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हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन
जान बूझ कर अन्ध बने हैं ऑखन बाँधी पाटी ॥ अरे ॥ निकल जायगे प्राण छिनको पड़ी रहेगी माटी ॥ अरे॥ 'दौलतराम' समझ मन अपने, दिलकी खोल कपाटी ॥ अरे॥
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अव मन मेरा वे सीख वचन सुन मेरा ।
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जिया तुम चालो अपने देश। मत कीजो जी यारी ये भोग भुजंग सम जानिके । कवि चेतावनी देता हुआ कहता है
मेरे कब है वा दिनकी सुपरी। वन विन बसन असन बिन वनमें, निबसौं नासा दृष्टि धरी ॥
मेरे कब०॥ पुण्य पाप परसों कब विरचो, परचो निजनिधि चिर-बिसरी। वज उपाधि, सन सहज समाधी, सहों धाम-हिम मेघ-शरी।
मेरे कब०॥ कब थिर-जोग धरौं ऐसौ मोहि, उपल जान मृग खाज हरी। ध्यान कमान तान अनुभवशर, छेदों किह दिन मोह भरी ॥
मेरे कब० ॥ कव वृन कंचन एक गनो भरु, मनि-जडितालय शैलदरी। 'दौलत' सतगुरु चरनन लेंडे, जो पुरवी आश यहै हमरी ॥
मेरे कब.॥
x चेतन अब धरि सहज समाधि, जात यह विनशै भव व्याधि ।
चेतन०॥ मोह ठगौरी खायके रे, परको भापा जान । मूल निजातमऋद्धि को है-पाये दुःख महान ॥ चेतनः ।।
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