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आत्मकथा काव्य
चिस्फोटक अगनित भये, हस्त चरण चौरंग । कोक नर साले ससुर, भोजन करहिं न संग ॥ ऐसी अशुभ दशा भई, निकट न आवै कोइ । सासू और विवाहिता, करहिं सेव तिय दोह ॥
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स्वस्थ होकर कवि पत्नीको बिना ही लिवाये घर आया और पूर्ववत् पढ़ना-लिखना तथा इकवाजी करना आरम्भ कर दिया। चार महीने के के पश्चात् कवि पुनः भार्याको दिवाने गया और विदा कराकर घर रहने लगा | अतः गुरुजन उपदेश देने लगे---
गुरुजन लोग देहिं उपदेश । आसिखवाज सुने दरवेश || बहुत पढे वामन और भाट । वनिक पुत्र तो बैठे हाट ॥ बहुत पढ़ें खो माँगे भीख । मानहु पूत बड़ोकी सीख ॥
सवत् १६६० में कविने अध्ययन समाप्त किया तथा कविकी बहन का विवाह भी इसी सवत्मे हुआ और कविको एक पुत्रीकी प्राप्ति भी इसी संवत्में हुई । सवत्, १६६१ मे एक धूर्त संन्यासी आया और उसने वढे आदमीका पुत्र समझकर इनको अपने जालमे फॅसा लिया । संन्यासीने कहा - "मेरे पास ऐसा मन्त्र है कि यदि कोई एक वर्ष तक नियमपूर्वक नपे तथा इस भेदको किसीसे न कहे तो एक वर्ष बीतनेपर मन्त्र सिद्ध हो जाता है, जिससे घरके द्वारपर एक स्वर्णमुद्रा प्रतिदिन पड़ी मिला करेगी ।" इकवाजीके लिए धनकी आवश्यकता रहनेके कारण लोभवश कविने मन्त्रकी साधना आरम्भ की । मन्त्र जपते-जपते बड़ी कठिनाईसे समय बिताया और प्रातःकाल ही स्नान-ध्यान करके बड़ी उत्कंठासे कवि घरके दरवाजे पर आया और स्वर्णमुद्राका अन्वेषण करने लगा, पर वहाँ सोनेकी तो बात ही क्या, मिट्टीकी भी मुद्रा न मिली । आशावश कविने यह समझकर कि कही दिन गिननेमे तो गल्ती न हो गई है अतः उसने कुछ दिनों तक पुनः मन्त्रका जप किया पर कुछ मिला-जुला नही ।