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________________ २३० हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन गया है । भावोंके मानवीयकरणके लिए भी अलकारोका प्रयोग किया जाता है। इन्होंने शब्दालंकार और अलकारोकी संख्या २४३ मानी है । लक्षण और उदाहरण बहुत कम अलंकारोंके दिये है। जैन कवियोने रीति साहित्यके अन्तर्गत छन्दविधानको भी माना है, अतएव छन्द-शास्त्रविषयक रचनाएँ अनेक उपलब्ध है। स्वयभू कविका .. छन्दो ग्रन्थ प्रसिद्ध है ही, इसके अतिरिक्त हेम कविका छन्दशास्त्र * छन्दमालिका (१७०६), चेतन विजयका लघुपिगल (१८४७), ज्ञानसारका मालापिंगल ( १८७६ ), मेघराजका छन्दप्रकाश (१९ वी शती), उदयचन्दका छन्द प्रबन्ध और वृन्दावनका छन्दशतक श्रेष्ठ ग्रन्थ है । इन ग्रन्योम हिन्दी और सस्कृतके सभी प्रधान छन्दोके लक्षण आये हैं। जैन कवियोंने भिन्न-भिन्न स्वाभाविक अभिव्यक्तियोके लिए छन्दोंका आदर्श साँचा तैयार किया है। जितने प्रकारकी अमिव्यक्तियों लयके सामन्जस्य के साथ हो सकती है, उनका विधान छन्दशास्त्रमे किया है। ___ वास्तविक बात यह है कि लयका स्थान जीवनम महत्त्वपूर्ण है। मानवकी हृत्तन्त्रियोके अतिरिक्त नदी, निर्झर, पेड़-पौधे, लता-गुल्म आदिमें सर्वत्र लय पायी जाती है । जीवनका सारतत्त्व लय ही है, इसी कारण उत्कट हर्ष, विपाटके उच्छवासोंमें गुरुत्व और लघुत्वके कारण लयकी लहरे उठती रहती है । मधुर स्वर और लयको सुनकर मानवमात्रकी अन्तररागिनी तन्मय हुए विना नहीं रह सकती है। अतः छन्दविधान इसी लयको नियन्त्रित करता है, यह भापाम रागका प्रभाव, उसकी शक्ति और उसकी गतिके नियमनके साथ अन्तर स्पन्दनको तीव्रतम वनाता है। जिस प्रकार पतग तागेके लघु-गुरु सकेतोके अनुसार ऊँची-ऊंची उड़ती जाती है, उसी प्रकार कविताका राग छन्दके सकेतापर उत्तरोत्तर गतिशील होता है। नादसौन्दर्य और प्रवाहका निर्वाह छन्दम
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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