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हिन्दी - जैन - गीतिकाव्य
विगर्हणा की है । यद्यपि काव्यके मूल तत्त्व हृदयकी रागात्मक विभूतिका शुद्धात्मदर्शन के साथ सामजस्य नही बैठता है, पर कविने आध्यात्मिक चिन्तन-प्रधान पदोमे भी अपनी भावुकताका समावेश कर अपने कविकर्मका परिचय दिया है ।
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कवि भागचन्दमें दौलतराम के समान हृदय-पक्षका सन्तुलन नहीं है । इनमें तर्क, विचार और चिन्तनकी प्रधानता है । इसी कारण इनके पर्दो विचारोकी सघनता रहती है । निम्नपदमे दार्शनिक तत्त्वोको हृदयग्राहक रूप देनेकी सफल चेष्टा वर्तमान है ।
जे दिन तुम विवेक विन खोये ॥ टेक ॥
चिर सोये ।
मोह वारुणी पी अनादि तैं, परपद सुख करंड चितपिंड आपपद, गुन अनन्त नहिं जोये ॥ जे दिन० ॥ होहि बहिर्मुख हानि राग रुख, कर्मबीज बहु बोये ।
तसु फल सुख-दुःख सामग्री लखि, चितमें हरपे रोये ॥ जे दिन० ॥ धवल ध्यान शुचि सलिल पूरतें, भास्रव मल नहिं धोये ।
पर तुव्यनि की चाह न रोकी, विविध परिग्रह ढोये || जे दिन० ॥ अब निजमें निज जान नियत तहाँ, निज परिनाम समोये ।
यह शिव-मारग समरस सागर, 'भागचंद' हित तो ये ॥ जे दिन० ॥
विशुद्ध दार्शनिकके समान कविने तत्त्वार्थश्रद्धानी और ज्ञानीकी प्रशसा की है । यद्यपि वर्णनमे कविने रूपक उत्प्रेक्षा अलकारोंका भवलम्बन लिया है, किन्तु शुष्क सैद्धान्तिकता रहनेसे भाव और रसकी कमी रह गयी है। ज्ञानी जीव किस प्रकार ससारमे निर्भय होकर विचरण करता है तथा उन्हें अपना आचार-व्यवहार किस प्रकार रखना चाहिये इत्यादि विषयका विश्लेषण करनेवाले पदोमें कविका चिन्तन विद्यमान है; पर भावुकता नहीं है। हॉ, प्रार्थनापरक पदोंमें मूर्त-अमूर्त्तको आलम्बन लेकर कविने अपने अन्तर्जगत्की अभिव्यक्ति अनूठे ढंग से की है। इन