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________________ प्रकीर्णक काव्य १११ एक आवै एक बाय ममतासौ विललाइ, रोज मरे देखे सुनै नैक ना शुरत है । पूत सौं अधिक प्रति वह गाने विपरीत, यह तो नहा मनात जोग क्यों जुरत है। मरनी है सूझे नाहि मोहकी महलमाहि, काल है अवैया त्वास नौवति पुरत है। ज्ञानी व्यक्ति सब जानकी दिशामें बढ़ने लगता है, तो सांसारिक आर्षण प्रक्कूिल झोंने उसे अपने पयसे विचलित नहीं कर सकते। उसके हृदयमें मानव जातिका प्रेम इतना प्रबल हो जाता है, जिससे वह किसी भी व्यक्तिको दुःखी नहीं देखना चाहता है। रम्य इन्द्रधनुपके समान ऐन्द्रियिक आकांनाएँ, वासनाएँ स्वार्थक स्तरसे ऊपर उगा देती है, जिसने सर्वप्रकारकी शान्ति उपलब्ध होती है। जिन पदायोंके प्रलोमनके कारण राग-बुद्धि उत्पन्न होती है, मनकी भूमिकी सुमन जैसी कोम्ल भावनाएँ स्वार्थसे पकिल होती रहती हैं। कविने उन्हीं पदार्थाते उत्पन्न भावनाओंका रसमयी भावतरंगोंके फुहारोंसे सिंचन करते हुए मधुर कामनाओंके साक्षात्कारका आयास किया है। सहृदय कवि लल्साको लहरोंसे युक्त रसकी नदीके किनारे विचरण करते हुए अनुभव कर कह उन्ना है देस देस धाए गढ़ वाक भूपती रिझाये, थलहू खुदाए गिरि ताए पाए ना मस्यो। सागरको तीर धाए मंत्रहू नसान ध्याए, पर घर भोजन ससंक काक न्यौं रत्यौ । बड़े नाम बड़े काम कुल अभिराम धाम, वति पराये काम करे कान ना सखो। तिसना निगोड़ीन न छोड़ी वात भौंही कोऊ, मति हु कनौड़ी कर कौड़ी धन ना सत्यो।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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