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हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन
कवि अनुप्राणित-सा प्रतीत होता है । यद्यपि पारिमापिक जैन शब्दोंके प्रयोग द्वारा सम्यक्त्वकी महिमा, मिथ्यात्वकी हानि एवं चरित्रकी महत्ता प्रतिपादित की है, फिर भी सामान्य सूक्तियोंका हितोपदेश और तुलसीदासके दोहोंसे बहुत साम्य है ।
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उपदेशाधिकार में विद्या, मित्र, जुआनिषेध, मद्य-मास-निषेध, वेध्यानिषेध, शिकार-निन्दा, चोरी-निन्दा, परस्त्री-सग-निषेध आदि विषयोपर अनेक उपदेशात्मक अनुभृतिपूर्ण दोहे लिखे गये है । इन दोहोंके मनन, चिन्तन, स्मरण और पटनसे आत्मा निर्मल होती है, हृदय पूत भावनाओंसे भर जाता है और जीवनमें मुख-शान्तिकी उपलब्धि हो जाती है।
विराग भावना खण्ड में कविने संसारकी असारताका बहुत ही सुन्दर और सजीव चित्रण किया है। इस खण्डके सभी ढोहे रोचक और मनोहर हैं । दृष्टान्तों द्वारा संसारकी वास्तविकताका चित्रण करनेमें कविको अपूर्व सफलता मिली है। वस्तुका चित्र नेत्रोंके सामने मृतिमान होकर उपस्थित हो जाता है ।
को हैं सुत को है तिया, काको धन परिवार । आके मिले सरायमें, बिधुरेंगे निरधारं ॥ परी रहेंगी संपदा, धरी रहेंगी काय । safe करि क्यों न चचै, काल अपट ले जाय ॥ आया खो नाही रह्या, दशरथ लक्ष्मन राम । तू कैसे रह जायगा, झूठ पापका धाम ॥
कविकी चुभती हुई उक्तियों हृदयमं प्रविष्ट हो जाती हैं तथा जीवनके आन्तरिक सौन्दर्यकी अनुभूति होने लगती है। इस सतसईकी भाषा टेट हिन्दी है, किन्तु कहीं-कहीं जयपुरी भाषाका पुट भी विद्यमान है ।