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हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य जब आत्मानुभूति उत्पन्न हो जाती है, हृदयके समस्त कालुष्य धुल जाते हैं एवं जीवनका प्रवाह अपनी दिशाको बदलकर प्रवाहित होने लगता है तो भावातिरेकके कारण अस्फुट वचन निकलते हैं । कवि कहता है
चिन्मूरत हग्धारीकी मोहि, रीति लगत है अटापटी ॥ चिन्मूरत०॥ बाहिर नारकि कृत दुख भोगे, अन्तर सुखरस गटागटी॥ रमत अनेक सुरतिसंग पै तिस परनति नै नित हटाहटी चिन्मूरतः॥
कवि दौलतरामकी दृष्टि आत्मनिष्ठ है, वस्तुनिष्ठ नही । अतः किसी वस्तुके बाह्य स्थूल सौन्दर्यकी अपेक्षा आन्तरिक सूक्ष्म सौन्दर्यका अधिक विश्लेषण किया है । भावनाकी भव्यता और अनुभूतिकी सूक्ष्मता दर्शनीय है। इनकी भाषामे सयम, अभिव्यजना-शक्ति, स्पष्टता और व्यावहारिकता पूर्णतः विद्यमान है। भाषाकी लाक्षणिकताने कोमल और माधुर्य मावनाओको भरनेमे विलक्षण कार्य किया है। रूपोंमे कविकी लाक्षणिक शैली दर्शनीय है
मेरो मन ऐसी खेलत होरी। मन मिरदंग साज करि लारी, तनको तमूरा बनो री ॥ सुमति सुरंग सरंगी बजाई, ताल दोडकर जोरी। राग पाँचौं पद कोरी, मेरो मन ऐसी खेलत होरी॥ समकृति रूप गहि भर झारी, करुना केशर घोरी। ज्ञानमई लेकर पिचकारी दोउ कर माहिं सम्होरी ॥ इस प्रकार कवि दौलतरामके पर्दोमे भावावेश, उन्मुक्त प्रवाह, आन्तरिक संगीत, कल्पनाकी तूलिका-द्वारा भावचित्रोकी कमनीयता, आनन्द-विहलता; रसानुभूतिकी गम्भीरता एव रमणीयताका पूरा ममन्वय विद्यमान है।