषामे कवि सोमप्रभने सूक्तिमुक्तावलीकी रचना की है। कविवर बनारसीदासने इसका इतना सरल और सरस अनुवाद किया है कि अनुवाद होनेपर भी इस रचनामे मौलिकताका आनन्द आता है। कविने जीवनोपयोगी, आत्मोत्थानकारी बातें अद्भुत ढगसे उपस्थित की है। मूर्ख मनुष्य इस मानव जीवनको किस प्रकार व्यर्थ खोता है, इसका निरूपण करता हुआ कवि कहता है कि जैसे विवेकहीन मूर्ख व्यक्ति हाथीको सजाकर उसपर ईंधन ढोता है, सोनेके पात्रमे धूल भरता है, अमृतसे पैर धोता है, कौएको उड़ाने के लिए रत्न फेककर रोता है, उसी प्रकार वह इस दुर्लभ मानव शरीरको पाकर आत्मोद्धारके विना योही खो देता है । कविका निरूपण जितना प्रभावोत्पादक है, उतना ही भर्मस्पर्शीं भी है । कवि कहता है 1 १८२ ज्यों मतिहीन विवेक विना नर, साजि मतङ्गज ईंधन ढोवै । कंचन भाजन धूल भरै शठ, मूढ सुधारस सो पग धोवे ॥ वाहित काग उड़ावन कारण, डार उदधि मणि मूरख रोवे । त्यों यह दुर्लभ देह 'घनारसि' पाय अजान अकारथ खोवै ॥ मी कितनी चचल होती है और यह कितने तरहकी विलास लीलाएँ करती है, इसका चित्रण करता हुआ कवि कहता है कि वह सरिताके जलप्रवाहके समान नीचकी ओर ढलती है, निद्राके समान बेहोशी बढ़ाती है, बिजलीकी तरह चचल है तथा धुँएके समान मनुष्यको अन्धा बनाती है । यह तृष्णा अग्निको उसी तरह बढ़ाती है जैसे मदिरा मत्तताको । वेश्या जिस तरह कुरूप सुरूप, शूद्र-ब्राह्मण, ऊँच-नीच, विद्वान-मूर्ख, आदिसे दिखावटी स्नेह करती है, उसी प्रकार यह भी सभीसे कृत्रिम प्रेम करती है । वेश्याके समान ही विश्वघातिनी और नाना दुर्गुणोंकी खान है । कचि इसी आशयको स्पष्ट करता हुआ कहता है Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक काव्य ૧૮૨ नीच की ओर ढरै सरिता जिमि, घूम वढावत नींदकी नाई । चंचला है प्रगटै चपला जिमि, अन्ध करै जिम धूमकी झाई ॥ तेज करै तिसना दव ज्यो मद, ज्यो मद पोषित मूढके ताई । ये करतूत करै कमला जग, डोलत ज्यां कुलटा बिन साई ॥ समस्त दोषोको उत्पन्न करनेवाला अहकार विकार है । इस 'अ' प्रवृत्तिके आधीन होकर मनुष्य दूसरोंकी अवहेलना करता है । अपनेको बड़ा और अन्यको तुच्छ या लघु समझता है । अतएव समस्त दोष इस एक ही दुष्प्रवृत्तिमें निवास करते हैं । कवि कहता है कि इस अभिमान से ही विपत्तिकी सरिता कल-कल ध्वनि करती हुईं चारो ओर प्रवाहित हो रही है । इस नदीकी धारा इतनी प्रखर है, जिससे यह एक भी गुणग्रामको अपने पूरमे बहाये बिना नहीं छोड़ती । अतएव यह 'अहभाव' एक विशाल पर्वतके तुल्य है, कुबुद्धि और माया इसकी गुफाएँ है, हिंसक बुद्धि धूमरेखाके समान और क्रोध दावानलके समान है । कवि कहता है जातें निकस चिपति सरिता सब, जगमें फैल रही चहुँ ओर । जाके ढिंग गुणग्राम नाम नहि; माया कुमतिगुफा अति घोर ॥ जहॅ वधबुद्धि धूमरेखा सम; उदित कोप दावानल जोर । सो अभिमान पहार पढंतर, तजत ताहि सर्वज्ञ किशोर ॥ इस काव्यमे जीवनोपयोगी अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ग्रह एव सयमकी विवेचनाके साथ क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या, घृणा आदि विकारोंकी आलोचना की गयी है। दोनों ही दृष्टियोसे रचना उपादेय है । मानवकै शान्त गम्भीर हृदयको अज्ञान सर्वदा रहा है । ज्ञानका जो अश शिवत्वका उद्घाटन करता है, ज्ञानबावनी ब्रह्मचर्य, अपरिअभिमान, काम, भाव और भाषा वेदनामय बनाता उसके तिरोहित या आच्छादित हो जानेसे मानवका मानवत्व ही लुप्त हो जाता है । कविने इस रचनामें जानकी महिमा का मनोहर वर्णन किया है तथा कवि मानव- हृदय के अन्तरतमको टटो Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन ता हुआ प्रभावोत्पादक शैलीमें मर्मोद्वार व्यक्त करता हुआ पाखण्डियोंको फटकारता है कि रे मूर्ख प्राणी ! तू क्यों दीन पशुओंका वध करता है । हृदयमें ज्ञान ज्योतिके जागृत हुए बिना तुम यज्ञ करनेके अधिकारी नही । सच्चा यश वही व्यक्ति कर सकता है जो आत्मज्ञानके दीपकको प्रज्वलित कर सकेगा । जो व्यक्ति नाना तीथों और अनेक सरिताओंमें अवधपूर्वक स्नान करता है, उसका वह लान व्यर्थ है । निर्मल आत्म1 जल में स्नान किये बिना तीर्थस्नान कोरा आडम्बर है। सच्चा आत्मवोध ही शान्ति दे सकता है, इसीसे आत्मदर्शन सम्भव है । ज्ञानी व्यक्ति विपत्ति और सकटके समय अचल, अडिग और स्थिर रहता है। मंसारका कोई भी प्रलोभन उसे अपने कर्त्तव्य-मार्गसे है। सुख-दुःख तो संसारमे पुण्य-पापके उदयसे है । विचारों और भावनाओं में सन्तुलन उत्पन्न करना तथा अन्तम्म ज्ञानदीपको प्रकाशित कर अनात्म-भावनाओके तिमिरको विच्छिन्न करना प्रत्येक विचारवान् व्यक्तिका कर्त्तव्य है । कवि वनारसीदास इसी भावनाको व्यक्त करते हुए कहते हैं च्युत नहीं कर सकता अहर्निश आते रहते ** कौन काल सुगध करत वध दीन पशु, नागी न अगम ज्योति कैसो यज्ञ करिहै । कौन काज सरिता समुद्र सर लल डोहै, आतम अमल ढोह्यो अजहूँ न ढरिहै ॥ काहे परिणाम संक्लेग रूप करै जीव, पुण्य पाप भेद किए कहुँ न उधरिहै । 'वनारसीदास' निज उक्त अमृत रस, सोई ज्ञान सुनै तू अनन्त भव तरिह || आत्मज्ञानीकी अवस्था, कार्य-पद्धति एवं जीवनकी गतिविधिका निरूपण करते हुए कवि कहता है कि जिस व्यक्तिको सच्चा आत्मबोध प्राप्त Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक काव्य १८५ हो गया है, वह अपनी सीमाका उल्लघन नहीं करता है । जिस प्रकार वर्षा ऋनुमे सरिताओंमे वाढ आ जाती है और उसमे तृण, काष्ठ आदि बलुऍ वह जाती है, किन्तु चित्रावेल इस बादमे वह जानेपर भी सड़तीगलती नहीं है और न वह गली-गली मारी-मारी फिरती ही है, इसी प्रकार पॉचों इन्द्रियोके प्रपचमे पडकर भी आत्मनानी विलाससे पृयक् रहता है, इन्द्रियों उसे आसक्त नहीं कर पाती है । लोभ, मोह आदि विकारोसे यह अपनी रक्षा कर लेता है- . ऋतु बरसात नदी नाले सर जोर चढ़े, बादै नाहिं मरजाद सागरके फैल की। नीरके प्रवाह तृण काठवृन्द बहे नात, चित्राधेल आइ चढे नाही कह गैल की । 'वनारसीदास' ऐसे पंचनके परपंच, रंचक न संक आवै वीर बुद्धि छैल की। कुछ न अनीत न क्यों प्रीति पर गुण सेती, ऐसी रीति विपरीति अध्यातम शैल की। इस रचनामे कुल ५२ पद्म है, सभी आत्मबोध जागृत करनेमे सहायक है। भैया भगवतीदासको जीवनकी नम्बरता और अपूर्णताकी गम्भीर अनुभूति है। इसी कारण विश्व और विश्वके द्वन्द्वोंका चिन्तन, मनन भनित्यपचीसिका है और विश्लेपण इनकी कवितामे विद्यमान है। " काल्पनिक और वास्तविक जीवनकी गहन व्याख्या करते हुए आत्मतत्त्वका विवेचन किया है। कविने इस प्रस्तुत रचनामें अपने आभ्यन्तरिक सत्यको देखने और दिखलानेका प्रयास किया है। कविका अनुभूतिका स्रोत आत्मदर्शनसे प्रवाहित है। वह जीवनकी समस्त समस्याओंका एकमात्र समाधान साधना या सयमको बतलाता है। जब Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ हिन्दी-जैन साहित्य परिशीलन तम विश्वकै पदार्थमें आसक्ति रहेगी, सयमको भावना उत्पन्न नहीं हो सकती । इसी कारण कलाकार नगन्के वास्तविक क्षणम्गुर ल्पको व्यक्त करता हुआ संसारकी लार्थ-परता, उसके रागान्मक घिनौने सम्बन्ध, एवं अन्तनंगकी विभिन्न अवास्तविकताओंका प्रत्यक्षीकरण करता है, क्षणभंगुर गरीरसे अमर आत्माकी ओर अग्रन्दर होना है तथा मूर्त जीवन्म अमूर्नका एवं स्यूल स्पर्म मध्म त्पा सामीप्य लाम बनेको उत्सुक है। अनित्यपञ्चीसिकाम बाह्यचित्रणम इतनी प्रगत्मता नहीं दिखलायी गयी है, जितनी अन्तगतके चित्रण । विश्व अतिरजित चित्र कविको मोहित नहीं कर सके है, अतः वह संसारकी अस्थिरता, अनित्यता एवं निन्सारताका विवेचन करता है। कविका यह विशेषता है कि उसने निराशाकी भावना कहाँ भी व्यक्त नहीं होने दी है। जीवन में आशा, सर्ति, प्रेम, सन्तोष, विवेक आदि गुणोको उतारनेके लिए बोर दिया है। ___ कवि कहता है कि इस दुर्लभ मानव शरीरको प्रातकर यदि हमने अपने अन्तस्का आलोडन नहीं किया, अपने रहन-सहन, खान-पानकी शुद्धिपर जोर नहीं दिया, क्रोध-मान-साग-लोभ जैसे विकारॉको अपने हृदयने निकाल बाहर नहीं किया एवं इन्द्रियाँक विषयाम आसक्त हो नाना प्रकारके कुकृत्य करना नहीं छोड़ा तो फिर इस शरीरका प्राप्त करना निरर्थक है । जीवनम अपरिमित आनन्द है, अनन्त दुख है, किन्तु इसकी प्राप्ति सच्चे आत्म-बोधके बिना नहीं हो सकती है। हम्गरे नितने भी रागात्मक सम्बन्ध हैं, वे सब स्वार्थपर आश्रित हैं। हम इन रागात्मक सम्बन्धोंसे ऊपर उठनेपर ही वास्तविक नुस्ख पा सकते हैं। मानव जीवन गस्तविक आत्मदर्शन करने के लिए मिला है, अतएव इसका सदुपयोग करना प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य है। इस मौतिक जगन्में दुःखका मूल कारण अनात्मभाव ही है | कवि कहता है नर देह पाये कहा, पंडित बहाये कहा, तीरथके न्हाये कहा तर तो न बेह है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक काय १८७ लम्केि फमाये कार, भरटके भपाये कहा, मनके धराये कहा छीनता न है रे॥ पेणके हुँगाये गए, भपके बनाये कहा, जोयनके आगे कहा, बराह न बद्ध है। प्रमको पिलान कहा, दुर्जनमें पाम फटा, भातन प्रभाग यिन पीठे परितः । म रचनाग शुलन पत्र करिने एनम गविपके उज्ज्वल प्रकायाको अपित परनन नाम अतीत और वर्तमानका समन्वय भी करनेका आगाम पिया।। कवि पानतरायने १२१ पोगं यह गनभावन रचना लिखी है। सबिन भात्मगौन्दर्नया अनुभव कर उने गगारके मामने इन टगते रखा , जिसमे वान्तविपः आन्तरिक सौन्दर्यका परिज्ञान - सहजम हो जाता है । यह कृति मनव-हृदयको स्वार्थ गम्बन्धासरी सकीर्णतामे ऊपर उटापर लोक-कल्याणकी भावभूमिपर ले जती, जिनमे मनोविमाका परिकार हो जाता है। अनेक विकारोका विपण करनेके गग्ण विकी बहुदर्शिता प्रकट होती है। मानव-हृदयके रहत्या में प्रवेश परनेसी अनुल भगता विद्यमान है। आरम्भमे इष्टदेवको नमसार करने उपरान्त भक्ति और लुतिकी आवश्यकता,मिथ्यात्व और मम्यत्तयकी महिमा, रहबाराका दुःख, इन्द्रियोंकी दासता, नरक-निगोदके दुःस, पुण्य-पापकी महत्ता, धर्मका महत्व, जानी-अगानीका चिन्तन, आत्मानुभूतिकी विशेषता, शुद्ध आत्मत्वस्प, नवतत्त्वस्वत्प, आदिका मरम विवेचन विद्यमान है। कविने भवसागरसे पार उतरनेका कितना मुन्दर उपाय बतलाया है मोचत जात सर्व दिनरात, क्छ न घसात क्हा करिये जी। सोच नियार निजातम धारहु, राग विरोध सबै हरिये जी॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन यौं कहिये जु कहा लहिये, सुघहै कहिये करना धरिये जी। पावत मोख मिटावत दोप, सु यौं भवसागरकौं तरिये जी॥ ससारमे सुख और शान्ति समताके द्वारा ही स्थापित हो सकती है। जबतक तृष्णा और लालसा लगी रहती है, तबतक शान्ति उपलब्ध नहीं हो सकती । शाश्वतिक शान्ति सन्तोपके बिना नहीं मिल सकती है। जबतक हमारी प्रवृत्तियाँ बहिर्मुखी रहती है, तबतक आध्यात्मिक प्रभातका उदय नहीं हो सकता । इस आध्यात्मिक समरसताके विवेचनमे कवि प्रत्यक्ष जीवनमें निराश दृष्टिगोचर नहीं होता है, किन्तु आगाकी नवीन राशियों उसके मानस क्षितिजपर उदय हो रही है। कवि चरम सत्यमें विश्वास करता हुआ कह उठता है काहै कौं सोच करै मन मूरख, सोच करै कछु हाथ न ऐहै। पूरब कर्म सुभासुभ संचित, सो निह. अपनो रस दैहै । ताहि निवारनको बलवंत, तिहूँ नगमाहिं न कोउ लसैहै। तात हि सोच तनी समवा गहि, ज्यौ सुख होइ जिनंद कहैहै । समदृष्टि अपने आत्मरूपका अनुभव करता है, उसे अपने अन्तस्की यह छवि मुग्ध और अतुलनीय प्रतीत होती है। उसकी यह प्रेयसी अत्यन्त ज्योतिर्मय है, इसके भ्रूसकेतमात्रसे पकज खिलते है, तृण-तरुपात सिहर उठते है, हरित दूर्वादल लहराने लगते हैं और नवीन उमगे, नयी भावनाएँ उत्पन्न हो आनन्द-विभोर कर देती हैं | कवि इस अनुपम सुन्दरीकी कल्पनासे ही सिहर जाता है और कह उठता है केवलग्यानमई परमातम, सिद्धसरूप लसै सिव ठाहीं। व्यापकरूप अखंड प्रदेश, लसै जगमैं जगसौ वह नाहीं । चेतन अंक लिय चिनमूरति, ध्यान धरी विसको निजमाहीं। राग विरोध निरोध सदा, निम होइ वही तजिकै विधि छाहीं॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक काव्य इस रचनामे कवि द्यानतरायने दानका महत्त्व, आदर्श, उपयोगिता एवं सहकारिताकी भावनाका अकन किया है । कविने कोमल, कमनीय कल्पनाओका सृजनकर जीवनकी विषमताओंका दानवाचनी समाधान करनेका आयास नहीं किया है, प्रत्युत जीवनकी ठोस भावभूमिमें उतरकर प्रकृत राग-द्वेर्षो के परिमार्जनका विधान बताया है । अनन्त आकाक्षाऍ दान, त्याग, सन्तोषके अभाव मे वृद्धिंगत होती हुई जीवनको दुखमय बना देती है । कविने अपने अन्तस्मे इस चातका अनुभव किया कि यह मानव जीवन वढ़ी कठिनाईसे प्राप्त हुआ है, इसे प्राप्तकर यों ही व्यतीत करना मूर्खता है, अतः 'सर्वजनहिताय' की प्रेरणासे प्रेरित होकर कवि यह कहता है १८९ मौन कहा जहाँ साधन आवत, पावन सो भुवि तीरथ होई । पाय प्रछालक काय लगायक, देहकी सर्व चिया नहिं खोई ॥ दान कस्यो नहिं पेट भयौ बहु, साधकी आवन वार न जोई। मानुष जोनिक पायकैं मूरख, कामकी बात करो नहिं कोई ॥ मानवकी तृष्णा प्रज्वलित अग्निमें डाले गये ईधनकी तरह वैभवविभूतिके प्राप्त होनेपर उत्तरोत्तर वृद्धिंगत ही होती जाती है । जिन बाह्यपदार्थोंमे मानव सुख समझता है और जिनके पृथक् हो जानेसे इसे दुःख होता है, वास्तवमे वे सब पदार्थ विनाशीक हैं। लोभ और तृष्णा मानवको अशान्ति प्रदान करती हैं, इन्ही विकारोंके आधीन होकर मानव आत्मसुखसे वचित रहता है। सूम व्यक्ति उपर्युक्त विकारोके आधीन होकर ही सम्पत्तिका न स्वयं उपभोग करता है और न अपने परिवारको ही उपभोग करने देता है। कविने ऐसे व्यक्तिकी कौएसे तुलना करते हुए इस पामरको ateसे भी नीच बतलाया है । कवि कहता है- 1 सूमको जीवन है जगमें कहा, आप न खाय खवाय न जानें दर्वके बंधन माहिं बँध्यो दृढ़, दानकी बात सुनै नहिं कानें ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन तातें बढ़ौ गुन कागमै देखिये, जात बुलायक भोजन ठानें । लोभ दुरौ सव औगुनमैं इक, ताहि तजै तिसको हम मानें । दान देनेकी सार्थकताका निरूपण करता हुआ कवि कितने मर्मस्पशी ढंगसे कहता है दीनकौं दीजिये होय दया मन, मीतकौं दीजिये प्रीति बढावै। सेवक दीजिये काम करै वहु, साहव दीजिये आदर पावै ॥ शत्रुको दीजिये वैर रहै नहि, भाटकौं दीजिये कीरति गावै। साधकौं दीजियै मोखके कारन, 'हाथ दियौ न अकारथ जावै । इसमे कविने अपनी वैयक्तिक आत्मानुभूतिको जागृत करते हुए इस मानव जीवनको सुखी बनानेवाली अनेक वातोका निरूपण किया है। न्यौहारपञ्चीसी म र ज्ञानेन्द्रियोंके माध्यमसे मन जिन भावनाओं, सवेद " नाओको ग्रहण करता है, उनका किसी न किसी प्रकारका चित्र हृदयपटलपर अवश्य अकित हो जाता है। वातावरण, परिस्थिति, सस्कार आदिकी विभिन्नताकै कारण कविकै हृदयपटपर अनेक वस्तुओंके विविध चित्र उतरे है, अत: उसने अपने अन्तस्मे जगत्का अनुभव जिस रूपमें किया है, उसे व्यावहारिक रूप देकर व्यञ्जित करनेका उपक्रम किया है। बाह्यजगत्मे तभी सुख-शान्ति स्थापित हो सकती है, जब मानवका हृदय स्वच्छ हो जाय | व्यक्तित्वके परिष्कारके लिए सयम, त्याग और अहिंसातत्वकका अपनाना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। जो व्यक्ति इष्ट-वियोग और अनिष्ट-सयोगमें घबड़ा जाता है, जीवनमे निराश हो जाता है। कविने उसके मनमे सन्ध्या समय सरिताके उस पार सुदूर आकाशके कोनेमे उठे किसी नवीन वादलमे विद्युत्की रेखाओंके समान उज्ज्वल आशाका सचार करते हुए कहा है पीतम मरेको सौच कर कहा नीव पोच, तजे ते अनन्त भव सो कछु सुरत है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक काव्य १११ एक आवै एक बाय ममतासौ विललाइ, रोज मरे देखे सुनै नैक ना शुरत है । पूत सौं अधिक प्रति वह गाने विपरीत, यह तो नहा मनात जोग क्यों जुरत है। मरनी है सूझे नाहि मोहकी महलमाहि, काल है अवैया त्वास नौवति पुरत है। ज्ञानी व्यक्ति सब जानकी दिशामें बढ़ने लगता है, तो सांसारिक आर्षण प्रक्कूिल झोंने उसे अपने पयसे विचलित नहीं कर सकते। उसके हृदयमें मानव जातिका प्रेम इतना प्रबल हो जाता है, जिससे वह किसी भी व्यक्तिको दुःखी नहीं देखना चाहता है। रम्य इन्द्रधनुपके समान ऐन्द्रियिक आकांनाएँ, वासनाएँ स्वार्थक स्तरसे ऊपर उगा देती है, जिसने सर्वप्रकारकी शान्ति उपलब्ध होती है। जिन पदायोंके प्रलोमनके कारण राग-बुद्धि उत्पन्न होती है, मनकी भूमिकी सुमन जैसी कोम्ल भावनाएँ स्वार्थसे पकिल होती रहती हैं। कविने उन्हीं पदार्थाते उत्पन्न भावनाओंका रसमयी भावतरंगोंके फुहारोंसे सिंचन करते हुए मधुर कामनाओंके साक्षात्कारका आयास किया है। सहृदय कवि लल्साको लहरोंसे युक्त रसकी नदीके किनारे विचरण करते हुए अनुभव कर कह उन्ना है देस देस धाए गढ़ वाक भूपती रिझाये, थलहू खुदाए गिरि ताए पाए ना मस्यो। सागरको तीर धाए मंत्रहू नसान ध्याए, पर घर भोजन ससंक काक न्यौं रत्यौ । बड़े नाम बड़े काम कुल अभिराम धाम, वति पराये काम करे कान ना सखो। तिसना निगोड़ीन न छोड़ी वात भौंही कोऊ, मति हु कनौड़ी कर कौड़ी धन ना सत्यो। