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२३२ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
और इष्टवियोग तथा अनिष्टसयोग । इनमें पहला स्थायी भाव है और दूसरा सचारी । आजका मनोविज्ञान भी उक्त जैन कथनका समर्थन करता है, क्योंकि इसके अनुसार रागकी क्लान्त अवस्था ही वैराग्य है। महाकवि देवने भी वैराग्यको रागकी अतिशय प्रतिक्रिया माना है। इनके मतानुसार तीव्र राग ही क्लान्त होकर वैराग्यमे परिणत हो जाता है। अतएव शान्त रसमे मनकी विभिन्न दशाओंका रहना आवश्यक है।
डा० श्री भगवानदासने अपने रस-भीमासा निबन्धमे शान्त रसका रसराजत्व अत्यन्त सुचारु ढंगसे सिद्ध किया है। उनका कथन है कि "इस महारसमें अन्य सव रस देख पड़ते हैं, यह सबका समुच्चय है। श्रेष्ठ और प्रेष्ठ अन्तरात्मा परमात्माका (अपने पर) परमप्रेम, महाकाम, महालंगार, (अकामः सर्वकामो वा.), संसारकी विडम्बनाओंका उपहास, संसारके महातमस् अन्धकारमै भटकते हुए दीन जनोंके लिए करुणा (संसारिणां करुणयाह पुराणगुह्यम् ), पन्न रिपुऑपर क्रोध (क्रोधे क्रोधः कथन ते), इनको परास्त करने, इन्द्रियो. की वासनाओको जीतने, ज्ञान-दानसे दीनजनकी सहायता करनेके लिए उत्साह (युयोध्यस्मन्जुहराणमेन), अन्तरारि परिपु कहीं असावधान पाकर विवश न कर दें इसका भय (नरः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेवते पञ्चभिरेव पञ्च), इन्द्रियोंके विपयोपर और हाट-मांसके शरीरपर जुगुप्सा (मुखं लालाक्लिन्न पिवति चपर्क सासवमिव महो मोहान्धानां किमिव रमणीयं न भवति), और क्रीडात्मक लीला-स्वरूप अगाध, अनन्त जगतका निर्माणविधान करानेवाली परमात्माकी (अपनी ही) शक्तिपर महाविस्मय (स्वमेवैकोऽस्य सर्वस्य विधानस्य स्वयंभुव ..."1)-सभी तो इस रसके मन्तभूत है।"
महाकवि वनारसीदासने शान्त रसका रसराजत्व सिद्ध करते हुए आत्मामे ही नवो रसोकी स्थिति स्वीकार की है। डा० मगवानदासजीने जिस प्रकार अपर शान्तरसको सस्कृत साहित्यके उद्धरणोके साथ रसराज