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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन तेजीसे वह रहे थे, जिससे खुले मैदानमें रहना, अत्यन्त कठिन था। गाड़ियाँ जहॉकी तहाँ छोड़ सार्थी इधर-उधर भागने लगे | शहरमे भी कहीं शरण नहीं मिली। सरायमे एक उमराव ठहरे हुए थे, अतः स्थान रिक्त न होनेसे वहाँसे भी उल्टे पॉव लौटना पड़ा। कविने इस परिस्थितिका यथार्थ चित्रण करते हुए लिखा है
फिरत फिरत फावा भये, बैठन कहे न कोय । तले कीचसों पग भरें, ऊपर बरसत तोय ॥ अंधकार रजनी वि, हिमरितु अगहनमास ।
नारि एक पैठन कहो, पुरुप उठा लै बाँस ॥ किसी प्रकार चौकीदारोंकी झोपड़ीमें शरण मिली और कष्टपूर्वक वहीं रात बिताई । प्रातःकाल गाड़ियाँ लेकर आगरेको चले, आगरा पहुँचकर मोती कटरेमें एक मकान लेकर उसमे सारा सामान रखकर रहने लगे । व्यापारसे अनभिज्ञ होनेके कारण कविको घी, तेल और कपड़ेमें घाटा ही रहा । इस विक्रीके रुपयोंको हुण्डी-द्वारा जौनपुर भेज दिया। जवाहरात भी जिस किसीके हाथ वेचते रहे, जिससे पूरा मूल्य नहीं मिला | इनहारबन्दके नारेमे कुछ छूटा जवाहरात वॉध लिया था, वह न मालूम कहाँ खिसककर गिर गया । माल बहुत था, इससे हानि अत्यधिक हुई, पर किसीसे कुछ कहा नहीं, आपत्तियाँ अकेले नहीं आती, इस कहावतके अनुसार डेरेमे रखे कपड़ेमे बंधे हुए जवाहिरातोको चूहे कपड़े समेत न मालूम कहॉ ले गये । दो जड़ाऊ पहुँची किसी सेठको बेची थी, दूसरे दिन उसका दिवाला निकल गया । एक जड़ाऊ मुद्रिका थी, वह सड़कपर गोठ लगाते हुए नीचे गिर पड़ी। इस प्रकार धन नष्ट हो जानेसे वनारसीदासके हृदयको बहुत बड़ा धक्का लगा, जिससे सन्ध्या समय जोरसे ज्वर चढ आया और दस लघनोंके पश्चात् पथ्य दिया गया। इसी बीच पिताके कई पत्र आये, पर इन्होंने लजावश उत्तर नही दिया। सत्य छिपाये