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हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन वालक काया कृपल लोय । पन्न रूप जीधनमें होय ॥ पाको पात जरा तन करै । काल बयारि चलत पर झरै ॥ मरन दिवसको नेम न कोय । यातै कछु सुधि पर न लोय ॥ एक नेम यह तो परमान । जन्म धरे सो मरै निदान ।
वस्तुतः उपर्युक्त पक्तियोका यथार्थ चित्रण अत्यन्त रमणीय है। कवि कहता है कि किशोरावस्था कोपलके तुल्य है, इसमें पत्र-रूप यौवन अवस्था है। पत्तोका पक जाना-जरा है। मृत्यु-रूपी वायु इस पके पचेको अपने एक हल्के धक्केसे ही गिरा देती है। जब जीवनमें मृत्यु निश्चित है, तो हमे अपनी महायात्राके लिए पहलेसे तैयारी करनी चाहिये ।
जीवनका अन्तर्दर्शन ज्ञानदीपके द्वारा ही हो सकता है, किन्तु इस जानदीपमें तपरूपी तैल और स्वात्मानुभवरूपी बत्तीका रहना अनिवार्य है
ज्ञान दीप तप तेल भर, घर शोधे श्रम छोर ।
या विधि बिन निकसै नहीं, पैठे पूरब चोर ॥-१८१ वस्तु-वर्णन, चरित्र-चित्रण और भाव-व्यञ्जना इस महाकाव्यमे समन्वित रूपमे वर्तमान है। घटना-विधान और दृश्य योजनाओको भी कविने पूरा विस्तार दिया है। आदर्शवादका मेल कविताकी समाजनिष्ठ पद्धति और प्रबन्ध-शैलीसे अच्छा हुआ है। पाश्र्वनाथका चरित्र हिंसापर अहिंसाकी विजय है । आमाका पीयूप क्रोध और वैरको सुधा बना देता है, क्रोध और उत्पातके स्वरूपको बदल देता है। प्रतिशोध और वैरकी भावनाका अन्त हो जाता है । इसपर कवि कहता है
इत्यादिक उत्पात सब, वृथा भये अति घोर। जैसे मानिक दीपकौं, लगै न पवन शकोर ॥ प्रभु चित चल्यो न तन हिल्यों, टल्यों न धीरज ध्यान । इन अपराधी क्रोधवस, करी वृथा निन हान ॥८॥२३, २५