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पुरातन काव्य-साहित्य
बहुत जोर दिया, पर उसने कहा- "भारतीय रमणी एकबार जिसे आत्मसमर्पण कर देती है, फिर वही सदाके लिए उसका अपना हो जाता है । भले ही लोगोके दिखावे के लिए विवाहकी रस्म पूरी न हुई हो । स्वामी तप करने चले गये, मैं भी उन्हीके मार्गका अनुसरण करुँगी ।" इतना कहकर राजुल भी तपस्या करने गिरनार पर्वतपर चली गयी ।
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इस काव्यमे शान्तरस, वात्सल्यरस, करुणरस और विप्रलम्भ शृंगारका सुन्दर परिपाक हुआ है। सीमित मर्यादामे स्वस्थ वातावरणको उपस्थित करनेवाला विप्रलम्भशृङ्गार विशेषरूपसे राजुलके विलाप वर्णनमे आया है । करुणरसके वर्णनमें शब्द स्वयं करुणाका मूर्त्तिमान रूप लेकर प्रस्तुत हुए हैं । कविको इस रसर्क परिपाकमे अच्छी सफलता मिली है । मानवकी राग-भावनाओका चित्र प्रस्तुत करनेमे कुशल चित्रकारका कार्य कविने कर दिखलाया है ।
अलंकारोमे अनुप्रास, यमक, उत्प्रेक्षा, रूपक, उपमा और अतिशयोक्तिका समावेश सर्वत्र है । छन्दोंमे दोहा, चौपाई, भुजगप्रयात, नाराच, सोरठा, अडिल, गीता, छप्पय, त्रोटक, पहरी आदि छन्दोंका प्रयोग किया गया है । गणदोष, पटदोष, वाक्यदोष और यतिभग आदिका अभाव पाया जाता है । कोमलकान्तपदावलीयुक्त भाषा अपूर्व विकासको लिये हुए है।
इस काव्यका सन्देश यह है कि प्रत्येक व्यक्तिको जीवनमे जनसेवाको अपनाना चाहिए | इसके लिए परिश्रमी, अध्यवसायी, कर्मठ, चारित्रवान्, आत्मशोधी, उदार और परोपकारी बनना आवश्यक है । निष्क्रिय और अकर्मण्य व्यक्ति ससारमे कुछ भी नहीं कर पाता है । हिसासे हिसाकी आग नहीं बुझाई जा सकती है, घृणासे घृणाका अन्त नही हो सकता है । प्रेम, क्षमा, अहिंसा, सहानुभूति और आत्मसमर्पण-द्वारा ही शान्तिकी स्थापना की जा सकती है।
कविने इसमें नेमिकुमारके उस जीवन-अंशको दिखलाया है, जिसका