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________________ हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन कुछ दिनोंके उपरान्त एक योगीने आकर अपना दूसरा रंग जमाया। भोले कविको इस रगम रॅगते विलम्ब न हुआ और योगी द्वारा प्रदत्त खरूप सदाशिवकी मूर्तिकी छुपकर पूजा करने लगा । योगी तो अपनी भेंट लेकर चला गया, पर कवि शख बजा-बजाकर सदाशिव के अर्चनमे अनुरक्त रहने लगा । यहाँ यह स्मरणीय है कि यह पूजा वह अपने परिवारसे छिपकर करता था, उसकी इस प्रवृत्ति के सम्बन्धमे किसीको कुछ भी पता नहीं था । संवत् १६६१ मे जब इनके पिता खड्गसेन हीरानन्दजी द्वारा चलाये गये शिखरजी यात्रा सघमे यात्रार्थं चले गये तो इन्होंने कुछ दिनोतक चैनकी वशी बजानेके पश्चात् भगवान् पार्श्वनाथकी यात्रा करनेकी आज्ञा अपनी मॉसे माँगी। आज्ञा न मिल्नेपर कवि चुपचाप वनारस के भगवान् पार्श्वनाथकी पूजा करनेके लिए चल दिया । वहाँ पहुँचकर गंगास्नानपूर्वक दस दिनो तक भगवान् पार्श्वनाथकी पूजा करता रहा ; किन्तु इस समय भी सदाशिवकी पूजा ज्योंकी त्यो होती रही । कविने आत्मकथामं सदाशिव पूजनको उत्प्रेक्षा और आक्षेपा कारमै निम्न प्रकार कहा है २१२ शंखरूप शिव देव, महाशंख बनारसी । दोऊ मिले अबेव साहिब सेवक एकसे ॥ सवत् १६६२ में कार्त्तिक मासमें अकबरकी मृत्यु हो जानेपर नगर में किस प्रकारकी व्याकुलता छा गई, कविने आत्मकथामे सजीव चित्रण किया है C घर घर दर दर दिये कपाट, हटवानी नहिं बैठे हाट । वाई गादी कहुँ और नकदमाल निरभरमी ठौर ॥ भले वस्त्र अरु भूपन भले, ते सव गाढ़े धरती तले । वर घर सबनि बिसाहे शस्त्र, लोगन पहिरे मोटे वख ॥ गादो कंबल अथवा खेस, नारिन पहिरे मोटे बेस । ऊँच नीच कोठ न पहिचान, धनी दरिद्री भये समान ॥
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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