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन कविने इस व्योहारपच्चीसी में जीवनको परिष्कृत करने के साथ गर्व, ईर्ष्या, प्रमाद, क्रोध आदि विकारोंको दूर करनेके लिए जोर दिया है। कवि कहता है कि समष्टि और व्यष्टिके हितके लिए क्रोध, मान, माया और लोभ कपायोका त्याग करना आवश्यक है । क्रोध प्रीतिका नाम करता है, मान विनयका, माया मित्रताका और लोभ सभी सद्गुणोंका नाश करता है । अतएव शान्तिसे क्रोधको, नम्रता से अभिमानको, सरलतासे मायाको और सन्तोपसे लोभको जीतना चाहिये । मानवकी मानवता यही है कि वह अपने हृदय और मनका परिष्कारकर समाजको सव प्रकारसे सुखी रखे । जो व्यक्ति अपने ही स्वाथमं रत रहता है, समानका खयाल नहीं करता है; वह पशुसे भी नीच है । कविने इस वातको अनेक दृष्टान्तो, प्रतिदृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया है। नैतिक विधानका निरूपण करते हुए कविने उपदेशकका पद नहीं ग्रहण किया है । कविता सरस है, आचार और लोकहितका निरूपण करनेपर भी सौन्दर्यकी कमी नहीं आने पायी है। कवि द्यानतरायकी यह सुन्दर सरस रचना है । कविने इसमें मानव जीवनको सुखी और सम्पन्न बनानेके लिए अनेक विधि-निपेधात्मक नियमोंका प्रतिपादन किया है । कवि कहता है कि पूरण पंचासिका यदि क्रोध करनेकी आदत पड़ गयी है तो कमाँके ऊपर क्रोध करना चाहिये । कमोंके आवरणके कारण ही यह सच्चिदाI नन्द आत्मा नाना प्रकार के कष्टोको सहन कर रही है, अतः इस आत्माको स्वतन्त्र करने के लिए कमोंपर क्रोध करना परम आवश्यक है । मान करना यद्यपि हानिप्रद है, परन्तु आत्मिक गुणोका मान करना श्रेष्ठ होता है। जब व्यक्तिको यह अनुभूति हो जाती है कि हमारी अपनी सम्पत्ति अपने पास है, यह ज्ञान, आनन्द रूप सम्पत्ति भौतिक सम्पत्तिकी अपेक्षा श्रेष्ठतम है, उस समय आत्मामे हर्प और गौरवकी भावनाएँ उत्पन्न होती हैं तथा आत्मविकासकी प्रेरणा मिलती है। इसी प्रकार माया १९२ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक कान्य ससारके पदार्थोंमे लिस कराती है, परन्तु दूसरेके दुःखको देखकर द्रवीभूत हो जाना और ममतावश उसके कष्ट निवारणके लिए तत्पर हो जाना जीवनकी श्रेष्ठ प्रवृत्ति है। अन्यके संकटको दूर करनेवाली ममता जीवनमें मुख उत्पन्न करती है, अतएव ग्राह्य है। लोभवश किसी वस्तुको लेनेकी प्रवृत्ति करना तथा धन एकत्रित करनेके लिए समाजका शोषण करना, जघन्य प्रवृत्ति है। यद्यपि लोमके प्रत्यक्ष दोपोसे प्रत्येक व्यक्ति परिचित है, किन्तु यह नैसर्गिक प्रवृत्ति अनेक प्रयत्न करनेपर भी नहीं छूटती है । अतएव कवि कहता है कि तप करनेका लोभ उपादेय है, इस प्रवृत्तिसे जीवका सच्चा विकास होता है, और समष्टि एवं व्यष्टि दोनोके हितके लिए इस प्रकारका लोभ ग्राह्य होता है। जब हम आत्म-शोधनके लिए लालायित रहते है, उस समय हमारे द्वारा लोकका मंगल तो होता ही है, साथ ही हम अपना मी मंगल कर लेते है। प्रायः देखा जाता है कि अन्य व्यक्तियोके साथ कलह एवं संघर्ष करनेकी प्रवृत्ति हममे निसर्गतः रहती है। लाख प्रयत्न करनेपर विरले व्यक्ति ही इस प्रवृत्तिका परिष्कार कर पाते हैं। कवि इस प्रवृत्तिके परिकारका उपाय बतलाता हुआ कहता है कि कपायो-कोष, मान, माया और लोभके साथ द्वन्द्व करना उपादेय है । मानव कमजोरियोका दास है, अपनी भूलो और प्रवृत्तियोको वह सहसा रोकनेमे असमर्थ है; अतएव वह कषायोके साथ द्वन्द्व, संघर्ष और कलह करता हुआ अपने जीवनको आनन्दमय बना सकता है। यह निश्चय है कि विकारोंको शनैः शनैः सुप्रवृत्तियोंके अभ्याससे ही रोका जा सकता है। इसी वातको कवि स्पष्ट करता है क्रोध सुई जु करै करमौं पर, मान सुई दिढ़ मान बढ़ावै। माया सुई परकष्ट निवारत, लोम सुई तपसौं तन तावै॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन राग सुई गुरु देवपै कीजिये, दोप सुई न विप सुख भावे। मोह सुई जु लखै सब आपसे, धानत सजनको कहिलावै ॥ पीर सुई पर पीर विहारत, धीर सुई जु कपायसौं जूझ । नीति सुई जो अनीति निधारत, मीत सुई अघसौं न भरुई। औगुन सो गुन दोष विचारत, जो गुन सो समतारस झै। मंजन सो जु करै मन मंजन, अंजन सो जु निरंजन सूझै ॥ कविने इस प्रकार जीवनमे सत्य, शिवं और सुन्दरको उतारनेका उपाय बतलाया है । निम्न पद्यमे बुद्धि और दयाके वार्तालापका कितना मुन्दर सवाद अकित किया गया है। बुद्धि दयासे अनुरोध करती है कि मखि, मैं तेरा अत्यन्त उपकार मानूंगी, तू मेरा एक काम कर दे। यह चैतन्य मानव कुबुद्धि स्पी नायिकाकै प्रेम-पाशमे बंध गया है, यद्यपि मैने इससे विरत करने के लिए इस मानवको बहुत समझाया है, पर मेरी एक भी बात नहीं सुनता । अतः तू इस मानवको समझा, जिससे यह मोहके बन्धनको तोड़ अपने वास्तविक स्पको समझ सके। री सखी दया ! तु जानती है कि सौतका अभिमान किस प्रकार सहन किया जा सकता है ? पति यदि अन्य रमणीसे लेह करने लगे, तो इससे बड़ा और क्या कष्ट हो सकता है! बुद्धि कह बहुकाल गये दुःख, भूर भये कवहूँ न जगा है। मेरी कहाँ नहिं मानत रंचक, मोसौं विगार कुमार सगा है। येहुरी सीख दया तुम जा विधि,मोहको तोरि दे जेम वगा है। गावहुँगी तुमरी जस मैं, चल री जिस पै निज पेम पगा है । मानव-जीवनम विरक्ति प्राप्त करना सबसे अधिक कठिन कार्य माना गया है । कवि भूधरदासने अपने इस शतकम वैराग्य-भावना जागृत शतक करनेका विधान बतलाया है । कवि वैराग्यको जीवन विकासके लिए परम आवश्यक मानता है, उसका अभिमत है कि विश्वकी अव्यवस्था, कलह और प्रतिद्वन्दिताका मूलोच्छेदन Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक काव्य १९५ इसी मावनाके द्वारा हो सकता है। यद्यपि कहनेका ढग सिद्धान्त निरूपण जैसा ही है, परन्तु मंजुल भावनाओकी अभिव्यक्ति कविने सरस और हृदयग्राहक ढगसे की है । विषय-प्रतिपादनमें 'दैन्य' या पलायन वृत्तिका अनुसरण नहीं है, प्रत्युत तथ्य-विवेचन है। भूपरशतकके कवित्त, सवैये, छप्पय वडे ही सरस, प्रवाहपूर्ण, लोकोकि समाविष्ट एवं जोरदार हुए है । वृद्धावस्था, ससारकी असारता, काल-सामर्थ्य, स्वार्थ-परता, दिगम्बर मुनियोकी तपस्या, आशा-तृष्णाकी नग्नता आदि विषयोका निरूपण कविने बड़े ही अद्भुत ढगसे किया है। विषय-प्रतिपादनकी गैली बड़ी ही स्पष्ट है। भावोको विशद करनेमे कविको अपूर्व सफलता प्राप्त हुई है। जिस वातका कवि निरूपण करना चाहता है, उसे स्पष्ट और निर्भय होकर प्रस्तुत करता है। नीरस और गूढ विषयोंका निरूपण मी सरस और प्रभावोत्पादक ढगसे किया गया है। कल्पना, भावना और विचारोका समन्वय सन्तुलित रूपमे हुआ है। आत्मसौन्दर्यका दर्शन कर कवि कहता है कि ससारके भोगोंमें लिस प्राणी अहर्निश विचार करता रहता है कि जिस प्रकार भी सभव हो, उस प्रकार मैं धन एकत्रित कर आनन्द भोगें। मानव नानाप्रकारके सुनहले स्वप्न देखता है और विचारता है कि धन प्राप्त हो जानेपर अमुक कार्यको पूरा करेंगा । एक सुन्दर भव्य प्रासाद वनवाऊँगा, सुन्दर रत, मणियो और मोतियोके आभूषण बनवाऊँगा, अपनी महत्ता और गौरवके प्रदर्शनके लिए धन खर्चकर बड़ेसे बड़ा कार्य करेगा। अपने पुत्र-पौत्रादिका ठाट-बाटके साथ विवाह करूँगा। इस विवाहमे सोने चॉदीके वर्तनोका वितरण करूँगा, जगत्मे अपनी कीर्तिगाथा सर्वदा स्थिर रखनेका उपाय भी करूँगा । नहाँ अबकी बार धन हाथमे आया कि मैंने अपने यशको अमर करनेका उपाय किया। मानव इस प्रकारकी उघेढ-बुनमे सर्वदा लगा रहता है, उसका मनोराज्य निरन्तर वृद्धिंगत होता चला जाता है और एक दिन मृत्यु आकर उसके विचारोकी वीचमे ही हत्या कर देती है, Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ हिन्दी - जैन-साहित्य - परिशीलन · परिणाम यह निकलता है कि वह शतरनके खिलाड़ीके समान अपनी बाजीको वही छोड़ चला जाता है । सारे मनसूबे मन - के मन मे ही समा जाते है। यह विचारधारा किसी एक व्यक्तिकी नही है, प्रत्युत मानवमात्रकी है, हर व्यक्तिकी यही अवस्था होती है । कवि इस सत्यका उद्घाटन करता हुआ कहता है चाहत है धन होय किसी विध, तो सब काज सरे नियरा जी । गेह चिनाय करूँ गहना कछु, व्याहि सुता सुत बाँटिय भाँजी ॥ चिन्तत यो दिन जाहिं चले, जम मानि अचानक देत दगाजी । खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाइ रुपी शतरंजकी बाजी ॥ इस संसार में मनुष्य आत्मज्ञानसे विमुख होकर शरीरकी ही सेवा करता है । इस शरीरको स्वच्छ करनेमे अनेक साबुनकी बट्टियाँ रगड़ डालता है तथा सुगन्धित तेलकी शीशियों खाली कर डालता है। फैशनके अनेक पदार्थों का उपयोग शारीरिक सौन्दर्य-प्रसाधनमे करता है, प्रतिदिन रगड़-रगडकर शरीरको साफ करता है, इत्र और सेन्टोका आस्वादन करता है तथा प्रत्येक इन्द्रियकी तृप्ति के लिए अनेक प्रकारके पदार्थोंका संचय करता है । स्पर्शन इन्द्रियकी तुष्टिके लिए वेश्यालयोमें जाता है, रसना की तृप्ति के लिए अभक्ष्य भक्षण करता है, घ्राणकी सतुष्टिके लिए इत्र फुलेलकी गन्ध लेता है, नेत्रकी तृप्तिके लिए मनोहर रूपका अवलोकन करता है एव कर्ण इन्द्रियकी तृप्तिके लिए मनोहर मधुर शब्दोंको सुनने के लिए लालायित रहता है । इस प्रकारके मानवकी दृष्टि अनात्मिक है, वह शरीरको ही सब कुछ समझ गया है । कवि भूधरदासने अपने अन्तस्मे उसी सत्यका अनुभव कर जगत्‌के मानचोको सजग करते हुए कहा है माता पिता-रज-बीरज सौं, उपनी सब सात कुधात भरी है। माखिनके पर माफिक बाहर, चामके बैठन बेद धरी है ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ प्रकीर्णक काव्य १९७ नाहि तो भाय लगें अबहीं, बक बायस जीव बचै न धरी है। देह दशा यह दीखत भात, धिनात नही किन बुद्धि हरी है। मनुष्य अपनेको अमर समझ जगत्में नाना प्रकारके पाप और अत्याचार करता है । इस विनाशीक शरीरको अमर बनानेके लिए वह बड़ी-बूटियोंका सेवन करता है, नाना देवी-देवताओको प्रसन्नकर वरदान प्राप्त करना चाहता है, और विशन-द्वारा ऐसी ओपषियोका आविष्कार करता है, जिनके सेवनसे अमर हो जाय । इसके लम्बे-चौडे प्रोग्राम इस शरीरको ही सजाने, संवारने, और वृद्धिंगत करनेके लिए बनते हैं; अनाल्मिक दृष्टि रखनेके कारण आत्मकल्याणसे विपरीत सभी वस्तुएँ इसे अच्छी प्रतीत होती है। अतएव कवि विश्वके समक्ष मृत्युकी अनिवार्यताका निरूपण करता हुआ यह बतलानेका प्रयास करता है कि व्यर्थके पाप करनेसे कोई लाम नहीं, मृत्यु जीवनमें अनिवार्य है, अतः दीनता और पलायनको छोड जीवनकै मार्गमे अबाधित रूपसे बढ़ते चले जाना यह मानवता है । जीवन-मोह कर्त्तव्य-मार्गसे च्युत कर देता है, इसीसे व्यक्ति साहस, वीरता और नैतिक कार्योंमे गतिशील नहीं हो पाता | कविने अनात्मिक भावनाओको हृदयसे निकालनेके लिए जोर देते हुए कहा है लोहमई कोट केई कोठनको भोट करो, कॉगरेन तोप रोपि राखौ पट भेरिक। इन्द्र चन्द्र चौंकायत चौकत है चौकी देहु, चतुरंग चमू चहूँ भोर रहौ घेरिक। तहाँ एक भौहिरा बनाय बीच बैठो पुनि, बोलौ मति कोऊ जो बुलावै नाम टेरिके। ऐसे परपंच पॉतिरचौ क्यों न भाँति भांति कैसे हून छोटे जम देख्यो हम हेरिक। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ १९८ हिन्दी-जन-साहिन्य-परिशीलन युवावस्था मनुष्यकी भावनाएँ एक विशेष तीन प्रवास वहती हैं। इस अवस्याम पतनका नतं और महनाका सापान दोनों ही विद्यमान रहते है, यदि तनिक भी शिथिलता आई नो गर्नमें गिरना निश्चित है और सनग होने पर महत्ताके सोपान पर व्यक्ति बढ़ जाता है ! वो युवावत्या विषय-वासनाओंमें अनुरन रहते हैं, वे एक प्रकार अन्य मी है। परन्तु वृद्धावस्था आजाने पर भी नो आत्मकल्याणमे विमुख है, वे वस्तुतः निन्दाके पात्र हैं। कग्नेि वृद्धावत्याको बढ़ी ऐनी और सृटम दृष्टिसे देखा है। इतना स्वाभाविक और कलापूर्ण वर्णन अन्यत्र कटिनाईसे मिलेगा दृष्टि धर्टी पलटी तनकी छवि, बंक भई गति लंक नई है। रूस रही परनी घरनी अति, रंक मयों परयंक लई है ॥ काँपत नार है मुख लार, महामति संगति छोरि गई है। अंग टपंग पुराने परै, तिगना उर और नवीन मई है । ___ xxx लोईदिन कट सोई आत्रमें अवश्य घटे, बूंद बूंद बीत जैसे अंजुलीका जल है। देह नित छीन होत नैन तजहीन होत, जोबन मलीन हात छीन होत बल है। आवै जरा नरी तक अंतक अहरी मात्र, पर भो नीक जात नर-मी विफल है। मिल मिलापी जन पूरत कुगल मेरी, ऐसी माही मित्र ! काहं की फुगल है । मात्र, भाषा, कल्पना और विचारोंकी दृष्सेि यह रचना श्रेष्ठ है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक काव्य १९९ इस सरस नीतिपूर्ण रचनामे देवानुरागशतक, सुभापितनीति, उपदेशाधिकार और विराग-भावना ये चार प्रकरण है । प्रथम देवानुराग • शतकमे कवि वुधज्नने दास्य भावकी भक्ति अपने बुधजन-सतसई माय ०३ आराध्यके प्रति प्रकट की है । यद्यपि वीतरागी प्रभुके साथ इस भावनाका सामंजस्य नहीं बैटता है, फिर भी भक्तिके अतिरेकके कारण कविने अपनेको दासके रूपमे उपस्थित किया है। आत्मालोचन करना और जिनेश्वरके माहात्म्यको व्यक्त करना ही कविका लक्ष्य है, अतः वह कहता है मेरे अवगुन जिन गिनौ, मैं औगुनको धाम । पतित उधारक आप हौ, फरौ पतितको काम । सुभाषित खण्डमे २०० दोहे है, ये सभी दोहे नीतिविषयक है। लोक मर्यादाके संरक्षणके लिए कविने अनेक हितोपदेनाकी बात कही है। कबीर, तुलसी, रहीम और वृन्दसे इस विभागके दोहे समता रखते है। एक-एक दोहेमे जीवनको प्रगतिशील बनानेवाले अमूल्य सदेश भरे हुए है । कवि कहता है एक चरन हूँ नित पहै, तो काटै अज्ञान । पनिहारीकी लेज सों, सहज कटै पापान ॥ महाराज महावृक्षकी, सुखदा शीतल छाय । सेवत फल भासे न तौ, छाया तो रह जाय । पर उपदेश करन निपुन, ते तौ लखै अनेक । करै समिक बोलै समिक, ते हजारमें एक ॥ विपताको धन राखिये, धन दीजै रखि दार । आतम हितको छाँ दिए, धन, दारा परिवार ॥ इस खण्डकै कतिपय दोहे तो पञ्चतन्त्र और हितोपदेशक नीतिश्लोकोंका अनुवाद प्रतीत होते हैं। तुलसी, कवीर और रहीमके दोहोसे भी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन कवि अनुप्राणित-सा प्रतीत होता है । यद्यपि पारिमापिक जैन शब्दोंके प्रयोग द्वारा सम्यक्त्वकी महिमा, मिथ्यात्वकी हानि एवं चरित्रकी महत्ता प्रतिपादित की है, फिर भी सामान्य सूक्तियोंका हितोपदेश और तुलसीदासके दोहोंसे बहुत साम्य है । २०० उपदेशाधिकार में विद्या, मित्र, जुआनिषेध, मद्य-मास-निषेध, वेध्यानिषेध, शिकार-निन्दा, चोरी-निन्दा, परस्त्री-सग-निषेध आदि विषयोपर अनेक उपदेशात्मक अनुभृतिपूर्ण दोहे लिखे गये है । इन दोहोंके मनन, चिन्तन, स्मरण और पटनसे आत्मा निर्मल होती है, हृदय पूत भावनाओंसे भर जाता है और जीवनमें मुख-शान्तिकी उपलब्धि हो जाती है। विराग भावना खण्ड में कविने संसारकी असारताका बहुत ही सुन्दर और सजीव चित्रण किया है। इस खण्डके सभी ढोहे रोचक और मनोहर हैं । दृष्टान्तों द्वारा संसारकी वास्तविकताका चित्रण करनेमें कविको अपूर्व सफलता मिली है। वस्तुका चित्र नेत्रोंके सामने मृतिमान होकर उपस्थित हो जाता है । को हैं सुत को है तिया, काको धन परिवार । आके मिले सरायमें, बिधुरेंगे निरधारं ॥ परी रहेंगी संपदा, धरी रहेंगी काय । safe करि क्यों न चचै, काल अपट ले जाय ॥ आया खो नाही रह्या, दशरथ लक्ष्मन राम । तू कैसे रह जायगा, झूठ पापका धाम ॥ कविकी चुभती हुई उक्तियों हृदयमं प्रविष्ट हो जाती हैं तथा जीवनके आन्तरिक सौन्दर्यकी अनुभूति होने लगती है। इस सतसईकी भाषा टेट हिन्दी है, किन्तु कहीं-कहीं जयपुरी भाषाका पुट भी विद्यमान है । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक काव्य २०॥ यह छोटी-सी सरस रचना कवि विनोदीलालकी है। कविने इसमे नेमिनाथकी बरातका चित्रण किया है तथा पशु-पक्षियोको पिजडेमे बन्द नेमिव्याह .. देखकर उनकी हिंसासे भयभीत हो युवक नेमिनाथ " वैराग्य ग्रहण कर लेते है । इसकी कथावस्तुका निर्देश पूर्वमे नेमिचन्द्रिकाके परिशीलनमे किया जा चुका है। इसकी एक प्रमुख विशेपता यह है कि नेमिनाथके मनमे दुःखी राष्ट्रके दुःखको दूर करनेकी प्रवल आकाक्षा उत्पन्न हो जाती है । यद्यपि उनके मनमें कुछ क्षणोतक सासारिक प्रलोभनोसे युद्ध होता है, परन्तु जब तटस्थ होकर राष्ट्रकी परिस्थितिका चिन्तन करते है, उस समय उनका मोह समाप्त हो जाता है। भौतिक सुखोको छोडकर मानव कल्याणके लिए नेमिनाथका इस प्रकार तपस्याके लिए चला जाना, जीवनसे पलायन या दैन्य नहीं है। यह सच्चा पुरुषार्थ है । इस पुरुषार्थको हर व्यक्ति नही कर सकता, इसके लिए महान् आत्मिक बलकी आवश्यकता है। जिसकी आत्मामें अपूर्व बल होगा, अन्तस्तलमे मानव-कल्याणकी भावना सुलगती होगी, वही व्यक्ति इस प्रकारके अद्वितीय कार्योंको सम्पन्न कर सकेगा। कविने रचनाके आरम्भमें वरकी वेश-भूषाका वर्णन करते हुए बतलाया है। मौर धरो सिर दूलहके कर कंकण बाँध दई कस डोरी। कुंडल काननमें झलके अति मालमें लाल विराजत रोरी। मोतिनकी लड शोभित है छवि देखि लजें बनिता सब गोरी। लाल विनोदीके साहिबके मुख देखनको दुनियाँ उठ दौरी। विरक्त होते हुए नेमिनाथका चित्रण नेम उदास भये जबसे कर जोडके सिद्धका नाम लियो है। अम्बर भूपण डार दिये शिर मौर उतारके डार दियो है ॥ रूप धरों मुनिका जवहीं तवहीं चढिके गिरिनारि गयो है। लाल विनोदीके साहिबने वहाँ पाँच महावत योग लयो है ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन साहित्य-परित्रीलन कविने इस रचनामै युवकोके आदर्श के साथ युवतियोंके आदर्शका भी सुन्दर अकन किया है। जबतक देशका नारी समाज जाग्रत न होगा और "विवाह ही जीवनका उद्देश्य है" इस सिद्धान्तका त्याग न करेगा तबतक राष्ट्रका कल्याण नही हो सकता । राजुलने ऐसा ही आदर्श प्रस्तुत किया है । भोग जीवनका जघन्य लक्ष्य है, व्यक्ति जब भोगवादसे ऊपर उठ जाता है, तभी वह सेवा कार्यमे प्रवृत्त हो जाता है। जब मातापिता राजुलको पुनः वरान्वेपणकी बात कहकर सन्तुष्ट करते हैं, तब क्या ही सुन्दर उत्तर देती है २०२ काहे न बात सम्हाल कहाँ तुम जानत हो यह बात भली है गालियाँ कादत हो हमको सुनो तात भली तुम जीभ चली है ॥ मैं सबको तुम तुल्य गिनौ तुम जानत ना यह बात रही है । या भवमें पति नेमप्रभू वह लाल विनोदीको नाथ बली है ॥ जैन कवियोने वारहमासोंकी रचना कर वीरता और राष्ट्रीयताकी भावनाओंका सुन्दर अंकन किया है । यद्यपि वारहमासोंमें सवाद रूपमे सेवा और वैराग्यकी भावना ही अन्त मे दिखलाई गई है, परन्तु संवादोके मध्यमे विभिन्न मानवीय भावनाओंका अकन भी सुन्दर हुआ है । प्रस्तुत वारहमासा कवि विनोदीलाल- द्वारा विरचित है। इसमे राजुल अपने संकल्पित पति नेमिनाथसे अनुरोध करती है कि "स्वामिन्! आप इस युवावस्थामे क्यों विरक्त होकर तपस्या करने जाते है ? यदि आपको तपस्या करना ही अभीष्ट था और आप देशमे अहिंसा सस्कृतिका प्रचार करना चाहते थे तो आपने आपाढ़ महीनेमे यह व्रत क्यो नहीं लिया ? जब आप श्रावणमें विवाहकी तैयारी कर आ गये, तब क्यों आप इस प्रकार मुझे ठुकराकर जा रहे है। मैं मानती हूँ कि राष्ट्रोत्थानमे भाग लेना प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य बारहमासा नेमिराजुल है । स्वर्णिम अतीत प्रत्येक सहृदयको प्रभावित करता है । राष्ट्रकी सम्पत्ति 1 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रकीर्णक काव्य २०३ युवक और युवतियाँ है, इन्हीके ऊपर राष्ट्रका समस्त भार है, अतः आपका महत्त्वपूर्ण त्याग वैयक्तिक साधना न बनकर राष्ट्रहित-साधक होगा; फिर भी मै आपके कोमल शरीर और ललित कामनाओका अनुभव कर कहती हूँ कि यह व्रत आपके लिए उचित नहीं है । श्रावण मासमें व्रत लेनेसे धनघोर बादशैंका गर्जन, विद्युत्की चकाचौध, कोयलकी कुहुक, तिमिरयुक्ता यामिनी, पूर्वी हवाके मधुर और शीतल ओंके आपको वासनासक्त किये विना न रहेंगे । इस महीनेमे दीक्षा लेना खतरेसे खाली नहीं है, अतएव तप साधन करना ठीक नहीं है।" राजुलकी उक्त वातोका उत्तर नेमिनाथने बड़े ही ओजस्वी वचनोंमे दिया है । वह कहते हैं कि “जब तक व्यक्ति अपना गोधन नहीं करता, राष्ट्रका हित नहीं कर सकता है। आत्मगोधनके लिए समयविशेपकी आवश्यकता होती है । भय और त्रास उन्ही व्यक्तियोको विचलित कर सकते हैं, जिनके मनमे किसी भी प्रकारका प्रलोभन शेष रहता है । प्रकृतिके मनोहर रूपमे जहाँ रमणीय भावनाओको जाग्रत करनेकी क्षमता है। वहाँ उसमे वीरता, धीरता और कर्तव्यपरायणताकी भी भावना उत्पन्न करनेकी योग्यता विद्यमान है । अतः श्रावण मासकी झडी वासनाके स्थानपर विरक्ति ही उत्पन्न कर सकेगी।" नेमिनाथके इस उत्तरको सुनकर राजुल भाद्रपद मासकी कठिनाइयोका वर्णन करती है। वह मोहवश उनसे प्रार्थना करती हुई कहती है कि "हे प्राणनाथ | आप जैसे सुकुमार व्यक्ति भाद्रपद मासकी अनवरत होनेवाली वर्षा ऋतुमे मुक्त प्रकृतिमे, जहाँ न भव्य प्रासाद होगा और न वनवेश्म होगा, आप किस प्रकार रह सकेगे ? झझावात नन्हीं नन्ही पानीकी बूंदोसे युक्त होकर गरीरमें अपूर्व वेदना उत्पन्न करेगा । यदि आप योगधारण करना चाहते हैं तो घर ही चलकर योगधारण कीजिये। सेवकको वन जाना आवश्यक नहीं, वह घरमे रहकर भी सेवा-कार्य कर सकता है। प्राणनाथ! मैं यह मानती हूँ कि इस समय देशमे हिंसाका बोलबाला है, Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिवीलन इसे दूर करनेके लिए पहले अपनेको पूर्ण अहिंसक बनाना पड़ेगा, तम् देशका कल्याण हो सकेगा । परन्तु आपका मोह मुझे इस बातकी प्रेरण. दे रहा है कि मैं इस कठिनाईसे आपकी रक्षा करें।" ___राजुलकी इन बातोंको मुनकर नेमिनाथ हँस पड़ते हैं और कहने है कि फष्टसहिष्णु बनना प्रत्येक व्यक्तिको आवश्यक है । ये थोडेसे कष्ट किन गिनतःम है, जब नरक, निगोटके भयंकर कष्ट सह है तथा इस समय जा. हमारा राष्ट्र सन्तन है, प्रत्येक प्राणी हिंसासे छटपटा रहा है, उस समय तुम्हारी ये मोहभरी बात कुछ मी महन्च नही रखती । मैने अच्छी तरह निश्चय करने के उपरान्त ही इस मार्गका अवलम्बन लिया है। इसी प्रकार रानुलने बारह महीनोंकी भीषणताका चित्राकन किया है. नेमिनाथ इन विमीपिकामा भयमीत नहीं होते हैं और वह अपने व्रतम दृढ़ रहते हैं । इस ग्रमंग सभी पद्य मुरल और मधुर है । कात्तिक मासन चित्रण करती हुई राजुल कहती है पिय क्रानिक में मन कम रह जब भामिनि मान सनायेंगी। रचि चित्र-विचित्र सुरंग सबै, घर ही घर मंगल-गावेगी । पिय नूतन-नारि सिंगार किये, अपनो पिय टेर बुलावगी। पिय वारहिबार बरै दियरा, नियरा तरसावंगी। नेमिनाथका प्रत्युत्तरतो जियरा तरस सुन राजुल, ना तनको अपनो कर नान । पुद्गल भिन्न है भिन्न मर्व, वन छाँदि मनोरथ आन सयान । बूढेगो माई कलिधार में, नई चेतना को एक प्रमान । हंस पिवै पय मिन कर जल, सो परमातम आतन जाने । वसन्त ऋतुकं आगमनकी विमापिका दिन्नुलाती हुई राजुल कहती हैपिय लागगो चैत वर्मत सुहावना, फूलैंगी बेल सबै बनमाहीं। फूलेंगी कामिनी जाको पिया घर, फूलगी फूल सबै बनराई । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक काव्य २०५ जहदाला खेलहिंगे ब्रनके बन मैं सव, वाल गुपाल र कुवर कन्हाई। नेमि पिया उठ आवो घरै तुम, काहेको करहो लोग हंसाई ॥ यह पं० दौलतरामकी एक सरस आध्यात्मिक कृति है । कविने जैनतत्वोकै निचोड़को इस रचनामें सकलित किया है। संस्कृतके अनेक ग्रन्यो o को पढ़कर जो भाव कविके हृदयमें उठे, उन्हे जैसेके छहलाला तैसे रूपमे छहढालामे रख दिया है । इस रचनाकी भापा गॅठी हुई और परिमार्जित है। कविने जीवनमे चिरन्तन सत्यको और सत्यकी क्रियाको जैसा देखा, जन-कल्याणके लिए वही लिखा । मानवताका चरमविकास ही कविका अन्तिम लक्ष्य है। अतः वह समस्त वन्धनोंसे मानवको मुक्तकर शान्वतिक आनन्द-प्रातिके लिए अग्रसर करता है । कविकी चिन्तनशीलता चन्द्रमाकी चाँदनीके समान चमकती है । प्रथम दालमे चारो गतियोंका दुःख, द्वितीयमे मिथ्यावुद्धिके कारण प्राप्त होनेवाले कष्ट, तृतीयमे सात तत्त्वके सामान्य विवेचनके पश्चात् सम्यक्त्वका विवेचन, चतुर्थमे सम्यग्ज्ञानकी विशेषता, पञ्चममे विश्वके रहत्याको अवगत करनेके लिए विभिन्न प्रकारके चिन्तन एव पष्ठम आचारका विधान है । प्रथम ढाल्मे कविने नारक, पशु, मनुष्य और देवोंके भवप्रमोंका कथन करते हुए बताया है कि अनादिकालसे यह प्राणी मोहमदिराको पीकर अपने आत्मस्वरूपको भूल ससार-परिभ्रमण कर रहा है। कविने कितनी गहराईके साथ इस भव-पर्यटनका अनुभव किया हैमोह महामद पियौ अनादि, भूल आपको भरमत वादि । x काल अनन्त निगोद मंझार, बोत्यौ एकेन्द्री वन धार ॥ एक स्वासमै अठदस बार, जन्मौ मस्यौ मस्यौ दुःखमार । निकसि भूमिजल पावक भयौ, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो। दुर्लभ लहि ज्यौं चिंतामणी, त्यौ पर्याय लही सतणी । X Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन तीसरी ढालमे जीव, अजीव, आसव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोनका तात्त्विक विवेचन है। कल्याणका मार्ग बतलाता हुआ कवि कहता है यो अनीव अव आस्रव सुनिये, मन-वच-काम त्रियोगा। मिथ्या अविरत अरु कपाय, परमाद सहित उपयोगा ॥ ये ही भातमको दुःख कारण, तातै इनको तनिये । जीव प्रदेश बंधे विधि सौं, सो बंधन कबहु न सजिये । शम दम से जो कर्म न आवै, सो संवर भादरिये । तपवल नै विधि-झरन निर्जरा, ताहि सदा आधरिये ॥ आध्यात्मिक कृति होने के कारण पारिभाषिक जैन शब्दोंकी बहुलता है। फिर भी मानव जीवनको उन्नत बनानेवाले सदेशकी कमी नहीं है। कवि कहता है कि अपने गुण और परके दोषोंको छिपानेसे मानवका विकास होता है । परछिद्रान्वेपणकी प्रवृत्ति समाज और व्यक्तिक विकासमे नितान्त वाधक है। अतएव किसी व्यक्तिके दोपोंको देखकर भी उसे पुनः सन्मार्गमे लगा देना मानवता है। जो व्यक्ति इस मानवधर्मका अनुसरण करता है, वह महान् है निजगुण अरु पर औगुण ढाँकै, चानिज धर्म वढावै। कामादिक कर वृपत त्रिगत, निज परको सुदृढ़ावै ।। चौथी ढाल्म वैयक्तिक और सामाजिक जीवनके विकासकी अनेक भावनाएँ अकित है। कवि आत्मविकासका साधन बतलाता हुआ कहता है-रागद्वेप करतार कथा कवहूँ न सुनीजै आगे पुनः कहता है-'धर उर समताभाव, सदा सामायिक करिये इन पद्योमे जीवनको उन्नत बनानेवाले सिद्धान्तोका कथन है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक कान्य पाँचवी दालमे संसारकी वास्तविकताका निरूपण करता हुआ कवि कहता है "जोवन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी। इन्द्रिय-भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई ॥" छठवी ढालमें जीवनके आदर्शोको निरूपण करते हुए कहा है 'यह राग माग दहै सदा, तातै समामृत सेइये। इस प्रकार इस छोटी-सी कृतिमे जीवनको यथार्थताका चित्रण किया गया है। छहढालाकी एक बहुत बड़ी विशेषता यह भी है कि इसमे समूचे जैन दर्शनको, पारिभाषिक शब्दावलिके आधारपर सरस और सरल रूपमे गुम्फित कर दिया गया है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठवाँ अध्याय आत्मकथा-काव्य आत्मकथा लिखना अन्य काव्योकी अपेक्षा कठिन है। लेखक निर्भीक होकर सामान्य जगत्के घरातलसे ऊपर उठकर ही आत्मकथा काव्य लिख सकता है । सत्यका प्रयोग करनेमें जो जितना सक्षम है, वह उतना ही श्रेष्ठ आत्मकथा-काव्य लिखनेकी क्षमता रखता है। जैनकवि बनारसीदासका सर्वप्रथम आत्मकथा-काव्य हिन्दी साहित्यमें उपलब्ध है। आजसे लगभग चार सौ वर्ष पूर्व कविने पद्यात्मक यह आत्मचरित लिखा है। इसमें अपने समयकी अनेक ऐतिहासिक बातोके साथ मुसलमानी राज्यकी अन्धाधुन्धीका जीता-जागता चित्र भी खीचा है। कविने सत्यप्रियता, स्पष्टवादिता, निरभिमानता और स्वाभाविकताका ऐसा अकन किया है जिससे यह आत्मकथा आधुनिक आत्मकथाओसे किसी भी बातमे कम नहीं है । कविने अपने दोष और त्रुटियोंको भी सत्य और ईमानदारीके साथ ज्योका-त्यो रख दिया है। अपने चारित्रिक दोषोपर पर्दा डाल्नेका प्रयास नहीं किया है, बल्कि एक वैज्ञानिकके समान तटस्थ होकर यथार्थताका विश्लेपण किया गया है। ___ यह आत्मकथा-काव्य 'मध्यदेशकी बोली में लिखा गया है। भाषामें किसी भी प्रकारका आडम्बर नहीं है। जो भाषा सुगमतापूर्वक सर्वसाधारणकी समझमें आ सके, उसीमे यह आत्मचरित लिखा गया है। आत्मकथाके आदिमे स्वय कविने लिखा है जैनधर्म श्रीमाल सुर्वस । बनारसी नाम नरहंस ॥ तिन मनमाहि विचारी वात । कही आपनी कथा विख्यात ।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मकथा-कान्य ३०२ जैसी सुनी पिलोकी नैन । तैसी कछु कहौं मुख बैन । कहीं अतीत-दोप-गुणवाद । बरतमानताई मरजाद ॥ भाषी दसा होइगी जथा । ग्यानी जाने तिसकी कथा ॥ तातै भई बात मन आनि । थूलरूप कछु कही बखानि ॥ मध्य देसकी बोली बोलि । गर्भित बात कही हि खोलि ॥ भाखौ पूरव-दसा-चरित्र । सुनइ कान धरि मेरे मित्र ॥ समूची आत्मकथा इतनी रोचक है और ऐतिहासिक निबन्धनकी दृष्टिसे इतनी महत्त्वपूर्ण है कि इसका कुछ विस्तारसे वर्णन करनेका लोम सवरण नही किया जा सकता | कवि बनारसीदास एक धनी-मानी सम्भ्रान्त वशमे उत्पन्न हुए थे। इनके प्रपितामह जिनदासका साका चलता था, पितामह मूल्दास हिन्दी और फारसीके पडित थे; और ये नरवर (मालवा) मे वहाँके मुसल्मान नवावके मोदी होकर गये थे। इनके मातामह मदनसिंह चिनालिया जौनपुरके नामी जौहरी थे और पिता खड्गसेन कुछ दिनोतक बगालके सुल्तान मोदीखॉके पोतदार थे और कुछ दिनोके उपरान्त जौनपुरमे जवाहरातका व्यापार करने लगे थे। इस प्रकार कविका वश सम्पन्न था तथा अन्य सम्बन्धी भी धनिक थे। पर आत्मकथा-लेखकको सुख-शान्ति जीवनमे नही मिली | अतः धनार्जनके लिए जीवन भर इन्हें दौड-धूप करनी पड़ी और तरह-तरहके कष्ट सहने पडे । इस दौडधूप और कष्टोंका निरूपण कविने अत्यन्त विशुद्ध हृदय से किया है। कविने यद्यपि सामान्यशिक्षा प्राप्त की थी, पर कविता करनेकी प्रतिभा जन्मनात थी। १४ वर्षकी अवस्थामे प० देवदत्तके पास पढना आरम्भ किया था और धनञ्जयनाममालादि कई ग्रन्थोको पढ़ा था पढ़ी नाममाला शत दोय । और अनेकारथ अवलोय । ज्योतिष अलंकार लघु कोक । खंडस्फुट शत चार श्लोक ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन कविके ऊपर माता-पिता और दादीका अतिशय स्नेह था । अतः यौवनारम्भमें यह इश्कबाज हो गये । कवि लिखता है तनि कुलकान लोककी लाज । भयो बनारसि आसिखवाज ॥ करै आसिखी धरित न धीर । दरदवन्द ज्यों शेख फकीर । इकटक देख ध्यानसी धरै। पिता आपुनेको धन हरै ॥ कविका कार्य इस अवस्थामे पढना और इश्कबाजी करना था। इन्होने चौदह वर्षकी आयुमे एक सुन्दर 'नवरस' नामक रचना भी एक सहल प्रमाण दोहे-चौपाईमे लिखी थी । बोध जाग्रत होनेपर कविने इस ग्रन्थको गोमतीमें प्रवाहित कर दिया। कवह आइ शब्द उर धरै । कवह जाइ आसिखी करै। पोथी एक बनाई नई । मित हजार दोहा चौपई ॥ तामें नवरस रचना लिखी। है विशेष परनन मासिखी॥ ऐसे कवि बनारसि भये। मिथ्याग्रन्थ बनाये नये ॥ कैपढ़ना के आसिखी, भगन दुई रस माहि । खानपानकी सुधि नहीं, रोजगार कछु नाहिं ॥ १५ वर्ष १० महीनेकी अवस्थामे कवि सजधजकर अपनी ससुराल खैराबादसे द्विरागमन कराने गया। ससुरालमे एक माह रहनेके उपरान्त कविको पूर्वोपार्जित अशुभोदयके कारण कुष्ठ रोग हो गया, विवाहिता भायां और सासुके अतिरिक्त सवने साथ छोड़ दिया। कविने इस अवस्थाका निरूपण करते हुए बताया है कि खैराबादके एक नाईने, जो कुष्ठ रोगका वैद्य था, दो महीने अनवरत श्रम और चिकित्साकर उन्हे अच्छा किया । भयो बनारसिदास तन, कुष्ठरूप सरवंग। , हाड़ हाद उपजी व्यथा, केश रोम ध्रुवभंग ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मकथा काव्य चिस्फोटक अगनित भये, हस्त चरण चौरंग । कोक नर साले ससुर, भोजन करहिं न संग ॥ ऐसी अशुभ दशा भई, निकट न आवै कोइ । सासू और विवाहिता, करहिं सेव तिय दोह ॥ २११ स्वस्थ होकर कवि पत्नीको बिना ही लिवाये घर आया और पूर्ववत् पढ़ना-लिखना तथा इकवाजी करना आरम्भ कर दिया। चार महीने के के पश्चात् कवि पुनः भार्याको दिवाने गया और विदा कराकर घर रहने लगा | अतः गुरुजन उपदेश देने लगे--- गुरुजन लोग देहिं उपदेश । आसिखवाज सुने दरवेश || बहुत पढे वामन और भाट । वनिक पुत्र तो बैठे हाट ॥ बहुत पढ़ें खो माँगे भीख । मानहु पूत बड़ोकी सीख ॥ सवत् १६६० में कविने अध्ययन समाप्त किया तथा कविकी बहन का विवाह भी इसी सवत्मे हुआ और कविको एक पुत्रीकी प्राप्ति भी इसी संवत्में हुई । सवत्, १६६१ मे एक धूर्त संन्यासी आया और उसने वढे आदमीका पुत्र समझकर इनको अपने जालमे फॅसा लिया । संन्यासीने कहा - "मेरे पास ऐसा मन्त्र है कि यदि कोई एक वर्ष तक नियमपूर्वक नपे तथा इस भेदको किसीसे न कहे तो एक वर्ष बीतनेपर मन्त्र सिद्ध हो जाता है, जिससे घरके द्वारपर एक स्वर्णमुद्रा प्रतिदिन पड़ी मिला करेगी ।" इकवाजीके लिए धनकी आवश्यकता रहनेके कारण लोभवश कविने मन्त्रकी साधना आरम्भ की । मन्त्र जपते-जपते बड़ी कठिनाईसे समय बिताया और प्रातःकाल ही स्नान-ध्यान करके बड़ी उत्कंठासे कवि घरके दरवाजे पर आया और स्वर्णमुद्राका अन्वेषण करने लगा, पर वहाँ सोनेकी तो बात ही क्या, मिट्टीकी भी मुद्रा न मिली । आशावश कविने यह समझकर कि कही दिन गिननेमे तो गल्ती न हो गई है अतः उसने कुछ दिनों तक पुनः मन्त्रका जप किया पर कुछ मिला-जुला नही । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन कुछ दिनोंके उपरान्त एक योगीने आकर अपना दूसरा रंग जमाया। भोले कविको इस रगम रॅगते विलम्ब न हुआ और योगी द्वारा प्रदत्त खरूप सदाशिवकी मूर्तिकी छुपकर पूजा करने लगा । योगी तो अपनी भेंट लेकर चला गया, पर कवि शख बजा-बजाकर सदाशिव के अर्चनमे अनुरक्त रहने लगा । यहाँ यह स्मरणीय है कि यह पूजा वह अपने परिवारसे छिपकर करता था, उसकी इस प्रवृत्ति के सम्बन्धमे किसीको कुछ भी पता नहीं था । संवत् १६६१ मे जब इनके पिता खड्गसेन हीरानन्दजी द्वारा चलाये गये शिखरजी यात्रा सघमे यात्रार्थं चले गये तो इन्होंने कुछ दिनोतक चैनकी वशी बजानेके पश्चात् भगवान् पार्श्वनाथकी यात्रा करनेकी आज्ञा अपनी मॉसे माँगी। आज्ञा न मिल्नेपर कवि चुपचाप वनारस के भगवान् पार्श्वनाथकी पूजा करनेके लिए चल दिया । वहाँ पहुँचकर गंगास्नानपूर्वक दस दिनो तक भगवान् पार्श्वनाथकी पूजा करता रहा ; किन्तु इस समय भी सदाशिवकी पूजा ज्योंकी त्यो होती रही । कविने आत्मकथामं सदाशिव पूजनको उत्प्रेक्षा और आक्षेपा कारमै निम्न प्रकार कहा है २१२ शंखरूप शिव देव, महाशंख बनारसी । दोऊ मिले अबेव साहिब सेवक एकसे ॥ सवत् १६६२ में कार्त्तिक मासमें अकबरकी मृत्यु हो जानेपर नगर में किस प्रकारकी व्याकुलता छा गई, कविने आत्मकथामे सजीव चित्रण किया है C घर घर दर दर दिये कपाट, हटवानी नहिं बैठे हाट । वाई गादी कहुँ और नकदमाल निरभरमी ठौर ॥ भले वस्त्र अरु भूपन भले, ते सव गाढ़े धरती तले । वर घर सबनि बिसाहे शस्त्र, लोगन पहिरे मोटे वख ॥ गादो कंबल अथवा खेस, नारिन पहिरे मोटे बेस । ऊँच नीच कोठ न पहिचान, धनी दरिद्री भये समान ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ सदाशिवका बहुत दिन तक पूजन करनेके उपरान्त एक दिन कवि एकान्तमे बैठा-बैठा सोचने लगा जब मैं गिरयो परयो सुरक्षाय । तब शिव कछु नहिं करी सहाय ॥ इस विकट शकाका समाधान उसके मनमे न हो सका और उसने सदाशिवकी पूजा करना छोड़ दिया। कुछ दिनोंके पश्चात् एक दिन कवि सन्ध्या समय गोमतीकी ओर पर्यटन करने गया और प्राकृतिक रमणीय दृश्यने कविके अन्तस्तलको आलोडित किया, फलतः कविको विरक्ति हुई और उसने अपनी श्रृंगार रसकी रचना नवरसको उसमे प्रवाहित कर दिया तथा स्वय पापकर्मोंको छोड़ सम्यक्त्वकी ओर आकृष्ट हुआ--- आत्मकथा-काव्य तिस दिन सों बानारसी, करी धर्म की चाह । तजी आसिखी फासिखी, पकरी कुल की राह ॥ X x x उदय होत शुभ कर्म के, भई अशुभकी हानि । तार्ते तुरत बनारसी, गही धर्म की बानि ॥ संवत् १६६७ में एक दिन पिताने पुत्रसे कहा - " वत्स ! अब तुम सयाने हो गये, अतः घरका सब काम-काज सभालो और हमको धर्म- ध्यान करने दो ।" पिताके इच्छानुसार कवि घरका कामकाज करने लगा । कुछ दिन उपरान्त दो होरेकी अंगूठी, चौबीस माणिक, चौतीस मणि, नौ नीलम, वीस पन्ना, चार गॉठ फुटकर चुन्नी इस प्रकार जवाहरात बीस मन घी, दो कुप्पे तेल, दो सौ रुपयेका कपड़ा और कुछ नकद रुपये लेकर आगराको व्यापार करने चला । प्रतिदिन पाँच कोसके हिसाब से चलकर गाड़ियाँ इटावाके निकट आई, वहाँ मजिल पूरी हो जाने से एक बीहड़ स्थानपर डेरा डाला | थोडे समय विश्राम कर पाये थे कि मूसलाधार पानी बरसने लगा। तूफान और पानी इतनी Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन तेजीसे वह रहे थे, जिससे खुले मैदानमें रहना, अत्यन्त कठिन था। गाड़ियाँ जहॉकी तहाँ छोड़ सार्थी इधर-उधर भागने लगे | शहरमे भी कहीं शरण नहीं मिली। सरायमे एक उमराव ठहरे हुए थे, अतः स्थान रिक्त न होनेसे वहाँसे भी उल्टे पॉव लौटना पड़ा। कविने इस परिस्थितिका यथार्थ चित्रण करते हुए लिखा है फिरत फिरत फावा भये, बैठन कहे न कोय । तले कीचसों पग भरें, ऊपर बरसत तोय ॥ अंधकार रजनी वि, हिमरितु अगहनमास । नारि एक पैठन कहो, पुरुप उठा लै बाँस ॥ किसी प्रकार चौकीदारोंकी झोपड़ीमें शरण मिली और कष्टपूर्वक वहीं रात बिताई । प्रातःकाल गाड़ियाँ लेकर आगरेको चले, आगरा पहुँचकर मोती कटरेमें एक मकान लेकर उसमे सारा सामान रखकर रहने लगे । व्यापारसे अनभिज्ञ होनेके कारण कविको घी, तेल और कपड़ेमें घाटा ही रहा । इस विक्रीके रुपयोंको हुण्डी-द्वारा जौनपुर भेज दिया। जवाहरात भी जिस किसीके हाथ वेचते रहे, जिससे पूरा मूल्य नहीं मिला | इनहारबन्दके नारेमे कुछ छूटा जवाहरात वॉध लिया था, वह न मालूम कहाँ खिसककर गिर गया । माल बहुत था, इससे हानि अत्यधिक हुई, पर किसीसे कुछ कहा नहीं, आपत्तियाँ अकेले नहीं आती, इस कहावतके अनुसार डेरेमे रखे कपड़ेमे बंधे हुए जवाहिरातोको चूहे कपड़े समेत न मालूम कहॉ ले गये । दो जड़ाऊ पहुँची किसी सेठको बेची थी, दूसरे दिन उसका दिवाला निकल गया । एक जड़ाऊ मुद्रिका थी, वह सड़कपर गोठ लगाते हुए नीचे गिर पड़ी। इस प्रकार धन नष्ट हो जानेसे वनारसीदासके हृदयको बहुत बड़ा धक्का लगा, जिससे सन्ध्या समय जोरसे ज्वर चढ आया और दस लघनोंके पश्चात् पथ्य दिया गया। इसी बीच पिताके कई पत्र आये, पर इन्होंने लजावश उत्तर नही दिया। सत्य छिपाये Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्मकथा-काव्य २१५ छिपता नहीं, अतः इनके बडे बहनोई उत्तमचन्द जौहरीने सारी घटनाएँ जौनपुर इनके पिताके पास लिख भेजी । खद्गसेन इस समाचारको पाकर किंकर्तव्य विमूढ हो गये और पत्नीको बुरा-भला कहने लगे। जब बनारसीदासके पास कुछ न बचा तो गृहस्थीकी चीजोको वेचबेचकर खाने लगे । समय काटनेके लिए मृगावती और मधुमालती नामक पुस्तकाको बैठे पढ़ा करते थे । दो-चार रसिक श्रोता भी आकर सुनते थे। एक कचौडीवाल्य भी इन श्रोताओंमे था, जिसके यहाँसे कई महीनो तक दोनो भाम उधार लेकर कचौड़ियों खाते रहे । फिर एक दिन एकान्तमें इन्होंने उससे कहा तुम उधार कीनी बहुत, अब आगे जनि बेहु । मेरे पास कछु नहीं, दाम कहाँसौं लेहु ॥ कचौडीवाला सजन था, उसने उत्तर दिया कतै कचौढीवाला नर, बीस सवैया खाहु । तुमसौं कोउ न कछु कहै, जहँ भावै तह जाहु॥ कवि निश्चिन्त होकर छ-सात महीने तक दोनो माम भरपेट कचौडिया खाता रहा, और जब पासमें पैसे हुए तो चौदह रुपये देकर हिसाव साफ कर दिया। कुछ समयके पश्चात् कवि अपनी ससुराल खैराबाद पहुंचा। एकान्तमे भार्यासे समागम हुआ पतिव्रता चतुर मायांने पतिकी आन्तरिक वेदनाको जात कर अपने अर्जित वीस रुपयोकों भेट किया और हाथ जोड़कर कहा-"नाथ ! चिन्ता न करे, आप जीवित रहेगे तो बहुत धन हो जायगा।" इसके पश्चात् एकान्तमें उसने अपनी मातासे कहामाता काहू सौ निनि कही। निज पुत्रीकी सजा बहौ। थोरे दिन में लेहु सुधि, तो तुम मा मैं धीय । नाहीं तौ दिन कैकुमै, निकसि जाइगौ पीय ॥ . Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन ऐसा पुरुष लजाल बड़ा । वाव न कहै जात है गड़ा । कहै माइ जिन होहि उदास । कैसे मुद्रा मेरे पास ॥ गुपत देहु तेरे कर माहिं । जो वै यहुरि आगरे जाहि ॥ पुत्री कहै धन्य तू माइ । मैं उनकौं निसि वूझौं नाइ । रातको जव पुनः दम्पति मिले तो उस सती-साध्वीने अपनी मॉसे प्राप्त २०० रुपये भी उन्हें दे दिये और आगरे जाकर व्यापार करनेका अनुरोध किया । कविने दूसरे दिनसे ही व्यापारकी तैयारी कर दी तथा माल खरीदने लगा। इसी बीच अवकाश पर्याप्त मिला, अतः कविने नाममाला और अजितनाथ स्तुतिकी रचना यही की। दुर्भाग्यने कविका साथ सदा दिया, अतः इस व्यापारम भी कविको घाटा ही रहा । इसके पश्चात् कवि अपने मित्र नरोत्तमदासके यहाँ रहने लगा। कुछ दिनके पश्चात् नरोत्तम, उसके श्वसुर और बनारसीदास तीनों पटनेकी ओर चले । रातमे रास्ता भूल जानेसे एक चोरोंके ग्राममें पहुंचे। जब चोरोंके चौधरीने इन्हें देखा तो नाम-ग्राम पूछा । इस अवसरपर बनारसीदासकी बुद्धि काम कर गई और एक श्लोकमे चौधरीको आशीवाद दिया । लोकयुक्त आशीर्वाद सुनकर चौधरी कुछ मुग्ध हुआ और इन्हें ब्राह्मण समय दण्डवत् किया तथा हाथ जोड़कर बोला-"महाराज, आप लोग रास्ता भूलकर यहाँ आ गये है। रातभर यही रहें, सबेरे आपको रास्ता बतला दिया जायगा । जव चौधरी इनको वहाँ छोड़ शयन करने चला गया तो तीनोंने सूत बटकर यज्ञोपवीत धारण किया तथा मिट्टी घिसकर त्रिपुण्ड लगाया माटी लीन्हीं भूमिसों, पानी लीन्हों वाल । विप्र वेप तीनों धयों, रीका कीन्हों भाल ॥ इस प्रकार कविने वनारस, जौनपुर, आगरा आदि स्थानोंमे र Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्मकथा-काव्य व्यापार किया । दो चार जगह लाम भी हुआ, पर जीवनमे धनोपार्जन कमी नहीं कर सका। एकवार आगरा लौटते समय कुरी नामक ग्राममे कवि और कविके साथियोपर झूठे सिक्के चलानेका भयकर अपराध लमाया गया था तथा इनको और इनके साथी अन्य अठारह यात्रियोके लिए मृत्युदण्ड देनेको शूली भी तैय्यार कर ली गयी थी। आत्मकथामे इस सकरका विवरण रोमाचकारक है सिरीमाल वानारसी, अरु महेसरी जाति । करहिं मन्त्र दो जने, भई छमासी राति ॥ पहर राति जब पिछली रही। तब महेसरी ऐसी कही। मेरा लिहुरा भाई हरी । नाउँ सुवौ ब्याहा है वरी ॥ हम आए थे यहाँ घरात । भली याद आई यह वात ॥ वानारसी कहै रे मूढ । ऐसी वत करी क्यों गूढ़ ॥ तब महेसुरी यौं कहै, भयसों भूली मोहि । अव मोकौं सुमिरन भई, द निर्चित मन होहि ।। वब वनारसी हरपित भयो । कछुक सोच रहौ कछु गयो। कबहूँ चित की चिन्ता भगै । कबहूँ बात सठसी लगै॥ यो चिन्तवत भयो परभात । आइ पियादे लागे घात । सूली है मजूरके सीस। कोतवाल भेजी उनईस ॥ ते सराइ मैं डारी मानि । प्रगट पयादा कहै बखानि । तुम उनीस पानी ठग लोग । ए उनीस सूली तुम भोग ।। घरी एक बीते बहुरि, कोतवाल दीवान । आए पुरजन साथ सब, लागे करन निदान ॥ कवि गाईस्थिक दुर्घटनाओंका निरन्तर शिकार रहा। एकके बाद एक इनकी दो पनियोंकी एवं उनके नौ बच्चों की मृत्यु हो जानेपर कविने Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन अशुमोदयको ही अपनी क्षतिका कारण समझा | संवत् १६९८ में अपनी तीसरी पत्नीके साथ बैठे हुए कवि कहता है नौ वालक हुए मुए, रहे नारिनर दोइ । ज्या तरवर पतमार है, रहैं मूंठसे होइ । दूसरी स्त्रीको मृत्युकै उपरान्त कविने तीसरी शादी की तथा इसी बीच कविने अनेक रचनाएँ लिखीं चले वरात वनारसी, गये चाडसू गाय । वच्छा सुतकी व्याह करि, फिर आये निजधाम ॥ अरु इस वीचि कवीसुरी, कीनी बहुरि अनेक । नाम 'सूक्तिमुकावली', किए कवित सौ एक ॥ 'अध्यातम वत्तीसिका' 'पपडी 'फाग धमाल । कांनी 'सिन्धुचतुर्दशी' फूटक कवित रसाल । 'शिवपञ्चीसी भावना' 'सहस अठोत्तर नाम। 'करम उचीसी' 'झलना' अन्तर रावन राम ॥ वरनी ऑखें दोइ विधि, करी 'वचनिका' दोइ। 'भष्टक' 'गीत' बहुत किए, कहाँ कहालौ सोइ ॥ इस आत्मकथामें कविने अपना ५५ वर्षोंका चरित स्पष्टता और सत्यतापूर्वक लिखा है। कविने सत्यताके साथ जीवन की घटनाओंका यथार्थ चित्रण करनेमें तनिक भी कोर-कसर नहीं की है। वस्तुतः कविके जीवनकी घटनाएँ इतनी विचित्र है, जिससे पाठकोंका सहनमे मनोरजन हो सकता है। कविमे हात्यरसकी प्रवृत्ति अच्छी मात्रामे विद्यमान है, जिससे हँसी-मनाकके अवसरोंको खाली नहीं जाने दिया है। सिनेमाके चलचित्रोंके समान मनमोहक घटनाएँ प्रत्येक पाठकके मनमें गुदगुदी उत्पन्न किये विना नहीं रह सकती। ६७५ दोहा और चौपाइयोमें लिखी गयी इस आत्मकथामें कविको अपना चरित्र चित्रित करनेमें पर्यास Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ सफलता प्राप्त हुई है । अपनेको तटस्थ रखकर सत्कर्म और दुष्कमोंपर दृष्टि डाना तथा इन्हे जनताके समक्ष खोलकर कच्चे चिट्ठी के रूपमे रखना, कविका बहुत बड़ा साहस है । इसी साहसके कारण उनका यह आत्मकथा - काव्य आजके पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानोके लिए अनुकरणीय है । आत्मकथाकी सफल्टताके लिए जिन उपादानोंकी आवश्यकता है, वे सभी उपादान इसमे विद्यमान है । अतः यह हिन्दी साहित्य में सबसे पुराना आत्मकथा-कान्स है । भाषाकी सरलता और शैलीका सुस्पष्ट विधान इसका प्राण है । हिन्दी ससारको इसका वास्तविक रूपमे अनुसरण करना चाहिए । आत्मकथा -काव्य Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्याय रीति-साहित्य हिन्दीमें रीतिका प्रयोग लक्षण अन्यों के लिए होता है। जिस साहित्यमे काव्यके विभिन्न अगोंका लक्षण सोदाहरण प्रतिपादित होता है, उसे रीति साहित्य और जिस वैज्ञानिक पद्धतिपर-विधानके अनुसार यह प्रतिपादन किया जाता है, उसे रीति-शास्त्र कहते हैं। संस्कृत साहित्यमे इसे काव्यशास्त्र कहा गया है। जैन लेखक और कवियोंने काव्य और साहित्यके विधानको रीतिक अन्तर्गत रखा है। जिस युगमे जैन साहित्यकारोने रीतिसाहित्यका विवेचन किया था, उस युगमे देशका राजनीतिक और आर्थिक पराभव अपनी चरम सीमातक पहुंच गया था । भारतकी कला उत्कर्षक चरम विन्दुपर पहुँचनेके उपरान्त अगतिकी ओर अग्रसर हो रही थी। अप्रतिहत मुगलवाहिनी पश्चिमोत्तर प्रान्तोमें लगातार तीनबार असफल रही, जिससे धन-जनकी हानिके साथ मुगल साम्राज्यको भी भारी धक्का लगा । यद्यपि बाहरसे भारत सम्पन्न और शक्तिशाली दिखाई देता था, पर उसके भीतर क्षयका बीज अकुरित होने लग गया था। जहाँगीरकी मस्ती भौर शाहजहॉके अपव्यय दोनोका परिणाम देशके लिए अहितकर हुआ। ___ मुगल सम्रायके समान ही हिन्दू राजाओंकी स्थिति थी। बहुपत्नीत्वकी प्रथा रहनेके कारण राजपूत राजाओके रनिवासमे आन्तरिक कलह और ईर्ष्याका नग्न नृत्य होता था । अहकारकी भावना इन राजपूत राजाओमे इतनी अधिक थी, जिससे पुत्र भी पिताकी हत्या करनेको तैयार था। फलतः इस विषम राजनीतिक परिस्थितिमे हिन्दू और मुसलमान Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीति-साहित्य दोनों ही अपना नैतिक बल खो बैठे थे। दोनों ही निर्वाध इन्द्रियलिप्सामे रत थे । कवि और कलाकार अमीर, रईस और राजाओंके आश्रममे पहुँचकर इन्ही उच्चवर्गके व्यक्तियोकी कामपिपासाको उत्तेजित करनेमें संलग्न थे । उस शृंगारिक और विलासिताके युगमे वाह्य और आन्तरिक जीवनकी स्वस्थ अभिव्यक्तिका मार्ग अवरुद्ध हो चुका था । जन-साधारणकी वृत्तियाँ बहिर्मुखी होकर अस्वस्थ कामविलासमे ही अपनेको व्यक्त करती थीं । राजा, महाराजा और रईस वाह्य जीवनसे त्रस्त होकर अन्तःपुरकी रमणियोंकी गोद में शान्तिका अनुभव करते थे । नैराग्यने अतिशय विलासिताका रूप ग्रहण कर लिया था । २२१ इस युगमं हिन्दू धर्मकी स्थिति और भी दयनीय थी । जीवनमे विलासिता आ जाने के कारण साधना और तत्त्वचिन्तनमे शैथिल्य आ गया था । धर्मका तात्त्विक विकास विलकुल अवरुद्ध हो गया था, भक्ति और सेवा-अर्चन ऐश्वर्य और विलासने स्थान पा लिया था । विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायमै अन्धविश्वास और रूढ़ियोंने घर कर लिया था । जिससे धर्म भी शृंगार और विलासके पोपणका साधन वन गया था | भक्तिकाल के राधा-कृष्ण एक साधारण नायक-नायिकाके पटपर आसीन हो गये थे । मठ और मन्दिर देवदासियोंके चरणोकी छम-छम से गूँजते रहते थे । उनताका बौद्धिक ह्रास हो जानेके कारण साहित्यस्रष्टा और कलाकारोको मी विलास और शृङ्गारको उत्तेजित करना आवश्यक- सा हो गया था | फलतः हिन्दी साहित्यमे नायक नायिकाभेदपर सैकडो काव्य लिखे गये तथा हिन्दी कवियोने लक्षण ग्रन्थोंके साथ शृङ्गारका खुला निरूपण किया । जीवनके मूलगत गम्भीर प्रश्नोके समाधानकी ओर कवियोका बिल्कुल ध्यान ही नहीं गया । अतएव हिन्दी रीति-साहित्यमे आध्यात्मिकताका तो पूर्ण अभाव है ही, पर प्रकृतिकी दृढ़ कठोरता भी नही है । जीवनकी अनेकरूपता, जो कि किसी भी भाषा के साहित्यके लिए स्थायी सम्पत्ति है इस युग के साहित्यमे उसका प्रायः अभाव है। