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भास्मकथा-काव्य
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छिपता नहीं, अतः इनके बडे बहनोई उत्तमचन्द जौहरीने सारी घटनाएँ जौनपुर इनके पिताके पास लिख भेजी । खद्गसेन इस समाचारको पाकर किंकर्तव्य विमूढ हो गये और पत्नीको बुरा-भला कहने लगे।
जब बनारसीदासके पास कुछ न बचा तो गृहस्थीकी चीजोको वेचबेचकर खाने लगे । समय काटनेके लिए मृगावती और मधुमालती नामक पुस्तकाको बैठे पढ़ा करते थे । दो-चार रसिक श्रोता भी आकर सुनते थे। एक कचौडीवाल्य भी इन श्रोताओंमे था, जिसके यहाँसे कई महीनो तक दोनो भाम उधार लेकर कचौड़ियों खाते रहे । फिर एक दिन एकान्तमें इन्होंने उससे कहा
तुम उधार कीनी बहुत, अब आगे जनि बेहु ।
मेरे पास कछु नहीं, दाम कहाँसौं लेहु ॥ कचौडीवाला सजन था, उसने उत्तर दिया
कतै कचौढीवाला नर, बीस सवैया खाहु ।
तुमसौं कोउ न कछु कहै, जहँ भावै तह जाहु॥ कवि निश्चिन्त होकर छ-सात महीने तक दोनो माम भरपेट कचौडिया खाता रहा, और जब पासमें पैसे हुए तो चौदह रुपये देकर हिसाव साफ कर दिया। कुछ समयके पश्चात् कवि अपनी ससुराल खैराबाद पहुंचा। एकान्तमे भार्यासे समागम हुआ पतिव्रता चतुर मायांने पतिकी आन्तरिक वेदनाको जात कर अपने अर्जित वीस रुपयोकों भेट किया और हाथ जोड़कर कहा-"नाथ ! चिन्ता न करे, आप जीवित रहेगे तो बहुत धन हो जायगा।" इसके पश्चात् एकान्तमें उसने अपनी मातासे कहामाता काहू सौ निनि कही। निज पुत्रीकी सजा बहौ। थोरे दिन में लेहु सुधि, तो तुम मा मैं धीय । नाहीं तौ दिन कैकुमै, निकसि जाइगौ पीय ॥ .