________________
पदाका तुलनात्मक विवेचन देव, हनुन, मुनि, नाग. मनुज सव, माया विवस विचारे । तिनके हाथ 'दास तुल्सी' प्रभु, कहा अपनपी हारे ॥३॥ पवि दौलतराम भी इसी आगयका विग्लेपण करते हुए कहते हैं
जाऊँ कहाँ तज शरन विहारे। चूक अनादितनी या हमरी, माफ करो करुणा गुनधारे ॥ १॥ इवत ही भवमागरम भव, तुम विन को मुह पार निकारो॥२॥ तुम मम देव अवर नहि कोई, तातें हम यह हाथ पसारे ॥ ३ ॥ मोसम अधम अनेक उधारे, बरनत हैं श्रुत शास्त्र अपारे ॥ ४ ॥ 'दौलत' को भवपार करो अब, आया है शरनागत थारे ॥५॥
कवि नुल्सीदासकं पोंमें मनका विटलेपण, जगत्की क्षणभरता एक आत्मगोधन और हरिस्मरणकी आवश्यकताका प्रतिपादन जैन-पदरचयिताओके समान ही किया है । कवि कहता है
मैं हरि, पतित-पावन सुने। मैं पतित नुम पतितपावन, दोउ बानक बने। कवि बुधजनने मी इसी आगयक अनेक पद रचे है
पतित-उधारक दीनदयानिधि, सुन्यौ तोहि टपगारो। मेरे आगुनपै नति जावो, अपनो सुजस विचारो॥
पतित उधारक पतित रटत है, सुनिये अरज हमारी।
तुमसो देव न आन जगत में, जासौं करिये पुकारी ॥ इसी प्रकार कवि तुलसीदासक पद जैन पदोके साथ भाव, भाषा और गैलीकी दृष्टि से साम्य रखते हैं ।
प्राचीन कवियों के अतिरिक्त आधुनिक छायावादी और रहत्यवादी कवियोंके आध्यात्मिक गीत भी जैनपदोसे अनेक अगोंमे अनुप्राणित हैं।.