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन रीतिकालकी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक परिस्थितियोंने भाषा और कविता दोनोको अलकृत किया है। समयकी रुचि और तदाश्रित काव्य-प्रेरणा अलकरणके अनुकूल .थी, अतः काव्यके रूपआकारको सजानेका पूरा प्रयत्न किया है। हिन्दीके रीतिग्रन्थ प्रायः काव्यप्रकाश, शृङ्गार-तिलक, रसमजरी, चन्द्रालोककी विषय-निरूपण-शैलीपर रचे गये हैं। विपयका पिष्ट-पेपण होनेके कारण कोई नयी उद्भावना रस, अलंकार या शब्द शक्तिके सम्बन्धम नहीं हुई । संस्कृत साहित्यके समान शृङ्गारको ही रसराज मानते हुए नायक-नायिकाओंके भेद-प्रभेदोमे ही वालकी खाल निकालकर कलाकार कवि-कर्मकी इतिश्री समझते रहे। परन्तु जैन कलाकारोने इस विलासिताके युगमें भी वहिर्मुखी वृत्तियोंका सकोच और अन्तर्मुखी वृचियोंके प्रसार-द्वारा अन्तस्के प्रकाशको प्राप्त कर चिर-सत्य एवं चिर-सुन्दरको आधारभूमिपर आरूढ़ हो शान्तरसमें निमनन किया है । महाकवि बनारसीदासने शृंगारी कवियोकी भर्सना करते हुए कहा है ऐसे मूढ कु-कवि कुधी, गहें मृपा पथ दौर । रहे मगन अभिमान में, कह औरकी और ॥ वस्तु सरूप लखें नहीं, बाहिन दृष्टि प्रमान । मृपा विलास विलोकके, करें मृपा गुनगान ॥ कविने शृगारी कवियोंके मृषा गुनगानका विदलेषण करते हुए ववाया है माँस की प्रन्थि कुच कंचन कलस कह, कह मुखचन्द जो सलेपमा को घर है। हाड के दशन आहि हीरा मोती कहे वाहि, मास के अधर मोठ कहे विवफर है। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीति-साहित्य हाड दम्भ भुजा कहे कौल नाल काम शुधा, हाड ही के थंभा जंघा कहे रंभा तरु है। यों ही झूठी जुगति बना औ कहाचे कपि, एते पै कहैं हमें शारदाको पर है। जैन कान्यकी वैराग्योन्मुख प्रवृत्तिका विश्लेषण करनेपर निम्न निष्कर्ष निकलते हैं (१) इसका मूलाधार आत्मानुभूति या प्रथम गुण है। इसमे पार्थिव एव ऐन्द्रिय सौन्दर्यके प्रति आकर्षण नहीं है। अपार्थिव और अतीन्द्रिय सौन्दर्यके रहस्य सकेत सर्वत्र विद्यमान है। (२) रागात्मिका प्रवृत्तिको उदात्त और परिष्कृत करना तथा जीवनोन्नयनके लिए तत्त्वज्ञानका आश्रय लेना । जीवन-साधना स्वानुभव या तत्त्वज्ञानके अनुभव-द्वारा ही होती है, अतः तत्त्वज्ञानको जीवनम उतारना तथा जीवनकी वास्तविकताओसे आमने-सामने खड़े होकर टक्कर लेने में सम्पूर्ण चेतनाका उपयोग करना । (३) वासनाके स्थानपर विशुद्ध प्रेमको अपनाना और आदर्शवादी बलिदानकी भावनाको जीवनमे उतारना। (४) तरलता और छाके स्थानपर आत्माकी पुकार एव स्वस्थ जीवन-दर्शनको उपस्थित करना । (१) जीवनके मूलगत प्रश्नोका समाधान करते हुए उबुद्ध जीवनकी गहन मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्याओसे अभिज्ञ करना। (६) घोर अव्यवस्थासे क्षत-विक्षत सामन्तवादके भग्नावशेषकी छायामे त्रस्त और पीड़ित मानवको वैयक्तिक स्फूर्चि और उत्साह प्रदान करना। ' (७) जीवन पथको, नैराश्यके अन्धकारको दूरकर आशाके संचार-द्वारा आलोकित करना एव विलास जर्जर मानवमे नैतिक बलका सचार करना। कविवर भूधरदासने कवियोको बोध देते हुए बताया है कि बिना सिखाये ही लोग विषयसुख सेवनकी चतुरता सीख रहे हैं, तव रसकाव्य Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ हिन्दी - जैन-साहित्य- परिशीलन रचनेकी क्या आवश्यकता १ जो कवि विषय-काव्य रचकर जनता - जनार्दनको विपयोकी ओर प्रेरित करते हैं, वे मानव समाजके शत्रु है । ऐसे कुकवियो से सत्साहित्यके 'जीवनका निर्माण और उत्थान' कभी सिद्ध नहीं हो सकता है। कामुकताकी वृद्धि करना कविकर्मके विपरीत है, अतएव कोरी शृगारिकताको प्रश्रय देना उचित नहीं है । राग उदय जग अन्ध भयो, सहजे सब लोगन लाज गँवाई । सीख विना नर सीखत है, विषयानिके सेवनकी सुघराई ॥ तापर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई । अन्ध असूझनिकी अँखियान में झोंकत है रज रामदुहाई ॥ जहाँ शृगारी कवियोंने स्तनोको स्वर्णकलशोकी और उनके व्यामल अग्रभागको नीलमणिक ढँकनीकी उपमा दी है, वहाँ कवि भूधरदासने क्या ही सुन्दर कल्पना द्वारा भावाभिव्यञ्जन किया है कंचन कुम्भनकी उपमा, कहि देत उरोजनको कवि बारे । ऊपर श्याम विलोकतके मनिनीलम ढँकनी ढँक ढारे ॥ यो सत वैन कहे न कु पण्डित, ये युग आमिप पिण्ड उधारे । साधन र दुई मुँह छार, भये इहि हेत किधौं कुच कारे ॥ जैन साहित्यमे अन्तर्मुखी प्रवृत्तियोंको अथवा आत्मोन्मुख पुरुपार्थको रस बताया है। जबतक आत्मानुभूतिका रस नहीं छलकता रसमयता नही आ सकती | विभाव, अनुभाव और संचारीभाव रस-सिद्धान्त जीवके मानसिक, वाचिक और कायिक विकार हैं, स्वभाव नही है । रसोका वास्तविक उद्भव इन विकारोके दूर होनेपर ही हो सकता है । जवतक कपाय — विकारोंके कारण योगकी प्रवृत्ति शुभाशुभ रूपमें अनुरंजित रहती है, आत्मानुभूति नहीं हो सकती । शुभाशुभ परिणतियोकै नाश होनेपर ही शुद्धानुभूतिजन्य आत्मरस छलकता है, इसी Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीति-साहित्य २२५ कारण लौकिक रूपमे रस - विरस है । महाकवि बनारसीदासने इसकी अलौकिकताका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है जब सुबोध घटमैं परगासै । नवरस विरस विषमता नाले ॥ नवरस लखै एक रस माहीं । तातें विरसभाव मिटि जाहीं ॥ अर्थात् जब हृदयमे विवेक - यथार्थ ज्ञानका प्रकाश होता है, तब रसोकी बिरसता और विषमताका नाश हो जाता है, और निरन्तर आत्मानुभूति होने लगती है । तीव्र राग ही क्लान्त होकर जब वैराग्यमे परिणत हो जाता है, तत्र आत्मचिन्तन उत्पन्न होता है और इच्छा सुन्दर रमणियोमे प्रीति, मूवाह्य वस्तुओंके साथ एकमेक रूप होनेके परिणाम, काम- इष्ट वस्तु अभिलाषा, स्नेह - विशिष्ट प्रेम, गार्ध्य - अप्राप्त वस्तुको इच्छा, अभिनन्द - इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होनेपर सन्तोष, अभिलाषा - इष्ट वस्तुकी प्राप्तिके लिए मनोरथ एव ममत्व - यह वस्तु मेरी है का परिष्कार होता है । रसानुभूति अलौकिक रूपसे प्रशम - रागादिकका उत्कृष्ट राम, गुणके आविर्भूत होनेपर ही होती है। जैन कवियोकी अनुभूतिका धरातल बहुत गहरा है । इन कलाकारोंने अपनी पैनी दृष्टि डालकर सूक्ष्म-तरल भावनाओके साथ क्रीड़ा करते हुए आत्म-सौन्दर्यको ग्रहण किया और इन्द्रिय-विलाससे दूर रहकर आत्मलोकमें विचरण करनेका प्रयास किया है । जैन साहित्य - निर्माताओंने इसका प्रयोग आत्मानन्दके अर्थम किया है । रसको महाकवि बनारसीदासने चिदानन्दस्वरूप माना है । समाधि या ध्यान- द्वारा जिस आनन्दकी अनुभूति होती है, वही आनन्द तत्कालके सहन साक्षात्कार-द्वारा उपलब्ध होता है । यों तो जैन साहित्यमे पुलके स्प, रस, गन्ध और स्पर्श इन चार प्रधान गुणोमें रसको युगके रूपमे परिगणित किया है। लौकिकरूपमें रसका प्रयोग जैनसाहित्यमे अनेक स्थलोपर हुआ है । १५ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन "रस्यन्ते अन्तरात्मनानुभूयन्ते इति रसास्तसहकारिकारणसन्निधानेपु चेतोविकारविण पेपु रसाः भंगारादयः" । अर्थत् अन्तरात्गकी अनुभूतिको रस कहते हैं तथा इसमें सहकारी कारण मिलनेपर नो मनमें विकार उत्पन्न होता है, वह शृङ्गाराद्विरप रस कहलाता है। इसीको सष्ट करत हुए कहा है बाहाालम्बनो वनविकारो मानसो नवत् । स मावः कथ्यते सद्धिः तस्योत्कर्षो रसः स्मृतः ।। अर्थान्–बाह्य बलुके आलम्बनने जो मानसिक विकार उत्पन्न होता है, वह भाव कहलाता है और इसी मायके उत्कर्षको रस कहा जाता है। भगवदिनसेननं अलंकार-चिन्तामणिमें रसका स्पष्टीकरण करते हुए बताया है अयोपशमने मानाऽवृत्तिवीर्यान्तराययोः । इन्द्रियानिन्द्रियजीव स्विन्द्रियज्ञानमुद्भवेत् ॥ तेन संवेद्यमानो यो मोहनीयसमुद्भवः । रसामियक्षकः स्थायिभावश्चिचिपर्ययः ।। अर्थ-जानावरण और वीर्यान्तरायके श्योपशम होनेपर इन्द्रिय और मनके द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह इन्द्रियचान है। इस इन्द्रिय जानके मुंदनके साथ मेहनीय कम्का उठ्य होनेपर विकृत चनन्य पर्याय, जो कि त्यायी भावरूप है, रसकी अभिव्यक्ति करती है। सायी मात्रक लापका निरूपण करते हुए बताया है सम्मोगगोचरो वान्डाविशेपो रतिः। विकारदर्शनादिनन्यो मनोयो हासः । स्वस्येष्टजनवियोगादिना स्वस्मिन्दुःखोकपः शोकः। रिपुताप- ' कारिणश्वेतसि प्रज्वलन क्रांवः । कार्यपु लोकोत्कृष्टेषु स्थिरतरप्रयवः उत्साहः। रात्रिलोकनादिना मनयांशङ्कन भयन् । अर्यानां दोपविला १. अभिवानरानन्द 'रस' शब्छ । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीति-साहित्य २२७ कनादिमिर्गही जुगुप्सा । अपूर्ववस्तुदर्शनादिना चित्तविस्तारो विस्मयः। विरागत्वादिना निर्विकारमनस्त्वं शमः। अर्थात्-सम्भोगसम्बन्धी इच्छा विशेपको रति, विकृत वस्तुकै देखने पर जो मनोविनोदकी वाञ्छा उत्पन्न होती है, उसे हास; इष्ट व्यक्तिके वियुक्त होनेपर जो शोक उत्पन्न होता है, उसे शोक; शत्रु या अन्य उपकारीके प्रति मनमे जलन-सन्ताप उत्पन्न होना क्रोध, लोकके उत्कृष्ट कायोंमे दृढ़ प्रयत्न करना उत्साह, भयानक वस्तुको देखकर उससे अनर्थकी आशका करना भया पदार्थोंके दोष देखनेसे उत्पन्न होनेवाली घृणा जुगुप्सा; अद्वितीय वस्तुके देखनेसे मनको विस्तृत करना विस्मय एवं विरक्ति आदिके द्वारा मनका निर्विकारी होना शम है। इन स्थायी भावोंकी अभिव्यक्त दशाका नाम रस है। वाग्भटालकारमे जैनाचार्यने इसी तथ्यका प्रकटीकरण करते हुए कहा है विभावैरनुभावैश्च सात्त्विकैयभिचारिभिः। भारोप्यमाण उत्कर्ष स्थायीभावः स्मृतो रसः ॥ अर्थात्-हमारे हृदयस्थित रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, चुगुप्सा, विस्मय और शमभाव स्थायी रूपसे निरन्तर विद्यमान रहते हैं। जब ये ही भाव अवसर पाकर-विभाव, अनुमाव, सात्विक और व्यभिचारी भावोंके द्वारा उत्कर्षको प्राप्त होते हैं-जाग उठते है, तो रसकी अनुभूति होती है । तात्पर्य यह है कि मानव-हृदयमे सदैव प्रसुप्तावस्थामे विद्यमान रहनेवाले मनोविकारोंसे रसकी सिद्धि होती है। जैन साहित्य-निर्माताओंने लौकिक और अलौकिक दोनो ही अवस्थाओंमें अनिर्वचनीय आनन्दको रस कहा है। कविता पढने या सुनने और नाटक देखनेसे पाठक, श्रोता या दर्शकको अद्वितीय, सासारिक वस्तुओमे अप्राप्य आनन्द उपलब्ध होता है, जो शब्दोंके द्वारा अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है, वही काव्यमे रस कहलाता है। वस्तुतः काव्य Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन या साहित्यमे असाधारण आनन्दको सचारित करनेवाला रस अवश्य रहता है। निश्चय नयकी शैलीके अनुसार आत्मानुभूति ही रस है तथा साहित्यमे यही आत्मानुभूति-विद्यमान रहती है। यद्यपि मानसिक विकार और भाव जो काव्य-द्वारा उबुद्ध होते है, विरस है; परन्तु लोकिक दृष्टिसे ये भी आनन्दानुभूतिको ही उत्पन्न करते हैं। जैन हिन्दी रीति साहित्यम महाकवि बनारसीदासने अपने मौलिक चिन्तन द्वारा रसॉके स्थायी भावोंके सम्बन्धमें नवीन प्रकाश डाला है। प्राचीन परम्परासे प्राप्त स्थायी भावोंकी अपेक्षा बनारसीदासको कल्पना कितनी वैज्ञानिक और तथ्यपूर्ण है, यह निम्न विवेचनसे स्पष्ट है। महाकविने भंगार रसका स्थायी भाव शोमा, हास्य रसका मानन्द, करुण रसका कोमलता, रौद्र रसका क्रोध, धीर रसका पुरुषार्थ, भयानक रसका चिन्ता, बीभत्स रसका ग्लानि, अद्भुतका आश्चर्य और शान्त रसका स्थायी भाव वैराग्य माना है । यद्यपि रौद्र, अद्भुत, वीभत्स और शान्त रसके स्थायी भात्र प्राचीन परम्परासे साम्य रखते हैं, पर शेष रसांके स्थायी भावोंकी उन्नावना विल्कुल नवीन है। शृंगार रसका स्थायी भाव शोमा रति स्थायी भावकी अपेक्षा १.योमा में शृंगार वसे वीर पुरुषारयमें, कोमल हिये में करुणा वखानिये। आनन्द में हास्य रुण्ड मुण्ड में विराजे रुद्र, वीभत्स तहाँ जहाँ गिलानि मन आनिये ॥ चिन्ता में भयानक अथाहता में अद्भुत, मायाकी अरुचि तामें शान्त रस मानिये। ये ई नव रस भव रूप ये ई भावरूप इनको विलक्षण सुदृष्टि जगे जानिये ॥ २. देखें नैनसिद्धान्त भास्कर, भाग १६ किरण । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीति-साहित्य २२९ 1 अधिक तर्कसंगत है । क्योकि शोभा शब्दमे जो गूढ़ अर्थ और व्यापक दृष्टिकोण निहित है, वह रतिमें नहीं । रतिको स्थायी भाव मान लेनेसे सबसे बडी आपत्ति यह आती है कि एक ही विपय-भोगसम्बन्धी चित्रके देखनेसे मुनि, कामुक और चित्रकारके हृदयमे एक ही प्रकारकी भावनाएँ उद्बुद्ध नहीं हो सकती । अतएव एकमात्र रतिको श्रृंगार रसका स्थायी भाव नही माना जा सकता । शोभाका सम्बन्ध मानसिक वृत्तिसे होनेके कारण इसका विशाल और व्यापक अर्थ ग्रहण किया जाता है। शोभासौन्दर्य की ओर मन, वचन और कायकी एकनिष्ठता होनेपर ही शृंगार रसकी अनुभूति होती है । अतएव सौन्दर्यमे ही चित्तवृत्ति तल्लीन होती है, जिससे श्रृगारका अनुभव होता है । हास्य रसका स्थायी भाव आनन्द मान लेनेसे इस रसकी उत्पत्ति अधिक वैज्ञानिक मालूम पड़ती है। हँसी तो कभी-कभी ऊबकर या खीझकर भी आती है, पर इस हॅसीसे हास्यरसकी उत्पत्ति नही हो सकती । हँसना कई प्रकारका होता है, दूसरोको अवाञ्छनीय मार्गपर जाते देखकर दुःखकी स्थितिमे हँसी आ जाती है, पर यहाँ हास्य रसकी अनुभूति नहीं है । क्योकि इस प्रकारकी हॅसीमे एक वेदना छिपी रहती है। कभी-कभी कौतूहल होनेपर भी किसी ऊटपटाग कार्यको देखकर यो ही हँसी आ जाती है, परन्तु हास्य रसकी अनुभूति नही होती । इस प्रकारके स्थलोम प्रायः करुणावृत्ति हमारे हृदयमे उदबुद्ध होती है तथा करुण रसकी हो अनुभूति होती है। आनन्द स्थायी भाव स्वीकार कर लेनेपर उक्त दोष नही आता । * जिन मनोरंजन और भोलेपनसे परिपूर्ण शुभ सवादोंको सुनते है और जिन प्रवृत्तियों के द्वारा किसीकी हानि नहीं होती तथा मनबहलावका वातावरण तैयार हो जाता है, उस समय आनन्दकी अवस्थामे हास्य रसको उत्पत्ति होती है । अभिप्राय यह कि हास्यरसका सम्बन्ध वस्तुतः आनन्दसे हैं, कैवल हाससे नहीं । जबतक अन्तस्मे आनन्दका सचार नहीं होगा, Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन तबतक हास्य रसानुभूतिका होना सम्भव नहीं । आन्तरिक आह्लादके होनेपर ही हास्य रसानुभूति होती है, अतएव आनन्दको इस रसका स्थायी भाव मानना तर्कसंगत और वैज्ञानिक है। प्राचीन परम्परामे करुण रसका स्थायी भाव शोक माना गया है, परन्तु महाकविने कोमलताको इसका स्थायी भाव माना है। कारण स्पष्ट है कि शोकके मूलमे चिन्ता रहती है तथा चिन्तामै मयकी उत्पत्ति होती है, अतएव केवल शोक करुण रसका संचार नहीं कर सकता है । करुणाका शब्दार्थ दया है और दया उसी व्यक्ति के हृदयमें उत्पन्न होगी, जिसके अन्तःकरणमे कोमलता रहेगी। कोमलताके अभावमे करुणा बुद्धिका उत्पन्न होना सम्भव नहीं है, अतएव करुण रसका स्थायी भाव कोमलताको मानना अधिक तर्कसंगत है। ___ कोमलतामें उदारता और समरसताका समन्वय या संतुलन है । यह स्वयं अपने आपमे सरल,निर्मल और निष्कल्प है । आधुनिक मनोविज्ञानवेत्ताओंने शोकम अन्तर्द्वन्दजन्य चिन्ताका मिश्रण स्वीकार किया है। तात्पर्य यह है कि आन्तरिक कठिनाइयोके कारण शोकका प्रादुर्भाव होता है, जिससे करुण रसकी अनुभूति नहीं हो सकती। हॉ, कोमलतामे करुणावृत्तिका रहना अवश्यमावी है, अतएव शोककी अपेक्षा कोमलता ही करुणरसका विज्ञान-सम्मत स्थायीभाव है। इस वृत्तिमे चित्तका लचीलापन विशेषरूपसे विद्यमान है। वीररसका पुरुपार्थ स्थायी भाव मानना अधिक वैज्ञानिक है, क्योंकि उत्साह किसी कारण ठढा भी हो सकता है, किन्तु पुरुषार्थमे आगेकी ओर बढ़नेकी भावना अन्तर्निहित है। किसीके वीररस सम्बन्धी कान्यको पढ़कर उत्साहका आना न आना निश्चित नहीं है, किन्तु पुरुपार्थकार्य-साधनकी तीव्र लगनका उत्पन्न होना परम आवश्यक है। पुस्पार्थ एक सजीव प्रवृत्ति है, पर उत्साह अन्यपरअवलम्बित रहनेवाली भावना