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रीति-साहित्य
सिद्ध किया है, उसी प्रकार जैन कविने आत्मानुभूति और मौलिक चिन्तन-द्वारा आत्मस्वरूप शान्त रसमे सभी रसोका अन्तर्भाव किया है
गुन विचार सिंगार, वीर उद्यम उदार रुख । करुना समरस रीति, हास हिरदै उछाह सुख । अष्ट करम दल मलन, रुद्र बरतै तिहि थानक । तन विलेच्छ बीमच्छ, दुन्द मुख दसा भयानक । अदभुत अनन्त वल चिन्तवन, सान्त सहज वैराग धुव ।
नवरस विलास परगास तव, सुबोध घट प्रगट हुव ।। अर्थात्-आत्माको ज्ञान गुणसे विभूषित करनेका विचार शृगार, कर्म निर्जराका उद्यम वीररस, सब जीवोको अपने समान समझना करणरस, हृदयमे उत्साह और सुखका अनुभव करना हास्यरस, अष्ट कर्माको नष्ट करना रौद्ररस, शरीरकी अशुचिताका विचार करना वीभत्स रस, जन्म-मरणादिका दुःख चिन्तन करना भयानक रस, आत्माकी अनन्त शक्तिको प्राप्त कर विस्मय करना अद्भुत रस और दृढ वैराग्य धारण परला तथा आत्मानुभवमे लीन होना शान्त रस है।
वैराग्यके साधन तत्त्वज्ञान-प्रासिक गुणस्थानस्प चौदह सोपान बतलाये गये हैं । पर रस विश्लेपणमें चार ही सोपान प्रधान है । सबसे प्रथम जगत्की वास्तविकताका ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है। विभिन्न नामरूपात्मक यह जगत् मानव मनको नाना प्रलोभनो-द्वारा अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है, जिससे अहंकार और ममकारका सयोग होनेने विभिन्न मानसिक विकारोकी उत्पत्ति होती है। जब पड्या -नीच, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालका वास्तविक परिनान होता है और आत्माकी (जीवकी) इन सब द्रव्योसे मिन्नत्व प्रतीति होने लगती है, उस समय प्रथम अवस्था-चतुर्थ गुणस्थान-आत्मानुभूति रप सम्मग्दर्शनकी स्थिति आती है। यह रस अवस्था व्यापक है, इसमें आत्म