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हिन्दी-जैन साहित्य परिशीलन नेमिकुमार बचपनसे ही होनहार, धर्मात्मा और पराक्रमगाली थे। इन्हीके वंशज कृष्ण और बलभद्र थे । कृष्णने अपने भुजवल द्वारा कंस, जरासंघ जैसे दुर्दमनीय राजाओका भणभरमे सहार कर दिया था। इनकी सोलह हजार रानियाँ थी, जिनमें आठ रानियॉ पथमहिपीके पटपर प्रतिष्ठित थी । एक समय नेमिकुमारके पराक्रमको सुनकर कृष्णके मनमे ईर्या उत्पन्न हुई तथा इन्होंने उनकी शक्तिकी परीक्षाके लिए उनको अपनी सभाम आमन्त्रित किया । नेमिकुमार यथासमय कृष्णकी सभामं उपस्थित हुए और अपनी कनिष्ठ अंगुलीपर जनीर डालकर कृष्ण आदिको झुला दिया, कृष्णको इनके इस अद्भुत पराक्रमको देखकर महान् आश्चर्य हुआ। फलतः उन्होने अपनी पटरानियोको नेमिस्वामीके पास भेजा । रानियोने चारो ओरसे नेमिकुमारको घेर लिया ओर अधिक अनुरोध करनेपर विवाह करनेकी स्वीकृति प्राप्त कर ली। कृष्णने नेमिकुमारका विवाह शूनागढ़के राजा उग्रसेनकी कन्या राजुलमतीसे निश्चित कराया | वहॉपर इन्होंने अपनी कूटनीतिसे पशुओको पहलेसे कैद करवा दिया । जिससे अगवानीके पश्चात् टीकाको जाते समय पशुओकी चीत्कार नेमिस्वामीको सुनाई दी।
पशुओके इस करुणक्रन्दनको सुनकर नेमिकुमारको ससारकी सारहीनताका अनुभव हुआ और उन्हे विषय-कपायोसे विरक्ति हो गयी। पशुओंको बन्दीगृहसे मुक्तकर नेमिकुमार बरके वस्त्राभूपणोको उतार दिगम्बर दीक्षा ले गिरनार पर्वतपर तपस्या करने चले गये। एक क्षण पहले जो हर्ष और उल्लास दिखलायी पड़ रहा था, विवाहकी मधुर सहनाई बज रही थी; दूसरे ही क्षण यह हपंका वातावरण शोको परिणत हो गया । सहनाई बन्द हो गयी। वरके विना विवाह किये चले जानेसे अन्तःपुरमें रोना-धोना शुरू हो गया। महाराज उग्रसेन चिन्तामन हो गये। राजुलमतीको जब यह समाचार मिला तो वह मूर्छित हो पृथ्वीपर गिर पडी । प्रयत्न करनेपर जब उसे होश आया तो वह विलाप करने लगी।
माता-पिताने राजुलमतीको अन्य वरके साथ विवाह करनेके लिए