है। महाकविने भयानक रसका स्थायीभाव चिन्ताको माना है, क्योंकि Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीति-साहित्य २३१ किसी भयानक दृश्यको देखकर भय उत्पन्न हो ही अथवा किसीके द्वारा डराये जानेपर भयकी भावना जाग्रत हो, इसका कोई निश्चय नहीं । जबतक चिन्ता उत्पन्न नहीं होती तबतक भय उत्पन्न नहीं हो सकता | चिन्ता शब्द भयकी अपेक्षा अधिक व्यापक है। यद्यपि चिन्ता और मय एक दूसरेके पृष्ठपोषक हैं, किन्तु चिन्ताके उत्पन्न होनेपर भयकी भावनाका जाग्रत होना आवश्यक-सा है। इस प्रकार स्थायीमावों और रसोंके विवेचनमे जैनसाहित्यकारोंने मौलिक चिन्तन उपस्थित किया है। रसराज जैन साहित्यमे शान्तरसको स्वीकार किया है । इस रसका स्थायीभाव वैराग्य या शमको माना है; तत्त्वज्ञान, तप, ध्यान, चिन्तन, समाधि आदि विभाव हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोहके अभाव अनुभाव हैं; धृति, मति आदि व्यभिचारी भाव हैं। वस्तुतः न जहाँ राग-द्वेष हैं, न सुख-दुःख हैं, न उद्वेग-क्षोभ हैं और सब प्राणियोंमे समान भाव है, वहाँ शान्त रसकी स्थिति रहती है। मानव अहर्निश शान्ति प्राप्त करनेकी चेष्टा करता है, उसका प्रत्येक प्रयल शान्तिके लिए होता है । भौतिकवाद और देहात्मवादसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती, अतएव गान्तरसको रसराज मानना समीचीन है। जिस प्रकार छोटे-छोटे निर्झर किसी समुद्रमे मिल जाते है, उसी प्रकार सभी रसोका समावेश भान्तरसमे हो जाता है। जैसे नदियों और झरनोंका समुद्र में मिलना स्वभावसिद्ध है, प्रकारान्तरसे नदियोका उद्गम स्रोत भी समुद्रका जल ही है, इसी प्रकार मानव-जीवनकी समस्त प्रवृत्तियोका उद्गम शान्तिसे तथा समस्त प्रवृत्तियोका विल्यन भी शान्तिमे ही होता है। शान्तिका अक्षय भण्डार आत्मा है, जब यह देह आदि परपदार्थोंसे अपनेको भिन्न अनुभव करने लगती है, उस समय गान्त रसकी उत्पत्ति होती है। यह अहकार, राग-द्वैपसे हीन, शुद्ध ज्ञान और आनन्दसे ओत-प्रोत आत्मस्थिति है। यह स्थिति चिरस्थायी है, रति, उत्साह आदि अन्य मनोदशाओका आविर्भाव इसीमे होता है। जैन साहित्यकारोने वैराग्योत्पत्तिके दो साधन बतलाये है-तत्त्वज्ञान Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन और इष्टवियोग तथा अनिष्टसयोग । इनमें पहला स्थायी भाव है और दूसरा सचारी । आजका मनोविज्ञान भी उक्त जैन कथनका समर्थन करता है, क्योंकि इसके अनुसार रागकी क्लान्त अवस्था ही वैराग्य है। महाकवि देवने भी वैराग्यको रागकी अतिशय प्रतिक्रिया माना है। इनके मतानुसार तीव्र राग ही क्लान्त होकर वैराग्यमे परिणत हो जाता है। अतएव शान्त रसमे मनकी विभिन्न दशाओंका रहना आवश्यक है। डा० श्री भगवानदासने अपने रस-भीमासा निबन्धमे शान्त रसका रसराजत्व अत्यन्त सुचारु ढंगसे सिद्ध किया है। उनका कथन है कि "इस महारसमें अन्य सव रस देख पड़ते हैं, यह सबका समुच्चय है। श्रेष्ठ और प्रेष्ठ अन्तरात्मा परमात्माका (अपने पर) परमप्रेम, महाकाम, महालंगार, (अकामः सर्वकामो वा.), संसारकी विडम्बनाओंका उपहास, संसारके महातमस् अन्धकारमै भटकते हुए दीन जनोंके लिए करुणा (संसारिणां करुणयाह पुराणगुह्यम् ), पन्न रिपुऑपर क्रोध (क्रोधे क्रोधः कथन ते), इनको परास्त करने, इन्द्रियो. की वासनाओको जीतने, ज्ञान-दानसे दीनजनकी सहायता करनेके लिए उत्साह (युयोध्यस्मन्जुहराणमेन), अन्तरारि परिपु कहीं असावधान पाकर विवश न कर दें इसका भय (नरः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेवते पञ्चभिरेव पञ्च), इन्द्रियोंके विपयोपर और हाट-मांसके शरीरपर जुगुप्सा (मुखं लालाक्लिन्न पिवति चपर्क सासवमिव महो मोहान्धानां किमिव रमणीयं न भवति), और क्रीडात्मक लीला-स्वरूप अगाध, अनन्त जगतका निर्माणविधान करानेवाली परमात्माकी (अपनी ही) शक्तिपर महाविस्मय (स्वमेवैकोऽस्य सर्वस्य विधानस्य स्वयंभुव ..."1)-सभी तो इस रसके मन्तभूत है।" महाकवि वनारसीदासने शान्त रसका रसराजत्व सिद्ध करते हुए आत्मामे ही नवो रसोकी स्थिति स्वीकार की है। डा० मगवानदासजीने जिस प्रकार अपर शान्तरसको सस्कृत साहित्यके उद्धरणोके साथ रसराज Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीति-साहित्य सिद्ध किया है, उसी प्रकार जैन कविने आत्मानुभूति और मौलिक चिन्तन-द्वारा आत्मस्वरूप शान्त रसमे सभी रसोका अन्तर्भाव किया है गुन विचार सिंगार, वीर उद्यम उदार रुख । करुना समरस रीति, हास हिरदै उछाह सुख । अष्ट करम दल मलन, रुद्र बरतै तिहि थानक । तन विलेच्छ बीमच्छ, दुन्द मुख दसा भयानक । अदभुत अनन्त वल चिन्तवन, सान्त सहज वैराग धुव । नवरस विलास परगास तव, सुबोध घट प्रगट हुव ।। अर्थात्-आत्माको ज्ञान गुणसे विभूषित करनेका विचार शृगार, कर्म निर्जराका उद्यम वीररस, सब जीवोको अपने समान समझना करणरस, हृदयमे उत्साह और सुखका अनुभव करना हास्यरस, अष्ट कर्माको नष्ट करना रौद्ररस, शरीरकी अशुचिताका विचार करना वीभत्स रस, जन्म-मरणादिका दुःख चिन्तन करना भयानक रस, आत्माकी अनन्त शक्तिको प्राप्त कर विस्मय करना अद्भुत रस और दृढ वैराग्य धारण परला तथा आत्मानुभवमे लीन होना शान्त रस है। वैराग्यके साधन तत्त्वज्ञान-प्रासिक गुणस्थानस्प चौदह सोपान बतलाये गये हैं । पर रस विश्लेपणमें चार ही सोपान प्रधान है । सबसे प्रथम जगत्की वास्तविकताका ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है। विभिन्न नामरूपात्मक यह जगत् मानव मनको नाना प्रलोभनो-द्वारा अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है, जिससे अहंकार और ममकारका सयोग होनेने विभिन्न मानसिक विकारोकी उत्पत्ति होती है। जब पड्या -नीच, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालका वास्तविक परिनान होता है और आत्माकी (जीवकी) इन सब द्रव्योसे मिन्नत्व प्रतीति होने लगती है, उस समय प्रथम अवस्था-चतुर्थ गुणस्थान-आत्मानुभूति रप सम्मग्दर्शनकी स्थिति आती है। यह रस अवस्था व्यापक है, इसमें आत्म Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन शोधनकी प्रवृत्ति होती है, विभावसे हटकर स्वभाव रूप प्रवृत्ति होने लगती है । ऐन्द्रियक सुख, उसका राशि राशि सौन्दर्य सभी क्षणिक प्रतीत होने लगते है । मनुष्यका रूप, गौरव, वैभव, शक्ति, अहकार कितने क्षणभगुर है और इनकी क्षणभगुरतामें कितना कारुण्य विद्यमान है । अतः आत्मदर्शनकी उत्पत्ति होना प्रथम अवस्था है । 1 प्रमादका, जिसके कारण सासारिक सुख-दुःख, उत्थान-पतन व्यापते हैं तथा स्वोत्थानकी प्रवृत्तिमे अनुत्साहकी भावना रहती है और आत्मोन्मुखरूप होनेवाला पुरुषार्थ ठढा पड़ जाता है, परिष्कार करना और इसे दूर करनेके लिए कटिबद्ध हो जाना वैराग्यकी द्वितीयावस्था है । तत्त्वचि - न्तन द्वारा ही प्रमादको दूर किया जा सकता है, अतएव आत्मानुभवी अपने पुरुपार्थ- द्वारा शान्तरसकी उपलब्धिके लिए इस द्वितीय अवस्था को प्राप्त करता है । इस अवस्था मे भी नवो रसोंकी अनुभूति होती है। तृतीय अवस्था उस स्थलपर उत्पन्न होती है, जव कपाय वासनाओ का पूर्ण अभाव हो जाता है। पूर्ण शान्तिमे बाधक कपाये ही हैं, अतएव इनके दूर होते ही आत्मा निर्मल हो जाती है । तत्वज्ञानकी चौथी अवस्था केवलज्ञानके उत्पन्न हो जानेपर पूर्ण आत्मानुभूति होती है। इस अवस्थामें पूर्णगान्तरस छलकने लगता है, आत्मा ही परमात्मा बन जाती है । आनन्दसागर लहराने लगता है । महाकवि बनारसीदासने शान्तरसकी इन चारो अवस्थाओका सुन्दर विलेपण किया है । कविने अखण्ड शान्तिको ही सर्वोत्कृष्ट शान्तरस माना है । वस्तु विचारत ध्यावते, मन पावै विसराम । रस स्वादत सुख ऊपजें, अनुभव याको नाम ॥ अर्थात् — अखण्ड शान्तिका अनुभव ही सबसे बड़ा सुख है, यही रस है और इसीके द्वारा मानव अपना अमीष्ट साधन कर सकता है । सर्व Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीति-साहित्य २३५ प्राणी समभाव भी इसीसे हो सकता है। अतएव "नवमी सान्त रसनिकौ नायक" मानना युक्ति सगत है । रस- सिद्धान्तके निरूपणमं कवि बनारसीदासने जितनी मौलिकता दिखलाई, उतनी अन्य जैन कवियोंने नही । इन्होने स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और सन्चारीभाव इन चारो ही रसाङ्गोका नवीन दृष्टिकोणसे विवेचन किया । रस- सिद्धान्तपर सवत् १६७० मे मानशिव कचिने 'भाषा - कवि-रस मञ्जरी' शृङ्गाररस विपयक रचना लिखी है। इसमें रीति कालके अन्य कवियों के समान नायिका भेटपर प्रकाश डाला गया है । यद्यपि विभाव, अनुभावोका विग्लेपण कपाय और वासनाओके अनेक भेद-प्रभेदोके विवेचन द्वारा किया है, परन्तु नवीनता कुछ भी नही है । शृङ्गाररस और नायिका- भेटपर मानक विकी सयोग द्वात्रिशिका ( १७३१ ), उदयचन्दका अनूप रसाल ( १७२८ ) और उदैराजका वैद्यविरहणि प्रबन्ध (१७७२ ) भी उपलब्ध है | इन जैन साहित्यष्टाने रस-विलेपणमें मूलतः स्थायी भावोंकी स्थिति राग-द्वेष मनोविकार मानी है । क्योकि समस्त मनोवेगोका सीधा सम्बन्ध इन्हीं दोनो भावोसे है । मानवका अहभाव इन्ही दोनोंके रूपमे अभिब्यजित होता है । अतएव रति, हास, उत्साह और विस्मय साधारणतः अहभावके उपकारक होनेके कारण रागके अन्तर्गत और शोक, क्रोध, भय और जुगुप्सा अहभावके उपकारक होने के कारण द्वेपर्क अन्तर्गत आते है । जब राग और द्वेप दोनोंका परिमार्जन हो जाता है, तब वैराग्य - निर्वेदभावकी उत्पत्ति होती है । यह अहंभाव की समरसता की अवस्था है, आत्मा इसमें स्वोन्मुख रूपसे प्रतिभासित होने लगती है । लौकिक दृष्टिसे प्रथम चार भाव मधुर होनेके कारण सुखकी अभिव्यक्ति और दूसरे चार भाव कटु होनेके कारण दुःखकी अभिव्यक्ति करते है । इसप्रकार जैन लेखकों ने भावकी स्थिति राग और द्वेषके अन्तर्गत मान · Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन कर रसका विश्लेपण किया है। रससख्या और भाचोकी संख्या रीति'कालके अन्य कवियोके समान ही मानी है। संस्कृत साहित्यके जैन कवियों के समान हिन्दी भाषामे भी जैन कवियोने अलकारपर ग्रन्थ-रचना की है । जिस प्रकार भारतीय साहित्यम अलंकार अलकार परम्पराका भी क्रमिक विकास हुआ है " उसी प्रकार जैन साहित्यमे भी अलंकारोका क्रमिक विकास विद्यमान है । अलकार-चिन्तामणिमे भगवजिनसेनाचार्यने चित्रालकार और यमकालकारके भेद-प्रभेदोकी संख्या पचाससे भी अधिक क्तलाई है। हिन्दीमापामे कुँवर-कुशलका लखपतजयसिन्धु और उत्तमचन्द्रका अलकारआशय मजरी प्रसिद्ध है। इन दोनो ग्रन्थोंमें अलकार और अलंकार्यका भेद स्पष्ट किया गया है। रस (भाव), वस्तु और अलकार तीनोकी पृथक् स्थिति मानी गयी हैं। अलंकार रसका उपकार करता हैतीव्रतर बनाता है तथा वस्तुके चित्रणमे रमणीयता या आकर्पण उत्पन्न करता है । अतएव रस (भाव) और वस्तु दोनों अलकार हैं और अलकार उनके अलकरणका साधन है। रस काव्यकी आत्मा है, पर इसकी वास्तविक स्थिति अलकारके विना बन नहीं सकती । क्योकि भावमे रमणीयता, कोमलता, सूक्ष्मता और तीव्रता साधारण शब्दोके द्वारा नहीं आ सकती है । उक्तिकी चमक्रके द्वारा ही भावमे सौन्दर्य या रमणीयता उत्पन्न होती है। अतएव सुन्दर भावोकी अभिव्यंजनाके लिए सुन्दर उक्तियोंका होना भी आवश्यक है । जैन साहित्यमे ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय साहित्यमे शब्द और अर्थको विल्कुल भिन्न नहीं माना है। अतएव अनुभूति और अभिव्यक्तिमे भी पार्थक्य नहीं है । अतः शब्दोमे रमणीयता उत्पन्न करनेवाला साधन अलकार काव्यकी आत्मा न होकर भी काव्यके रूप-प्रसाधनके लिए अनिवार्य है । जिस प्रकार आत्माको रमणीयताके लिए शरीरका रमणीय होना भी आवश्यक है, उसी प्रकार भावोंकी रमणीयताके लिए शब्दोंका रमणीय Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीति-साहित्य २३७ होना भी अनिवार्य है । शब्द और अर्थ दोनो सापेक्ष है, शब्द द्रव्य हैं तो अर्थ भाव; अतः भावके बिना द्रव्यकी स्थिति और द्रव्यके बिना भावकी स्थिति नहीं बन सकती है। दोनो ही परस्परापेक्षित है, एकको सुन्दर बनानेके लिए दूसरेका रमणीय होना आवश्यक है । व्यावहारिक धरातलपर अलकारीके द्वारा अपने कथनको कवि या लेखक श्रोता या पाठकके मनमे भीतर तक बैठानेका प्रयत्न करता है, वातको बढा-चढाकर उसके मनका विस्तार करता है, बाह्य वैषम्य आदिका नियोजन कर आश्चर्यकी उद्भावना करता है तथा बातको घुमा-फिराकर वक्रता के साथ कहकर पाठककी जिज्ञासाको उद्दीत करता है । कवि अपनी बुद्धिका चमत्कार दिखलाकर पाठकके मनमे कौतूहल जाग्रत करता है । स्पष्टता, विस्तार, आम्चर्य, निज्ञासा और कौतूहल अलकारो के आधार हैं। साधर्म्य, अतिशय, वैषम्य, औचित्य, वक्रता और चमत्कार अळकारोके मूर्तरूप हैं । उपमा, रूपक, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास आदि साधर्म्य-मूलक; अतिशयोक्ति, उदात्तसार आदि अतिशयमूलक; विरोध, विभावना, असगति, व्याघात आदि वैषम्यमूल्क; यथासख्य, कारणमाळा, स्वभावोक्ति आदि औचित्यमूलक, अप्रस्तुतप्रशसा, व्याजोक्ति आदि वक्रतामूलक एव यमक, ग्लेप आदि चमत्कारमूलक हैं । अतएव निष्कर्ष यह है कि अल्कारोका मूलाधार अतिशय, वक्रता और चमत्कार है । इन्हीं तीनोंके कारणभेदसे अलंकारोंके सहस्रो भेद किये गये है । कवि उत्तमचन्दने अभिव्यक्तिको रमणीय बनानेका सबसे प्रचल साधन प्रस्तुतविधानको बतलाया है । प्रस्तुतकी श्रीवृद्धिके लिए अप्रस्तुतका उपयोग । यह अप्रस्तुतविधान प्रधानतः साम्यपर आश्रित रहता है । साम्य तीन प्रकारका होता है-रूपसाम्य, धर्मसाम्य और प्रभावसाम्य | अलंकारोंका प्राण या आधार यही अप्रस्तुतविधान है, इससे विभिन्न रूप और भेदोंका आलम्बन लेकर अलंकारोंकी संख्याका वितान किया Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन गया है । भावोंके मानवीयकरणके लिए भी अलकारोका प्रयोग किया जाता है। इन्होंने शब्दालंकार और अलकारोकी संख्या २४३ मानी है । लक्षण और उदाहरण बहुत कम अलंकारोंके दिये है। जैन कवियोने रीति साहित्यके अन्तर्गत छन्दविधानको भी माना है, अतएव छन्द-शास्त्रविषयक रचनाएँ अनेक उपलब्ध है। स्वयभू कविका .. छन्दो ग्रन्थ प्रसिद्ध है ही, इसके अतिरिक्त हेम कविका छन्दशास्त्र * छन्दमालिका (१७०६), चेतन विजयका लघुपिगल (१८४७), ज्ञानसारका मालापिंगल ( १८७६ ), मेघराजका छन्दप्रकाश (१९ वी शती), उदयचन्दका छन्द प्रबन्ध और वृन्दावनका छन्दशतक श्रेष्ठ ग्रन्थ है । इन ग्रन्योम हिन्दी और सस्कृतके सभी प्रधान छन्दोके लक्षण आये हैं। जैन कवियोंने भिन्न-भिन्न स्वाभाविक अभिव्यक्तियोके लिए छन्दोंका आदर्श साँचा तैयार किया है। जितने प्रकारकी अमिव्यक्तियों लयके सामन्जस्य के साथ हो सकती है, उनका विधान छन्दशास्त्रमे किया है। ___ वास्तविक बात यह है कि लयका स्थान जीवनम महत्त्वपूर्ण है। मानवकी हृत्तन्त्रियोके अतिरिक्त नदी, निर्झर, पेड़-पौधे, लता-गुल्म आदिमें सर्वत्र लय पायी जाती है । जीवनका सारतत्त्व लय ही है, इसी कारण उत्कट हर्ष, विपाटके उच्छवासोंमें गुरुत्व और लघुत्वके कारण लयकी लहरे उठती रहती है । मधुर स्वर और लयको सुनकर मानवमात्रकी अन्तररागिनी तन्मय हुए विना नहीं रह सकती है। अतः छन्दविधान इसी लयको नियन्त्रित करता है, यह भापाम रागका प्रभाव, उसकी शक्ति और उसकी गतिके नियमनके साथ अन्तर स्पन्दनको तीव्रतम वनाता है। जिस प्रकार पतग तागेके लघु-गुरु सकेतोके अनुसार ऊँची-ऊंची उड़ती जाती है, उसी प्रकार कविताका राग छन्दके सकेतापर उत्तरोत्तर गतिशील होता है। नादसौन्दर्य और प्रवाहका निर्वाह छन्दम Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीति-साहित्य २३९ ही किया जा सकता है। अतएव कविताको एक सुनिश्चित मार्गपर ले चल्नेके लिए जैन-साहित्यकारोने छन्द-व्यवस्था निरूपित की है। १९ वी शतीके उत्तरार्धमे कविवर वृन्दावनदासने १०० प्रकारके छन्दोके बनानेकी विधि तथा छन्दशास्रकी आरम्भिक बाते बड़े सुन्दर और सरल ढगसे लिखी है। इतना सरल और सुपाच्य पिगल-विषयका अन्य अन्य अवतक हमें नहीं प्राप्त हो सका है। आरम्भमे ही लघु-गुरुके पहचाननेकी प्रक्रिया बतलाता हुआ कवि कहता है लघुकी रेखा सरल (1) है, गुरुकी रेखा पंक (6)। इहि क्रम सौ गुरु-लघु परखि, पढियो छन्द निशंक ॥ कहुँ कहुँ सुकवि प्रबन्ध मह, लघुको गुरु कहि देत । गुरुहूको लघु कहत है, समुशत सुकवि सुचेत । आठों गणों के नाम, स्वामी और फलका निरूपण एक ही सवैयेमें करते हुए बताया है मगन तिगुरु भूलच्छि लहावत, नगन तिलघु सुर शुभ फल देत। मगन मादि गुरु इन्दु सुजस, लघु आदि मगन जल वृद्धि करत॥ रगन मध्य लघु, भगिन मृत्यु, गुरुमध्य जगन रवि रोग निकेत। सगन अन्त गुरु, वायु भ्रमन वगनत लघू नव शून्य समेत ॥ छन्दोंमें मात्रिक और वार्णिक छन्दोंका विचार अनेक भेद-प्रभेदी सहित विस्तारसे किया गया है। लक्षणोके साथ उदाहरण भी कविने अत्यन्त मनोज दिये है। अचलधृत छन्दमे १६ वर्ण माने है, इसमे ५ भगण और १ लघु होता है । कवि कहता है करम भरम वश भमत जगत नित, सुर-नर-पशु तन धरत अमित तित । १. सम्पादक जमनालाल जैन साहित्यरत्न और प्रकाशक मान्यखेट जैन संस्थान, मलखेड (निजाम) Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन सकल अथिर लखि परवेश परकृत, धरत रतन जिन भनित अचलधृत | इसी प्रकार गीता प्रकरण सप्तक और दण्डक प्रकरणमे अनेक रमणीय उदाहरण प्रस्तुत किये हैं । कविकी इस रचनासे छन्दशास्त्रका ज्ञान प्राप्त करनेमे पाठकोको अत्यन्त सहूलियत होगी । अशोकपुष्पमञ्जरी छन्द, जिसमे ३१ वर्ण एक गुरु एक लघुक्रमसे होते है, का कितना सुन्दर और सरस निरूपण किया है । २४० केवली जिनेशकी प्रभावना अचिंत मिंत, कंज पे रहें सु भन्तरिच्छ पाद कंन री । और विडाल मोर व्याल वैर टाल टाल, भूप हैं जहाँ सुमीन है निचीत भीति मंजरी ॥ अंग-हीन अंग पाय, हर्प सो कहा न जाय, नैनहीन नैन पाय मंजु कंज विजरी ॥ और प्रातिहार्थकी कथा कहा कहै सुवृन्द, थोक शोकको हरै अशोकपुष्पमंजरी ॥ इसी प्रकार अनगशेखर, जलहरन, मनहरन आदि छन्दोका सोदाहरण लक्षण १०९ पद्य में बतलाया गया है । हिन्दी भाषामें जैन कवियोंने छन्दो- विषयक अनेक रचनाएँ लिखी हैं, इनमे कई रचनाएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । कोप विपयक हिन्दी ग्रन्थोमे महाकवि बनारसीदासकी नाममाला, केसरकीर्त्तिका नामरत्नाकर, विनयसागरकी अनेकार्थनाममाला और चेतनविदयकी आतम-बोधनाममाला कोप 1 प्रसिद्ध है । बनारसीदासकी नाममाला' हिन्दी भाषाका शब्दभण्डार बढ़ाने के १. संपादक जुगलकिशोर मुस्तार, प्रकाशक- वीर सेवामन्दिर सरजि० सहारनपुर । साधा, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोति-साहित्य लिए एक अद्भुत कृति है इसमे ३५० विपयोके नामोंका दोहोम सुन्दर | सकलन किया गया है । नामोमें संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश भापाके शब्दोका भी व्यवहार किया गया है । कविने विपयारम्भ करते हुए तीर्थ| करके नाम लिखे है तीर्थकर सर्वज्ञ निन, भवनासन भगवान । पुरुषोत्तम आगत सुगत, संकर परम सुजान ॥ वुद्ध मारजित केवली, वीतराग अरिहंत । धरमधुरन्धर पारगत, जगदीपक जयवन्त ॥ यद्यपि यह कोप धनजय कविकी संस्कृतनाममालासे बहुत कुछ मिलता-जुलता है, पर उसका पद्यानुवाद नहीं है । अनेक नामोमे कविने अन्य संस्कृत कोपोकी सहायता ली है तथा अपने शब्दज्ञान-द्वारा अनेक मोल्कि उद्भावनाएँ भी की है। हिन्दी मापाका शब्दमण्डार इसके द्वारा पूरा किया जा सकता है। कविने जिस वस्तु के नामोका उल्लेख किया है, उसका नाम आरम्भमे दे दिया है। कोषकारकी यह शैली आशुबोधगम्य है, तथा इसके द्वारा वस्तु नामोको अवगत करनेमे कोई कठिनाई नहीं होती है । सोनेके नामोका उल्लेख करता हुआ कवि कहता है___हाटक हेम हिरण्य हरि, कंचन कनक सुवर्ण । इसी प्रकार रजत, आभूपण, वस्त्र, वन, मूल, पुष्प, सेना, ध्वजा आदि विषयोकी नामावलीका निरूपण किया गया है । इस कोपमे कुल १७५ दोहे है । कोशमे कविने अचमा, अडोल, अंब, आद, आठ, धान, खारि, चकवा, जयवत, जेहर, झण्ड, टाड, डर, तपा, तलार, नरम, पतली, पेढ आदि देशी शब्दोका भी प्रयोग किया है। मैया भगवतीदासकी अनेकार्थनाममाला भी एक पद्यात्मक कोग है, इसमें एक शब्दके अनेकानेक अर्थोका दोहोमे सकलन किया गया है। इस कोगमें तीन अध्याय है, इनमे क्रमशः ६३, १२२ और ७१ दोहे है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ हिन्दी-जैन साहित्य परिशीलन यह कोग भी हिन्टी-मापा-भाषियों के लिए अत्यन्त उपयोगी हरिचनागल मरस और मुन्टर है । कविने त्वयं ही कहा है- अर्थ अनेक जु नामक माला मनिय विचारि" नमूने के लिए गौ और सारग गब्दकं पर्यायवाचं शन्द नीचे दिये जाते है गो धर गो तरु गो दिसा गो किरना आकास । गो इन्द्री जल छन्द पुनि गो वानी जन भास ॥ -गो-गब्द कुरकटु काम कुरंगु कषि कोफु कुंभु कोदंड। कंनरु कमल कुठार हल झोड कोपु पत्रिदंडु ॥ करटु करयुक्हरु कमटु कर कोलाहल चोरु । कंचनु काकु कपोतु महि कंवल कलसर ना ॥ खगुनगु चातिगु दंग खलु खरु खोदनउ कुदालु। भूधरु भूरुह भुवनु मगु महु भेक्त अरु कालु ॥ मेनु महिषु उत्तिम पुरुसु यु पारस पापानु । हिमुनमु ससि सूरजु सलिल बारह अंग बखानु॥ दीप पु काजलु पधनु मेघु सबल सब मुंग। कवि सु भगौती उच्चई ए कहियत सारंग ॥ -सारग Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट परिशीलित ग्रन्थोंके कतिपय प्रमुख ग्रन्थ रचयिताओंका अति संक्षिप्त परिचय महाकवि स्वयम्भूदेव - महाकवि स्वयम्भूदेवके पिताका नाम मारुतदेव और माताका नाम पद्मिनी था। इनका समय ईस्वी सन् ७७० है | यह गृहस्थ थे, इनकी दो पत्नियाँ थी । एकका नाम आदित्याम्वा और दूसरीका सामिअव्वा था । पुष्पदन्तके महापुराणकै टिप्पणसे अवगत होता है कि यह 'आपुली सघीय' थे । यह पहले धनञ्जयके आश्रित थे, इस समय इन्होंने पउमचरिउकी रचना की थी । इसके पश्चात् इन्होने धवलडयाका आश्रय ग्रहण किया था और इस समय इन्होने 'रिटुणेमि - चरिउ' का प्रणयन किया । स्वयम्भूदेव के अनेक पुत्र थे, इनमे त्रिभुवनदेव बहुत प्रसिद्ध और सुयोग्य विद्वान् थे | यह बचपन से ही पिताके समान कविता करने लगे थे । पउमचरिउमें बताया गया है कि यदि त्रिभुवनदेव न होता तो पिताके काव्योंका, कुल और कवित्वका समुद्धार कौन करता । अन्य व्यक्ति जिस प्रकार पिताके धनका उत्तराधिकार ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार त्रिभुवनने अपने पिता के सुकवित्वका उत्तराधिकार लिया । स्वयम्भूका वश ही कवि था । इनके पिता मारुतदेव भी अच्छे कवि थे । स्वयम्भूने अपने छन्दशास्त्रमें 'तहाय माउर देवस्स' कहकर उनके एक दोहेका उदाहरण स्वरूपमें उल्लेख किया है । अपभ्रंश भाषाके इस महाकविने पउमचरिउ — जैन रामायण और रिहणेमिचरिउ ये दो महाकाव्य एवं पद्धड़िसाबद्ध, पन्चमी चरिउ ये दो अन्य काव्य ग्रन्थ रचे थे | इनके अतिरिक्त 'स्वयभूच्छन्दस' नामक अपभ्रशका छन्द ग्रन्थ तथा अपभ्रंशका एक व्याकरण भी लिखा था । यह व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध तो नही है, पर रामायणमे निम्न प्रकार उल्लेख मिलता है। ! t Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन तावच्चि य सच्छंदोभमइ अवव्यंस- मच्च-मायंगो | जाव ण सयंभु-वायरण-अंकुशो पढड़ ॥ -- पउमचरिउ १-५ महाकवि पुष्पदन्त --- अपभ्रच भाषाकै महान् कवि पुष्पदन्त araar गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिताका नाम केशवभट्ट और माताका नाम मुग्धादेवी था । इनके माता-पिता पहले शैव थे, फिर जैन हो गये थे और अन्तमें जैन विधिके अनुसार सन्यास लेकर शरीर त्याग किया था । अभिमानमेस, अभिमानचिह्न, काव्यरत्नाकर, कविकुलतिलक, सरस्वती निलय और कव्वपिसल ( काव्यपिशाच ) ये इनकी उपाधियों थी । इन उपाधियोंसे प्रतीत होता है कि इनका स्वभाव अभिमानी था और यह अप्रतिम प्रतिभाशाली महाकवि थे। यह पहले किसी वीरराय नामक रानाके आश्रयमे थे । वहाँ इन्होने काव्यरचना भी की थी, परन्तु राजाद्वारा उपेक्षित होनेपर वहाँसे चलकर क्षीणकाय मान्यखेट आये। वहाँ राष्ट्रकूटनरेश कृष्णराज (तृतीय) के मन्त्री भरत के आश्रममे रहने लगे और यही पर महापुराणकी रचना की । इनकी रचनाओसे अवगत होता है कि यह विदग्ध दार्शनिक, प्रकाण्ड सिद्धान्तममंत्र और असाधारण प्रतिभाशाली कवि थे । इनका समय ई० सन् ९५९ माना जाता है । इनकी निम्न रचनाएँ है । तिसट्टिमहापुरिसगुणाकार या महापुराण महाकाव्य और णयकुमार चरिउ तथा जसहरु चरिउ खण्डकाव्य है । I महाकवि वनारसीदास जैनसाहित्यमे हिन्दी भाषाका इतना बड़ा अन्य कवि नहीं हुआ । इनका जन्म एक धनी मानी सम्भ्रान्त परिवारमे हुआ था । इनके प्रपितामह निनदासका साका चलता था, पितामह मूलदास हिन्दी और फारसीके पंडित थे और यह नरवर ( मालवा ) मे वहाँ मुसलमान नवाबके मोदी होकर गये थे । इनके मातामह मदनसिंह चिनालिया जौनपुरके प्रसिद्ध जौहरी थे और पिता खड्गसेन कुछ दिनोंतक बगालके सुल्तान मोदीखाके पोतदार रहे थे। इनका जन्म जौनपुरमे माघ सुदी ११ सवत् १६४३ मे हुआ था । यह श्रीमाल वैश्य २४४ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २४५ थे। यह बडे ही प्रतिभाशाली सुधारक कवि थे। शिक्षा सामान्य प्राप्त की थी, पर अद्भुत प्रतिभा होनेके कारण यह अच्छे कवि थे। इन्होने चौदह वर्षकी अवस्थाम एक हजार दोहा चौपाइयोंका नवरस नामक अन्य बनाया था, जिसे आगे चलकर, इस भयसे कि ससार पथभ्रष्ट न हो, गोमतीमें प्रवाहित कर दिया था। इनके पिता मूल्तः आगरा-निवासी ही थे तथा इन्हें भी बहुत दिनो तक आगरा रहना पड़ा था। उस समय आगरा जैन विद्वानोंका केन्द्र था। इनके सहयोगियोम पं० रामचन्द्रजी, चतुर्भुज वैरागी, भगवतीदासजी, धर्मदासजी, कुंवरपालजी और जगजीवनरामजी विशेष उल्लेख योग्य है। ये सभी कवि थे। महाकवि बनारसीदासका सन्तकवि सुन्दरदाससे सम्पर्क था। बताया गया है-"प्रसिद्ध जैनकवि बनारसीदासके साथ सुन्दरदासकी मैत्री थी । सुन्दरदास जब आगरे गये थे तब बनारसीदासके साथ सम्पर्क हुआ था । वनारसीदासजी सुन्दरदासको योग्यता, कविता और यौगिक चमत्कारोंसे मुग्ध हो गये थे। तभी इतनी लापायुक्त कठसे उन्होंने प्रशसा की थी । परन्तु वैसे ही त्यागी और मेधावी बनारसीदासजी भी थे। उनके गुणोसे सुन्दरदासजी प्रभावित हो गये, इसीसे वैसी अच्छी प्रशसा उन्होंने भी की थी।" महाकवि बनारसीदासका सम्पर्क महाकवि तुलसीदासके साथ भी था। एक किवदन्तीमें कहा गया है कि कवि तुलसीदासने अपनी रामायण बनारसीदासको देखनेके लिए दी थी। जब मथुरासे लौटकर तुलसीदास आगरा आये तो बनारसीदासने रामायणपर अपनी सम्मति "विराजै रामायण घट माहीं। 'मर्मी होय मर्म सो जानै मूरख समझें नाहीं।" इत्यादि पद्यमे लिखकर दी थी। कहते है इस सम्मतिसे प्रसन्न होकर ही तुल्सीदासने कुछ पद्य भगवान् पार्श्वनाथकी स्तुतिमें लिखे है। ये पद्य शिवनन्दन द्वारा लिखित गोस्वामीजीकी जीवनीमें प्रकाशित हैं। इनकी निम्न रचनाएँ हैं Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन-साहित्य- परिशीलन १. नाममाला - एक सौ पचहत्तर दोहोंका छोटा-सा शब्दकोप | इसकी स० १६७० में जौनपुर रचना की थी । २४६ २. नाटक, समयसार - यह कविवरकी सबसे प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण रचना है। इसकी रचना संवत् १६९३ मे आगगमें की गयी थी। ३. बनारसी विलास — इममें ५७ फुटकर रचनाएँ संग्रहीत है । इसका संकलन संवत् १७०१ मे पं० जगजीवनने किया था । - १. अर्द्धकथानक - इसमें कविने अपनी आत्मकथा लिखी है । इसमें संवत् १६९८ तककी सभी घटनाएँ दी गयी है। भैया भगवनीदास - यह आगराके निवासी थे । ओसवाल जैनी और कटरिया गोत्रके थे | इनके पिताका नाम लालजी था और दशरथ साहू इनके पितामह थे | इनके जन्मसंवत् एवं मृत्युसंवत्कै सम्बन्धमे कुछ पता नहीं है। हॉ इनकी रचनाओंम संवत् १७३१ से १७५५ तकका उल्लेख मिलता है । वि० सं० १७११मे हीरानन्दजीन पंचास्तिकायका अनुवाद किया था, उसमें उन्होंने आगरामें एक भगवतीटास नामक व्यक्तिके होनेका उल्लेख किया है । सम्भवतः भैया भगवतीढास ही उक्त व्यक्ति थे । इन्होंने कविता में अपना उल्लेख भैया, भविक और दासकिशोर उपनामोंसे किया है। इनकी समस्त रचनाओं का संग्रह ब्रह्मवि लास के नामसे प्रकाशित है। यह वनारसीदासके समान अध्यात्मरसिक कवि थे। इनकी कवितामं प्रसादगुण एवं अलंकार सर्वत्र पाये जाते हैं। उर्दू और गुजराती भाषाका पुट भी इनकी रचनाओं में विद्यमान है | थोडे शब्दों में गहन अर्थ और परिष्कृत भावनाओका निरूपण करना इनकी कविताकी प्रमुख विशेषता है । सरसता और सरलता इनके काव्यका जीवन है । ब्रह्मगुलाल -- यह पद्मावती पुरवाल जातिके थे। यह चंदवार ( फिरोजाबाद, जिला आगरा ) के पास टापू नामक ग्रामके निवासी थे । इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ कृपणजगावनचरित्र है । इस ग्रन्थको प्रशत्तिसे अवगत होता है कि कविवर ब्रह्मगुलालनी भट्टारक बगभूपणके शिष्य थे । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - परिशिष्ट २४७ टापू गॉवके राजा कीरतसिह थे, यहीपर धर्मदासजीके कुल्मे मथुरामल्ल थे। यह ब्रह्मचर्यका पालन करने में प्रसिद्ध थे । कविने इन्हींके उपदेशसे सगुण मार्गका निरूपण करनेके लिए सवत् १६७१मे इस ग्रन्थकी रचना की थी। यह अच्छे कवि थे । भापापर इनका अच्छा अधिकार था । आनन्दधन या धनानन्द-यह श्वेताम्बर सम्प्रदायकै प्रसिद्ध सन्त कवि है । यह उपाध्याय यशोविजयजीके समकालीन थे । यशोविजयका जन्म सवत् १६८० बताया जाता है, अतः इनका काल भी वही है । हिन्दीमें इनकी 'आनन्दधनबहत्तरी' नामक कविता उपलब्ध है, यह रामचन्द्र काव्यमालामें प्रकाशित है। यह आध्यात्मिक कवि थे । इनकी रचनाओंमे समतारस और शान्तिरसकी धारा अवश्य मिलती है। रचनाएँ हृदयको स्पर्श करती हैं। यशोविजय यह भी ध्वेताम्बर सम्प्रदायक प्रसिद्ध आचार्य है। इनका जन्म संवत् १६८० और मृत्यु सवत् १७४५ के आसपास हुई थी। यह गुजरातके डमोई नामक नगरके निवासी थे । यह नयविजयजीके शिष्य थे । संस्कृत, प्राकृत, गुजराली और हिन्दी भाषामे कविता करते थे। संस्कृत भाषामे रचे गये इनके अनेक ग्रन्थ है। यह गुजराती थे, पर विद्याभ्यासके सिलसिलेमें इन्हें काशी भी रहना पड़ा था। इसी कारण यह हिन्दीमे भी उत्तम कविता करते थे। इनके ७५ पदोका एक संग्रह 'जसविलास के नामसे प्रकाशित है। इनकी कविताम आज्यात्मिक मावोंकी बहुलता है। भाषा आडम्बर शून्य है, पर भाव ऊचे है। खेमचन्द-यह तापगच्छकी चन्द्रशाखाके पण्डित थे । इनके गुरुका नाम मुक्तिचन्द्र था। आपने नागर देशमे संवत् १७६१ मे 'गुणमाला चौपई अथवा 'गजसिहगुणमालचरित'की रचना की है। यह ग्रन्थ अमीतक अप्रकाशित है। इसकी जो प्रति जैनसिद्धान्त भवन आरामे सुरक्षित उसका लिपिकाल सं० १७८८ है । इनकी कवितामे वर्णनीकी विशेषता है। मापापर गुजरातीका बहुत बडा प्रमाव है। इनकी अन्य रचनाएँ अशात है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन भूधरदास-कविवर भूधरदास आगराके निवासी थे। इनकी जाति खण्डेलवाल थी। इनका समय अनुमानतः १७ वी शतीका अन्तिम भाग या १८ वी शतीका प्रारम्भिक भाग है । इनके द्वारा रचित पार्श्वपुराणकी प्रतिका लिपिकाल १७५४ है, अत: यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि इनका समय १८ वीं शतीका पूर्वार्द्ध ही सम्भव है। इनकी कविता उच्चकोटिकी होती है। श्री प्रेमीजीने इनकी कविताके सम्बन्धमे लिखा है-"हिन्दीके जैन साहित्यमें पार्श्वपुराण ही एक ऐसा चरित ग्रन्थ है, जिसकी रचना उच्चश्रेणीकी है, जो वास्तवमै पढने योग्य है और जो किसी संस्कृत प्राकृत ग्रन्थका अनुवाद करके नही, किन्तु स्वतन्त्र रूपम लिखा गया है । इनकी सभी रचनाओम कवित्व है। निम्न तीन रचनाएँ प्रसिद्ध है-१--पाचपुराण (महाकाव्य)-इसमें भगवान पार्श्वनाथका जीवन वर्णित है । २-जैनशतक-यह नीतिविषयक सुन्दर रचना है। इसमें १०७ कवित्त, सवैया, दोहा और छप्पय हैं । ३-पदसंग्रह इसम ८० पदोका संकलन है। द्यानतराय-यह कवि आगराके निवासी थे। इनका जन्म अग्रवाल जातिके गोयल गोत्रमें हुआ था। इनके पूर्वज लालपुरसे आकर आगराम बस गये थे। इनके पितामहका नाम वीरदास और पिताका नाम न्यामदास था । इनका जन्म संवत् १७३३ में हुआ था और विवाह संवत् १७४८ में हुआ था। विवाहके समय इनकी अवस्था १५ वर्षकी थी। उस समय आगरामें मानसिंहजीकी धर्मशैली थी। कवि द्यानतरायने उसमे लाम उठाया था। कविको प० विहारीदास और प० मानसिहके धर्मोंपदेशसे जैनधर्मके प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। इन्होंने संवत् १७७७ मे श्री सम्मेदशिखरकी यात्रा की थी। इनका महान् अन्य धर्मविलासके नामसे प्रसिद्ध है। इस प्रन्यमे इनकी समस्त कविताएँ संगृहीत है, यह सकलन संवत् १७८९ मे कविने स्वयं किया है। इस सकलन में ३३३ पद संग्रहीत है, जो स्वयं एक वृहदकाय ग्रन्थका रूप ले सकते हैं। