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हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन
शोधनकी प्रवृत्ति होती है, विभावसे हटकर स्वभाव रूप प्रवृत्ति होने लगती है । ऐन्द्रियक सुख, उसका राशि राशि सौन्दर्य सभी क्षणिक प्रतीत होने लगते है । मनुष्यका रूप, गौरव, वैभव, शक्ति, अहकार कितने क्षणभगुर है और इनकी क्षणभगुरतामें कितना कारुण्य विद्यमान है । अतः आत्मदर्शनकी उत्पत्ति होना प्रथम अवस्था है ।
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प्रमादका, जिसके कारण सासारिक सुख-दुःख, उत्थान-पतन व्यापते हैं तथा स्वोत्थानकी प्रवृत्तिमे अनुत्साहकी भावना रहती है और आत्मोन्मुखरूप होनेवाला पुरुषार्थ ठढा पड़ जाता है, परिष्कार करना और इसे दूर करनेके लिए कटिबद्ध हो जाना वैराग्यकी द्वितीयावस्था है । तत्त्वचि - न्तन द्वारा ही प्रमादको दूर किया जा सकता है, अतएव आत्मानुभवी अपने पुरुपार्थ- द्वारा शान्तरसकी उपलब्धिके लिए इस द्वितीय अवस्था को प्राप्त करता है । इस अवस्था मे भी नवो रसोंकी अनुभूति होती है।
तृतीय अवस्था उस स्थलपर उत्पन्न होती है, जव कपाय वासनाओ का पूर्ण अभाव हो जाता है। पूर्ण शान्तिमे बाधक कपाये ही हैं, अतएव इनके दूर होते ही आत्मा निर्मल हो जाती है । तत्वज्ञानकी चौथी अवस्था केवलज्ञानके उत्पन्न हो जानेपर पूर्ण आत्मानुभूति होती है। इस अवस्थामें पूर्णगान्तरस छलकने लगता है, आत्मा ही परमात्मा बन जाती है । आनन्दसागर लहराने लगता है ।
महाकवि बनारसीदासने शान्तरसकी इन चारो अवस्थाओका सुन्दर विलेपण किया है । कविने अखण्ड शान्तिको ही सर्वोत्कृष्ट शान्तरस माना है ।
वस्तु विचारत ध्यावते, मन पावै विसराम । रस स्वादत सुख ऊपजें, अनुभव याको नाम ॥
अर्थात् — अखण्ड शान्तिका अनुभव ही सबसे बड़ा सुख है, यही रस
है और इसीके द्वारा मानव अपना अमीष्ट साधन कर सकता है । सर्व