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________________ प्रकीर्णक काव्य २०॥ यह छोटी-सी सरस रचना कवि विनोदीलालकी है। कविने इसमे नेमिनाथकी बरातका चित्रण किया है तथा पशु-पक्षियोको पिजडेमे बन्द नेमिव्याह .. देखकर उनकी हिंसासे भयभीत हो युवक नेमिनाथ " वैराग्य ग्रहण कर लेते है । इसकी कथावस्तुका निर्देश पूर्वमे नेमिचन्द्रिकाके परिशीलनमे किया जा चुका है। इसकी एक प्रमुख विशेपता यह है कि नेमिनाथके मनमे दुःखी राष्ट्रके दुःखको दूर करनेकी प्रवल आकाक्षा उत्पन्न हो जाती है । यद्यपि उनके मनमें कुछ क्षणोतक सासारिक प्रलोभनोसे युद्ध होता है, परन्तु जब तटस्थ होकर राष्ट्रकी परिस्थितिका चिन्तन करते है, उस समय उनका मोह समाप्त हो जाता है। भौतिक सुखोको छोडकर मानव कल्याणके लिए नेमिनाथका इस प्रकार तपस्याके लिए चला जाना, जीवनसे पलायन या दैन्य नहीं है। यह सच्चा पुरुषार्थ है । इस पुरुषार्थको हर व्यक्ति नही कर सकता, इसके लिए महान् आत्मिक बलकी आवश्यकता है। जिसकी आत्मामें अपूर्व बल होगा, अन्तस्तलमे मानव-कल्याणकी भावना सुलगती होगी, वही व्यक्ति इस प्रकारके अद्वितीय कार्योंको सम्पन्न कर सकेगा। कविने रचनाके आरम्भमें वरकी वेश-भूषाका वर्णन करते हुए बतलाया है। मौर धरो सिर दूलहके कर कंकण बाँध दई कस डोरी। कुंडल काननमें झलके अति मालमें लाल विराजत रोरी। मोतिनकी लड शोभित है छवि देखि लजें बनिता सब गोरी। लाल विनोदीके साहिबके मुख देखनको दुनियाँ उठ दौरी। विरक्त होते हुए नेमिनाथका चित्रण नेम उदास भये जबसे कर जोडके सिद्धका नाम लियो है। अम्बर भूपण डार दिये शिर मौर उतारके डार दियो है ॥ रूप धरों मुनिका जवहीं तवहीं चढिके गिरिनारि गयो है। लाल विनोदीके साहिबने वहाँ पाँच महावत योग लयो है ॥
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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