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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
कविने इस व्योहारपच्चीसी में जीवनको परिष्कृत करने के साथ गर्व, ईर्ष्या, प्रमाद, क्रोध आदि विकारोंको दूर करनेके लिए जोर दिया है। कवि कहता है कि समष्टि और व्यष्टिके हितके लिए क्रोध, मान, माया और लोभ कपायोका त्याग करना आवश्यक है । क्रोध प्रीतिका नाम करता है, मान विनयका, माया मित्रताका और लोभ सभी सद्गुणोंका नाश करता है । अतएव शान्तिसे क्रोधको, नम्रता से अभिमानको, सरलतासे मायाको और सन्तोपसे लोभको जीतना चाहिये । मानवकी मानवता यही है कि वह अपने हृदय और मनका परिष्कारकर समाजको सव प्रकारसे सुखी रखे । जो व्यक्ति अपने ही स्वाथमं रत रहता है, समानका खयाल नहीं करता है; वह पशुसे भी नीच है । कविने इस वातको अनेक दृष्टान्तो, प्रतिदृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया है। नैतिक विधानका निरूपण करते हुए कविने उपदेशकका पद नहीं ग्रहण किया है । कविता सरस है, आचार और लोकहितका निरूपण करनेपर भी सौन्दर्यकी कमी नहीं आने पायी है।
कवि द्यानतरायकी यह सुन्दर सरस रचना है । कविने इसमें मानव जीवनको सुखी और सम्पन्न बनानेके लिए अनेक विधि-निपेधात्मक नियमोंका प्रतिपादन किया है । कवि कहता है कि पूरण पंचासिका यदि क्रोध करनेकी आदत पड़ गयी है तो कमाँके ऊपर क्रोध करना चाहिये । कमोंके आवरणके कारण ही यह सच्चिदाI नन्द आत्मा नाना प्रकार के कष्टोको सहन कर रही है, अतः इस आत्माको स्वतन्त्र करने के लिए कमोंपर क्रोध करना परम आवश्यक है । मान करना यद्यपि हानिप्रद है, परन्तु आत्मिक गुणोका मान करना श्रेष्ठ होता है। जब व्यक्तिको यह अनुभूति हो जाती है कि हमारी अपनी सम्पत्ति अपने पास है, यह ज्ञान, आनन्द रूप सम्पत्ति भौतिक सम्पत्तिकी अपेक्षा श्रेष्ठतम है, उस समय आत्मामे हर्प और गौरवकी भावनाएँ उत्पन्न होती हैं तथा आत्मविकासकी प्रेरणा मिलती है। इसी प्रकार माया
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