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रीति-साहित्य
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होना भी अनिवार्य है । शब्द और अर्थ दोनो सापेक्ष है, शब्द द्रव्य हैं तो अर्थ भाव; अतः भावके बिना द्रव्यकी स्थिति और द्रव्यके बिना भावकी स्थिति नहीं बन सकती है। दोनो ही परस्परापेक्षित है, एकको सुन्दर बनानेके लिए दूसरेका रमणीय होना आवश्यक है ।
व्यावहारिक धरातलपर अलकारीके द्वारा अपने कथनको कवि या लेखक श्रोता या पाठकके मनमे भीतर तक बैठानेका प्रयत्न करता है, वातको बढा-चढाकर उसके मनका विस्तार करता है, बाह्य वैषम्य आदिका नियोजन कर आश्चर्यकी उद्भावना करता है तथा बातको घुमा-फिराकर वक्रता के साथ कहकर पाठककी जिज्ञासाको उद्दीत करता है । कवि अपनी बुद्धिका चमत्कार दिखलाकर पाठकके मनमे कौतूहल जाग्रत करता है । स्पष्टता, विस्तार, आम्चर्य, निज्ञासा और कौतूहल अलकारो के आधार हैं। साधर्म्य, अतिशय, वैषम्य, औचित्य, वक्रता और चमत्कार अळकारोके मूर्तरूप हैं । उपमा, रूपक, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास आदि साधर्म्य-मूलक; अतिशयोक्ति, उदात्तसार आदि अतिशयमूलक; विरोध, विभावना, असगति, व्याघात आदि वैषम्यमूल्क; यथासख्य, कारणमाळा, स्वभावोक्ति आदि औचित्यमूलक, अप्रस्तुतप्रशसा, व्याजोक्ति आदि वक्रतामूलक एव यमक, ग्लेप आदि चमत्कारमूलक हैं । अतएव निष्कर्ष यह है कि अल्कारोका मूलाधार अतिशय, वक्रता और चमत्कार है । इन्हीं तीनोंके कारणभेदसे अलंकारोंके सहस्रो भेद किये गये है ।
कवि उत्तमचन्दने अभिव्यक्तिको रमणीय बनानेका सबसे प्रचल साधन प्रस्तुतविधानको बतलाया है । प्रस्तुतकी श्रीवृद्धिके लिए अप्रस्तुतका उपयोग । यह अप्रस्तुतविधान प्रधानतः साम्यपर आश्रित रहता है । साम्य तीन प्रकारका होता है-रूपसाम्य, धर्मसाम्य और प्रभावसाम्य | अलंकारोंका प्राण या आधार यही अप्रस्तुतविधान है, इससे विभिन्न रूप और भेदोंका आलम्बन लेकर अलंकारोंकी संख्याका वितान किया