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रीति-साहित्य
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किसी भयानक दृश्यको देखकर भय उत्पन्न हो ही अथवा किसीके द्वारा डराये जानेपर भयकी भावना जाग्रत हो, इसका कोई निश्चय नहीं । जबतक चिन्ता उत्पन्न नहीं होती तबतक भय उत्पन्न नहीं हो सकता | चिन्ता शब्द भयकी अपेक्षा अधिक व्यापक है। यद्यपि चिन्ता और मय एक दूसरेके पृष्ठपोषक हैं, किन्तु चिन्ताके उत्पन्न होनेपर भयकी भावनाका जाग्रत होना आवश्यक-सा है। इस प्रकार स्थायीमावों और रसोंके विवेचनमे जैनसाहित्यकारोंने मौलिक चिन्तन उपस्थित किया है।
रसराज जैन साहित्यमे शान्तरसको स्वीकार किया है । इस रसका स्थायीभाव वैराग्य या शमको माना है; तत्त्वज्ञान, तप, ध्यान, चिन्तन, समाधि आदि विभाव हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोहके अभाव अनुभाव हैं; धृति, मति आदि व्यभिचारी भाव हैं। वस्तुतः न जहाँ राग-द्वेष हैं, न सुख-दुःख हैं, न उद्वेग-क्षोभ हैं और सब प्राणियोंमे समान भाव है, वहाँ शान्त रसकी स्थिति रहती है। मानव अहर्निश शान्ति प्राप्त करनेकी चेष्टा करता है, उसका प्रत्येक प्रयल शान्तिके लिए होता है । भौतिकवाद
और देहात्मवादसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती, अतएव गान्तरसको रसराज मानना समीचीन है। जिस प्रकार छोटे-छोटे निर्झर किसी समुद्रमे मिल जाते है, उसी प्रकार सभी रसोका समावेश भान्तरसमे हो जाता है। जैसे नदियों और झरनोंका समुद्र में मिलना स्वभावसिद्ध है, प्रकारान्तरसे नदियोका उद्गम स्रोत भी समुद्रका जल ही है, इसी प्रकार मानव-जीवनकी समस्त प्रवृत्तियोका उद्गम शान्तिसे तथा समस्त प्रवृत्तियोका विल्यन भी शान्तिमे ही होता है। शान्तिका अक्षय भण्डार आत्मा है, जब यह देह आदि परपदार्थोंसे अपनेको भिन्न अनुभव करने लगती है, उस समय गान्त रसकी उत्पत्ति होती है। यह अहकार, राग-द्वैपसे हीन, शुद्ध ज्ञान और आनन्दसे ओत-प्रोत आत्मस्थिति है। यह स्थिति चिरस्थायी है, रति, उत्साह आदि अन्य मनोदशाओका आविर्भाव इसीमे होता है।
जैन साहित्यकारोने वैराग्योत्पत्तिके दो साधन बतलाये है-तत्त्वज्ञान