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________________ २१३ सदाशिवका बहुत दिन तक पूजन करनेके उपरान्त एक दिन कवि एकान्तमे बैठा-बैठा सोचने लगा जब मैं गिरयो परयो सुरक्षाय । तब शिव कछु नहिं करी सहाय ॥ इस विकट शकाका समाधान उसके मनमे न हो सका और उसने सदाशिवकी पूजा करना छोड़ दिया। कुछ दिनोंके पश्चात् एक दिन कवि सन्ध्या समय गोमतीकी ओर पर्यटन करने गया और प्राकृतिक रमणीय दृश्यने कविके अन्तस्तलको आलोडित किया, फलतः कविको विरक्ति हुई और उसने अपनी श्रृंगार रसकी रचना नवरसको उसमे प्रवाहित कर दिया तथा स्वय पापकर्मोंको छोड़ सम्यक्त्वकी ओर आकृष्ट हुआ--- आत्मकथा-काव्य तिस दिन सों बानारसी, करी धर्म की चाह । तजी आसिखी फासिखी, पकरी कुल की राह ॥ X x x उदय होत शुभ कर्म के, भई अशुभकी हानि । तार्ते तुरत बनारसी, गही धर्म की बानि ॥ संवत् १६६७ में एक दिन पिताने पुत्रसे कहा - " वत्स ! अब तुम सयाने हो गये, अतः घरका सब काम-काज सभालो और हमको धर्म- ध्यान करने दो ।" पिताके इच्छानुसार कवि घरका कामकाज करने लगा । कुछ दिन उपरान्त दो होरेकी अंगूठी, चौबीस माणिक, चौतीस मणि, नौ नीलम, वीस पन्ना, चार गॉठ फुटकर चुन्नी इस प्रकार जवाहरात बीस मन घी, दो कुप्पे तेल, दो सौ रुपयेका कपड़ा और कुछ नकद रुपये लेकर आगराको व्यापार करने चला । प्रतिदिन पाँच कोसके हिसाब से चलकर गाड़ियाँ इटावाके निकट आई, वहाँ मजिल पूरी हो जाने से एक बीहड़ स्थानपर डेरा डाला | थोडे समय विश्राम कर पाये थे कि मूसलाधार पानी बरसने लगा। तूफान और पानी इतनी
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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