________________
परिशिष्ट
२४५
थे। यह बडे ही प्रतिभाशाली सुधारक कवि थे। शिक्षा सामान्य प्राप्त की थी, पर अद्भुत प्रतिभा होनेके कारण यह अच्छे कवि थे। इन्होने चौदह वर्षकी अवस्थाम एक हजार दोहा चौपाइयोंका नवरस नामक अन्य बनाया था, जिसे आगे चलकर, इस भयसे कि ससार पथभ्रष्ट न हो, गोमतीमें प्रवाहित कर दिया था।
इनके पिता मूल्तः आगरा-निवासी ही थे तथा इन्हें भी बहुत दिनो तक आगरा रहना पड़ा था। उस समय आगरा जैन विद्वानोंका केन्द्र था। इनके सहयोगियोम पं० रामचन्द्रजी, चतुर्भुज वैरागी, भगवतीदासजी, धर्मदासजी, कुंवरपालजी और जगजीवनरामजी विशेष उल्लेख योग्य है। ये सभी कवि थे। महाकवि बनारसीदासका सन्तकवि सुन्दरदाससे सम्पर्क था। बताया गया है-"प्रसिद्ध जैनकवि बनारसीदासके साथ सुन्दरदासकी मैत्री थी । सुन्दरदास जब आगरे गये थे तब बनारसीदासके साथ सम्पर्क हुआ था । वनारसीदासजी सुन्दरदासको योग्यता, कविता और यौगिक चमत्कारोंसे मुग्ध हो गये थे। तभी इतनी लापायुक्त कठसे उन्होंने प्रशसा की थी । परन्तु वैसे ही त्यागी और मेधावी बनारसीदासजी भी थे। उनके गुणोसे सुन्दरदासजी प्रभावित हो गये, इसीसे वैसी अच्छी प्रशसा उन्होंने भी की थी।"
महाकवि बनारसीदासका सम्पर्क महाकवि तुलसीदासके साथ भी था। एक किवदन्तीमें कहा गया है कि कवि तुलसीदासने अपनी रामायण बनारसीदासको देखनेके लिए दी थी। जब मथुरासे लौटकर तुलसीदास आगरा आये तो बनारसीदासने रामायणपर अपनी सम्मति "विराजै रामायण घट माहीं। 'मर्मी होय मर्म सो जानै मूरख समझें नाहीं।" इत्यादि पद्यमे लिखकर दी थी। कहते है इस सम्मतिसे प्रसन्न होकर ही तुल्सीदासने कुछ पद्य भगवान् पार्श्वनाथकी स्तुतिमें लिखे है। ये पद्य शिवनन्दन द्वारा लिखित गोस्वामीजीकी जीवनीमें प्रकाशित हैं। इनकी निम्न रचनाएँ हैं