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट पूजाओके अतिरिक्त ४५ विषयोपर इनकी फुटकर कविताएँ नीति और उपदेशात्मक अधिक हैं। है । विचार और भावनाएँ सुलझी हुई हैं। चित्र देखिए २४९ कविताएँ हैं । इनकी भाषापर उर्दू का प्रभाव ससारका जीता-जागता रुजगार बनै नाहि धन तौ न घर माहि खानेकी फिकर बहु नारि चाहै गहना । देनेवाले फिरि जाहिं मिले तो उधार नाहिं, साझी मिलै चोर धन भावे नाहि लहना । कोक पूत ज्वारी भयौ घर माहिं सुत थयौ, एक पूत मरि गयौ ताको दुःख सहना । पुत्री घर लोग भई व्याही सुता जम लई, एते दुःख सुख जानै तिसे कहा कहना ॥ वृन्दावन - कवि वृन्दावनका जन्म शाहावाद जिलेके बारा नामक गाँवमे संवत् १८४८ मे हुआ था । आप गोयलगोत्रीय अग्रवाल थे । कविके वशधर बारा छोड़कर काशीमे आकर रहने लगे थे । कविके पिताका नाम धर्मचन्द्र था । १२ वर्षकी अवस्थामे वृन्दावन अपने पिता के साथ काशी आये थे । काशीमे यह लोग बावर शहीदकी गलीमें रहते थे । वृन्दावनकी माताका नाम सिताबी और स्त्रीका नाम रुक्मिणी था । इनकी पत्नी बड़ी धर्मात्मा और पतिव्रता थी । इनकी ससुराल भी काशीके ठठेरी बाजारमें थी । इनके श्वसुर एक बड़े भारी धनिक थे। इनके यहाँ उस समय टकसालाका काम होता था। एक दिन एक किरानी अग्रेज इनके श्वसुरकी टकसाला देखनेके लिए आया । वृन्दावन भी उस समय वहीं उपस्थित थे । जब उस किरानी अग्रेजने इनके श्वसुरसे कहा - "हम तुम्हारा कारखाना देखना चाहते हैं, कि उसमें कैसे सिक्के तैयार होते है । वृन्दावनने उस अंग्रेज किरानीको फटकार दिया और उसे टकसाला नहीं दिखलायी। वह अंग्रेज नाराज होता हुआ वहाँसे चला गया । दैवयोगसे कुछ ' दिनोंके उपरान्त वही अग्रज किरानी काशीका कलक्टर होकर आया । उस समय वृन्दावन सरकारी खजाचीके पदपर आसीन थे । साहब बहादुरने प्रथम साक्षात्कार के अनन्तर ही इन्हें पहचान लिया और मनमे बदला लेनेकी बलवती भावना जागृत हुई । यद्यपि कविवर अपना कार्य बड़ी ईमानदारी, सच्चाई और कुशलता से सम्पन्न Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन करते थे, पर जब अफसर ही विरोधी बन जाय, तब कितने दिनोंतक कोई बच सकता है। आखिरकार एक जाल बनाकर साहबने इन्हे तीन वर्पकी जेलकी सजा दे दी। इन्हें शान्तिपूर्वक उस अग्रेनके अत्याचारोको सहना पड़ा। कुछ दिनके उपरान्त एक दिन प्रातःकाल ही कलक्टर साहब जेलका निरीक्षण करने गये। वहाँ उन्होने कविको जेलकी एक कोठरीमे पद्मासन लगाये निम्न स्तुति पढते हुए देखा। 'हे दीनबन्धु श्रीपति करुणानिधानजी। अब मेरी व्यथा क्यों न हरो बार क्या लगी।' इस स्तुतिको बनाते जाते थे और भैरवीमे गाते जाते थे। कविता करनेकी इनमे अपूर्व शक्ति थी, जिनेन्द्रदेवके ध्यानमें मग्न होकर धारा प्रवाह कविता कर सकते थे। अतएव सदा इनके साथ दो लेखक रहते थे, बो इनकी कविताएँ लिपिवद्ध किया करते थे। परन्तु जेलकी कोठरीमे अकेले ही ध्यान मग्न होकर भगवान्का चिन्तन करते हुए गानेमें लीन थे। इनकी ऑखोसे ऑसुओकी धारा प्रवाहित हो रही थी। साहब बहुत देरतक इनकी इस दशाको देखता रहा । उसने "खजाची बाबू । खजाची बाबू" कहकर कई बार पुकारा; पर कविका ध्यान नहीं टूटा। निदान कलक्टर साहब अपने आफिसको लौट गये। थोड़ी देरमे एक सिपाहीके द्वारा इनको बुलवाया और पूछा "तुम क्या गाटा और रोटा था।" वृन्दावनने उत्तर दिया-'अपने भगवान्से तुम्हारे अत्याचारकी प्रार्थना करता था। साहबके अनुरोधसे वृन्दावनने पुनः "हे दीनबन्धु श्रीपति" विनती उन्हें सुनायी और इसका अर्थ भी समझाया। साहब बहुत प्रसन्न हुआ और इस घटनाके तीन दिनके बाद ही कारागृहसे इन्हें मुक्त कर दिया गया। तभीसे उक्त विनती सकटमोचनस्तोत्रके नामसे प्रसिद्ध हो गयी है । इनके कारागृहकी घटनाका समर्थन इनकी कवितासे भी होता है। "श्रीपति मोहि जान जन अपनो, हरो विधन दुख दारिद जेल कहा जाता है कि राजघाटपर फुटही कोठीमें एक गार्डन साहब सौदागर रहते थे। उनकी एक बड़ी भारी दुकान थी। आपने कुछ दिन तक इस दुकानकी मैनेजरीका भी कार्य किया था । यह अनवरत कविता रचनेमे लीन रहते थे। जब यह जिनमन्दिर में दर्शन करने जाते तो प्रति Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २५१ दिन एक विनती या स्तुति रचकर ही भगवान्के दर्शन करते । इनके साथ देवीदास नामक व्यक्ति रहते थे। इन्हें पद्मावती देवीका इष्ट था। यह शरीरसे भी बड़े बली थे। बड़े-बड़े पहलवान भी इनसे भयभीत रहते थे । इनके जीवनमे अनेक चमत्कारी घटनाएँ घटी हैं । इनके दो पुत्र थे अजितदास और शिखरचद । अजितदासका विवाह आरामे बाबू मुन्नीलालनीकी सुपुत्रीसे हुआ था | अतः अजितदासजी आरा ही आकर बस गये। यह भी पिताके समान कवि थे । इनकी रचनाएँ भी उपलब्ध हैं। इनके द्वारा रचित निम्न अन्य है--प्रवचनसार, तीस चौबीसी पाठ, चौबीसी पाठ, छन्दशतक, अहत्यासाकेवली और वृन्दावनविलास (फुटकर कविताओका सकलन) इनके द्वारा रचित एक जैन रामायण भी है जिसकी अधूरी प्रति आराकै एक सज्जनके पास है। वुधजन-इनका पूरा नाम विरधीचन्द था । यह जयपुरके निवासी खण्डेलवाल जैन थे। यह अच्छे कवि थे। इनका समय अनुमानतः उन्नीसवीं शताब्दीका मध्यभाग है । कविता करनेकी अच्छी प्रतिमा थी। इनके द्वारा विरचित निम्न चार अन्य उपलब्ध है १-तत्वार्थबोध (१८७१), २-बुधजनसतसई (१८८१), पञ्चास्तिकाय (१८९१) और बुधननाविलास (१८९२)। इनकी मापापर मारवाड़ीका प्रभाव है। किन्तु पदोंकी भापा तथा बुधजन सतसईकी भाषा हिन्दी है। मनरंग-इनका पूरा नाम मनरगलल है। यह कन्नौजके निवासी पल्लीवाल थे | इनके पिताका नाम कनौजीलाल और माताका नाम देवकी था । कन्नौजमे गोपालदासजी नामक एक धर्मात्मा सज्जन निवास करते थे। इनके अनुरोधसे ही इन्होने चौवीसीपाठकी रचना की थी। इस प्रसिद्ध पाठका रचनाकाल संवत् १८५७ है। इसके अतिरिक्त इनके अन्य मी उपलब्ध हैं-नेमिचन्द्रिका, सतव्यसन चरित्र, सप्तर्षि पूजा एव शिखरसम्मेदाचलमाहास्य । शिखरसम्मेदाचल्माहात्म्यका रचनाकाल सवत् १८८९ है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ अगरचन्द नाहटा अब्दुल रहमान अमय कवि अभयदेव सूरि अम्बदेव आनन्दघन ईश्वर सूर उत्तमचन्द्र उदयचन्द्र उदराज कुँबर कुशाल कुमारपाल कृष्णद्वैपायन केसरकीत्ति ई क अनुक्रमणिका ग्रन्थकार एवं कवि १३७ चेतनविजय २१ ३९ जगन्नाथराय २१ जायसी ४१ जिनदत्त सूरि निप्रभ सूरि जिनसागर ि ८४, १२७,१८१ ४१ | जिनसिंह मूरि जिनसेन २३६ | नोघरान गोदिया २३५, २३८ | ज्ञानविजय २३५ | ज्ञानसार कवीरदास ८४,१०७,११०,१११, डादराम ११२,१२७,१९९ ३९,४० १२९ तैव २३८,२४० २४० | त्रिभुवनदेव ६२ ३१,३२,३३ १३३ १३२ १३६ १३६ २२६,२३६ ७० ७० २३८ ติ २३६ | तुलसीदास ३१, ३४, ३५, ३६, १०७ १२१,१२२,१२३,१२७,१०० १८२ ६९ २१,४३ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादू देवच बिहारी दौलतराम ७४, ७८.९१,०७,९०, | भजन १०८, ११०,१११,१२०, १८१ २०५ धनपाल धर्मरि ग्रानतराय ८९.१०.१९६.४८१, १८७.१८९,१९२ धवल चाहि कवि नथमल नयनन्दि नवल्याद पद्मकीत्ति परिमल कवि अनुक्रमणिका 可 १०७ । ६९ न पुष्पदन्त प्रसाद [ जाकर ] य बनारसीदास ७० ૪.૪૮ ६८ भारमल भृधरदास २०८,२१४,२१५,२२२, २२५,२२८,२४० बुन्ट वृन्दावन १०२,१२२,२३८,२३० बागुलाल 1 मजिaare { ६१, ३३ । भगवानदास ४१,५५ | भँवरलाल नाहटा શ્ भागचन्द्र २१ २०,३७,४३,५४ १२७ भोज ३८ ७४,७५,१००, ११६, १२०,१२७,१८१ १९९ २५३ भ २२,७४,७८,८०, मनरगलाल १०८,१२४,१२७,१४०, मलूकदास १४७,१५२,१५५,१८१, | माइल्लधवल ५७ २२ २३२ १३७ ७४, ७५,७८, ९, ११७,१२७ სა ४१,४३,७९,८७,८९, ११०,१११,११४,१२०, १२७,१८१,१९५,२२३, २२४ ૪૩ मैया भगवतीदास ५७, ७६,८२, ८४,१४०,१५७,१६५, ६६ १६८, १७३, १८१,१८५ ३९ ᄑ ५९ १०७ २१ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ मानकवि मानशिव माल्कवि मीरा मुख मेघराज यशोविजय योगचन्द्र नसेन रविदास य वर्तमान सर विनयभद्र हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन २३५ | विजयसरि २३५ विद्यापति रहीम रामसिंह मुनि रामानन्द रायमल राहुल सांकृत्यायन ३४, रुपचन्द ४१ विनयचन्द्र १०७ | विनयसागर ३९ | विनयसूरि २३८ | विनोदीलाल ८६ श्रीचन्दमुनि :; १९९ 색 २१ सेवाराम ३४ सोमप्रभ ७० | स्वयम्भू 347 २२, १८१ हेमकवि हेमचन्द्र २१ • हेमविजय ४१ हीरालाल कवि ४१ ३१, ११५ ४१ ૪૦ ૐ २०१ सागरदत्त २१ ३२ सुरदास ३७, ३८, १०७, ११५, २०७ ११७, ११८, ११९, १२१, १२७ ७० ३५, १८२ २१, ३४, ३५, ४३ ह २१ २३८ २४, ३७, २८ २२ ૬૭. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ अक्षरबत्तीसी अक्षरबत्तीसिका अंजनासुन्दरीरासा अध्यात्म बत्तीसी अध्यात्म हिंडोलना अनादि बत्तीसिका अनित्य पच्चीसी अनूप रसाल अनेकार्थ नाममाला अपभ्रंशदर्पण अर्धकथानक आ आतमबोध नाममाला आदिनाथ पुराण आदिपुराण आनन्दवहत्तरी आराधनाकथाकोष आश्चर्य चतुर्दशी उत्तरपुराण ग्रन्थोंकी अनुक्रमणिका उपदेश शतक उपशम पच्चीसका २१ १८१ १८५ काव्यप्रकाश २२२ २३५ कुमारपालप्रतिबोध ३९, ४०, ५३ २४० कृपणचरित ४१, ५३ ३२ कृपणजगावन काव्य ५७ २०८ अलकारचिन्तामणि २२६, २३६ अल्कार आशय मंजरी १४० १८१ ऐ ५३,५५ | ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह १३७ १४०, १८१ क १५५ कथाकोप कर्मछत्तीसी १४०, १८१ ग २३६ | गजसिंह गुणमाल चरित गुणमजरी गुरुपदेश श्रावकाचार २४० २२ गौतमरासा ४८ १८१ २१, ७० चन्द्रप्रभचरित १८७ १४० १८१ चन्द्रालोक चारुदत्तचरित ४८ | चेतनकर्मचरित्र ६४ १८१ १८१ २२, ५३ ६७ २२२ ه १४०, १५७ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ वन्दयकाध छन्दaara छन्दमालिका इन्द्रघातक छहढाला रहकाटिया हिन्दी-जन-साहित्य परिशीलन धर्मरचीसी २३८ ! धर्मरहस्यावनी २३८ दर्शनकथा २३८ । नयत्रक्र २३८, २३९ । नवरस १८१, २०७, २०७ | नागकुमारचरित १३, १४, ३० । नाटक पच्चीसी १४० १४० o ૪૦ 130 ५९ ५३ । नाटकमार जम्बूचरित लम्बूलामीचरित २१ । नाममाला जम्बूस्वामीरामा ४१, ५३, ५५ नाम्नाकर जयतिमुत्रनगायान्तोत्र २१ | निशिमोलनकथा नसविलासंग्रह जायसीन्यावली लीवरचरित जैनद्यत ज्ञानपच्चीनी १५०, १८१ प ज्ञानचावनी १८०,१८१,१८६,१८९ | पमचरित - रामायण २१,९१, ३०, ३४, ३४, ३५, ३६, ४३ ४८ ५३ १८०, १६९ ४१ २१६२ २४ २? त तिमहिमहापुरिसगुणालंकार २९,४३, ४८ १४०, १४७ धन्यकुमारचरित वदत्तचरित ८६ नेमिचन्द्रिका ३३ नेमिनाथप ७० : नेमिराारहमासा १८१ | नेमिव्याह पचमी चरित पञ्चेन्द्रिय मंगद पद्मपुराण १८१ १८६ प '५० : पद्मिनीचरित परमात्मछत्तीस ५३ । नात्मप्रकाश ५३ परमार्थक दोहा २१ ܘ ܀܀ ܕܘ܀ 3y© २१ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वपुराण पुण्याखवकथाकोष पुण्यपच्चीसिका पूरणपचासिका प्रद्युम्नचरित प्रवन्धचिन्तामणि बरवै बाहुबली रास बुधजन सतसई ब्रह्मविलास भाषाकवि रसमजरी अनुक्रमणिका ४१, ४३, ५० | महाभारत ७० मालापिंगल भूधरपदसंग्रह भूधरशतक भोजप्रबन्ध भ भवसिन्धु चतुर्दशी भविष्यदत्तचरित भविसयत्तकहा २१, २९, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३६ म मधुबिन्दुक चौपाई मनबत्तीसी मलयचरित मल्लिनाथ महाकाव्य महापुराण " १८१ मिथ्यात्वविध्वसनचतुर्दशी १९२ मोक्ष पैडी ७० ३९, ४० यशोधर चरित्र योगसार १४० ५३ रामचरितमानस १८१, १९९ | रामायण ८२ रसमीमासा रसमजरी १४०, १५२ | रिद्वमिचरिउ ७० | रेवन्तगिरिरासा लखपतबयसिन्धु २३५ | लघुपिंगल ८७ लघुसीतास्तु १९४, १९५ | ललितागचरित्र ३९, ४१ य वर्द्धमान चरित" १४०, १७३ | विवेकवीसी, १४०, १८१ | वैद्यविरणि प्रबन्ध वैरसामिचरिउ ७० ४३ वैराग्यपंचा २१, ३७ | व्यसनत्यागषोड़श १२९ २३८ १४० १४०, १८१ ४१, ५३, ५४ २१ " A २५७ d ३१,३५,३६ ૨૪ २३२ २२२ ४३ ४१, ५३ २३६ २३८ ५७ ४१,५३ १८१ २३५ २९ 1 १८१ १८१ - Pyasa Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ व्योहारपच्चीसी शतअष्टोत्तरी शान्तिनाथपुराण शिवपच्चीसी शिक्षावली शीटकथा श्रृंगार तिलक श्री पालचरित श्रेणिक चरित सज्जनगुणदाक सन्देशरासक श सप्तक्षेत्र सा सप्तन्यसनचरित सम्यक्त्वकौमुदी सिद्धचतुर्दशी हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन १८१, १९० | सुखबत्तीसी १८१ मुदर्शनचरित्र ४३, ४८, ४९, ७० १८१ २१ १८१, १८२ १४०-१८१ १८१ स्वायत्तीसी १४० ७० सोलहतिथि १४० २२२ संघपतिसमरारासा २२, ४१, ५३ २३५ १४०, १८१ ३४ १६५ | मुवोधपंचासिका ७० सुलसाख्यान सूक्तिमुक्तावली ४१, ६६ | सयोगद्वात्रिंशिका २२, ४१ | स्वनत्रतीसी स्वयम्भूरामायण १८१ २१ २२, ४१ | हनुमच्चरित ७० ७० हरिवंशचरित कृष्णचरित २९, ३० २१,४१,४३ ૪ ७० हरिवंशपुराण १४० | हिन्दी काव्यधारा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •OROOOOOOOOOOOOOOOOOO. ज्ञानपीठक सुरुचिपूर्ण हिन्दी प्रकाशन श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय श्री हरिवंशराय वञ्चन शेरो-शायरी [द्वि० स०] 0 मिलनयामिनी [गीत] ४) शेरो-सुखन [पाँचौंमाग] २० श्री अनूप शर्मा जैन-जागरणके अग्रदूत । वर्द्धमान महाकाव्य] गहरे पानी पैठ २00/ श्री रामगोविन्द त्रिवेदी जिन खोजा तिन पाइयाँ २२) वैदिक साहित्य श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर श्री नेमिचन्द्र ज्योतिपाचार्य आकाशके तारे धरतीके फूलर)। भारतीय ज्योतिष जिन्दगी मुसकराई हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन ) श्री मुनि कान्तिसागर श्री नारायणप्रसाद जैन खण्डहरोका वैभव. ६) ज्ञानगगा सूक्तियों) ६) खोजकी पगडण्डिया ४) श्रीमती शान्ति एम० ए. डॉ. रामकुमार वर्मा . ____ पञ्चप्रदीप [गीत __ रजतरदिम नाटक] श्री 'तन्मय' बुखारिया श्री विष्णु प्रभाकर मेरे वापू[कविता] सघर्पके बाद कहानी] ३) श्री बैजनाथसिंह विनोद द्विवेदी-पत्रावली ) श्री राजेन्द्र यादव श्री भगवतशरण उपाध्याय ___ खेल-खिलौने [कहानी] || कालिदासका मारत [१-२]८) श्री मधुकर श्री गिरिजाकुमार माथुर __भारतीय विचारधारा २) धूपके धान ३) श्री राषी | श्री सिद्धनाथकुमार एम. ए. पहला कहानीकार २ रेडियो नाट्य शिल्प | श्री लक्ष्मीशंकर व्यास श्री वनारसीदास चतुर्वेदी चौलुक्य कुमारपाल हमारे आराध्य सस्मरण श्री सम्पूर्णानन्द रेखाचित्र हिन्दू विवाहमें कन्या- प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी दानका स्थान ) शरत्के नारीपात्र ४) CONNOIOPORONOIOROLOROPORON ee eee mma Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *0*0*0*0*0*0*0*0401010101010 ज्ञानपीठ के महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रकाशन पं० सुमेरचन्द्र दिवाकर महाबन्ध [१] जैन शासन [ द्वि०स०] पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री महाबन्ध [२,३,४ ] सर्वार्थसिद्धि पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य १२) ३) १६) तत्वार्थवृत्ति तत्वार्थराजवार्तिक [१] १२ ) न्यायविनिश्वय विवरण [भाग १-२ ] ३०) आदिपुराण [भाग १] आदिपुराण [भाग २] ३३) १२) पं० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य उत्तरपुराण धर्मशर्माभ्युदय 20 J १०) १०) ३) पं० हीरालाल शास्त्री, न्यायतीर्थ वसुनन्दि-श्रावकाचार जिन सहस्रनाम पं० राजकुमार जैन साहित्याचार्य ป ४) ८) ४] मदनपराजय अध्यात्म- पदावली पं० नेमिचन्द्र जैन ज्योतिषाचार्य केवलज्ञान प्रश्नचूडामणि ४) पं० के० भुजवली शास्त्री कन्नडप्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थसूची प्रो० हरिदामोदर वेलणकर सभाप्य रत्नमंजूषा पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी नाममाला [समाप्य ] ३ ।। प्रो० ए० चक्रवर्ती ८) समयसार [अग्रेजी ] froकुरल [ तामिल लिपि ] ५) प्रो० प्रफुल्लकुमार मोदी करलक्खण [द्वि० स०] m} 1 श्री भिक्षु धर्मरक्षित ranger [पाली ] श्री कामताप्रसाद जैन १३) ຈຸ हिन्दी जैनसाहित्यका सक्षिप्त इतिहास श्रीमती रमारानी जैन 21 = } ३॥ आधुनिक जैनकवि पं० गुलाबचन्द्र व्याकरणाचार्य पुराणसारसग्रह [भाग१-२] ४) पं० शोभाचन्द्र भारिएक कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रन २/ श्री वीरेन्द्रकुमार एम० ए० मुक्तिदूत [ उपन्यास ] ป 40101010404040404040*0*0*0*0* Page #253 -------------------------------------------------------------------------- _