________________
१६० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन बैठनीय बोला-"नाथ ! मेरा प्रताप जगविख्यात है। जो वीतरागी कहलाते हैं, जिनके पास संसारका तिल-तुप मात्र भी परिग्रह नहीं है उनको भी मने नहीं छोड़ा है। सुख-दुःख विकीर्ण करना मेरी महिमा नहीं तो और क्या है ? अब मोहनीयकी पारी आई और वह ताल ठोकता हुआ वोला-"अह, विश्वमै मेरा ही तो साम्राज्य है। मेरे रहते हुए चेतनका यह साहस कि कुबुद्धिको घरसे निकाल दे। यह कमी नहीं हो सकता है, में तो प्रधान सेनापति हूँ। यदि मै यह कहूँ कि मोहराज्यका सारा संचालन मेरे ही द्वारा होता है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसी प्रकार क्रमानुसार आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायने अपनी-अपनी विशेताएँ बतलायी 1 मोहराता अपनी अपरिमित शक्तिको देखकर हंसा और बोला-"मुझ जैसे प्रतापीके शासन करते हुए, जिसके पास अष्ट कमाकी प्रवल सेना है, चेतनराज कभी अनीति नहीं कर सकेगा। क्या मेरी पुत्री दुर्बुद्धिको इस प्रकार घरसे निकाल सकेगा । अतः निश्चय हुआ कि अब जल्दी ही चेतनरानापर आक्रमण कर देना चाहिये।
समस्त सेना आनन्दभेरी वजाती हुई राग-द्वपको मोचेपर आगे कर रणक्षेत्रको चली। जब वे चेतननगरके समीप पहुंचे तो दूर ही पड़ाव डाल दिया। ____ इधर जब चेतनरानाको मोहक आक्रमणका समाचार मिला तो उसने भी अपने सभी सचिव और सेनापतियोको एकत्रित किया। सर्व प्रथम ज्ञान बोला-"नाथ ! मोहसे डरनेकी कोई बात नहीं, विजय निश्चय ही हमारे हाथ है। हमारी वाणवाको मोहकी सेना कभी भी सहन नहीं कर सकती है।"
चेदनराजा प्रसन्न हो वोला-"ज्ञानदेव ! तुम्हारी आन ही हमारी शान है। वीर ! मैं तुम्हारे ऊपर पूर्ण विश्वास करता हूँ, अनेक युद्धोंमे तुम्हारी वीरता देख भी चुका हूँ अतः शीघ्र ही अपने सैन्यदलको तैयार कर यहाँ उपस्थित करो। भयकी कोई बात नहीं है ; तुम्हें याद होगा,