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________________ २३६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन कर रसका विश्लेपण किया है। रससख्या और भाचोकी संख्या रीति'कालके अन्य कवियोके समान ही मानी है। संस्कृत साहित्यके जैन कवियों के समान हिन्दी भाषामे भी जैन कवियोने अलकारपर ग्रन्थ-रचना की है । जिस प्रकार भारतीय साहित्यम अलंकार अलकार परम्पराका भी क्रमिक विकास हुआ है " उसी प्रकार जैन साहित्यमे भी अलंकारोका क्रमिक विकास विद्यमान है । अलकार-चिन्तामणिमे भगवजिनसेनाचार्यने चित्रालकार और यमकालकारके भेद-प्रभेदोकी संख्या पचाससे भी अधिक क्तलाई है। हिन्दीमापामे कुँवर-कुशलका लखपतजयसिन्धु और उत्तमचन्द्रका अलकारआशय मजरी प्रसिद्ध है। इन दोनो ग्रन्थोंमें अलकार और अलंकार्यका भेद स्पष्ट किया गया है। रस (भाव), वस्तु और अलकार तीनोकी पृथक् स्थिति मानी गयी हैं। अलंकार रसका उपकार करता हैतीव्रतर बनाता है तथा वस्तुके चित्रणमे रमणीयता या आकर्पण उत्पन्न करता है । अतएव रस (भाव) और वस्तु दोनों अलकार हैं और अलकार उनके अलकरणका साधन है। रस काव्यकी आत्मा है, पर इसकी वास्तविक स्थिति अलकारके विना बन नहीं सकती । क्योकि भावमे रमणीयता, कोमलता, सूक्ष्मता और तीव्रता साधारण शब्दोके द्वारा नहीं आ सकती है । उक्तिकी चमक्रके द्वारा ही भावमे सौन्दर्य या रमणीयता उत्पन्न होती है। अतएव सुन्दर भावोकी अभिव्यंजनाके लिए सुन्दर उक्तियोंका होना भी आवश्यक है । जैन साहित्यमे ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय साहित्यमे शब्द और अर्थको विल्कुल भिन्न नहीं माना है। अतएव अनुभूति और अभिव्यक्तिमे भी पार्थक्य नहीं है । अतः शब्दोमे रमणीयता उत्पन्न करनेवाला साधन अलकार काव्यकी आत्मा न होकर भी काव्यके रूप-प्रसाधनके लिए अनिवार्य है । जिस प्रकार आत्माको रमणीयताके लिए शरीरका रमणीय होना भी आवश्यक है, उसी प्रकार भावोंकी रमणीयताके लिए शब्दोंका रमणीय
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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