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रीति-साहित्य
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प्राणी समभाव भी इसीसे हो सकता है। अतएव "नवमी सान्त रसनिकौ नायक" मानना युक्ति सगत है ।
रस- सिद्धान्तके निरूपणमं कवि बनारसीदासने जितनी मौलिकता दिखलाई, उतनी अन्य जैन कवियोंने नही । इन्होने स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और सन्चारीभाव इन चारो ही रसाङ्गोका नवीन दृष्टिकोणसे विवेचन किया ।
रस- सिद्धान्तपर सवत् १६७० मे मानशिव कचिने 'भाषा - कवि-रस मञ्जरी' शृङ्गाररस विपयक रचना लिखी है। इसमें रीति कालके अन्य कवियों के समान नायिका भेटपर प्रकाश डाला गया है । यद्यपि विभाव, अनुभावोका विग्लेपण कपाय और वासनाओके अनेक भेद-प्रभेदोके विवेचन द्वारा किया है, परन्तु नवीनता कुछ भी नही है । शृङ्गाररस और नायिका- भेटपर मानक विकी सयोग द्वात्रिशिका ( १७३१ ), उदयचन्दका अनूप रसाल ( १७२८ ) और उदैराजका वैद्यविरहणि प्रबन्ध (१७७२ ) भी उपलब्ध है |
इन जैन साहित्यष्टाने रस-विलेपणमें मूलतः स्थायी भावोंकी स्थिति राग-द्वेष मनोविकार मानी है । क्योकि समस्त मनोवेगोका सीधा सम्बन्ध इन्हीं दोनो भावोसे है । मानवका अहभाव इन्ही दोनोंके रूपमे अभिब्यजित होता है । अतएव रति, हास, उत्साह और विस्मय साधारणतः अहभावके उपकारक होनेके कारण रागके अन्तर्गत और शोक, क्रोध, भय और जुगुप्सा अहभावके उपकारक होने के कारण द्वेपर्क अन्तर्गत आते है । जब राग और द्वेप दोनोंका परिमार्जन हो जाता है, तब वैराग्य - निर्वेदभावकी उत्पत्ति होती है । यह अहंभाव की समरसता की अवस्था है, आत्मा इसमें स्वोन्मुख रूपसे प्रतिभासित होने लगती है । लौकिक दृष्टिसे प्रथम चार भाव मधुर होनेके कारण सुखकी अभिव्यक्ति और दूसरे चार भाव कटु होनेके कारण दुःखकी अभिव्यक्ति करते है । इसप्रकार जैन लेखकों ने भावकी स्थिति राग और द्वेषके अन्तर्गत मान
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