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१२२ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन आनन्दानुभूलिका अनुभव करते है। कवि तुलसीदासने अपने पदो और भजनोमे भक्तिके सभी साधन-मजन (नाम-स्मरण ), शरणागत भाव, चरित्रश्रवण-मनन-कीर्तन, शान्त स्वभावकी प्राप्तिका यन, आराध्यक स्वल्पका ध्यान, मन और गरीरके सयम-द्वारा सा व्यकी प्राप्ति, आराध्यसे सम्बद्ध गगा, चित्रकूट आदि तीर्थाका वन्दन-स्मरण एव सत्संग, साधुसेवा, शिवभक्ति, हनुमद्भक्ति आदिका निरूपण किया है।
दास्यभावकी भक्ति न होनेपर भी जैन-पढ-रचयिताओने तुलसीदासके समान ही अपने पद और भजनाम भक्त्यङ्गोको स्थान दिया है। आत्मशुद्धिके लिए भी रागात्मिका भक्तिको लाभदायक बतलाया है। जैनकवियोंके द्वारा रचित पद-साहित्य अन्तःकरणमें रस उत्पन्न कर मनको सब ओरसे हटाकर उसीम लीन करता है। इनके पट भाव, मापा, शैली
और रसकी दृष्टिसे कवीर, सर, तुलसी आदि हिन्दीके कवियोसे किसी भी बातमें हीन नही है । तुल्सीने अपनी विनयपत्रिका गणेशजीकी स्तुतिसे आरम्भ की है। जैनकवि वृन्दावन भी अपने आराय्य ऋषभनाथकी वन्दनासे ही कार्यारम्भ करनेकी ओर सकेत करता है। ___ कवि तुलसीदासने भगवान्से प्रार्थना की है कि हे प्रभो, आपके चरणों को छोड और कहाँ जाऊँ ? ससारम पतितपावन नाम किसका है ? जो दीनोपर निष्काम प्रेम करता है वही सच्चा आराध्य हो सकता है । कविने अनेक उदाहरणो द्वारा भगवान्की सर्व-शक्तिमत्ताका विवेचन किया है। उसने देव, दैत्य, नाग, मुनि आदिको मायाके आधीन पाया, अतएव वह सर्वव्यापक आरायके महत्त्वको बतलाता हुआ कहता है
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे। काको नाम पतितपावन जग, केहि अति दीन पियारे ॥ 900 कौन देव वराइ विरद-हित, हम्हिठि अधम उधारे । खग, मृग, व्याध पखान विटप जड, नवन-कवन सुरतारे ॥२॥