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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
कवि भागचन्दके पद : परिचय और ममक्षा
कविवर मागचन्द उन महृदय और भालुक कविययम है जो निरन्तर आत्मगुत्यांक मुझमें मग्न रहते हैं । इनके पटा
तन्मयता अधिक पायी जाती है ।
निज कारन काहूं न सारे रे, भूले प्रानी ॥ टेक ॥ परिग्रह भारयकी कहा नहीं, उनरत होत विहारे रे । निल कारब० । रोगी नर तेरी बपु को कहा निसदिन नहीं नरं रे ॥ निल कारन० ॥ ऋनि संसारकी अत्रगन्तत्रिकताका चित्रण करना हुआ कहता है
जीव तू भ्रमत सदैव अकेला | मंग साय कोई नहीं तेरा |
अन्तको बेला ।
अपना सुख दुःख आप ही सुगते, होत कुटुम्ब न मेला । स्वार्थ भनेँ सब विहरि बात हैं, विवट जात ज्यॉ नेला ॥१॥ रक्षक कोई न पूरन है जब, आपु फूटन पार चैवत नहिं जैसे उदर जलको ठेला ॥२॥ नन-धन-जीवन विना नात ज्य, इन्द्रवालको खेला | 'भागचन्द' इमि लिखकर भाई, हो सतगुरुकाला ॥३॥ नीतू भ्रमत सदैव अकेला !
आयमिक साधनाएं सबसे बड़ी बाधा मोहने उदयसे उत्पन्न होतो है । यह जीव मांगचित्रकी नि भी मोहके कारण ही करना है । नुन्दर मन्त्राभूषण, अलंकार, पुण्यमान्य आदि द्वारा गर्नरको मुक्ति करनेकी केष्टा भी इसके उदयसे उत्पन्न होती है। मोह वह तेन शराब है जिसका नद्या जीवको मुख और शान्ति वंचित कर देता है, मानवकी सारी प्रवृत्तियाँ बहिर्मुखी हो जाती हैं जिससे वह अन्नं कर्मकायको दूर नहीं कर पाता | मुकता रस ही एक ऐसा आनन्द है, दिनले मानवको अद्भुत शान्ति मिलती है, कविने इस प्रसंग पदम माविकी