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दो शब्द जैन साहित्य विशाल है। इस साहित्यका विपुल माग अपभ्रश और हिन्दी भाषामें लिखा गया है। अपभ्रंश भाषा हिन्दीकी जननी है। हिन्दीका विकास और विस्तार अपभ्रंशसे ही हुआ है। शैली एवं आकृतिगठनमें हिन्दी अपभ्रंश भाषाकी ऋणी है। हिन्दीमे महाकाव्यों का प्रणयन संस्कृत साहित्यके महाकायोंके आधारपर नहीं हुआ है, बल्कि अपभ्रश भाषाके महाकाव्योंके आधारपर हुआ है। रामचरितमानस और पद्मावत जैसे प्रसिद्ध काव्यग्रन्योकी शैली अपभ्र शकी है। देशीमापामें मी जैन कवियोंने अनेक काव्यग्रन्थोका निर्माण किया है। इस भाषामे भी अनेक महाकाव्य, खण्डकाव्य और गीतिकाव्य लिखे गये है। अतः प्रत्येक निष्पक्ष जिज्ञासुके हृदयमें इतने विशाल साहित्यके जाननेकी इच्छा बराबर हुआ करती है।
साहित्यरत्नके विद्यार्थियोंको अध्यापन कराते समय मुझे अनेक आलोचनात्मक प्रोंको देखनेका अवसर मिला। श्री डॉ० रामकुमार वर्मा, आचार्य शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे प्रसिद्ध इतिहासकार और आलोचकोंने जैन साहित्यके विवेचन के समय केवल अपभ्रश भाषामें निबद्ध साहित्यपर ही विचार किया है तथा यह विचार भी उपलब्ध अपभ्रंश साहित्यको देखते हुए अपर्यास ही है। हिन्दी जैन साहित्यके अमूल्य रत्नोंके अवलोकनका समय या अवसर हिन्दीके हमारे मान्य आलोचकोंको मिला ही नहीं, इसके कई कारण हैं- सबसे प्रबक एक कारण तो यह है कि हिन्दी जैन साहित्य अभी सर्वसाधारणके लिए उपलब्ध नहीं है। अधिकाश उच्चकोटिके अन्य अभी भी अप्रकाशित है। जो प्रकाशित भी है, वे भी समीको उपलब्ध नहीं तथा उनकी छपाई-सफाई आदि बहुत प्राचीन एवं निम्नस्तरकी है, जिससे एक सुरुचि सम्पन्न पाठकको ऐसी पुस्तकें छूनेका भी साहस नहीं होता। अतः अधिकाश आलोचक जैन साहित्यके सम्बन्धमे यही लिखकर छोड़ देते हैं कि इस साहित्यका भाषाकी दृष्टि से महत्व है, विचारोकी दृष्टि से नहीं ।