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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन कविके ऊपर माता-पिता और दादीका अतिशय स्नेह था । अतः यौवनारम्भमें यह इश्कबाज हो गये । कवि लिखता है
तनि कुलकान लोककी लाज । भयो बनारसि आसिखवाज ॥ करै आसिखी धरित न धीर । दरदवन्द ज्यों शेख फकीर । इकटक देख ध्यानसी धरै। पिता आपुनेको धन हरै ॥
कविका कार्य इस अवस्थामे पढना और इश्कबाजी करना था। इन्होने चौदह वर्षकी आयुमे एक सुन्दर 'नवरस' नामक रचना भी एक सहल प्रमाण दोहे-चौपाईमे लिखी थी । बोध जाग्रत होनेपर कविने इस ग्रन्थको गोमतीमें प्रवाहित कर दिया।
कवह आइ शब्द उर धरै । कवह जाइ आसिखी करै। पोथी एक बनाई नई । मित हजार दोहा चौपई ॥ तामें नवरस रचना लिखी। है विशेष परनन मासिखी॥ ऐसे कवि बनारसि भये। मिथ्याग्रन्थ बनाये नये ॥
कैपढ़ना के आसिखी, भगन दुई रस माहि ।
खानपानकी सुधि नहीं, रोजगार कछु नाहिं ॥ १५ वर्ष १० महीनेकी अवस्थामे कवि सजधजकर अपनी ससुराल खैराबादसे द्विरागमन कराने गया। ससुरालमे एक माह रहनेके उपरान्त कविको पूर्वोपार्जित अशुभोदयके कारण कुष्ठ रोग हो गया, विवाहिता भायां और सासुके अतिरिक्त सवने साथ छोड़ दिया। कविने इस अवस्थाका निरूपण करते हुए बताया है कि खैराबादके एक नाईने, जो कुष्ठ रोगका वैद्य था, दो महीने अनवरत श्रम और चिकित्साकर उन्हे अच्छा किया ।
भयो बनारसिदास तन, कुष्ठरूप सरवंग। , हाड़ हाद उपजी व्यथा, केश रोम ध्रुवभंग ॥